Monday, April 2, 2012

कहानी : बर्फ की सिल

मेरे बगल मंे लेटी हुई औरत के बदन पर तार भी नहीं था उसके जिस्म की गर्माहट में झुलसते हुए तमाम वक्त मेरे हाथों से फिसल चुका था, आज उसका वही बदन किसी बर्फ की सिल की तरह ठंडा लग रहा था। एहसास हो रहा था, मेरे बगल में लेटी हुई ताजा हाड़-मांस की औरत नहीं बल्कि फ्रिज में जमी बर्फ पसरी पड़ी हो। मैंने कई बार प्रयत्न किया, छू कर भी देखा मगर मुझे हर बार ठंडक का आभास मिला। शरीर में कंपकपी छाने लगी।
    यह मेरे लिए असहनीय था, मैं जब कभी ऐसे रास्ते से गुजरता तो लगता कि मैंने ईश्वर के विधान में दखल दे डाला है। शायद! सरल को यह एहसास मुझसे पहले से ही था। सरल का स्वभाव बेहद सरल था। सरल में दुनियां भर की खूबियों के बावजूद, ठंडेपन की एक चादर उसके बदन पर लिपटी रहती। मुझमें इतनी ताकत कभी पैदा न हो सकी कि उस ठंड़ी चादर के नीचे की गर्माहट का एहसास कर सकूं। मुझे यह कहने में कतई हिंचक नहीं कि शायद उतने समय के लिए मुझमंे नपुंसकता समा जाती रही है।
    सरल को लेकर जीवन की तमाम मुश्किलों का सफर आसानी से तय किया था। उसकी प्रेरणां से मोहब्बत और इंसनियत की जागीर का अकेला मालिक होने का दावा कर सका। सरल ने ही तो जीने के नये रास्ते की खोज में मेरा साथ दिया। सरल ने ही तो भूखे पेट को सिर्फ दो आंसुओं से भर लेने में मदद की। सरल ने ही तो निराशा को अपने बदन की गर्माहट से जलाकर भस्म कर दिया। फिर....... फिर आज उसके बदन की गर्माहट-मौन क्यों हैं?
    क्या हुआ है मुझे कि मैं उसके बगल मंे लेटा हुआ भी उसे बर्फ की गोद से नहीं निकाल पा रहा हूं? क्यों ऐसा होता है? क्या मैं उसके अहम् को कहीं कुचल तो नहीं रहा हूं? मेरे सामने सिर्फ सवालों की कतार है, जवाब का एक जुम्ला भी नहीं।
    इन सवालों की कतार से परे मुझे अपने जीवन के पिछले क्षणों के दृश्य दिखते है। मैं और सरल, सरल और मैं! कहीं कोई ठंडापन नहीं, कोई रीतापन नहीं। जोश और उमंग के समुद्र में तैरते हुए सरल और मैं। अचानक मेरा हाथ सरल के बदन से टकरा जाता है और विचारों की दुनिया से निकलकर यथार्थ की चिकनी और सपाट सड़क पर आ खड़ा होता हूं।
    ‘सरल...सरल.....। कोई उत्तर नहीं, सिर्फ ठंडी सांसे। अभी कल की ही तो बात है, गांव से पिता जी और भइया आये थे। सरल ने उन्हें आभास तक नहीं होने दिया कि वे अपने घर में नहीं हैं। सरल ने ही सारी मेहमाननवाजी पर कब्जा कर लिया था। पिता जी और भाइया बड़े ही खुश थे। जाने से पहले भइया ने मुझसे कहा था, ‘राम मैंने तुम्हें खत भी लिखा था कि खेतों ने इस बार हमारा साथ नहीं दिया हैं, हमें दस हजार रूपयों की जरूरत हैं, मगर तुमने कोई जवाब ही नहीं दिया।’
    ‘भइया मुझे तो तुम्हारा कोई खत नहीं मिला। बहरहाल मैं अभी देता हूँ।’
    वादा करके अंदर कमरे में गया,  अल्मारी खोल कर पैसे निकाले, और जैसे ही बाहर जाने के लिया घूमा, सरल सामने खड़ी थी। उसने एक नजर उन नीले नोटों पर डाली और दूसरी मुझ पर, फिर घूमकर चली गयी। उसकी खामोश निगाह ने क्या कहा? मैं न जान सका। मैंने बाहर आकर अपने बड़े भाई को रूपये दिये। उनको विदा करने की गरज से कोठी के गेट तक आया और उनके जाने के बाद भी लान में ही बैठा रह गया। दिल्ली की खुशनुमा शाम, माहौल में गर्माहट जरूर पैदा कर रही थी, मगर नागवार नहीं गुजर रहा था। शाम को और हसीन बनाने के इरादे से सरल को आवाज दी, मगर कोई उत्तर नहीं।
