Tuesday, November 17, 2015

लिफ्ट में शौचालय!

भारत में शौचालय घरों व सार्वजनिक स्थालों पर बनाये जाने के लिए अभियान चलाया जा रहा है। सरकार 12 हजार रूपये प्रोत्साहन राशि देने का प्रचार करने जा रही है। वहीं जापान में सरकार ने पिछले दिनों फैसला लिया है कि वह अपने देश की लिफ्टों (एलीवेटर्स) में शौचालय व पानी की व्यवस्था करेंगे जो आकस्मिक अवसरों पर उपयोग में लाये जा सकेंगे दरअसल पिछले दिनों जापान में 7.8 तीव्रता वाले भूकंप आने के कारण बहुत सारे लोग घंटो लिफ्ट में फंसे रहे और कंपकपाती द्दरती ने उन्हें बाहर निकलने से रोके रखा। कई इलाकों में लोगो ने कई दिन लिफ्ट में गुजारे जहाँ उन्हें पीने का पानी व शौचालय की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। मेट्रो न्यूज रिपोर्ट के अनुसार सरकार नष्ट किये जा सकने वाले कार्ड बोर्ड के ढांचे वाले शौचालय और पानी सोख लेने वाले कागज (सोखता) के थैले छोटी जगह में रखने पर विचार कर रही है। एलीवेटर्स एसोसिएशन और इंस्फ्राटक्चर मंत्रालय इसे मूर्तरूप देंगे।

जानवरों के लिये भी बनाओ शौचालय

आदमी खुले में शौच करे तो अपराध कुत्ता, बिल्ली, गाय, सांड, भैंस, दम्पत्ति राजपथ पर खुलेआम फारिग हांे तो साहब मेम साहब सहित समूचा सरकारी अमला मस्त बंद्ररों की भारी जनसंख्या शहरों-गांवो के घरों की छतों पर मल-मूत्र त्याग रही है, जबकि आदमी का सार्वजनिक स्थान पर पेशाब करना भी दण्डनीय अपराध है। राजपथ से लेकर गली-मोहल्लों, काॅलोनीयों से लेकर जनपथ और खूबसूरत पार्को तक में हर सुबह-शाम अपने प्यारे पप्पी को टहलाते, फारिग कराते लाखों बाबू-बबुआइन दिख जाएंगे। ये प्यारे आपके मकान के दरवाजे के सामने, बीच रास्ते में कार-बाइक के आस-पास या कहीं भी खुली सड़क पर नित्यकर्म से निबटते दिख जाएंगे। आवारा जनवरों का शौचालय सड़कें गलियां, पार्क तो हंै ही। मजे की बात है अपने कुत्तों को सड़कांे पर नित्यकर्म कराने वालो में अधिेांश धरती बचाने के सेमिनारों में बड़ी-बड़ी बातेे करते हैं और पशु प्रेम के साथ आवारा पशुओं पर हल्ला भी मचाते हैं? पर्यावरण पर भाषणों सहित अखबारों में अपना ज्ञान बघारते हुए फोटो छपातें हैं। जबकि कुत्ते और बंदर के मल मौजूद इ कोली वैक्टीरिया प्रदूषण फैलाने का काम करते है। कुत्ते के एक ग्राम मल में दो करोड़ से अद्दिक इ कोली सेल होते हैं और लाखों करोड़ों कुत्तों का मल-मूत्र जमीन के जरिये भूजल को दूषित कर रहा है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने समय में खुले में शौच पर नारा दिया था, टट्टी पर मिट्टी डालो। यह जहमत भी कोई उठाने को तैयार नही है। देश में बंगलौर, चंडीगढ़ छोड़कर शायद ही कहीं कुत्तों के मल को सुरक्षित स्थान पर फेंकने का नियम हो। एनीमल वेल्फेयर बोर्ड आॅफ इंडिया ;।ॅठप्द्ध के तमाम दिशा निर्देशों में भी पालतू पशुओं के सार्वनिक स्थलों पर मल त्यागने के संबंध में प्रतिबंध का उल्लेख नही है। यहाँ यह भी बताते चलें कि एनीमल वेल्फेयर बोर्ड आवारा पशुओं खासकर कुत्तों के आतंक से निपटने के लिए राज्यों को बाकायदा पैसा भी देता है। उप्र नगर निगमों को कब कितना पैसा मिला कैसे खर्च हुआ या लापरवाही के चलते मिला ही नहीं यह जांच का विषय है। इसके साथ ही यह भी बताना आवश्यक होगा कि नगर निगमों में आवारा कुत्ते पकड़ने या पकड़कर उनकी नसबंदी करने का कोई अभियान भी नहीं चलाया जाता और तो और इसके लिए अलग से कोई बजट भी नहीं रखा जाता।
    उससे भी अधिक हास्यास्पद स्थिति यह है कि नगर निगमों/पंचायतों पालिकाओं के पास आवारा व पाले हुए कुत्तों के आंकड़े तक नहीं है। कई बार आवारा पशुओं की गणना के फैसलों का एलान हुआ तो, लेकिन अभी तक यह काम शुरू नहीं हुआ। कब होगा यह कोई नही जानता, कुत्ते हंै कि लगातार बढ़ते जा रहे हैं और बिल्ली से लेकर नवजात शिशुओं तक को फाड़ खा रहे हैं। यह आंकड़ा अकेले लखनऊ में 2014 में 53 हजार के पार हो चुका है। पीडि़तों का हाल यह है कि हर साल देश में 22 हजार मौतें रैबीज के कारण हो रही हैं, उनमेें 90 फीसदी लोग कुत्ते के काटने से मरने वाले होते है। बंदरो के आतंक से शायद ही कोई शहर या गांव बचा हो। हाल ही में कैम्पियरगंज में चार महीने के मासूम बच्चे को मां की गोद से छीनकर बंदर ने मार डाला और लखनऊ के गोसाईगंज इलाके में बंदरों को भगाने के लिए एयरगन से फयर करते हुए निशाना चूकने से एक किशोर घायल हो गया। ऐसे हजारों हादसे है। आतंक के इस माहौल में स्मार्ट सिटी, सफाई अभियान, गौशाला या आई टी सिटी सुनने में तो बड़ा अच्छा लगता है, लेकिन सच इस सबसे कोसों दूर है। बहरहाल आदमी के लिए भी शौचालय की आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता, साथ ही आवारा पशुओं पर भी गम्भीरता से सोचना होगा। 

