लखनऊ। कचरा जो करोड़ों की कीमत रखता है, उसे गंदगी कहना कहां का इंसाफ है? कचरा गलियों की शान व राजधानी का वकार हो गया है। क्योंकि कचरे से बिजली बनेगी? सारा शहर कचरे की बदइंतजामी का शिकार है। मोहल्ला कटरा मकबूलगंज, विधानसभा के दरवाजे से सिर्फ दो-ढाई किलोमीटर दूर बसा है। यहां की लगभग हर चार फुटिया गली में दर्जनों कुत्तों, गायों का परिवार, कूड़ा बीनने वाले और कचरे का फैलाव राहगीरों के लिए चलने का रास्ता नहीं छोड़ते। इस कूड़े में आम कचरे के साथ ‘हगीज’ व ‘माहवारी’ के निल्र्लज पोतड़ों के अलावा टूटा हुआ कांच, लोहे के जंग लगे सामान पूरे चार फुट की चैड़ाई में फैले वहां से गुजरने वालों को मुह चिढ़ाते हैं। वहां सफाईकर्मी दिन में 12 बजे के बाद तशरीफ लाते हैं। इनका सुपरवाइजर कभी भी नहीं आता, शायद ही किसी ने उसे देखा हो? जो सफाईकर्मी आते हैं, वे भी इसकदर बदजुबान कि यदि कोई नागरिक उनसे नाली साफ करने या गली के किसी विशेष हिस्से से कूड़ा उठाने को कह दे तो महिला सफाईकर्मी गाली-गलौज करने लग जाती है। वहीं पुरूषकर्मी मौन साधकर कूड़ा बीनने वाले बच्चों के साथ कूड़ा उठाने से लेकर इधर-उधर छितराने में व्यस्त रहता है। झाड़ू लगाना, नाली से सिल्ट निकालना शायद उसके काम का हिस्सा नहीं है?
यहाँ बताना आवश्यक होगा कि यह दोनों सफाईकर्मी सभ्भवतः नियमित नहीं ठेके पर कार्यरत हैं या फिर किसी के बदले (एवजी) में काम करते हैं। वैसे पूरे शहर में एवजी पर काम हो रहा है! यह जांच का विषय है। इन दोनों को ‘हरिजन एक्ट’ व अपनी संवैधानिक, राजनैतिक स्थिति के साथ नगर निगम के अंदरूनी हालात की खासी जानकारी है। दबी जुबान से सुना जाता है कि वे भी अपने अधिकारियों को रिश्वत देते हैं। इन गलियों में घर-घर से कचरा उठाने का कोई प्रावधान नहीं है।
हां, राजधानी के लिये योजनाएं ढेर सारी हैं, जिनके लिये नगर प्रमुख (मेयर), नगर आयुक्त से लेकर नगर निगम का मलाईदार तबका देश-विदेश के कई हिस्सों से प्रशिक्षण प्राप्त कर ‘लखनऊ साफ’ का प्रमाण-पत्र तक हासिल कर चुका है। उसी झूठ को आगे बढ़ाने के लिए आये दिन अखबारों में बयान छपते हैं, ‘शहर को जल्द मिलेंगे और पांच हजार शौचालय’, ‘ब्राजील की तरह कूड़ा घरों पर लगेंगे पौधे,’ ‘घरों में शौचालय बनायेगा नगर निगम’, ‘कूड़े से बनेगी बिजली’, ‘नगर निगम साफ करेगा गोमती’, ‘लखनऊ ने सफाई में बंगलुरू को पछाड़ा’, ‘शहर में ... नई सीवर लाइन बिछेगी’, ‘घरों के बाहर सड़क पर खड़े होने वाले दो-चार पहिया वाहनों से पार्किंग शुल्क वसूलेगा नगर निगम’, ‘एलडीए 5 लाख में बेचेगा पार्किंग... सिंगापुर की तर्ज पर पार्काें में कम्युनिटी पार्किंग बनने की योजना’। इनमें से किसी एक को भी आज तक अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। शौचालय तो दूर की कौड़ी है, मूत्रालय तक नहीं है और अगर हैं भी तो वहां आप खड़े नहीं हो सकते। चारबाग से बर्लिग्टन चोराहे तक आप तालश कर नगर निगम के मूत्रालयों के फोटो खींचकर ‘प्रियंका’ को भेजें हम छापेंगे। हीवेट रोड पर बंगाली क्लब के पास एक टूटा-फूटा और बर्लिग्टन चैराहे पर एफआई टाॅवर के टीचे बदबूमारता एक मूत्रालय है जिसकी ओर शायद ही कोई सफाई कर्मी देखता भी हो, फिर आम आदमी की बिसात?