    मैं समझ गया कि खामोशी अब रंग लायेगी। मैं खुद ही अंदर गया। सरल रसोई में नौकर को कुछ समझा रही थी, मेरी मौजूदगी का एहसास होते ही, खामोशी ने उसका दामन थाम लिया। मैं तो यही कहुंगा। क्योंकि सरल खमोशी का दामन नहीं थाम सकती, इतना मैं अच्छी तरह जानता हूं। उसमें चंचलता कूट-कूट कर भरी है। जब चंचल हो जाती है तो किसी शरीर बच्ची की तरह और जब चंचलता ठहर जाती है तो उसका नयारूप एक खामोश बुत की तरह होता है। वो खामोश बुत मुझे बेचैन कर देता है। मुझे अच्छी तरह याद है, जब पहली बार यह खामोश बुत हम दोनों के बीच आया था। उस समय मैं दिल्ली की सड़कों पर अपनी मंजिल की तलाश में भटक रहा था। भटकाव में मेरे अपनों ने और भी भटका दिया। निराशा और भूख ने सरल के बदन से जेवरों को उतार लिया। जेवर जो औरत को पति के बाद सबसे प्यारे होते हैं। वही जेवर सरल से जुदा हो गये, मगर सरल ने उफ तक न की। फिर वक्त कब सरक गया, पता ही नहीं चला।
    दिल्ली जैसे शहर की भीड़ में अपनी पहचान बनाना बड़ा मुश्किल था, फिर भी सरल के साथ ने मुझे दिल्ली शहर का भारी-भरकम ‘साईन बोर्ड’ बना दिया। ठीक उसी तरह जैसे रेलवे स्टेशन पर ‘पीला बोर्ड’ उस स्टेशन और शहर की पहचान कराता है। दिल्ली शहर की ऊंची सोसाइटी में ‘राम’ का नाम लेने और याद रखने वालों की संख्या काफी लम्बी हो गई। तब आया एक नया मोड़, जो पिछले छूटे हुए मोड़ों के पास निकलता था। वहां मेरे परिवार के लोग हाथ फैलाये खड़े थे। मेरे अपने खून के रिश्ते भीख मांगते हुए सड़क पर खड़े हों, यह मुझे बर्दाश्त नहीं हुआ और मैंने बिना सरल की राय के उन फैले हाथों को बन्द मुट्ठी में बदल डाला। बस उसी दिन से मेरे और सरल के बीच वह खामोश बुत आ गया। सरल ने कभी शिकायत नहीं की। कभी कुछ मांगा नहीं। मांगा तो सिर्फ अपने खाये हुए, बिगड़े हुए जेवर। जो मैं दे न सका। ऐसा नहीं कि मैं दे नहीं सकता, मगर व्यापारी होने के नाते बैंक के लाकर का खर्च और पूंजी की हत्या बर्दाश्त नहीं होती। जी कड़ा करके जैसे-तैसे एक बार पूंजी की हत्या भी कर डाली मगर ईश्वर शायद मेरी सरल को जेवरों से जगमगाता नहीं  देखना चाहता था या फिर सरल का जेवरों के प्रति अटूट मोह उसे उससे दूर ले जाना चाहता था। जो भी हो, व्यापार में घाटा उठाना पड़ा और कर्जदारों ने कोठी के गेट पर खड़े हो लाल-पीली आंखे दिखानी शुरू की, तब एक बार पुनः सरल के जेवरों के बाक्स ने ‘शाख’ बचाई। वहीं जेवरों का बाक्स मैं न भर सका, लोगों की झोलियां भरने की आदत भी न छुडा सका। नतीजा वो खामोश बुत साये की तरह मेरे साथ लग गया। सरल मंे ठंडापन बढ़ता गया और मैं अपने दंभ में ठंडेपन को रौंदता गया और आगे बढ़ता गया।
    आज भइया को गांव गये दूसरा दिन है, मगर सरल ने मुंह नहीं खोला। रात बिस्तर पर निर्जीव सी पड़ी रही। बर्फ भी गर्मी पा कर पिघलने लगती है, मगर सरल शायद बर्फ से भी अधिक ठंडी हो जाती है, इन क्षणों में.... उफ! क्यों ऐसा होता है?



