Wednesday, April 27, 2011

सियासी मोहल्लों में कोई हलचल नहीं!

लखनऊ। सियासत के मोहल्लों में निकाय चुनावों को लेकर कोई खास हलचल नहीं है। मौसम के मिजाज की तरह चुनावी पारा उतार-चढ़ाव पर है। सरकार की मंशा जुलाई में चुनाव कराने की बताई जाती है, लेकिन अभी तक सभासदों, वार्डों, अध्यक्षों व मेयरों के आरक्षण की सूची तक पूरी तरह से तैयार नहीं है। अप्रत्यक्ष चुनाव का बिल अभी तक राज्यपाल के यहां लटका है। ऐसे हालातों में सत्तादल निकाय चुनाव टाल भी सकता है, क्योंकि प्रत्यक्ष चुनाव होने से सत्तादल को कोई खास फायदा होता नहीं दिखता। इसके अलावा जुलाई से सितंबर तक बरसात व बाढ़ विभीषिका का भी बेहतर बहाना उसके सामने है। हालांकि सत्तादल शहरी दलितों को रोजगार के साथ बेहतर नागरिक सुविधाएं देने पर अमल करने के साथ समाज के अन्य वर्गों को भी लुभाने में लगा हैं हाल ही में वकीलों को 6 अरब का तोहफा दिया गया है। तमाम कवायद के बाद भी जहां विपक्ष में थोड़ी सुगबुगाहट सुनाई देती है, वहीं सत्तादल की खामोशी के पीछे का राज कहीं अक्टूबर में चुनाव होना तो नहीं है?
    गौरतलब है निकाय चुनावों में पौने तीन करोड़ से अधिक मतदाता 11,291 पार्षदों, सदस्यों, 423 नगर पंचायत अध्यक्षों, 194 नगर पालिका परिषद अध्यक्षों, 13 महापौरों का चुनाव करेंगे। इस चुनाव में लगभग 28 लाख बढ़ा हुआ युवा मतदाता भी भाग लेगा। पिछले चुनावों में बसपा को असफलता ही हाथ लगी थी। भाजपा का दबदबा नगर निगमों व निदर्लियों का नगरपालिका परिषदों, नगर पंचायतों पर रहा था। 2000 में 6, 2006 में 8 पर भाजपाई महापौर चुने गये थे। इधर बसपा शहरी क्षेत्र में दलितों को रिझाने में पूरी तरह सक्रिय है। दलित बस्तियों में पेयजल, सफाई, कूड़ा प्रबंधन का काम नगर विकास, बिजली का काम ऊर्जा, मैला प्रथा का निस्तारण का काम सूडा व डूडा तथा पेंशन का काम समाज कल्याण विभाग को करना होगा। इसके अलावा टीकाकरण, स्वास्थ्य योजनाएं, स्कूलों का निर्माण, छात्रवृत्ति, राशन कार्ड रोजगार सृजन, अल्पसंख्यक कल्याण के कार्यक्रम व मुख्यमंत्री की प्राथमिकता वाली योजनाओं का भी संचालन होगा।
    उप्र. के शहरों में पिछले चार सालों में केन्द्र और प्रदेश सरकार की योजनाओं के जरिए लगभग 12 सौ करोड़ रुपए के विकास कार्य कराये गये हैं। इन विकास कार्यों के नतीजे सिफर कहे जा सकते हैं। न पीने को पानी है, न बेहतर सड़कें हैं, न सफाई ही दुरूस्त है, न जलभराव से निजात मिली है। खुले में सात से दस फीसदी लोग शौच करने को मजबूर हैं। आवारा पशुओं का आतंक बदस्तूर है, कूड़ा-कचरा और मच्छर से शहरवासी पूर्ववत अक्रांत है। श्मशानघाट से लेकर नदी-नालों में कचरा-पॉलीथीन अटी पड़ी हैं। सड़कों पर अंधेरा है व यातायात की भीड़ से शहर दर शहर घायल और भयाक्रांत है। फिर भी नये कर थोपने व कमीशन-खोरी के चलते घरों से कूड़ा उठाने से लेकर सफाईकर्मियों की तैनाती तक में आम आदमी की जेब काटी जा रही है। गए साल लोकायुक्त ने भी निकायों को विकास के लिए दी जाने वाली धनराशि में चालीस से पचास फीसदी कमीशन के चलन पर चिंता जताई थी। शहरी आबादी लगातार बढ़ रही है और नागरिक सुविधाएं घट रही हैं।
    निकाय चुनाव फिर भी होंगे। अंडरखाने कवायद जारी हैं। हर किसी को इंतजार है सिर्फ तरीखों के एलान होने का, इसी नजरिये से ‘प्रियंका’ ने एक नगर पंचायत और एक नगर निगम का जायजा लिया है।

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