गौरतलब है कि सफाई व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने वाली रकम का इस्तेमाल दूसरे मदों में किया जाना आम है। 2011 में कांग्रेस पार्षद दल ने ऐसी ही एक शिकायत 387 लाख रूपये के दुरूपयोग की लोकायुक्त से की थी। लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। आये दिन सफाईकर्मियों की भर्ती के एलान विज्ञापनों के जरिये किये जाते हैं लेकिन ताजा हालात बताते हैं की लखनऊ की आबादी के हिसाब से सफाईकर्मी अपर्याप्त है। हेल्थ मैनुअल के अनुसार दस हजार की आबादी पर 28 कर्मी होने चाहिए। इस हिसाब से 50 लाख की आबादी पर 14 हजार सफाई कर्मी होने चाहिए। सफाईकर्मियों की भर्ती को लेकर आये दिन धरना प्रदर्शन होते हैं। पिछले महीने एक धरने के दौरान वाल्मीकि व धानुक समाज ने धर्मपरिवर्तन तक की धमकी दी थी। बावजूद इसके ‘स्मार्ट सिटी’ के दावेदार हैं। यहां एक आश्चर्यजनक बात लिखनी जरूरी हो जाती है, ग्रामीण क्षेत्रों में भले ही साठ फीसदी लोग खुले में शौच करते हों लेकिन सूबे की राजधानी लखनऊ में खुले स्थानों पर शौच करने वालों की संख्या आबादी की 25 फीसदी से कम नहीं है। आंकड़े कुछ भी कहते हों, अधिकारी कुछ भी कहते हों, नगर विकासमंत्री कितने ही कड़क ईमानदार तेवर रखते हों, लेकिन राजधानी गू, गोबर, गंदगी और आवारा जानवरों से अटी पड़ी है।
यहाँ बताना आवश्यक होगा कि यह दोनों सफाईकर्मी सभ्भवतः नियमित नहीं ठेके पर कार्यरत हैं या फिर किसी के बदले (एवजी) में काम करते हैं। वैसे पूरे शहर में एवजी पर काम हो रहा है! यह जांच का विषय है। इन दोनों को ‘हरिजन एक्ट’ व अपनी संवैधानिक, राजनैतिक स्थिति के साथ नगर निगम के अंदरूनी हालात की खासी जानकारी है। दबी जुबान से सुना जाता है कि वे भी अपने अधिकारियों को रिश्वत देते हैं। इन गलियों में घर-घर से कचरा उठाने का कोई प्रावधान नहीं है।
हां, राजधानी के लिये योजनाएं ढेर सारी हैं, जिनके लिये नगर प्रमुख (मेयर), नगर आयुक्त से लेकर नगर निगम का मलाईदार तबका देश-विदेश के कई हिस्सों से प्रशिक्षण प्राप्त कर ‘लखनऊ साफ’ का प्रमाण-पत्र तक हासिल कर चुका है। उसी झूठ को आगे बढ़ाने के लिए आये दिन अखबारों में बयान छपते हैं, ‘शहर को जल्द मिलेंगे और पांच हजार शौचालय’, ‘ब्राजील की तरह कूड़ा घरों पर लगेंगे पौधे,’ ‘घरों में शौचालय बनायेगा नगर निगम’, ‘कूड़े से बनेगी बिजली’, ‘नगर निगम साफ करेगा गोमती’, ‘लखनऊ ने सफाई में बंगलुरू को पछाड़ा’, ‘शहर में ... नई सीवर लाइन बिछेगी’, ‘घरों के बाहर सड़क पर खड़े होने वाले दो-चार पहिया वाहनों से पार्किंग शुल्क वसूलेगा नगर निगम’, ‘एलडीए 5 लाख में बेचेगा पार्किंग... सिंगापुर की तर्ज पर पार्काें में कम्युनिटी पार्किंग बनने की योजना’। इनमें से किसी एक को भी आज तक अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। शौचालय तो दूर की कौड़ी है, मूत्रालय तक नहीं है और अगर हैं भी तो वहां आप खड़े नहीं हो सकते। चारबाग से बर्लिग्टन चोराहे तक आप तालश कर नगर निगम के मूत्रालयों के फोटो खींचकर ‘प्रियंका’ को भेजें हम छापेंगे। हीवेट रोड पर बंगाली क्लब के पास एक टूटा-फूटा और बर्लिग्टन चैराहे पर एफआई टाॅवर के टीचे बदबूमारता एक मूत्रालय है जिसकी ओर शायद ही कोई सफाई कर्मी देखता भी हो, फिर आम आदमी की बिसात?
गौरतलब है कि सफाई व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने वाली रकम का इस्तेमाल दूसरे मदों में किया जाना आम है। 2011 में कांग्रेस पार्षद दल ने ऐसी ही एक शिकायत 387 लाख रूपये के दुरूपयोग की लोकायुक्त से की थी। लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। आये दिन सफाईकर्मियों की भर्ती के एलान विज्ञापनों के जरिये किये जाते हैं लेकिन ताजा हालात बताते हैं की लखनऊ की आबादी के हिसाब से सफाईकर्मी अपर्याप्त है। हेल्थ मैनुअल के अनुसार दस हजार की आबादी पर 28 कर्मी होने चाहिए। इस हिसाब से 50 लाख की आबादी पर 14 हजार सफाई कर्मी होने चाहिए। सफाईकर्मियों की भर्ती को लेकर आये दिन धरना प्रदर्शन होते हैं। पिछले महीने एक धरने के दौरान वाल्मीकि व धानुक समाज ने धर्मपरिवर्तन तक की धमकी दी थी। बावजूद इसके ‘स्मार्ट सिटी’ के दावेदार हैं। यहां एक आश्चर्यजनक बात लिखनी जरूरी हो जाती है, ग्रामीण क्षेत्रों में भले ही साठ फीसदी लोग खुले में शौच करते हों लेकिन सूबे की राजधानी लखनऊ में खुले स्थानों पर शौच करने वालों की संख्या आबादी की 25 फीसदी से कम नहीं है। आंकड़े कुछ भी कहते हों, अधिकारी कुछ भी कहते हों, नगर विकासमंत्री कितने ही कड़क ईमानदार तेवर रखते हों, लेकिन राजधानी गू, गोबर, गंदगी और आवारा जानवरों से अटी पड़ी है।
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