बदहाल रविवार और बेरोजगार!

सपनों को घूम-घूमकर बेचने को बेचैन सियासी दल लगातार बेरोजगारों को ठगते चले आ रहे हैं। सरकारें भी उन्हें ठगने में पीछे नहीं है? हर रविवार लाखों युवा लखनऊ के स्कूलों में प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लेने के लिए दूर-दराज से आता है।
    ये बेरोजगार परीक्षा के लिए सरकार की तय फीस अदा करते हैं। रेल, बस या अन्य साधनों से धक्के खाते हुए लखनऊ तक आने और वापस जाने का किराया अदा करते हैं। लखनऊ की फुटपाथों पर सोने के लिए नकद पैसे देकर जगह खरीदने को मजबूर होते हैं। खाने के लिए मजबूरन कच्चे-पक्के भोजन पर गुजारा करते हैं। यही नहीं इन युवाओं खासकर युवतियों को शहर के रिक्शा-आॅटो वाले भी ठगने में पीछे नहीं रहते। गो कि डेढ़-दो लाख की आमद शौचालय से लेकर सड़कें तक अस्त-व्यस्त कर देती है, लेकिन सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता?
    सरकारें रोजगार मांगने वालों को लाठियों का जोर दिखाने के साथ लुभावने वायदे करती रहतीं हैं। अभी तक शिक्षामित्रों के मामले पर कोई फैसला नहीं हो पाया है। उसके बाद भी कभी केन्द्र सरकार घोषणा करती है। 18 लाख नौकरियों, की तो कभी प्रदेश सरकार एलान करती है, ‘यूपी में नौकरियों की भरमार’, मगर होता जाता कुछ नहीं। 368 चपरासी के पदों के लिए सवा तेईस लाख बेरोजगारों के लाइन लगा लेने से देशभर के मीडिया में भूकंप की तरह समाचार छपे थे। आंकड़ों के साक्ष्य दिये गये। अगले-पिछले बयान दोहराये गये। घोटाले और ठगी के तमाम मामलों को उछाला गया। आरक्षण की तुरही भी पूरे जोर-शोर से बजायी गयी। सलाहें भी दी गयीं। उद्यमिता क्रांति का बिगुल भी फूंकने की जुबानी कोशिशें हुईं, लेकिन हुआ क्या? 368 चपरासियों के चुनाव के लिए एक समिति गठित कर दी गई जो सात-आठ महीनों में चयन योजना बनाएगी। गोया अगले विधानसभा चुनाव के दौर-दौरे की आपाद्दापी में ये बेरोजगार राह ताकते रहे जायेंगे? यहां यह बताना जरूरी होगा कि बेरोजगारों के अभिभावकों की जेब कटती रहती है और उनकी उम्मीदों पर पानी फिरता जाता है।
    लखनऊ में हर रविवार परीक्षा देने आने वाले बेरोजगारों से समुचित शौचालयों के अभाव से गंदगी के साथ तमाम कचरा बढ़ जाता है जो सोमवार को सफाईकर्मियों के लिए नई मुसीबत बन जाता है। पेशाब और गू की सफाई के साथ शहर को भीषण जाम की तकलीफ भी झेलनी पड़ती है। जबकि 30 लाख से अधिक दो-तीन-चार पहिया वाहनों के अलावा घोड़ा गाडि़यां, साईकिल ट्रालियां पहले से ही राजधानी की सड़कों पर दौड़ रहे हैं। पैदल चलने वालों की संख्या अलग है। ऐसे हालात में रविवार बेहाल होकर हांफता नजर आता है। मजा तो तब आता है जब न ट्रैफिक सिपाही और न ही थानों से तैनात किये जाने वाले सिपाही दिखाई देते हैं।
    बहरहाल शहर के वाशिन्दे हलकान हैं तो बेरोजगारों की फौज बदहाल है। इस सबका जिम्मेदार कौन है? आरोप लगाने से भला नहीं होगा लेकिन जिम्मेदारों को संजीदगी से इन हालातों पर सोंचना होगा और कारगार कदम उठाने ही होगे।

मोबाइल वेश्यावृति ...?

