सूबे की समूची राजनीति चुनावी मिशन-2012 की कवायद में व्यस्त है। सत्तादल पत्थरों की सजावट और पार्कों को खूबसूरत बनाने के कार्मों से फुर्सत लेकर अपने दल में घुस आये अपराधियों को निकाल बाहर करने, अफसरों को मनमाफिक कुर्सियों पर बैठाने के साथ चिट्ठी-पत्री लिखने और उप्र भर में घूम-घूमकर मतदाताओं को रिझाने में लगा है। विपक्ष खासा जोश में है। समाजवादी पार्टी का क्रांतिरथ अपने युवा प्रदेश अध्यक्ष को लेकर समूचे प्रदेश में अपने आक्रमक तेवरों के साथ दौड़ रहा है। भारतीय जनता पार्टी की कलह की तमाम खबरों के बाद भी चुनावी रथ उप्र के शहर-कस्बों में अपने मतदाताओं के बीच पहुंच रहा है। कांग्रेस के युवा महासचिव और नई पीढ़ी के चहेते राहुल गांधी बगैर किसी रथ के पूरी तरह सक्रिय हैं। और इस चुनावी समर में उतरने वाले उम्मीदवार अपने सपनों, अपनी अकांक्षाओं के इस पड़ाव पर अपने सत्कर्मों की थाती लेकर गांव-गलियारे-शहर से लेकर पार्टी दफ्तर तक दौड़ लगा रहे हैं। कुछ के सपने उपलब्धियों के नये आकाश छूने के हैं, तो कुछ इस हौसले के साथ मैदान में उतरना चाह रहे हैं कि उन्हें अपनी पिछली निराशाओं को धोना है। वहीं तमामों की निराशा के द्रोहीरथ बगावत की रास थामे दौड़ने को बेताब है। लेकिन चुनाव-2012 महज हार-जीत या आशा-निराशा बांटने वाली कचेहरी भर नहीं है, बल्कि सत्तादल से परेशान, हलकान आदमी की उम्मीदों, आवश्यकताओं पर खरा उतरने वाली सरकार को चुनने का आम यज्ञ है।
चुनावी यज्ञ में दौड़ते रथों-सारथियों के उत्साह पथ पर अपने तेज -तर्रार संवाददाताओं की टीम को भी सूब के मतदाओं का रूझान जानने समझने का जिम्मा सौंपा। संवाददाताओं ने शहरी-ग्रामीण, लैंगिक, आयु या राजनीति के पूर्वाग्रहों से अलग सीधी और साफ-साफ बात करने की कोशिश हर आयु, जाति-वर्ग वाले मतदाता से की और जो नतीजे निकलकर सामने आये हैं, उनकी माने तो सत्तारूढ़ बसपा का एनेक्सी से बाहर का रास्ता देखना निश्चित है। इसके पीछे मुख्यमंत्री की कार्यशैली के साथ कथनी और करनी का अंतर मुख्यरूप से उभरकर सामने आया है। पत्थरों, मूर्तियों, पार्कों से प्रेम के अलावा केन्द्र सरकार को समर्थन के साथ उससे टकराव का दिखावा, अपराधियों को संरक्षण और चुनावों की आमद पर उनसे रिश्ते तोड़ना, विपक्ष के भ्रष्टाचार के आरोपों के अलावा संगठन में बाहर से आये लोगों का पलायन भी बड़ी वजहें है। सरकारी कर्मचारी खफा हैं, अंदरखाने नौकरशाह मौके का फायदा उठाने की फिराक में है। इसके सुबूत समीक्षा बैठकों में वरिष्ठ अधिकािरयों के बदले सुरों का ऊंचा होते जाने में देखे जा सकते हैं, शिक्षक, पुलिस की नाराजगी, मुसलमानों-सवर्णों का गठजोड़, ब्राह्मणों का मोहभंग और पिछड़ों में सपा के द्वारा चलाया जा रहा अभियान सत्तादल को उप्र के सिंहासन से नीचे उतारने में बड़ी