लाल कालीन पर नकली भगवानों की खड़ाऊं

भारत भूमि पर रामराज्य कायम करने का षड़यंत्रकारी सपना बेचने वालों के साथ द्दर्म/योग गुरूओं और नकली भगवानों की महत्वाकांक्षी  खड़ाऊं की खटपट लगातार बढ़ती जा रही है। इनमें कौन चाणक्य की भूमिका में है? कौन विश्वामित्र की फोटोकाॅपी है? कौन अपने को गुरू वशिष्ठ समझने के मुगालते में है? यह तय करना सवा सौ करोड़ भारतीयों के लिए शायद मुश्किल हो, लेकिन राजनैतिक गढि़यों और किलांे में इनके लिए एकदम नये, मुलायम लाल कालीन बिछा दिये गये हैं। यही वजह है कि श्री श्री रविशंकर को सरकारी स्कूल नक्सलियों के उत्पादक लगते हैं। योग गुरू स्वामी रामदेव को कालाधन कांग्रेस काॅलोनी में दिखाई देता है। भगवान आशाराम बापू को राहुल गांधी भारतीय राजनीति में वंशवाद का जघन्य उदाहरण लगते हैं।
    धर्म और राजनीति की भांग के नशे में आदमी लाखों बरस से गाफिल हैं। रामायणकाल से लेकर गोरे लाॅट साहबों तक इसकी गवाहियों में पोथियां भरी पड़ी हैं। आजाद भारत के पहले आम चुनाव 1952 में उत्तर प्रदेश के जनपद इलाहाबाद की फूलपुर संसदीय सीट पर पंडित जवाहरलाल नेहरू को स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने बतौर निर्दलीय प्रत्याशी चुनौती दी थी। ब्रह्मचारी को स्वामी करपात्री जी की अखिल भारतीय राम राज्य परिषद व हिन्दू महासभा का समर्थन प्राप्त था। इनका विरोध नेहरू के हिंदू कोड बिल को लेकर था। नेहरू की पैतृक भूमि इलाहाबाद में प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का प्रचार इस कदर आकर्षक और भावनात्मक था कि जनता से लेकर मीडिया तक आंदोलित थे केसरिया पगड़ी, बढि़या ऐनक और सफेद जामे में सजे-धजे ब्रह्मचारी, उनके भजन गायकों और नर्तकों ने लोगों को खूब लुभाया। ब्रह्मचारी भाषणों में जनता को बताते कि इस विधेयक से धर्म का नाश होगा, परिवारिक शोषण बढ़ेगा, भई-बहनों में वैमनस्य पैदा होगा, जातीय मतभेद होंगे, संपत्ति विवाद और विवाह में विसंगतियां बढ़ंेंगी और इन झगड़ों से वकीलों को फायदा होगा। ब्रह्मचारी के ओजस्वी भाषाणों का फूलपुर (इलाहाबाद) की जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वे बुरी तरह पराजित हुए। उसके साथ ही करपात्री जी का राम राज्य परिषद भाजपा के पुराने घर भारतीय जनसंघ में समा गया। इसके बाद राजनीति के रंगमहल में कीर्तन करनेवाले कई स्वामियों, गुरूओं और भगवानांें का आना-जाना हुआ। इंदिरा गांधी के समय में योग गुरू स्वामी द्दीरेन्द्र ब्रह्मचारी का बड़ा प्रताप रहा। वे इंदिरा जी के निकट ही नहीं थे, बल्कि आला अफसरों की तेनाती, तबादलों से लेकर मंत्रियों की कुर्सी तक तय करने में अहम भूमिका निभाने के साथ पर्दे के पीछे इंदिरा जी के लिए राजनैतिक सौदबेाजी, मंत्रणा तक में पूरी तरह मुस्तैद रहते थे। इसी कारण पुराने नेता, मंत्रीगण, अफसरान स्वामी जी के भक्तांें में शुमार होते। इन्हीं लोगांे के चलते जहां स्वामी जी अरबपति हुए, वहीं उन्हांेने जम्मू राज्य में एक गन फैक्ट्री भी लगा ली थी। जब इंदिरा जी का इमरजेंसी के बाद पराभाव हुआ तो स्वामी को कई आपराधिक मुकदमों का सामना करने के साथ अपनी संपत्तियों को बचाने के लिए लड़ाइयों लड़नी पड़ीं। इसी बीच वे एक जहाज दुर्घटना में मारे गये थे।