 लूटो इंडिया कारपोरेट शायद गोरों की ईस्ट इंडिया कंपनी का नया नाम कालों ने रखकर भारतीयों को लूटने का काम बेहद संजीदगी से जारी कर रखा है। मोबाइल/ब्राडबैंड सेवा का क्षेत्र जैसे-जैस विस्तारित हो रहा है वैसे-वैसे मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियां सरेआम ग्राहकों को लूट रही हैं। केवल इतना ही नहीं बाकायदा विज्ञापन (एसएमएस सेवा) के जरिये अंधविश्वास, अश्लीलता और आचरणहीनता को बढ़ावा दे रही हैं।
    इसके साथ ही 2जी, 3जी सेवाएं, प्रीपेड टाॅपअप, काॅल दरों में खासा इजाफा कर दिया गया। गौरतलब है इस तेजी से यूपीए के 2जी घोटाले के समय भी दरें नहीं बढ़ीं थी। कोई 28 दिन, कोई 22 दिन तो कोई 20 दिन, कोई 10 दिन, कोई 7 दिन यानी अच्छे दिनों की सेवाओं के बदले मनमाने पैसे वसूलता है। टैरिफ ग्राहक की सुविधा के बजाये कंपनियां अपनी सुविधाओं के हिसाब से देती है। देश में सबसे तेज नेटवर्क का दावा करने वाली एयरटेल ने 8756500858 पर 6 मई को 171 रूपये का टैरिफ 28 दिन की वैधता वाला एटी टू एटी 20 पै0मि0 अन्य 1.5 पैसा प्रति सेकेंड की दर से डाला। 28 दिन बाद 20 पै0 मिनट की सेवाएं समाप्त कर दीं और 1.5 पैसा प्रति सेकेंड की दर लागू रही। ग्राहक को हर काल 90 पैसा प्रति मिनट बैठती हैं, आधी सेवा हटाने आधी जारी रखने का कौन सा तरीका है या औचित्य? कंपनी से बात करने के लिए 121 या 321 किसी पर डायल करिये तो 1 दबाइये 2 दबाईये से 9 तक दबाईये की सुरीली आवाज सुनाई देती है लेकिन बात नहीं हो सकती? दोनों नंबरों से ग्राहक की बात नहीं हो सकी। टोल फ्री 18001030121 पर भी वही 1 से 9 तक दबाईये लेकिन बात नहीं हुई। 16 सितम्बर को बात करने वाले ने उ.प्र. की जगह, मप्र लाइन ट्रांस्फर कर दी, जाहिर है बात नहीं हो सकी। दोबारा प्रयास करने पर 9810198101 नम्बर बताया गया जिस पर बात करते हुए बीच में काॅल रोककर काॅल बैक करने की बात कही गई। उपभोक्ता क्या करें? भले ही सरकार के दबाव में एटी ने प्रति सेकेंड दरें (प्रीपेड सेवा में) निर्धारित कर दी हों लेकिन जो पैसा लिया जा चुका है उसका क्या होगा?
    अब इन मोबाइल कंपनियों की सेवाओं पर हर दस मिनट में एसएमएस आपके फोन पर आते रहते हैं। हर बार नई बात होगी। कहीं गाना तो कहीं भविष्य 3 रू0 मिनट से लेकर 30 रू0 तक की दर से, इसके अलावा वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देने वाले विज्ञापन लगातार मैसेज सेन्टर के नंबरों 9827002229, 9022000504, 9322278627 से आते रहते हैं। आप उन्हें हटाते रहें वे भेजते रहेंगे। जरा विज्ञापन की लाइने देखिए हाय, आपसे बातें करने का बहुत मन कर रहा है, आपका नंबर आपके फ्रेंड से मिला प्लीज मुझे अभी काॅल करें 56464878। 3 रू0 मि0’ या ‘हाय मेरे घरवाले एक हफ्ते के लिए बाहर गये हैं। मैं घर पे अकेली हूं। मुझसे प्यार के लिए काॅल करें 56464876’ या ‘आपका दिल बहलाने के लिए आ रही हूँ, दोस्ती और चटपटी बातों का हसीन सफर शुरू करने के लिए डायल करें 53300111 या ‘सनी लियोन के पानी वाले डांस...’ ये रिलायंस से लेकर सभी मोबाइल कंपनियां कर रही हैं। इन संदेशों को वेश्यावृति को बढ़ावा देने वाला नहीं माना जाएगा? यही हाल नेट पर भी देखने को मिल जाएगा, भले ही उच्चतम न्यायालय के आदेशानुसार पोर्नसाइडें बन्द करने का दावा किया जा रहा हो। अश्लील कहानियों से लेकर अश्लील फोटो, चैटिंग के साथ काॅलगर्ल के फोन नम्बर तक हाजिर हैं।
    गौरतलब है प्रधानमंत्री ‘डिजिटल इंडिया’ नारे को सार्थक करने के लिए अथक परिश्रम कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर योग के साथ मौजूद सिलिकाॅन वैली (अमेरिका) तक दौड़ लगा आये हैं। यह अलग बात है कि आज भारत में आई.टी. जन्मदाता सैम पित्रोदा का नाम भी भारतवासियों को याद नहीं। राजीव गांद्दी का नाम लेना तो राजनीति हो जायेगी? बहरहाल मोबाइल पर वेश्यावृति को बढ़ावा देने वाली कंपनियांे के बरखिलाफ सख्त कदम उठाने ही होंगे वरना नई पीढ़ी को संस्कार का पाठ पढ़ाने वाले सरकार और उसके पीछे संगठन को यह बदनाम कर देंगे। इसी तरह यह एक दबाइये... दो दबाइयें... की जगह सीद्दी बात करने या शिकायत दर्ज कराने का एसएमएस नम्बर अलग होना चाहिए वरना ‘डिजिटली इंडिया’ आंकड़ों में सिमट कर रह जायेगा? (जारी)

मच्छरों के लिये बनाओ कंडोम!