भूमिका निबाहेगा। नाराजगी की और भी कई वजहें सामने हैं, उनमें वफादारों से गैरकानूनी काम कराने और उसका पूरा फायदा उठाने के बाद उन्हें दूध में मक्खी की तरह निकाल बाहर करना भी एक बड़ा कारण है। जातिगत वोटों में भी सेंध लगने के आसार साफ दिखाई दे रहे हैं। रूझानों में महिलाओं, दलितों का उत्पीड़न, बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में 25 लाख की आबादी की दुर्दशा, विकास के नाम पर किसानों का उत्पीड़न युवाओं की अनदेखी और अपने ही कार्यकर्ताओं को दुत्कारना भी विरोध स्वरूप उभर कर सामने आया है।
2007 के आंकड़ों पर गौर करें तो 30.43 फीसदी वोट पाकर 206 सीटों पर काबिज होने वाली बसपा 2009 के लोकसभा चुनावों में महज 27.42 फीसदी वोटों पर सिमट गई। 304 विधानसभा सीटों पर उसका प्रदर्शन बेहद खराब रहा। 2011 की सर्दियों की दस्तक के साथ नये बनाए गये जिलों की कलह और संगठन से निकाले गये बाहुबली मंत्रियों, विधायकों, सांसदों के विरोधी स्वर बसपा के लिए नये और मजबूत अवरोद्द खड़े करेंगे। याद रखने लायक है, बसपा ने पिछले चुनाव में 170 अपराधिक छविवालों को चुनाव मैदान में उतारा था, उनमें 70 जीत गए थे। आज यह सूची 71 के अंक पर है। और उनमें कई जेल में है। इसी तरह उनके मुस्लिम व दलित मतदाताओं के आर्थिक व शैक्षिक स्तर की हकीकत को जोर-शोर से प्रचारित किया जाएगा। इसके अलावा उनकी अपनी भव्य कोठियों के निर्माण के साथ अकूत संपत्ति के मामले भी उन्हें कष्ट देंगे। इस सबाके हवा देने मंे विपक्ष से अधिक अन्ना टीम आगे होगी। सर्वेक्षण के नतीजे साफ कहते हैं कि माया की सेवानिवृति की तारीख तय हो गई है। विपक्षी दलों में सपा के प्रचार अभियान और सूबे की सड़कों पर दौड़ते क्रांति रथ के आस-पास जुटने वाली भीड़ को नजरअंदाज भले ही नहीं किया जा सकता, लेकिन मतदाताओं में मुलायम सिंह यादव के युवा बेटे में कोई खास दिलचस्पी नहीं झलकती। मुसलमान वोटों पर अम्बेडकरनगर जनपद के एक वरिष्ठ नागरिक और जनता दल के सक्रिय सदस्य रहे सज्जन की सुनिए, ‘हेमवती नन्दन बहुगुणा अपने साथ हमेशा दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अब्दुल्ला बुखारी को साथ लेकर मुसलमानों को रिझाने के लिए घूमते थे। उन्हें इसका कितना नफा-नुकसान हुआ उससे सारी सियासी जमात वाकिफ है, लेकिन बंद कमरे में बहुगुणां जी से मैंने पूंछा, ‘इमाम साहब को आप हमेशा क्यों साथ ले लेते हैं? उनका जवाब था, ‘हाथी हमेशा बारातों की शोभा बढ़ाता है और ध्रुवीकरण में वोटों की खेप ढोने के भी काम आता है।’ हालांकि उस हाथी से कितना नुकसान हुआ, वह लोकदल तक आते-आते बहुगुणा जी को बाखूबी अहसास हो गया था। ऐसा ही एक चेहरा मुलायम सिंह के साथ भी है, उससे होने वाला नुकसान 20 मई 2012 को सामने आ जाएगा।’