    सत्ता के शीर्ष पर चन्द्रा स्वामी की धमक शायद भारतीयों को अच्छे से याद होगी। इनके भक्तों में दों प्रधानमंत्रियों पी.वी. नरसिम्हा राव और चंद्रशेखर का नाम था। राव साहब के समय में उनका दखल अंतर्राष्ट्रीय मामलों तक में था। हथियारांे की खरीद में भी उनकी भूमिका पर जहां उन पर उंगलियां उठीं, वहीं अंतर्राष्ट्रीय हथियारों के सौदागर अदनान खाशोगी से उनके संबंधों को लेकर खासी चर्चा रही। अदनान के निजी हवाई जहाज पर की गई स्वामी की यात्राओं के खुलासे भी अखबारों की सुर्खियां बने थे। उन खबरों में छपा था, हवाई जहाज में दुनियाभर की उम्दा शराब और आलादरजे की सुंदरियां स्वागत के जाम छलकाती थीं। नरसिम्हा राव की सरकार जाने के बाद माफिया बबलू श्रीवास्तव से रिश्तों के किस्सों के साथ तमाम आपराधिक व टैक्स मामलों में लिप्त होने के आरोपों के चलते चन्द्रा स्वामी को तिहाड़ जेल में काफी समय काटना पड़ा।
    राम मंदिर आन्दोलन ने कई नये स्वामियों को भाजपाई राजनीति के रथ पर सवार करा कर 1991 में संसद के भीतर तक पहुंचा दिया। इनमें आग उगलनेवाली उमा भारती, स्वामी विश्वनाथ शास्त्री, स्वामी चिन्मयानन्द, महन्त अवैद्यनाथ सहित दस धर्मनेता थे। महन्त अवैद्यनाथ की राजनैतिक पृष्ठभूमि हिन्दू महासभा से थी और उनके गुरू महन्त दिग्विजय नाथ पहले भी गोरखपुर से सांसद रहे थे। अवैद्यनाथ गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर के महंत हैं। इनके शिष्य योगी आदित्यनाथ भारतीय जनता पार्टी से इस समय गोरखपुर से सांसद हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व भाजपा के समर्थन में आशाराम ने गुजरात में प्रचार अभियान में सक्रियता दिखाई थी, लेकिन उन्हंे हत्या के एक मामलें में फंसने के कारण अपने कदम पीछे खींचने पड़े। कांची पीठ के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती संघ के रथ पर सवार होकर तामिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता के बेहद करीब हुए थे, लेकिन उन्हें एक हत्या की साजिश में गिरफ्तार होना पड़ा था। इसी तरह स्वामी चिन्मयानन्द पर भी बलात्कार का आरोप उनकी ही एक शिष्या ने लगाया है। भाजपा के गोविंदाचार्य और उमा भारती के किस्से भी जबर्दस्त चटखारे लेकर सुने गये। इसके बावजूद इन नकली भगवानों का कुतर्क विश्वामित्र-राम, श्रीकृष्ण-अर्जुन, चाणक्य-चन्द्रगुप्त और समर्थ रामदास-शिवाजी को गिनाता है।
    राजनीति में हाल के दिनों में उभरी ‘लिट्टी-चोखा’ या ‘फास्टफूड’ संस्कृति ने योगा और आर्ट-आॅफ लिविंग को करोड़पतियों की जमात में ला खड़ा किया जिसके चलते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हिन्दुत्व और भाजपा का सत्तामोह एक बार फिर उछाले मारने लगा है। इसी ज्वार की लहरों पर रामदेव, रविशंकर और अन्ना का उतराना-डूबना फिर उतराना दिखाई दे रहा है। जबकि सच यह है कि भारत का कोई भी हिन्दू, मंदिर या राममंदिर के लिए आज की तारीक्ष में पगलाया नहीं है। इसके अलावा हिन्दू को आसानी से तब और भी बरगलाया नहीं जा सकता जब उसके तथाकथित नकली भगवान दिल्ली के रामलीला मैदान से औरतों के कपड़े पहनकर भाग निकलते हैं और 24 घंटे के बाद सामने आने पर फुक्का फाड़कर रोते दिखाई देते हैं। धर्म का भयादोहन करके धर्मनेता राजनेता बनने में शायद इसीलिए असफल रहते रहे हैं।

रोमांस में भी गारंटी कार्ड

