Sunday, October 23, 2011

आओ खेलें कूड़ा-कूड़ा...!

लखनऊ। राजधानी कूड़े-कचरे की दुर्गंद्द से बेहाल है। महापौर नारजगी जताते गली-मोहल्ले में घूम रहे हैं। उच्च न्यायालय ने शहर साफ करने के आदेश दिये हैं। आक्रोशित नागरिकों व सफाईकर्मियों मंे रोज झड़पों से लेकर मारपीट तक हो रही है। आधे से अधिक लखनऊ में संक्रामक रोगों और मच्छरों का हमला जारी है। अखबारों ने पहल की, सुझाव-सलाह का सिलसिला जारी भी है। अफसर-सफाईकर्मी कूड़े के निस्तारण को लेकर हलकान है। कूड़ा है कि लगातार बढ़ता जाता है।
    लखनऊ में 6570 मीट्रिक टन कूड़ा निकलता है और 5475 उठाया जाता है। जेएनएनयूआरएम योजना के तहत लखनऊ को 43 करोड़ रूपया मिला उससे कैसा और कितना प्रबन्ध हो रहा है, सारा शहर देख रहा है। इसी कूड़े के प्रबंद्दन के लिए नगर निगम के अफसर, सभासद सिंगापुर की सैर भी कर आए थे। सारी कवायदों के बाद घर-घर से कूड़ा उठवाने के नाम पर 40 रूपया प्रतिमाह का बोझ नागरिकों पर तब डाल दिया गया, जब नगर निगम के चुने हुए प्रतिनिधियों ने सामुहिक विरोध किया। इस योजना के तहत घरों से कूड़ा उठाकर सड़कों पर डाला जा रहा है, नदी किनारे या नदी में फेंका जा रहा है। विशेष सफाई के नाम पर ईद, दशहरा में करोड़ो डकार लिए गये। दीपावली में निकलने वाले कचरे के नाम पर फिर करोड़ों का बजट डकारने की तैयारी होगी।
    नागरिक सुविधाओं से खिलवाड़ आम बात है, लेकिन करदाता को करके बदले बीमारी या मृत्यु बांटना संविधान की किस धारा में लिखा है? बेशक नागरिकों पर भी शहर को साफ रखने की जिम्मेदारी है, लेकिन इसके लिए शहरी प्रबंधन को नागरिक संगठनों, एनजीओं या मोहल्ला सुधार कमेटियों के तहत पहल करनी होगी।
    शायद ही कोई दिन ऐसा जाता होगा जब किसी न किसी इलाके में कूड़े को लेकर आम लोगों का आक्रोश न फूटता हो। आए दिन जनता अपने घर-मुहल्ले के करीब डंपिंग ग्राउंड न बनने देने के लिए आंदोलन करती दिखाई देती है। कूड़ा, सरकार और समाज दोनों के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है। भले ही हम कूड़े को अपने पास फटकने नहीं देना चाहते हों, लेकिन विडंबना यही है कि यह दिन-दूना, रात-चैगुना बढ़ रहा है। औसतन प्रति व्यक्ति 20 ग्राम से 60 ग्राम कचरा रोज निकलता है। इसमें से आधे से अधिक कागज, लकड़ी या प्लास्टिक होता है, जबकि 22 फीसदी घरेलू कबाड़ या घरेलू कचरा होता है। लखनऊ नगर निगम कई-कई किलोमीटर दूर तक कचरे का डंपिंग ग्राउंड तलाश रहा है। इतने कचरे को इकट्ठा करना, फिर उसे दूर तक ढोकर ले जाना कितना महंगा और जटिल काम है। कुल कूड़े का महज पांच फीसदी का भी ईमानदारी से निपटान नहीं हो पाता है। कूड़ा निस्तारण संयंत्र जमीन न मिलने के चलते अब तक नहीं लग सका। राजधानी लखनऊ का 60 फीसदी कूड़ा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गोमती में बहा दिया जाता है। कागज, प्लास्टिक, धातु जैसा बहुत सा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमाकर रिसाइकलिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर वगैरह कुछ समय में सड़-गल जाते हैं इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है।
    असल में, कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। अभी कुछ साल पहले तक स्याही वाला पेन होता था, उसके बाद ऐसे बालपेन आए, जिनकी केवल रिफिल बदलती थी। आज बाजार में ऐसे पेनों का बोलबाला है जो खत्म होने पर फेंक दिए जाते हैं। बढ़ती साक्षरता दर के साथ ऐसे पेनों का इस्तेमाल और उसका कचरा बढ़ता गया। तीन दशक पहले एक व्यक्ति साल भर में औसतन एक पेन खरीदता था और आज औसतन हर साल एक दर्जन पेनों की प्लास्टिक प्रति व्यक्ति बढ़ रही है। इसी तरह शेविंग-किट में पहले स्टील या पीतल का रेजर होता था, जिसमें केवल ब्लेड बदले जाते थे और आज ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ वाले रेजर रोज कचरा बढ़ा रहे हैं। हमारा स्नानागार और रसोई तो कूड़े के बड़े उत्पादक बन गए हैं।
    कुछ साल पहले तक दूध भी कांच की बोतलों में आता था या फिर लोग अपने बर्तन लेकर डेयरी जाते थे। आज दूध तो दूध, पीने का पानी भी कचरा बढ़ाने वाली बोतलों में मिल रहा है। मेकअप का सामान, डिस्पोजेबल बर्तन, पोलीथीन की थैलियां, पैकिंग की पन्नियां वगैरह कचरा बढ़ा रहे हैं। ऐसे ही न जाने कितने तरीके हैं, जिनसे हम कूड़ा-कबाड़ा बढ़ा रहे हैं। घरों में सफाई और खुशबू के नाम चलन ने भी अलग किस्म के कचरे को बढ़ाया है। सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कंप्यूटरों और मोबाइलों का है। इसमें पारा, कोबाल्ट और न जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलोग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा सीसा, 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है। शेष हिस्सा प्लास्टिक होता है। इसमें से अधिकांश सामग्री ‘सड़ती-गलती’ नहीं है और न ही जमीन में जज्ब हो पाती है। ये सारे जहर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने का काम करते हैं। ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों और बेकार हो चुके मोबाइलों से भी उपज रहा है। भले ही अदालतें समय-समय पर फटकार लगाती रहती हों, लेकिन अस्पतालों से निकलने वाले कूड़े का सुरक्षित निपटान लखनऊ और अन्य नगरों से ले कर छोटे कस्बों तक में लापरवाही भरा है। कूड़ा अब नए तरह की आफत बन रहा है। सरकार उसके निपटान के लिए तकनीकी उपाय और दूसरी कोशिशें कर रही हैं लेकिन असल में कोशिश तो कचरे को कम करने की होनी चाहिए न कि उससे खेलने की। कचरा-नियंत्रण और उसके निपटान को एक विषय के तौर पर स्कूलों में पढ़ाया जाना भी जरूरी है। हर किसी को कूड़ा यहां-वहां फेंकने से परहेज करना होगा। कूड़ा प्रबंधन के लिए मोहल्ला स्तर की कमेटियों का गठन होना चाहिए। सिविल सोसाइटी के ठेकेदारों को कूड़े के भ्रष्टाचार पर भी पहल करनी चाहिए। कूड़ा प्रबंधन को लेकर जनजागरण अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है।

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