इससे भी आगे मुलायम का भाजपा प्रेम जग जाहिर है। 2009 के लोकसभा चुनावों में कल्याण सिंह की दोस्ती के चलते सपा के सभी 12 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव हार गये थे। 2012 के लिए चार पुराने भाजपाई जिन्हें कट्टर हिंदूवादी माना जाता है, को सपा से टिकट दिया गया है। इनमें दो मौजूदा भाजपा विधायक हैं। इन चारों का विरोध पार्टी में खूब हो रहा है। पार्टी के भीतर आजम खां और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रशीद मसूद की तकरार से सभी वाकिफ हैं। जहां तक आजम खां की बात करें तो वे अपनी साख लोकसभा चुनावों में जयप्रदा की जीत के साथ गंवा चुके हैं। मुलामय सिंह मुसलमानों से माफी मांगने के बाद एक नहीं चार भाजपाई चेहरों के साथ मुसलमान वोटों को मतदान केन्द्रों तक कैसे लायेंगे? मुलायम का अपराधी छवि वाले बाहुबलियों से प्रेम जगजाहिर है। 2012 में चुनावों के लिए भी जूही सिंह को टिकट दिया गया है, जो पूर्व मुख्य सचिव अखंड प्रताप सिंह की पुत्री हैं और जिन्हें आइएएस एसोसिएशन ने महाभ्रष्ट चुना था। वे जेल से लौटने के बाद भ्रष्टाचार के मुकदमों का सामना कर रहे हैं। बावजूद इसके यह सच है कि अखिलेश यादव युवा चेहारा हैं, भीड़ उन्हें मुलायम सिंह का बेटा मानकर देखने सुनने उमड़ रही हैं, लेकिन उनमें कितने साइकिल पर मुहर लगा सकते हैं? उसके अलावा इस बार पार्टी के पास स्टार प्रचारक चेहरे भी नहीं है। संजय दत्त, मनोज तिवारी, जयाप्रदा, जया बच्चन, अमिताभ बच्चन सभी अमर सिंह के साथ पार्टी से दूर हो गये। मुलायम का स्वास्थ्य भी कठोर परिश्रम की इजाजत नहीं देगा, तब क्या शिवपाल सिंह, आजम खां और अखिलेश यादव सपा को बहुमत दिलाने में कामयाब होंगे? वह भी तब, जब लोहिया के समाजवादी आदर्शों से सपा का कोई लेना-देना नहीं रह गया।
भारतीय जनता पार्टी अपनी अंतरकलह में उलझी आत्मबल तक गंवाये एक सैकड़ा सीटों के आस-पास जूझने के मंसूबे पर काम कर रही है। इसकी गवाही पिछले दिनों दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही द्वारा जीत सकने वाली 80-82 सीटों का आंकड़ा रखा जाना है। हालांकि राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह के बहुमत की सरकार बनाने के मेहनतकश दावे तब और ध्वस्त होते दिखाई देते हैं, जब उमा भारती व संजय जोशी अब तक न तो कोई करिश्मा दिखा सके हैं, न ही पार्टी में नई ऊर्जा भर सके, उल्टे भीतरी कलह का सामना कर रहे हैं। कल्याण सिंह का चेहरा भी भाजपा को डराने में कामयाब है। स्वाभिमान यात्रा भी कोई करिश्मा नहीं कर पा रही है। ऐसे हालात में पार्टी अपने पुराने चोले को धारणकर बसपा की ओर देख सकती है।