मुंबई/लखनऊ। प्यार के टिकाऊ होने की गारंटी के पैकेज लेकर बाजार में डाॅक्टर/परामर्शदाता/ज्योतिषाचार्य हाजिर हैं। यौन रोग विशेषज्ञों/सेक्सोलाजिस्टों की तरह इनके भी क्लीनिक व प्रयोगशालाएं खुल गये हैं। इन प्रयोगशालाओं मंे रोमांस का परीक्षण हो रहा है। सेक्स की क्षमताओं की जांच हो रही है। यह परीक्षण खून, वीर्य, योनि तरलता (फर्टिलिटी) के जरिये किया जा रहा है। मर्द/औरत के दैहिक उपकरणों की स्वस्थता के साथ भावनाओं की भी पड़ताल होती है। यह सब ‘काम्पैटिबिलिटी पैकेज’ के तहत धड़ल्ले से जारी है। इस पैकेज की कीमत मुंबई में 8 हजार तो लखनऊ में 5 हजार बताई जाती है।
    डाॅक्टर/परामर्शदाता युवा जोड़ों से बाकायद डायरी लिखते रहने की सलाह देते हैं। जिसमें अपनी आदतों के साथ दैनिक विवरण लिखना होता है, जैसे दिन भर मेें आपने अपनी प्रेमिका/प्रेमी को कितनी बार आलिंगनबद्ध किया, चंुबन लिया, इशारे किये, सेक्स किया, प्यार भारी नजरों से देखा, भावनात्मक बातें की, रोजमर्रा के घरेलू कामों में एक-दूसरे की मदद की व दैहिक रोमांच कब-कब हुआ या सेक्स उपकरणों के इस्तेमाल कैसे किये आदि। वहीं ज्योतिषीय परामर्शदाता युवा जोड़ों की कुंडली में उनके ग्रहों के मिलान के साथ विशोंत्तरी दशा व उनमें चल रहे प्रत्यंतर के अलावा किस ग्रह की महादशा वर्तमान में चल रही है, देखते हैं और दोनों की राशियों के साथ चंद्र, शुक्र व बुध ग्रहों की कुंडली में स्थिति का आकलन करने के साथ उनके अंदरूनी वस्त्रों पर कई तरह के निशान बना देते हैं।
    इन निशानों से युक्त वस्त्रों का ‘सेक्स क्रिया’ के दौरान लगातार 9, 11 या 21 दिनों तक इस्तेमाल करना अनिवार्य बताते हैं। ऐसे ही कई तरह के आयुर्वेदिक नुस्खों के प्रयोग भी बताते हैं। बकायदा रोमांस का चार्ट/रोमांटिक कुंडली बनाई जाती है। इन सभी विवरणों का परामर्श के दौरान बाकायदा अध्ययन किया जाता है। पुराना प्यार, तलाक, अप्राकृतिक मैथुन, होमोसेक्सुअल, हस्त मैथुन शक, रिश्तों की गहराई आदि के गणित लगाकर, जोड़-घटाना करके प्यार भरे जीवन की गारंटी दी जाती है। मुंबई के एक परामर्शदाता/ डाॅक्टर के मुताबिक इसे रोमांटिक जिंदगी की गारंटी नहीं बल्कि असुरक्षा की भावना में जकड़े ‘लोगों को सही राह दिखाना भर कहा जाना चाहिए।
    उन्होंने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया, ‘एक युवा महिला हाल ही में मेरे पास आई थी। उसका पति उसके साथ अप्राकृतिक मैथुन करता था। इसी वजह से उसका वैवाहिक जीवन टूटने के कगार पर था। दोनों को साथ बैठाकर समझाने के दौरान पता लगा युवक होमोसेक्सुअल था। उसे इसके खतरे बताए गये व आने वाली पीढि़यों पर इसका असर और इससे होने वाली बीमारियों के बारे में बताया गया। उस युवक ने गंभीरता से पूरी बातें समझीं और सेक्स की सही राह पर चलने की सलाह मानी।
    मुंबई के ही एक रिश्तों के विशेषज्ञ व शोधकर्ता डाॅक्टर प्रेम के परिणामों की एक घंटे की फिल्म भी बना चुके हैं। उनके प्रेम की प्रयोगशाला में सौ प्रेमी जोड़ों के परामर्श के वीडियों मौजूद हैं। वे चेहरे के भावों, शारीरिक संबंधों के आधार पर प्यार की गारंटी की भविष्यवाणी करते हैं।
    वे अपनी प्रयोगशाला मेें प्रेमी जोड़ों की जांच/परामर्श कर जो भविष्यवाणी करते हैं, वह नब्बे फीसदी तक सच होती है। उनके अनुसार परामर्श के दौरान जोड़े में कौन उग्र है, या बचाव का पक्षद्दर। अभिमानी या आलोचनात्मकता का प्रभाव किस पर है। ऐसे ही कई बातों का अध्ययन करने के बाद लक्षणों (डायग्नोसिस) का पता करने के बाद उन्हें वर्कशाप में भेजा जाता है, जहां उन्हें अंतरंगता, दोस्ती, भावुकता और रिश्तों की अहमियत के साथ  प्यार के निर्माण की सभी विधाओं को समझाकर खुशहाल जीवन/परिवार का संकल्प दिया जाता है और प्रेममय जीवन की गारंटी।