मौसम की मार ने मच्छरों को किसी आतंकी संगठन की तरह हमलावर बना दिया है । आबादी बढ़ने के साथ गंदगी, पानी की बर्बादी व जमाव, नाले-नालियों से गंदे पानी की निकासी की बदइंतजामी, लोगों व नगर निगम/पालिकाओं के लापरवाह आचरण ने मच्छरों की संगठनात्मक ताकत को बढ़ावा दिया है, नतीजे में उनके हथियार डेंगू, मलेरिया ने आदमजात को आहत करने से आगे मौत बांटनी शुरू कर दी है। साल दर साल हालात बेकाबू होते जा रहे हैं।
    सरकारी इंतजामातों में हरारत या हरकत तब होती है जब सौ-पचास मौते हो चुकी होती हैं, पिछले साल 1100 से ज्यादा लोग डेंगू की चपेट में आये थे, मरने वालों की खासी तादाद थी, आंकड़ों की बाजीगरी से आगे अब तक 5 सौ से अधिक मौतों का आंकड़ा सामने आया है, सौ मरीज महज तीन दिनों में सरकारी अस्पतालों में भर्ती हुए हैं, किसी भी अस्पताल में जगह नहीं है, दूसरी ओर नर्सिंगहोम बीमारों को लूटने में लगे हैं, यह हाल तब है जब न्यायालय तक ने हिदायत दी है।
    दिमागी बुखार पीडि़तों के खून की जांच के इंतजाम तक नाकारा हैं और डाॅक्टरों का सरकारी कुनबा झूठे बयान देने और अखबार में नाम छपाने में मस्त हैं। सलाहों का सिलसिला जारी है मगर सरकारी कारिन्दे स्वयं उसका पालन करने की हिमाकत नहीं करते इस बीच अपनी आदत के मुताबिक बाबा रामदेव ने सलाह के साथ इलाज भी बता डाला है, आप भी गौर कीजिये--- डेंगू के मरीज एलोवेरा, गिलोय, अनार, पपीते के पत्ते का रस 50-50 मिलीलीटर मात्रा में लें, एक साथ मिलाकर दिन में चार बार लेने से मरीज चार-पांच दिनों में ठीक हो जायेगा। यह हालात हर साल होते हैं और हो हल्ला मच कर रह जाता है, मगर सरकार संजीदा होने का ढोल पीटते हुए समय निकाल देती है? सरकारें इस ओर पहले से कोई इंतजाम क्यों नहीं करतीं? विश्वगुरू बनने - बनाने का सपना पालने वाले अपने साथी-संघियों, साइंसदानों से मच्छरों के लिये कोई कंडोम बनाने की पहल करने को क्यों नहीं कहते? शायद इसीलिए नगर विकास विभाग के आला अद्दिकारी विदेश गये थे? अस्पतालों में मरीजों की बाढ़ है, डेंगू, दिमगी बुखार और न जाने कौन-कौन सी गंभीर बीमारियों से पीडि़त बेहाल हैं, मुख्य सचिव इलाज में लापरवाही करने वाले डाॅ. को दंडित करने के आदेश दे रहे हैं, वहीं प्रदेश के स्वास्थ मंत्री को 108 डायल करने पर एम्बुलेंस सेवा नहीं मिल पाती, सेवा का नम्बर ही नहीं उठा, उनका अर्दली बीमार था, बाद में परेशान होकर सिविल अस्पताल में उसे दाखिल कराया गया, अक्सर 108 या 102 सेवा ठप हो जाती है, जिससे हजारों से ज्यादा लोग हलकान रहते हैं।
    वहीं स्वास्थ महकमे के बाबुओं को मंत्री ने बेईमान, भ्रष्ट क्या कह दिया कि यू.पी.मेडिकल एंड पब्लिक हेल्थ मिनि. एसो. बयान वापस लेने का दबाव बनाते रहे और न लेने पर प्रर्दशन की धमकी देते रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है बाकी गरीब मरीजों का क्या हाल होगा? अब आप ही बताओ कि आपको क्या करना चाहिए या अखबार वाले क्या करें?

करोड़ों खर्च, करोड़ों कत्ल!