कांग्रेस के चेहरे की बदसूरती पिछले कई बरसों से यथावत है। उसे धोने, पोछने और निखारने में लगे राहुल गांधी की साख को बट्टा लगाने में यूपी वाले भइया आगे-आगे हैं। अभी तक पार्टी अपने उम्मीदवारों पर, समझौते या गठबंधन पर कोई मजबूत फैसला नहीं ले सकी है। राहुल गांधी के तमाम प्रयासों को गुटबाजी व राष्ट्रीय फलक पर कांग्रेस पर लगते आरोप निष्क्रिय करते रहे हैं। हालांकि कांग्रेस दफ्तर से खबर आई है कि राहुल के रोड शो संपर्क रथ के जरिये फिर से हांेगे। इसकी शुरूआत पश्चिमी उप्र से होने की बात कही जा रही है। इसके पीछे भट्टा परसौल आंदोलन की सफलता को रखा जा रहा है। सर्वेक्षण टीम को कांग्रेस के पक्ष में जो रूझान मिले हैं वे महंगाई, भ्रष्टाचार और आपसी कलह से परे आश्चर्यजनक रूप से उम्मीदों भरे हैं। कई क्षेत्रों में कांग्रेस के युवा चेहरों आर.पी. एन. सिंह, जितिन प्रसाद के नामों पर, तो कई जगहों पर बेनीप्रसाद वर्मा, रीता बहुगुणां पर, तो कई विधानसभा क्षेत्रों में नये चेहरों पर उम्मीदें जताते मतदाता जोश में हैं। वहीं कुछ अपशकुनी संकेत भी मिले जो बताते हैं कि कांग्रेस की राह आसान नहीं है, लेकिन यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, उसे सिर्फ पाना है, जीतना है, जबकि बसपा, सपा की प्रतिष्ठा दांव पर है, तो भाजपा को अपनी सीटें बचाये रखने की फिक्र सता रही है। छोटे दलों का अपना समीकरण अपने क्षेत्रों में कम-ज्यादा रहने के संकेत है। रह गई अन्ना टीम के विरोध की बात तो वह समय के गर्भ में है।
नई सरकार, नया चेहरा
ऽ क्या उत्तर प्रदेश का विकास पिछले साढ़े चार सालों में हुआ है?
हां 20 नहीं 70 बाकी कह नहीं सकते
ऽ पार्कों मूर्तियों व नये जिलों के बनने से प्रदेशवासियों को लाभ हुआ हैं?
हां 25 नहीं 60 बाकी पता नहीं
ऽ राज्य सरकार के कार्यों से किस तबके का सबसे अधिक फायदा हुआ?
धनी 60 निर्धन 10 मध्यम वर्ग 22
बाकी पता नहीं
ऽ सबसे अधिक चिंता का मसला?
बेरोजगारी 10 महंगाई 30 भ्रष्टाचार 32
कानून व्यवस्था 26 धार्मिक जातिगत समस्याएं 2
ऽ प्रदेश की गलियों में महिलाएं सुरक्षित हैं?
हां 12 नहीं 68 पता नहीं 20
ऽ मौजूदा सरकार में दलितों पर अत्याचार कम हुए?
हां 35 नहीं 59 पता नहीं 6
ऽ वर्तमान सरकार में आपराधिक छवि वालों का बोलबाला रहा?
हां 58 नहीं 27 पता नहीं 14
ऽ क्या बसपा सरकार अपने वायदों पर खरी उतरी?
हां 22 नहीं 68 पता नहीं 10
ऽ प्रदेशवासी सपा, बसपा की सरकारों को देख चुके, क्या मतदाता कांग्रेस, भाजपा की ओर बढ़ा हैं?
हां. 75 नहीं 20 पता नहीं 5
ऽ युवा मतदाताओं का रूझान किस पार्टी की ओर हो सकता है?
कांग्रेस 30 सपा 22 बसपा 11
भाजपा 17 अन्य 20
ऽ सोलहवीं विधानसभा में महिलाओं की संख्या बढ़नी चाहिए?
हां 60 नहीं 32 पता नहीं 8
ऽ छोटे राजनैतिक दलों के गठबंधन को उप्र विधानसभा चुनाव-2012 में फायदा होगा?
हां 27 नहीं 69 पता नहीं 4
ऽ राज्य में सरकार बनाने के लिए बहुजन समाज पार्टी को एक मौका और मिलना चाहिए?