    लखनऊ के एक ज्योतिषी/ परामर्शदाता युवा जोड़ों में ‘प्यार की गारंटी’ पर अच्छा अनुभव रखते हैं। उनके पास एक बार एक विवाहित युवती आई, वो सरकारी कर्मचारी थी, अच्छा कमाती थी। उसने सकुचाते हुए अपनी कुंडली उन्हें सौंपी, उसी के भीतर एक कागज पर सवाल लिखा था, ‘मेरे प्रेमी ने मुझसे पिछले छः महीने से बात नहीं की है, न ही वो लखनऊ मेरे पास आया है। क्या उसे बुलाने का कोई उपाय है?’ हाँ, क्या उस शख्स का अण्डरवियर है? ‘जी हां!’ युवती ने उत्तर के साथ ही वो अण्डरवियर ज्योतिषी जी को दिया। उस पर एक खाका कलम से खींचकर ज्योतिषी ने उसे वापस कर दिया। हफ्ते भर बाद वह युवती बेहद प्रसन्न मुद्रा में आकर ज्योतिषी जी का धन्यवाद कर गई।

रोटी से रोमांस तक लापता है महंगाई

छप्पर के नीचे छम्मक छल्लो‘
रोटियों की छाती और पीठ पर पड़े काले-भूरे फफोले देखकर मुंह बिचकाने वाली जमात मुर्दा और जिंदा गोश्त देखकर लार टपकाती यहां-वहां होने वाले महंगाई के फैशन शो मंे शामिल होकर इंकलाबी गर्व से भरी है। और यही कौम एक हाथ में मिनरल वाॅटर की बोतल दूसरे में जलती मोमबत्ती थामें महंगाई को और महंगा कर रही है। क्या सच में महंगाई जीना हराम किये है? या फिर महंगाई भी महाजनों और महाराजाओं से ज्यादा आदमी की बांदी है? पढि़ये
महंगाई डायन खाये जात है.... गाना ऊँचे से ऊँचे स्वर में गाये जाने की पूरे देश में होड़ मची है। इसके प्रतिस्पर्धी पेट और पेट के नीचे की प्रयोगशाला में बाकायदा परीक्षण करके रोटी से रोमांस, पानी से पेट्रोल, मिट्टी से मक्खन, दवाई से पढ़ाई, बिजली से वाहन, सड़क से संचार, सब्जी से सौंदर्य प्रसाधन, दूध से दारू, कपड़ों से करों (टैक्स), जमीन से जंगल, धर्म-आस्था से सोना-चांदी और पर्यटन, परिवहन से पगार तक के मंहगे आंकड़ों पर अपना ज्ञान बांट रहे हैं। वह भी तब जब पांच राज्यों में हुए चुनावों के बाद हाल ही में देश का बजट आया है। बजट में आम आदमी को कुछ नहीं मिला की तोतारटन्त के साथ रेल का किराया बढ़ाये जाने को लेकर जहां सियासत के मोहल्ले में घमासान हुआ, वहीं सोने पर बढ़े कर को लेकर सड़कों पर हंगामा बरपा है। इसी के बीच कृषि मंत्रालय की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि किसान 20 रूपए प्रतिदिन भी नहीं कमा पा रहे हैं। योजना आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 29 रूपए रोज कमाने वाला गरीब नहीं है।
    महंगाई और गरीबी का कारोबार बड़े ही सुनियोजित तरीके से सरकार, सरदार और समाज (आम आदमी) की साझेदारी में चल रहा है। गौर करने लायक है कि महंगाई का हल्ला, गरीबी का हल्ला वे ही मचाये हैं जो खाये-पीये, अघाये हैं। उन्हीं के पास आंकड़ों की बाजीगरी है। यह सब इसलिए भी कि इसी हल्ले के जरिये विदेशी सहायता व कर्ज भी हासिल होता है। साथ ही सत्ता पर चढ़ने की सीढि़यों के दो मजबूत डंडे भी यही हैं।
