Sunday, October 23, 2011

लक्ष्मी बड़ी ढीठ....

लक्ष्मी एक नौजवान ढीठ लड़की है। हाल ही में मेरे मोहल्ले में आई है। बला की सुंदर है और बेहद चंचल है। कम कपड़ों में दिखती है। उसकी आधी जांघों तक नंगी टांगे शायद अर्थशास्त्र के नियमों का पालन करती आंकड़ों की तरह चमकती हैं। खुली बांहें कुछ हद तक महंगाई के ग्राफ की मोटी वाली लाइन से मिलती-जुलती। गले के विस्तारित क्षेत्र का भराव आतंकवादियों के आकर्षण का आसान निशाना, तिस पर ‘फेयर एण्ड लवली’ वाला जगमगाता चेहरा, युवाओं ही नहीं अस्सी साल के बेदम जवानों को भी भ्रष्ट आचरण के लिए उकसाते लगते। उसकी दप-दप करतीं एक जोड़ा आंखें सूर्योदय पूर्व किये गये स्वामी जी के योगा की चमक से भरी-पुरी दिखतीं। घने काले बालों का लहराना कुछ-कुछ काले धन का हल्ला। जब भी वह सामने वाली अव्यवस्थित क्रांतिकारी भीड़ से धधकती सड़क पर अपनी इएमआई (आसान किश्तों) से खरीदी गई रंगीन स्कूटी से फर्राटा भरते गुजरती तो सैकड़ों उल्लुओं का जेहाद फड़फड़ाने लगता। लक्ष्मी इस सबसे बेपरवाह अपने ‘उत्सव’ से मिलने के बेताब, अपनी ‘पूजा’ के लिए बेचैन, अपनी ‘भव्यता’ के लिए बेसब्र यूं गुजर जाती जैसे शेयर बाजार से सोने-चांदी का भाव। करोड़ों बर्बाद कोई फिकर नहीं। इच्छाओं, अपेक्षाओं और आजीविका से जूझता आदमी इएमआई (किश्तों) पर खुशहाली तलाशते उसका पीछा करने को मजबूर।
शायद सांस्कृतिक मजबूरी ही है कि दीपावली पर्व पर दीपक जलाना है। लक्ष्मी-गणेश की पूजा करनी है। किश्तों पर नई कार खरीदनी है। नये जेवर खरीदने है। नये बर्तन खरीदने और तो और किश्तों पर ही जीवन की सुरक्षा (एलआईसी पाॅलसी) खरीदनी है। पटाखे भी फोड़ने हैं। जुआ भी खेलना है। शुभ मुहूर्त पर शेयर बाजार में निवेश भी करना है। गो कि शहरी जीवन का दर्शनीय भूगोल इसी आर्थिक पंचांग की बदौलत जगर-मगर कर रहा है। चुनाचे उत्सव का अनुग्रह और ईश्वर को धन्यवाद स्वामी और अन्ना के सत्याग्रह की टोली में समा जाता है। पोथियां बताती हैं, पुरखे बताते हैं, दीपावली भगवान राम, राजा राम, मर्यादा पुरूषोत्तम राम के लंका विजय के बाद पुष्पक विमान से पत्नी सीता व छोटे भाई लक्ष्मण सहित अयोध्या वापसी पर दीपमाला जलाने का पर्व है। राम के अभिनंदन का पर्व है। भगवान महावीर और तथागत बुद्ध की स्मृति का पर्व है। अज्ञानता के आंगन में ज्ञान का दीपक जलाने का पर्व है। कबीर की सुने तो ‘सुन्न महल में दिबरा बार लें। यानी रोशनी पर विश्वास का पर्व है, दीपावली। यही विश्वास किसी महाजन की तिजोरी में कैद है?या देश की व्यवस्था ने उसका अपहरण कर लिया है?या फिर हम ही उसे आजादी की उद्दंडता के खूंटे से बांध आये हैं?नहीं तो क्या वजह है कि निरोध और विरोध के हिमायती भ्रष्टाचार के रथ दौड़ाने में लगे हैं और माटी का दीया उसकी हवा के झोंके से बुझने-बुझने को हो रहा हैं?
    गांधी की ‘जीराक्स काॅपी’ के अनशन और गलियारों में किये गये सर्वे में मिला विश्वास?या फिर भारत के नक्शे को दीवार पर चिपका कर तिरंगा लहराते हुए वंदेमातरम् के नारे ने पैदा किया नया विश्वास?असलियत यह है कि पाखण्डी परम्पराएं इएमआई में अपनी दीवाली मनाने का भ्रम जरूर पाले हैं, मगर 32 रूपए में पेट का दोजख भरने वाले किस भ्रम में पर्व की ओर देखें?इससे भी गयी गुजरी 26 रूपए वाली जमात जिसकी मैली-कुचैली हथेली तक भारत सरकार की टकसाल में ढले सिक्के कभी नहीं पहुंच पाते वे मिट्टी के दीये में तेल कैसे डालें?सच यह है कि गांव-गिरांव में आज भी अनाज के बदले साबुन, तेल, बीड़ी, तमाखू, खरीदने की सामंती व्यवस्था लागू है, जो ग्रामीणों, गरीबों और आदिवासियों को गुलाम साबित करने में लगी है। इसके सुबूत में सैकड़ों घटनाओं का जिक्र किया जा सकता है।
    इस सबको नजर अंदाज करके वोटों की राजनीति के दौड़ते रथ जनभावनाओं को चोटहिल करने में और लोकतंत्र की सच्ची भावनाओं को घायल करने में लगे हैं। इन मध्ययुगीन रथों के बीच से लक्ष्मी की स्कूटी का फर्राटे भरते निकल जाना सभ्य समाज की किस मर्यादा का पालन माना जाए?और दीपावली में मिट्टी के दीपक जलाने के लिए किस महाजन से ऋण लिया जाए?या फिर दादी, अम्मा के मिथकों, कहावतों को प्रणाम करके दीवाली में लक्ष्मी-गणेश पर फूल, अक्षत चढ़ा कर उनके न खा सकने वाले मुंह पर मिठाई चुपड़कर दीये जला दें? पटाखे फोड़कर विधर्मी पड़ोसियों की नींद हराम कर दें?क्या करें, कोई बताएगा?
    सवाल बहुत हो गये। लक्ष्मी-गणेश को पूजने के लिए लोकतांत्रिक राजनीति के नाबदान पर एक दीया आर्थिक आजादी के लिए संघर्ष का जलाएंगे और संकल्प लेंगे, अखण्ड भारत के वाशिन्दों की खुशहाली का, हर हाथ में फोन की जगह रोटी पहुंचाने का और माता सरस्वती को प्रणाम करने का यानी मैं सुधरूंगा, जग सुधरेगा।

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