हां 8 नहीं 90 पता नहीं 2
ऽ अन्ना हजारे टीम का उप्र चुनाव-2012 में कोई असर होगा?
हां 30 नहीं 54 पता नहीं 16
ऽ कल्याण सिंह उप्र विधानसभा चुनाव-2012 में प्रभाव डाल सकते हैं?
हां 12 नहीं 61 पता नहीं 27
ऽ पीस पार्टी मंे आपराधिक छवि के लोगों का जमावड़ा उप्र के चुनाव 2012 में कोई फर्क डाल सकेंगा?
हां 14 नहीं 79 पता नहीं 7
ऽ वर्तमान सरकार की मुखिया द्वारा आरक्षण व अन्य मामलों पर केन्द्र को लिखी जाने वाली चिट्ठियों से बसपा के वोट बैंक में बढ़ोत्तरी होगी?
हां 18 नही 69 पता नहीं 13
नोट: सभी उत्तर प्रतिशत में हैं।
चुनावी यज्ञ में दौड़ते रथों-सारथियों के उत्साह पथ पर अपने तेज -तर्रार संवाददाताओं की टीम को भी सूब के मतदाओं का रूझान जानने समझने का जिम्मा सौंपा। संवाददाताओं ने शहरी-ग्रामीण, लैंगिक, आयु या राजनीति के पूर्वाग्रहों से अलग सीधी और साफ-साफ बात करने की कोशिश हर आयु, जाति-वर्ग वाले मतदाता से की और जो नतीजे निकलकर सामने आये हैं, उनकी माने तो सत्तारूढ़ बसपा का एनेक्सी से बाहर का रास्ता देखना निश्चित है। इसके पीछे मुख्यमंत्री की कार्यशैली के साथ कथनी और करनी का अंतर मुख्यरूप से उभरकर सामने आया है। पत्थरों, मूर्तियों, पार्कों से प्रेम के अलावा केन्द्र सरकार को समर्थन के साथ उससे टकराव का दिखावा, अपराधियों को संरक्षण और चुनावों की आमद पर उनसे रिश्ते तोड़ना, विपक्ष के भ्रष्टाचार के आरोपों के अलावा संगठन में बाहर से आये लोगों का पलायन भी बड़ी वजहें है। सरकारी कर्मचारी खफा हैं, अंदरखाने नौकरशाह मौके का फायदा उठाने की फिराक में है। इसके सुबूत समीक्षा बैठकों में वरिष्ठ अधिकािरयों के बदले सुरों का ऊंचा होते जाने में देखे जा सकते हैं, शिक्षक, पुलिस की नाराजगी, मुसलमानों-सवर्णों का गठजोड़, ब्राह्मणों का मोहभंग और पिछड़ों में सपा के द्वारा चलाया जा रहा अभियान सत्तादल को उप्र के सिंहासन से नीचे उतारने में बड़ी भूमिका निबाहेगा। नाराजगी की और भी कई वजहें सामने हैं, उनमें वफादारों से गैरकानूनी काम कराने और उसका पूरा फायदा उठाने के बाद उन्हें दूध में मक्खी की तरह निकाल बाहर करना भी एक बड़ा कारण है। जातिगत वोटों में भी सेंध लगने के आसार साफ दिखाई दे रहे हैं। रूझानों में महिलाओं, दलितों का उत्पीड़न, बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में 25 लाख की आबादी की दुर्दशा, विकास के नाम पर किसानों का उत्पीड़न युवाओं की अनदेखी और अपने ही कार्यकर्ताओं को दुत्कारना भी विरोध स्वरूप उभर कर सामने आया है।
2007 के आंकड़ों पर गौर करें तो 30.43 फीसदी वोट पाकर 206 सीटों पर काबिज होने वाली बसपा 2009 के लोकसभा चुनावों में महज 27.42 फीसदी वोटों पर सिमट गई। 304 विधानसभा सीटों पर उसका प्रदर्शन बेहद खराब रहा। 