    सच की सड़क पर लगे आदमी की शाहखर्ची के ‘होर्डिंग्स’ कुछ अलग ही बयान करते दिखाई देते हैं। हाल ही में होली का रंगीन पर्व भारतवासियों ने मनाया है, जिसमें 12 हजार करोड़ से अधिक का रंग-गुलाल उड़ा दिया। किराना, कपड़ा, दूध-मावा पर 60 हजार करोड़ के खर्च के आंकड़े आये हैं। शराब अकेले उप्र की राजधानी लखनऊ में 30 करोड़ से अधिक की पी गई। देशभर का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों की कच्ची शराब के प्रमाणित आंकड़े भले ही उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन उसके भी जनपद में 25 करोड़ के कारोबार की सूचना है। गुझिया 36 हजार रूपए किलो से लेकर 360 रू0 किलो तक बिकी। दस करोड़ एसएमएस महज एक दिन में लखनऊवासियों के मोबाइल फोनों से किये गये। संचार का नेटवर्क तक कई जगह बैठ गया।
    दीवाली भी इससे कम में नहीं मनाई गई थी। धनतेरस के दिन 360 किलो सोना (1 अरब रूपए से ऊपर कीमत का) बिका, 1000 किलो चांदी (6 करोड़ रूपए), 50 लाख का हीरे का एक हार, 48 करोड़ के 4000 दो पहिया, 32 करोड़ के 700 चार पहिया वाहन, 40 करोड़ की मिठाई, 35 करोड़ के इलेक्ट्रानिक्स आयटम, 3 करोड़ के बर्तन बिके। 20 करोड़ की आतिशबाजी, 10 करोड़ संचार पर (12 करोड़ एसएमएस सहित) खर्च, 15 करोड़ की पतंगे उड़ीं, कमल का फूल 101 रूपए तक बिकने के बाद भी लाखांे लोेग उसे खरीदने से वंचित रह गये। खाद्य-पूजन वस्तुएं 35 फसीदी तक महंगे बिक रहे थे फिर भी खरीदने वालों की कमी नहीं थी। दो-चार पहिया वाहनों के खरीददार थैलोें में नकद पैसा लिए बाजार में घूमते ही रह गये, क्योंकि गाडि़यां बिक चुकी थीं। शेयर बाजार में महज पौने दो घंटे के शुभमुहूर्त में 60 करोड़ से अधिक का कारोबार हुआ। इससे आगे देश में फरवरी 12 में 11 लाख 44 हजार 5 सौ दो पहिया और 2 लाख 11 हजार चार सौ दो चार पहिया वाहनों की बिक्री हुई और मार्च में बजट से पहले सात लाख पैंसठ हजार नौ सौ अड़सठ चार पहिया वाहनों की मांग वेटिंग पर थी। उनमें डीजल गाडि़यां अधिक हैं। पर्व-त्यौहार से अलग हटकर रोजमर्रा खर्चों के आंकड़े भी कम चैकाने वाले नहीं हैं। लखनऊ सर्राफा कारोबारी हड़ताल पर है, 30-32 अरब का व्यवसाय प्रभावित हुआ बताया जाता है। महिलाएं जेवर नहीं खरीद पा रहीं हैं, तो रिश्तेदारांें से मांग कर काम चला रही है। शादियों में भी यही हाल है। झूठी शान के चलते मामूली शादियों में पांच-दस लाख खर्च हो रहा है। आम आदमी एक लाख से दस हजार रूपए प्रतिमाह कमाई करने के साथ नंबर दो में भी इतना ही कमा रहा है। सफाईकर्मी तक मोबाइल, टी.वी., दो पहिया वाहन, दारू से लेकर ब्यूटी पार्लर पर धड़ल्ले से खर्च कर रहा है। रेस्ट्रां, स्ट्रीट रेस्ट्रां में बैठने को जगह नहीं मिलती। विशाल मेगा मार्ट, बिग बाजार से मुहल्ला किराना मर्चेन्ट तक चेक/क्रेडिट कार्ड से भुगतान ले रहे हैं। पान मसाला से लेकर मामूली पूड़ी भंडारों में लगने वाली भीड़ के अलावा ब्रांडेड खाद्य सामग्रियों व कास्मेटिक्स की बिक्री आदमी की जेब का गुणगाान करती है। महंगे स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने का हाल यह है कि रोज नये स्कूल खुलते हैं, फिर भी प्रतिस्पर्धा खत्म नहीं होती। अकेले सिटी मान्टेसरी स्कूल (सीएमएस) की लखनऊ शहर में 32 शाखाएं हैं। पेट्रोल, गैस, पानी, बिजली व मोबाइल फोन के दुरूपयोग व इनके चोरी से इस्तेमाल करने की शाहखर्ची महंगाई ही नहीं भ्रष्टाचार भी बढ़ाते है। एनएसएसओ के अनुसार शहर का एक आदमी 1500 से 2900 तक औसत खर्च करता है। जबकि सच्चाई इससे अलग बयान करती है। शहरी आदमी केवल पान मसाला, सिगरेट, शराब, बाल-दाढ़ी