 देश भर में बकरीद के मौके पर कुर्बानी के नाम पर करोड़ों रूपया खर्च करके करोड़ों बकरे, भेड़ें, भैंसे, ऊँट और गाय-बैल कत्ल कर दिये गये। हालांकि पिछले सालों से इस साल खासी कमी आई है। लखनऊ व आसपास तकरीबन 80 हजार बकरे 4 हजार भैंसे काटे जाने का अनुमान है। मुंबई व आस-पास 2 लाख से अधिक बकरे, 7 हजार भैंसे काटे जाने की खबर है। राजधानी दिल्ली व आस-पास 1.5 लाख से अधक बकरे, 5 हजार भैंसे काटे जाने के कयास हैं। ऊँट और गाय-बैल की कुर्बानी चोरी छिपे दी जाती है। पिछले बरस लखनऊ के अमराई गांव में ऊँट की सार्वजनिक स्थल पर कुर्बानी दिये जाने को लेकर खासा हंगामा हुआ था। ऐसा ही हंगामा मुंबई में पिछले बरस मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की इंटरवेंशन अपील पर बाम्बे हाईकोर्ट द्वारा बकरीद से पहले 12 हजार बैलों के वध पर रोक लगाने के दौरान हुआ था। इस साल भी तीन प्रांतीय सरकारों के द्वारा मांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगाये जाने को लेकर खासा हंगामा हुआ था। गौरतलब है, मुंबई के भिंडी बाजार में व लखनऊ, दिल्ली के कई इलाके ऐसे हैं, जहाँ खुलेआम ठेलों, गुमटियों पर मांस काटकर फुटकर बेचा जाता है।
    लखनऊ में 2 लाख, दिल्ली में 64 लाख के बकरे भी बिकने आये थे। इन बकरों में दिल्ली के बकरे की खासियत यह थी कि उसके शरीर पर ‘अल्लाह हू’ और 786 का निशान बना था। पुरानी दिल्ली के कबूतर बाजार में इस बकरे को बेचने आये छोटे अली के अलावा रियासत की भेड़ की कीमत भी एक लाख थी, जिसकी पीठ पर चांद बना था। इसी तरह लखनऊ की बकरा-मंडी में रिजवान के बकरे के पेट पर अल्लाह लिखा था जिसकी कीमत 2 लाख थी और माथे पर चांद बने बकरे की कीमत थी 1.25 लाख। आमतौर पर 9 हजार से 60 हजार रूपये की कीमत के बकरे बाजार में थे। घरों में पालकर कुर्बान किये गये जानवरों को अनुमान लगाना नमुमकिन है। ये आंकड़े अधिकृत मंडियों और कत्लखानों से सामने आये हैं। यूं भी नेशनल सैम्पल सर्वे 2014 के आंकड़े गवाह हैं कि मांसाहार खानेवाले प्रदेशों में उत्तर प्रदेश सबसे पिछड़े राज्यों में आता है। देश में पहला नंबर लक्षद्वीप का है, केरल दूसरे नंबर पर, अंडमान और निकोबारद्वीप तीसरे, गोवा चैथे, त्रिपुरा पांचवंे नंबर पर है। वहीं मांसाहारियों की पहली पसंद मछली व दूसरे पर मुर्गे का नंबर आता है। बकरे का गोश्त तीसरे नंबर पर, भैंस, गाय, बैल, भेड़ का मांस चैथे नंबर की पसंद है। भारत के समुद्रतटीय इलाकों में मछली आसानी से मिल जाती है, इसीलिए उसकी खपत भी अधिक है। मुंबई में मांस के व्यापार में लगे एक कारोबारी के मुताबिक बकरे/मुर्गेे का गोश्त अरब मुल्कों को खासी तादाद में निर्यात होता है। हर रोज आधी रात से मुंबई से ही कई उड़ाने केवल गोश्त लेकर अरब मुल्कों के लिए उड़ती हैं।
    मांसाहार के मामले में हिन्दू भी पीछे नहीं है आज भी चोरी-छिपे जानवरों की बलि दिये जाने की खबरें आती रहती हैं, जबकि न्यायालय ने इस पर पूर्ण प्रतिबंद्द लगा रखा है। हिमांचल प्रदेश के सिरमौर जिले के गिरियार क्षेत्र के लगभग हर गांव में माघी पर्व जनवरी के महीने में मनाया जाता है, हालांकि शिलाई, रेणुका और पच्छाड़ विधानसभा क्षेत्र के लोग इस परंपरा से अधिक जुड़े हैं। इस त्योहार पर बकरे की बलि दिये जाने की प्रथा है। इसी साल जनवरी के दूसरे सप्ताह में प्रतिबंध के बावजूद हजारों बकरों की बलि दी गई थी। एक अनुमान के अनुसार 40-50 हजार बकरों की बलि दी गयी थी, इसकी कीमत 40 करोड़ लगभग आंकी गई थी।
    परंपरानुसार जिस परिवार का बकरा होता है, उसे उस परिवार के लोग बलि नहीं चढ़ाते बल्कि कोई दूसरे परिवार का व्यक्ति चढ़ाता हैं दरअसल यहां परिवारों में बकरा पालने की प्रथा है। गरीब से गरीब परिवार भी कर्ज लेकर इसका पालन करता है या खरीदता है। प्रशासन ने अपनी ओर से सख्ती बरतने के इंतजाम भी किये थे।
    इसी तरह नवरात्रों में देश भर में दुर्गा काली पूजा के नाम पर यह सिलसिला चोरी छिपे जारी है। जहां मांसाहार या गोमांस को लेकर तमाम हल्ला-गुल्ला है, वहीं कृषि को लेकर आज भी हममें जागरूकता नहीं है। हां संवेदनशीलता में कोई भी पीछे नहीं, आगरा से खबर आई है कि वहां प्रबुद्ध मुसलमानों के एक संगठन ने स्थानीय गौशाला जाकर गायों को चारा खिलाया और गौवध का पुरजोर विरोध करने की शपथ भी ली। उनका कहना है, इस्लाम में गाय का मांस खाना मना है, वह हमारी पालक है। संगठन के शाहिद परवेज, मुंशी खान के मुताबिक गाय की सेवा को ही वे लोग बकरीद की कुर्बांनी मानते हैं।