2011 की सर्दियों की दस्तक के साथ नये बनाए गये जिलों की कलह और संगठन से निकाले गये बाहुबली मंत्रियों, विधायकों, सांसदों के विरोधी स्वर बसपा के लिए नये और मजबूत अवरोद्द खड़े करेंगे। याद रखने लायक है, बसपा ने पिछले चुनाव में 170 अपराधिक छविवालों को चुनाव मैदान में उतारा था, उनमें 70 जीत गए थे। आज यह सूची 71 के अंक पर है। और उनमें कई जेल में है। इसी तरह उनके मुस्लिम व दलित मतदाताओं के आर्थिक व शैक्षिक स्तर की हकीकत को जोर-शोर से प्रचारित किया जाएगा। इसके अलावा उनकी अपनी भव्य कोठियों के निर्माण के साथ अकूत संपत्ति के मामले भी उन्हें कष्ट देंगे। इस सबाके हवा देने मंे विपक्ष से अधिक अन्ना टीम आगे होगी। सर्वेक्षण के नतीजे साफ कहते हैं कि माया की सेवानिवृति की तारीख तय हो गई है। विपक्षी दलों में सपा के प्रचार अभियान और सूबे की सड़कों पर दौड़ते क्रांति रथ के आस-पास जुटने वाली भीड़ को नजरअंदाज भले ही नहीं किया जा सकता, लेकिन मतदाताओं में मुलायम सिंह यादव के युवा बेटे में कोई खास दिलचस्पी नहीं झलकती। मुसलमान वोटों पर अम्बेडकरनगर जनपद के एक वरिष्ठ नागरिक और जनता दल के सक्रिय सदस्य रहे सज्जन की सुनिए, ‘हेमवती नन्दन बहुगुणा अपने साथ हमेशा दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अब्दुल्ला बुखारी को साथ लेकर मुसलमानों को रिझाने के लिए घूमते थे। उन्हें इसका कितना नफा-नुकसान हुआ उससे सारी सियासी जमात वाकिफ है, लेकिन बंद कमरे में बहुगुणां जी से मैंने पूंछा, ‘इमाम साहब को आप हमेशा क्यों साथ ले लेते हैं? उनका जवाब था, ‘हाथी हमेशा बारातों की शोभा बढ़ाता है और ध्रुवीकरण में वोटों की खेप ढोने के भी काम आता है।’ हालांकि उस हाथी से कितना नुकसान हुआ, वह लोकदल तक आते-आते बहुगुणा जी को बाखूबी अहसास हो गया था। ऐसा ही एक चेहरा मुलायम सिंह के साथ भी है, उससे होने वाला नुकसान 20 मई 2012 को सामने आ जाएगा।’
इससे भी आगे मुलायम का भाजपा प्रेम जग जाहिर है। 2009 के लोकसभा चुनावों में कल्याण सिंह की दोस्ती के चलते सपा के सभी 12 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव हार गये थे। 2012 के लिए चार पुराने भाजपाई जिन्हें कट्टर हिंदूवादी माना जाता है, को सपा से टिकट दिया गया है। इनमें दो मौजूदा भाजपा विधायक हैं। इन चारों का विरोध पार्टी में खूब हो रहा है। पार्टी के भीतर आजम खां और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रशीद मसूद की तकरार से सभी वाकिफ हैं। जहां तक आजम खां की बात करें तो वे अपनी साख लोकसभा चुनावों में जयप्रदा की जीत के साथ गंवा चुके हैं। मुलामय सिंह मुसलमानों से माफी मांगने के बाद एक नहीं चार भाजपाई चेहरों के साथ मुसलमान वोटों को मतदान केन्द्रों तक कैसे लायेंगे? मुलायम का अपराधी छवि वाले बाहुबलियों से प्रेम जगजाहिर है। 