कटाने, धुलाई-सफाई, कास्मेटिक्स मनोरंजन पर ही दो हजार से अधिक प्रतिमाह खर्च कर देता है। सुनकर हैरत हो सकती है, मामूली रिक्शा चालक, कार ड्राईवर, फेरीवाला नाई केवल पान मसाले पर हजार रूपए प्रतिमाह खर्च करते हैं। यही शहरी ‘पत्थर वाली’ अफवाह को हवा देने के लिए केवल दो घंटे में चार लाख मोबाइल काॅल करके रेकार्ड बना डालते हैं। देश में करोड़पति तो महज दो लाख दस हजार ही हैं, मगर हैप्पी बर्थडे का पांच सौ वाला केक तो आम आदमी की पार्टी मंे ही शान बढ़ाता है।
    नेशनल सैम्पल सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि देश के 28 राज्य और 7 केन्द्र शासित राज्यों में दिल्लीवासी शहरी लोग सर्वाधिक (2905 रूपए प्रति व्यक्ति प्रतिमाह) अपने खाने-पीने पर खर्च करते हैं। दूसरे नंबर पर हिमांचल प्रदेश के शहरी हैं। इनकी प्रति व्यक्ति आय समूचे देश के प्रति व्यक्ति 53,331 के मुकाबले 58,493 रूपए हैं। यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथाॅरिटी आॅफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश के लोगों की जेबों में अमेरिकी नागरिकों की जेबों से भी अद्दिक नकद रकम रहती है। शहरियों की शाह खर्ची बढ़ी है, तो गांवों की आबादी लगातार बढ़ रही है। 83.31 करोड़ लोग गांवों रहते हैं, जिनके रहन-सहन खाने-पीने, मनोरंजन में बड़ा बदलाव आया है। गांव के छप्परों के नीचे अब ढोलक की थाप पर फाग, चैता की गूंज के बजाय छम्मक छल्लो...., चिकनी चमेली से लेकर कोलावेरी...  ऊँची आवाज में देर रात तक सुने जा सकते हैं। धुर देहात या अति पिछड़े इलाकों की लड़कियां तक गाजियाबाद से लेकर मुंबई तक के महंगे शिक्षण संस्थानों मंे पढ़ती और महंगे अपार्टमेंटों में पेइंग गेस्ट/ लिव-इन-रिलेशन में दिख जाएंगी। गांव का भोला-भाला युवा पहले ‘रेडियों’ पर गाने सुनकर खुश होता था। अब एफएम पर सीधे एंकर से बात करता हैं। गांवों में बनियों की दुकानों पर अनाज के बदले बीड़ी, साबुन खरीदने वाले ग्रामीणों ने भले ही प्रचलित अर्थव्यवस्था को आज भी बड़ी तादाद में न बदला हो, लेकिन उनकी खरीद में भी शैंपू, साबुन, टायलेट क्लीनर, स्वास्थ्य व पर्सनल केयर वस्तुएं, डब्बा बंद खाद्य वस्तुओं को खासी अच्छी जगह मिली है। कारपोरेट जगत की बड़ी हस्ती हिन्दुस्तान थाॅमसन एसोसिएट के शोध विभाग की रिपोर्ट बताती है कि दूद्द से बने उत्पादों की ग्रामीण क्षेत्रों में बिक्री 41 फीसदी तक बढ़ी है। आईएमआरबी की रिपोर्ट के अनुसार शैम्पू में 81 फीसदी, टाॅयलेट-बाथरूम क्लीनर में 25 फीसदी की बढ़त दर्ज की गई है। इसी तरह पीयर्स, डव, डेटाल साबुनों में 47 फीसदी की भारी बढ़त दर्ज की गई है। खाद्य पदार्थों की बिक्री 53.6 फीसदी है। टूथपेस्ट तक 47 फीसदी की बढ़त पर हैं। यह हालात तब हैं जब सरकारी आंकड़ों के हिसाब से गांवों में हर तीसरा आदमी गरीब है। इस हिसाब से लगभग 28 करोड़ ग्रामीण नोन-भात या नमक -रोटी खाकर, अशुद्ध पानी पीकर जीने को मजबूर हैं। उन्हें महंगाई का मतलब कैसे समझ में आयेगा?
    गांवों मंे बसने वाली गरीब आबादी और शहरी गरीबों के हालातों पर अगले किसी अंक में फिर बात करेंगे। हकीकत में आई लव यू... हैप्पी बर्थ डे.. पुराना फैशन हो गये हैं। आज हाॅफ जींस और शार्ट खुलेआम महंगाई का मजाक उड़ाते हुए कहीं भी ‘विल यू लिव विद मी’ या ‘विल यू सेक्स विद मी’ कहते दिख जाएंगे।