‘लिसिन’... हिंदी बोलनी ही पड़ेगी

हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान का सनातन नारा बुलंद करने वाले अचानक पिछले दो सालों से अंग्रेजी, अमीरी और अमेरिका का जयकारा लगाने लगे हैं। नतीजे में सारा देश मिलनसार माध्यम (सोशल मीडिया) के लिए उतावला है। सूबे के बच्चों को बैदिक गणित पढ़ाने की वकालत करने वाले उप्र के एक पूर्व शिक्षा मंत्री साक्षरता से अधिक स्वच्छता और सुरक्षा के लिए चिंतित है। मौजूदा केन्द्रीय/प्रान्तीय सरकारें गरीब बच्चों को भी अमीरों के बच्चों के साथ एक ही स्कूल मंे एक ही बेंच पर बिठाकर वन...टू...थ्री... यस मैम... सिखाने के लिए प्रयासरत हैं। सरकारी स्कूलों का हाल तो सूबे के मुख्यमंत्री से लेकर आलाहाकिम तक बयान कर चुके हैं।     उनको सुधारने की कवायद में उच्च्तम न्यायालय तक को फैसला सुनाना पड़ा कि अफसरों/मंत्रियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे लेकिन अभी तक कहीं किसी के कानों पर जूं नहीं रेंगी? सूबे में शिक्षा के दफ्तर का जिम्मा संभाले एक हाकिम ने पिछले दिनों एलान किया है, ‘सितंबर हिंदी, तो अक्टूबर गणित के नाम से रहेगा, बढ़ाएंगे सरकारी स्कूलों का स्तर। राज्य सरकार अभियान चलायेगी,’ हालांकि अभी तक कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं नवंबर भी जा रही हैं। मजेदार बात है कि इसी प्रदेश के बच्चों को न तो हिन्दी की गिनती, पहाड़े का ज्ञान है और न ही हिन्दी का वर्णमाला का, लेकिन उसे अ से अर्दब, आ से आतंक की जानकारी के साथ ए फाॅर अॅन्टी000 जेड फाॅर जिम... लंगोटी (डाईपर) बदले जाने के दौरान ही दे दी जा रही है। हालात समूचे देश के लगभग ऐसे ही हैं। वह भी तब, जब सरकारी खजाने से साक्षरता, हिन्दी अपनाओ और हिन्दी के मेले-ठेलों पर करोड़ों-करोड़ रूपये हर बरस लुटाये जाते हैं। विद्यालयों, हिन्दी विद्यापीठों/संस्थानों के लिए कुछ कहना बेमानी होगा।
सरकार की भली कही, ढाई साल पहले लखनऊ की उर्वशी शर्मा को सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी पर भारत सरकार के गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग ने सूचित किया था कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार हिन्दी भारत की ‘राजभाषा’ यानी आफीशियल भाषा मात्र है। संविधान में राष्ट्रभाषा का कोई उल्लेख नहीं है। थोड़ा और पीछे चले चलते हैं, 1981 में उप्र के मुख्यमंत्री ने इसी राजभाषा को 28 जुलाई जी0ओ0 58761 सीएम के तहत राजकाज से यह कहकर बाहर कर दिया था कि अब केन्द्रीय सरकार से पत्र-व्यवहार में राज्य सरकार अंग्रेजी का प्रयोग करें। अनुवाद की सुविधा होने और आगे भी केन्द्र सरकार की भाषा नीति जारी रखने के बाद भी? इससे चंद दिनों पहले वाराणसी में एक हिन्दी भाषी समारोह में हिन्दी के मूर्धन्य विद्वानों ने अंग्रेजी में भाषण देकर हिंदी के प्रति अपने मोह को जाहिर किया था। आज तो ऐसा प्रेम संसद से सड़क तक रोज देखने को मिल जाता है। अभी हाल ही में 10 करोड़ रूपये खर्च करके भोपाल में 10वां विश्व हिंदी साहित्य सम्मेलन गुजरा है, जहां ‘गैंग्स आॅफ हिन्दीगंज’ के देवताओं के दर्शन, हिन्दी की ‘कैटवाॅक’ और हिन्दी की हें... हें... देखने को मिली। हालांकि इसमें कुछ नया नहीं है, अटल जी के जमाने में एक मंत्री जी हिन्दी को ‘आइटम गर्ल’ के खिताब से नवाज चुके हैं। इसी सम्मेलन