2012 में चुनावों के लिए भी जूही सिंह को टिकट दिया गया है, जो पूर्व मुख्य सचिव अखंड प्रताप सिंह की पुत्री हैं और जिन्हें आइएएस एसोसिएशन ने महाभ्रष्ट चुना था। वे जेल से लौटने के बाद भ्रष्टाचार के मुकदमों का सामना कर रहे हैं। बावजूद इसके यह सच है कि अखिलेश यादव युवा चेहारा हैं, भीड़ उन्हें मुलायम सिंह का बेटा मानकर देखने सुनने उमड़ रही हैं, लेकिन उनमें कितने साइकिल पर मुहर लगा सकते हैं? उसके अलावा इस बार पार्टी के पास स्टार प्रचारक चेहरे भी नहीं है। संजय दत्त, मनोज तिवारी, जयाप्रदा, जया बच्चन, अमिताभ बच्चन सभी अमर सिंह के साथ पार्टी से दूर हो गये। मुलायम का स्वास्थ्य भी कठोर परिश्रम की इजाजत नहीं देगा, तब क्या शिवपाल सिंह, आजम खां और अखिलेश यादव सपा को बहुमत दिलाने में कामयाब होंगे? वह भी तब, जब लोहिया के समाजवादी आदर्शों से सपा का कोई लेना-देना नहीं रह गया।
भारतीय जनता पार्टी अपनी अंतरकलह में उलझी आत्मबल तक गंवाये एक सैकड़ा सीटों के आस-पास जूझने के मंसूबे पर काम कर रही है। इसकी गवाही पिछले दिनों दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही द्वारा जीत सकने वाली 80-82 सीटों का आंकड़ा रखा जाना है। हालांकि राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह के बहुमत की सरकार बनाने के मेहनतकश दावे तब और ध्वस्त होते दिखाई देते हैं, जब उमा भारती व संजय जोशी अब तक न तो कोई करिश्मा दिखा सके हैं, न ही पार्टी में नई ऊर्जा भर सके, उल्टे भीतरी कलह का सामना कर रहे हैं। कल्याण सिंह का चेहरा भी भाजपा को डराने में कामयाब है। स्वाभिमान यात्रा भी कोई करिश्मा नहीं कर पा रही है। ऐसे हालात में पार्टी अपने पुराने चोले को धारणकर बसपा की ओर देख सकती है।
कांग्रेस के चेहरे की बदसूरती पिछले कई बरसों से यथावत है। उसे धोने, पोछने और निखारने में लगे राहुल गांधी की साख को बट्टा लगाने में यूपी वाले भइया आगे-आगे हैं। अभी तक पार्टी अपने उम्मीदवारों पर, समझौते या गठबंधन पर कोई मजबूत फैसला नहीं ले सकी है। राहुल गांधी के तमाम प्रयासों को गुटबाजी व राष्ट्रीय फलक पर कांग्रेस पर लगते आरोप निष्क्रिय करते रहे हैं। हालांकि कांग्रेस दफ्तर से खबर आई है कि राहुल के रोड शो संपर्क रथ के जरिये फिर से हांेगे। इसकी शुरूआत पश्चिमी उप्र से होने की बात कही जा रही है। इसके पीछे भट्टा परसौल आंदोलन की सफलता को रखा जा रहा है। सर्वेक्षण टीम को कांग्रेस के पक्ष में जो रूझान मिले हैं वे महंगाई, भ्रष्टाचार और आपसी कलह से परे आश्चर्यजनक रूप से उम्मीदों भरे हैं। कई क्षेत्रों में कांग्रेस के युवा चेहरों आर.पी. एन. सिंह, जितिन प्रसाद के नामों पर, तो कई जगहों पर बेनीप्रसाद वर्मा, रीता बहुगुणां पर, तो कई विधानसभा क्षेत्रों में नये चेहरों पर उम्मीदें जताते मतदाता जोश में हैं। वहीं कुछ अपशकुनी संकेत भी मिले जो बताते हैं कि कांग्रेस की राह आसान नहीं है, लेकिन यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, उसे सिर्फ पाना है, जीतना है, जबकि बसपा, सपा की प्रतिष्ठा दांव पर है, तो भाजपा को अपनी सीटें बचाये रखने की फिक्र सता रही है। छोटे दलों का अपना समीकरण अपने क्षेत्रों में कम-ज्यादा रहने के संकेत है। रह गई अन्ना टीम के विरोध की बात तो वह समय के गर्भ में है।
नई सरकार, नया चेहरा
ऽ क्या उत्तर प्रदेश का विकास पिछले साढ़े चार सालों में हुआ है?
