Sunday, October 23, 2011

सरक गई खटिया...

लखनऊ। सरकाय ल्यौ खटिया... गाना जहां गुदगुदी पैदा करता है, वहीं खटिया पर आराम से पसर जाने की याद भी दिलाता है। आज घरों में चारपाई या खटिया की जगह डबलबेड, फोल्डिंग बेड ने ले ली है। आदमी के रहन-सहन में बदलाव के चलते बांस की चरपाई को शहरी घरों से लगभग निकाल दिया गया है। चारपाई नारियल की रस्सियों या बांद्द से बुनी जाती थी। इसे कपड़े की चैड़ी पट्टियों (निवाड़) से भी बुना जाता था। बुनी हुई बड़ी-बड़ी चारपाईयां घर की आरामगाह से लेकर आंगन, छत, बैठक व दरवाजे की शोभा होती। शादी-ब्याह में इन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। चारपाई उर्दू शब्द है। कहते हैं 1845 में चारपाई का चलन शहरों में सामने आया। दस अंगुलियों के जादू का कमाल चारपाई कैसे कहलाया पर कई किस्से हैं, लेकिन चैपाये से इसे जोड़कर देखा जाता है। चारपाई का चलन मुस्लिम शासकों की आमद के बाद अधिक बढ़ा। चार बांसों को जोड़कर उन्हें पायों के सहारे खड़ाकर रस्सी से बीनकर तैयार करते थे चारपाई। इसे आम बोलचाल में खटिया कहा जाता है। कीमत में कम और उठाने रखने में आसान होने के चलते खटिया हर घर की जरूरत थी। आज शहरी क्षेत्र के घरों में खटिया तलाशने से नहीं मिलेगी। खटिया केवल ‘जनाजा’ ले जाने के काम में लाए जाने के लिए ही इस्तेमाल होते देखी जा सकती है। चंद समय पहले गलियों में आवाजें आती थीं, ‘चारपाई बिनवाय ल्यौ’ या ‘चारपाई बिना इ...इ....ई वाला। अब चारपाई बीनने वाले शायद ही मिलें। हां लोहे के फोल्डिंग बीनने वालांे की कमी नहीं। नायलान की पट्टी (निवाड़) से महज आधे घंटे में एक फोल्डिंग बेड पंेच के सहारे कसकर तैयार कर दिये जाते है। इनका इस्तेमाल आमतौर पर घर की छतों पर होता है। बाजार में आज सौ तरह के बेड या चारपाई बेचे जा रहे हैं। बेंत से भी इन्हें बनाया जा रहा है। आधुनिक घरों के हिसाब से इनकी खरीदी होती है।
    ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी चारपाई का चलन है। चारपाई की बिटिया भी लोगों की दुलारी होती थी, जिसे मचिया कहते थे। छोटे स्टूल के आकार की चार पावों व छोटे बांसों से बनी और रस्सियों या बांध से बुनी होती थी। इस पर बैठकर बड़े बूढ़े-बूढि़यां तमाम अहम मसले तय करते थे। घर भर में मचिया कहीं भी डाल ली जाती थी। इसे बैठक या चैपाल में भी खास जगह हासिल होती थी। यह भले ही सिंहासन नहीं कहलाई लेकिन सम्मानजनक आसन रही। यही हाल ‘बाध’ से बीने मोढ़ों का भी रहा है। कुछ समय पहले इन्हें प्लास्टिक की पतली ‘केन’ से बीनकर बेचा जाता था। अब तो सीधे प्लास्टिक के मोढ़े मशीन से बनकर आते हैं।

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