में पुणे के किसी अनुराग ने ‘ट्विटर की तर्ज पर ‘सोशल नेटवर्किंग साइट’ के लिए हिन्दी में ‘मूषक’ को पेश किया था। हंसी भी आ रही है और अच्छा भी लग रहा है कि हिन्दी को लाख ‘स्कर्ट’ पहनाओ या युवतियां भले ही गणेश का ‘टैटू’ अपनी जवान गोरी-गोरी नंगी पीठ पर बनवा लें और ‘लिसिन मी से या... या... याह.... तक के नखरे करें,’ मगर उसे हिन्दी में बोलना ही पड़ता है। देश में ही नहीं विदेशों में भी, नहीं तो बताईये भला लंदन में ‘जलेबी स्ट्रीट’ की क्या तुक है? इमरती, बालूशाही, पानी के बताशे, लाठी, लिट्टी-चोखा या खाखरा, ढोकला को अंग्रेजी में क्या कहेंगे? हिन्दी में ही ‘जयमाला’ या ‘वरमाला’ कहा जाता है, अंग्रेजी में क्यों नहीं? ऐसे तर्क-कुतर्क बहुत हैं। लिट्रेरी कार्निवाल का आगाज भले ही सिनेतारिका माधुरी दीक्षित से करा लें, लेकिन बिना अमृतलाल नागर, प्रेमचन्द के वहां क्या होगा? हिन्दी में बेहूदा विज्ञापनों को सास-बहू षड़यंत्रों के बीच लाख दिखा लीजिये। संसद में रोमन में लिखी हिंदी बोलिये, लेकिन भारत समेत दुनिया भर में फैले लगभग तीन करोड़ भारतीयों को हिंदी बोलनी ही पड़ेगी। आंकड़े भले ही कहते हैं कि हिंदी 41 फीसदी भारतीयों की मातृभाषा है या विदेशों में हिंदी बोलने में शर्म करते हैं भारतीय। अब तो भोजपुरी भाषा का खासा विस्तार हो रहा है। हिन्दी अखबारों की संख्या, प्रसार संख्या बढ़ रही है। रोजी-रोटी का माध्यम बन रही हिन्दी के साथ अंग्रेजी की ‘मैराथन’ बंद करानी होगी। इसके लिए बाकायदा समाज के जिम्मेदारों को आन्दोलन खड़ा करना होगा?
    यह सच है कि हिन्दी के देवताओं का कमाओ-खाओ कुनबा सरकारी दूध-मलाई पर मुटा, अघा रहा है। उन्हें भी अपने पूर्वजों से कोई लेना-देना नहीं। बस जो बिक सकता है वो उनका सगेवाला। लखनऊ मंे ही के.पी. सक्सेना को गुजरे अभी अधिक समय नहीं बीता उन्हें याद करने की फुर्सत किसे हैं? ‘हंस’ छप रहा है, किसने याद किया राजेन्द्र यादव को? फिर भला अमृतलाल नागर, यशपाल को कौन याद करे? भाषा को आमजन की दुलारी बनाना और उसे पढ़ने, बोलने, लिखने के लिए किसी पत्र-पत्रिका के जरिये मजबूत कर देने जैसा करिश्मा नवाबियत पर अंग्रेजी का मुलम्मा चढ़ने के दौरान पं0 दुलारेलाल भार्गव ने लखनवी भाषा को ईजाद करके किया था। यह नब्बे साल पहले की ‘माधुरी’, ‘सुधा’ और गंगा-पुस्तक माला के जरिये किया गया था। उसी दौरान साहित्य कुटीर, इंडियन बुक डिपो जैसे संस्थान भी आगे आये। मुंुशी नवल किशोर प्रेस तो पहले से ही था, जहां ‘मिश्रबंधु’, रूपनारायण पांडे, प्रेमचंद जैसे दिग्गज दुलारेलाल जी भार्गव और उनके चाचा विष्णु नारायण भार्गव के साथ थे। इसी परम्परा को आगे बढ़ाया नागर, भगवती, यशपाल त्रयी ने, तो उसे मिठास मिली गौरा पंत ‘शिवानी’ की कथा में, तो दैनिक अखबार ‘नवजीवन’ के योगदान को और ज्ञान चन्द जैन को भुलाया नहीं जा सकता।
    बातें, कहावतें और आक्रोश जल्दी खत्म नहीं होते लेकिन यदि भाषा, भूषा और भोजन उधार लेकर जियंेंगे तो, सूदखोर बाजार हमारा अस्तित्व ही मिटा देगा। इससे पहले कि देर हो जाये गली, गांव किनारे उग आये परचूनियों जैसे ‘माॅन्टेसरी’ या ‘एकेडमी’ को गुरूकुल में बदलने का परिश्रम करना होगा। मां के लिए आॅंसू बहाकर हमदर्दी बटोरने की जगह मां से सच मायनों में मां कहना सीखना होगा और नई मां को भी जिम्मेदार होना होगा, तभी आगे कुछ सीखा पायेंगे।