हां 20 नहीं 70 बाकी कह नहीं सकते
ऽ पार्कों मूर्तियों व नये जिलों के बनने से प्रदेशवासियों को लाभ हुआ हैं?
हां 25 नहीं 60 बाकी पता नहीं
ऽ राज्य सरकार के कार्यों से किस तबके का सबसे अधिक फायदा हुआ?
धनी 60 निर्धन 10 मध्यम वर्ग 22
बाकी पता नहीं
ऽ सबसे अधिक चिंता का मसला?
बेरोजगारी 10 महंगाई 30 भ्रष्टाचार 32
कानून व्यवस्था 26 धार्मिक जातिगत समस्याएं 2
ऽ प्रदेश की गलियों में महिलाएं सुरक्षित हैं?
हां 12 नहीं 68 पता नहीं 20
ऽ मौजूदा सरकार में दलितों पर अत्याचार कम हुए?
हां 35 नहीं 59 पता नहीं 6
ऽ वर्तमान सरकार में आपराधिक छवि वालों का बोलबाला रहा?
हां 58 नहीं 27 पता नहीं 14
ऽ क्या बसपा सरकार अपने वायदों पर खरी उतरी?
हां 22 नहीं 68 पता नहीं 10
ऽ प्रदेशवासी सपा, बसपा की सरकारों को देख चुके, क्या मतदाता कांग्रेस, भाजपा की ओर बढ़ा हैं?
हां. 75 नहीं 20 पता नहीं 5
ऽ युवा मतदाताओं का रूझान किस पार्टी की ओर हो सकता है?
कांग्रेस 30 सपा 22 बसपा 11
भाजपा 17 अन्य 20
ऽ सोलहवीं विधानसभा में महिलाओं की संख्या बढ़नी चाहिए?
हां 60 नहीं 32 पता नहीं 8
ऽ छोटे राजनैतिक दलों के गठबंधन को उप्र विधानसभा चुनाव-2012 में फायदा होगा?
हां 27 नहीं 69 पता नहीं 4
ऽ राज्य में सरकार बनाने के लिए बहुजन समाज पार्टी को एक मौका और मिलना चाहिए?
हां 8 नहीं 90 पता नहीं 2
ऽ अन्ना हजारे टीम का उप्र चुनाव-2012 में कोई असर होगा?
हां 30 नहीं 54 पता नहीं 16
ऽ कल्याण सिंह उप्र विधानसभा चुनाव-2012 में प्रभाव डाल सकते हैं?
हां 12 नहीं 61 पता नहीं 27
ऽ पीस पार्टी मंे आपराधिक छवि के लोगों का जमावड़ा उप्र के चुनाव 2012 में कोई फर्क डाल सकेंगा?
हां 14 नहीं 79 पता नहीं 7
ऽ वर्तमान सरकार की मुखिया द्वारा आरक्षण व अन्य मामलों पर केन्द्र को लिखी जाने वाली चिट्ठियों से बसपा के वोट बैंक में बढ़ोत्तरी होगी?
हां 18 नही 69 पता नहीं 13
नोट: सभी उत्तर प्रतिशत में हैं।
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