Wednesday, April 27, 2011

वंदेमातरम्! वंदेमातरम्!! वंदेमातरम्!!!

राम प्रकाश वरमा
अभी तो अंगड़ाई है, आगे और लड़ाई है। खतरे की घंटी बज उठी है। वक्त का तकाजा है कि चिकनी-चिपुड़ी बातों के साथ बदजुबानी के बजाय जनशक्ति की सच्चाई को कबूल कर लेने में ही सियासतदानों की भलाई है। देश आज एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। उसके सामने कई रास्ते खुले हैं। राष्ट्र कौन सा रास्ता अख्तियार करेगा? एक रास्ता विकास और आम सहमति के साथ सकारात्मक सहयोग का हैं, जिस पर चलकर राष्ट्रीय पुनर्जागरण का बिगुल बजाया जा सकेगा। दूसरा रास्ता वह है, जिस पर बेईमान नौकरशाहों, भ्रष्ट नेताओं और स्वार्थी बनियों ने उसकी इच्छा के विरूद्ध उसे धकेला है। और, वह रास्ता निकम्मे टकराव व साम्राज्यवादी गुलामी की ओर जाता है।
    जिस किसी के पास भी देखने वाली आंखें और सुनने वाले कान हैं, वे जानते हैं कि दिल्ली के जंतर-मंतर पर 97 घंटों के मौन उपवास के बीच उठे ज्वार ने ईमानदारी का, सहयोग का और सच्चाई का रास्ता अख्तियार करने का फैसला लिया। एक लाख कम एक सौ इक्कीस करोड़ भारतीय बदलाव के लिए बेचैन हैं। ये बेचैनी गणराज्य के पुनर्जन्म की भी है। यही वजह थी कि लाखों करोड़ों हाथों में जलती मोमबत्तियों के उजाले में सरकार की हीला-हवाली के बावजूद यूपीए की अध्यक्षा सोनिया गांधी, महात्मा के पांवों के निशान पर पैर रक्खे अण्णा हजारे की निश्छल मंशा पर विचलित हुईं। निश्चित रूप से वह जानती हैं कि वह राष्ट्र तरक्की नहीं कर सकता, जो सिर्फ अपने पूर्वजों की नकल करता रहेगा। राष्ट्रनिर्माण के लिए जनइच्छाओं को सुनकर सटीक बदलाव करने जरूरी हैं। बेशक नागरिक समाज में नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार समाया है। यहां तक मौन जली मोमबत्तियों की खरीद भी भ्रष्टाचार के जरिए की गई कमाई से की गई हो सकती है।
    चौटाला और उमा को दुत्कारने वाले सुविधा भोगी हाथ भी भ्रष्टाचार के ‘मिनरल वॉटर’ से धुले रहे हों, लेकिन उन्हीं की आत्मा से उठी ज्वाला ने उन्हें भ्रष्टाचार के मुखालिफ हुंकार भरने को ललकारा है। वे भ्रष्ट व्यवस्था से किस कदर परेशान हैं, इसका अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि वे केवल जनलोकपाल बिल पर ही नहीं रूक जाने वाले हैं। इससे भी आगे ‘राइट टू रिकाल’ और देश के लाखों मतलब परस्त अमीर बनियों की आर्थिक अराजकता के मुखालिफ भी आवाज बुलंद करने वाले हैं।
    इस खौफनाक सच्चाई से कैसे इंकार किया जा सकता है कि हम गले-गले तक विदेशी कर्ज के दलदल में फंसे हैं। न केवल फंसे हैं, बल्कि कर्ज की अर्थव्यवस्था ने ही महंगाई और मुद्रास्फीति बढ़ाई और बाजार की ताकतें मजबूत होती गईं। विकास के नाम पर लिया गया कर्ज विनाश के श्मशान निर्माण करने वालों की बपौती होता गया। न गरीबी हटी, न खुशहाली आई। अमीर और अमीर हो गये, गरीब और गरीब। ‘गरीबी हटाओं’ के सिनेमाई सपने ने देश को विश्वबैंक के कसाईबाड़े में जिबह होने के लिए धकेल दिया। आज भारत दुनिया भर के कर्जदार देशों में पंाचवे नंबर पर है। सितंबर 2010 तक 1332194 करोड़ रूपयों का कर्जदार है, भारत। इस कर्ज के ब्याज की किश्तें चुकाने में ही सालाना बजट का एक बड़ा हिस्सा चला जाता है। यह रकम विदेशी मुद्रा में अदा की जाती है, इसीलिए भारतीयों के जीवन के लिए अति आवश्यक चीजों के निर्यात की आंख मूंद कर इजाजत दी जाती है और हमें फांकाकशी के लिए यह कहकर मजबूर किया जाता है कि ‘अभी तीन महीने महंगाई और झेलनी होगी।’ कैसा मजाक है, किसान मेहनत करके अन्न उगाये, मेहनतकाश हाथ उत्पादन बढ़ाएं और लाभ उठाएं देश के चंद बड़े बनिये, दलाल, नौकरशाह और राजनेता। यही वजह है कि पेरिसवासी हाथों से बनाये गये भव्य संसद भवन में बैठने वालों को ‘सिविल सोसाइटी’ की साझेदारी बर्दाश्त नहीं हो रही। बेशक संविधान की रचना कानून के पंडितों ने की है लेकिन देश की आजादी महान विचारकों, लोगों के पसीने, आंसुओं, परिश्रम और साहसी योद्धाओं के बलिदान बदले मिली हैं हमें शांति समर्थकों के रास्ते पर चलना ही होगा।
    देश में निजी धन बल की समानांतर सरकारें चलाई जा रही हैं और उन्हें लगातार चलाए रखने के लिए नौकरशाह, साहूकार और दलाल नेता, सब प्रयासरत हैं। देश के पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में 57 करोड़ रूपया विभिन्न राजनैतिक दलों से चुनाव आयोग ने पिछले महीने में जब्त किया हैं, इसमें अकेले 42 करोड़ रूपये तमिलनाडू से जब्त किये गये हैं। इसी राज्य में 57 हजार मुकदमें आचार संहिता उल्लंघन के भी दर्ज हुए हैं। इस राज्य के मुखिया करूणानिधि के परिवार में 24 हजार करोड़ की सम्पत्ति है। यही हाल दूसरे राजनैतिक परिवारों का है। सियासतदानों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के टकराव और बनियों के हाथों में खेलते राजनीति में नौसीखिये देश को गुलामी की ओर धकेलने का दांव लगाए हैं। सावधान! इतिहास का चक्र घूम चुका है। 1857 के गद्दार राव दुल्हाजू (झांसी के सरदार) की नस्ल को गांध्ीा की लाठी से देश के बाहर हांकने की हलफ युवा भारत ने उठा ली है।
    हम पहले ही लिख चुके हैं कि ‘ग्लोबलाइजेशन’ के जरिये हमारे मुंह से निवाला छीना जा रहा है। सब कुछ बाजार में बेचने की साजिश की जा रही है, यही षड़यंत्रकारी चिंघाड़ रहे हैं कि लोकतंत्र खतरे में है। और तो और महाराष्ट्र के बारामती के एक शख्स ने ‘अन्ना’ को भी बाजार में खड़ा कर दिया। उसने पुणे से 600 रुपयों में अन्ना के गांव धुमाने, उनके दर्शन कराने के लिए बस टूर शुरू कर दिया हैं। यह वही बारामती है, जहां से शरद पवार सांसद हैं। इससे भी आगे अन्ना के नाम पर टी शर्ट, सौंदर्य प्रसाधन, टैटू, एसएमएस व फेस बुक के जरिए बड़ा बाजार खड़ा करने की साजिश देशी-विदेशी साहूकार/बनिये कर रहे हैं। पहले ही देश का करोड़ों रूपया विध्वंस के कारोबार में लगा है। इसके पुख्ता सुबूत हैं देश मंे आये दिन पकड़े जाने वाले हथियारों और जाली नोटों की तादाद।
    हमें सन् 1960 के भूखे-नंगे वर्षाें को याद करते हुए बड़ा दुख होता है, जब हाथ में कटोरा लेकर अमेरिका की चौखट पर खड़ा था, भारत। आज लाखांे टन अनाज सड़ रहा है और बेगैरत मंत्री उसे गरीबों में बांटने के नाम पर आंखे लाल-पीली करने की धृष्टता कर रहे हैं। यह कैसा ‘जनतंत्र’ है? तो सत्ता के नशेड़ियों को फिर से प्रजातंत्र की परिभाषा बताने के लिए वंदेमातरम्! वंदेमातरम्!! वंदेमातरम्!!! का जयघोष करना होगा।

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