इठलाती दीवाली में आदमी

 दीपावली रोशनी का पर्व है। श्रीराम की अयोध्या वापसी का जश्न है। लक्ष्मी-गणेश यानी धन और गण को पूजने की परम्परा का पंचमहोत्सव है। आम आदमी से लेकर अमीर आदमी तक अपने बहीखातों के नये स्वरूप की पूजा करता है। पिछले सवा पांच सौ दिनों में आदमी, अमीर आदमी और आदमियों की सरकार के बहीखातों की पड़ताल करें तो उसमंे खुश होने जैसा कोई आंकड़ा दर्ज नहीं दिखाई देता। आदमी की रसोई, कारोबारी जगत व सरकार के लक्ष्य में सिर्फ और सिर्फ दुश्वारियां ही नजर आती हैं। रोटी, दाल, सब्जी जैसे खाद्य उत्पादों, बिजली, दवाई, सफाई, पानी, मकान, परिवहन-रेल, कपड़े से लेकर सभी जरूरी जरूरतों की कीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी के कारण ‘महंगाई’ शब्द खासा महंगा हो गया है।
    आंकड़ों के खेल और थोथी बयानबाजी के सरकारी अश्वमेघ यज्ञ से निकले आश्वासन के घोड़े के सामने अड़कर खड़े हैं, महंगाई, खस्ताहाल अर्थव्यवस्था, कालाधन, झूठ और असुरक्षा। ऐसे में विश्वगुरू का हल्ला या स्वच्छता, शौचालय, बैटी बचाओ, मन की बात, किसान टीवी, योग, मेक इन इंडिया, निर्मल गंगा के क्या मायने? जनधन हो या जीवन-बीमा देनों ने जन की जेब ही काटी है। रसोई गैस, डीजल-पेट्रोल का सच दुनिया की मंदी से लेकर गली-कूचे तक जाहिर है। दाल, प्याज, टमाटर की बढ़ती कीमतों ने मनरेगा की कमाई तक हड़प ली! फिर भी दिवाली में कहां फूटेंगे पटाखे और कहां होगी धनवर्षा या पांच सौ पच्चीस दिनों की सरकार के इरादों की हकीकत क्या है?
ऽ    कालाधन के नाम पर विदेशों से फूटी कौड़ी नहीं आई, उल्टे 61 अरब करोड़ देश के बैंकों के जरिये हांगकांग भेज दिया गया। विदेश में जमा कालेधन के खिलाफ नए कानून के तहत 4147 करोड़ रूपयों का खुलासा हुआ है। 15 लाख हर आदमी के खाते में जमा करने के चुनावी वायदे के नाम पर एसआईटी बनाकर जांच जारी है। जिन नामों का खुलासा किया गया, वे पहले से ही जानकारी में है।
ऽ    अरहर की दाल की कीमतों में बढ़ोत्तरी की आशंका अप्रैल के महीने से ही थी। 80 रू0 किलो बिक रही दाल के लिए हल्ले के साथ सभी दालों के भाव बढ़ने लगे थे। यह कोई पहली बार नहीं था, पिछले 20 बरस के आंकड़े गवाह है। जब दाल 55 रू0 किलो थी तब ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी और स्मृति ईरानी समेत तमाम भाजपा नेताओं ने सड़क पर हल्ला-गुल्ला किया था।
ऽ    प्याज-आलू, टमाटर, मौसमी सब्जियां, आटा-चावल, दूध-घी और चाय सहित अन्य खाद्य वस्तुओं की कीमतें आसमान छूती गईं। खुदरा महंगाई दर लगातार आंकड़ों में घटती गई, जबकि बाजार में बढ़ती गई। विपक्ष ने विरोध के स्वर भी मुखर किये, लेकिन बिजली-पानी भी मंहगे होते गये।
ऽ    मौसम की मार के शोर के साथ सवां पांच सौ दिनों की सरकार ने बयान दिया देश में अनाज का पर्याप्त भंडार हैं उचित प्रबंधन के नारे लगते रहे, किसान बर्बाद होता रहा, खाद महंगी होती गई। उसकी अपनी बीमा राशि का भुगतान तक नहीं हो पाया, मुआवजे की हकीकत बयान करते दिख जाएंगे सैकड़ों बर्बाद किसान शहरों में मजदूरी करते।
ऽ    हर साल लाखों टन अनाज उचित रखरखाव के अभाव में बर्बाद हो जाता है। इस पर भाजपा ने यूपीए सरकार को उसे गरीबों में बांटने की सलाह दी थी। अब तक उसने खुद अमल नहीं किया?
ऽ    शेयर बाजार में निवेशकों के जब 7 लाख करोड़ डूब गये और शंघाई से मुंबई तक बाजारों में सन्नाटा छा गया, तब सरकार बोली, ‘घबराएं नहीं, अर्थ व्यवस्था मजबूत है,’ जबकि 26 मई 2014 को एक डाॅलर की कीमत 58.67 रूपये थी और 24 अगस्त 2015 को यह कीमत 66.65 रूपये हो गई और आज भी 64-65 रूपये के बीच है।
ऽ    कारोबारी भरोसा टूटा है, वल्र्ड बैंक की नजर में भारत कारोबार के लिए मुश्किल जगह है। विदेशों में ‘मेक इन इंडिया’ को कोई खास तवज्जों नहीं दी गई है। विदेशी संस्थागत निवेशकों ने मई, 15 में ही भारतीय शेयर और बांड बाजारों से करीब 2 अरब डाॅलर की निकासी की थी। देश 68 अरब डाॅलर के विदेशी कर्जें में डूबा है। यह हालात तब है, जब प्रधानमंत्री मोदी 27 देशों से अधिक में अपनी जोरदार मौजूदगी दर्ज करा चुके हैं। हालांकि सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत दुनिया की 10वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के साथ एफडीआई में बढ़त हासिल कर रहा है?
ऽ    देश के बैंकों की उधारी का एक तिहाई हिस्सा 11 हजार कर्जदारों के पास है। एनपीए लगातार बढ़ रहा है, वसूली का संकट बरकरार है। फिर भी काॅरपारेट घरानों को 64 हजार करोड़ टैक्स छूट दे दी जाती है और 2 लाख करोड़ से अद्दिक का कर्ज एक अकेले घराने को दे दिया जाता है।
ऽ    सरकारी योजनाओ के प्रचार में हजारों करोड़ खर्च करके 8 हजार करोड़ जनद्दन योजना में जमा होने या 30 लाख लोगों द्वारा गैस सब्सिडी छोड़ दिये जाने पर ‘मन की बात’ से लेकर टीवी चैनल तक पर हल्ला है। और भी बहुत कुछ बाकी है गिनाने को, लिखने को अक्षर कम पड़ जायेंगे और दिवाली निकल जायेगी, तो कुछ रोचक बातें भी हो जायें।
ऽ    देश में धार्मिंक उन्माद के चलते दंगे-फसाद, हत्याएं, धर्म परिवर्तन और गिरफ्तारियों पर अमेरिकी विदेश विभाग की ‘अंतर्राष्ट्रीय धार्मिंक आजादी-2014’ की रिपोर्ट मंे चिंता व्यक्त की गई है।
ऽ    गंगा मां को साफ सुथरा रखने के लिए 2013 करोड़ रूपये पिछले बरस प्रस्तावित हुए और उसका जोर-शोर से प्रचार भी लेकिन काम कुछ भी नहीं हुआ। यही हाल रेल, बिजली, पानी में भी है। स्वर्ण बचत योजना जैसा ही हश्र सारी योजनाओं का है।
    इसके बावजूद दीपावली के चिराग रौशन होंगे और अरबों रूपयों का लेन-देन भी होगा। अकेला धनतेरस एक लाख करोड़ से अधिक का होगा। लखनऊ जैसा छोटा शहर 150 मर्सडीज, 15 करोड़की शराब सहित तीन अरब की खरीददारी को तैयार बैठा है। अभी गई अक्षय तृतीया जैसे छोटे से पर्व पर 50 करोड़ से अधिक सोने की खरीद हुई थी, बाकी हीरे-जवाहरात, शादी-व्यह (जो उस दिन हुए) व पूजा-पाठ में जो खर्च हुआ वह अलग है। इसी देश में राम जेठमलानी जैसे वकील भी रहते हैं, जो 25 लाख से अधिक फीस वसूलते हैं, तो मुकेश अंबानी भी हैं। इसी भारत भूमि में करोड़ों-करोड़ की जनसंख्या आधे पेट रहने को मजबूर हैं?