Friday, November 15, 2013

यह झगड़े वोट बैंकों के दरवाजे हैं...

डाॅ. राही मासूम रज़ा
अभी कुछ दिनों के लिए अमरीका जाना पड़ा। पतझड़ का मौसम था और जितना अमरीका मैंने देखा वह पतझड़ के रंगों में डूबा हुआ था।
    राष्ट्रपति रीगन का पतझड़ भी मेरे सामने ही शुरू हो गया था... साहब यह अमरीकी राजनीति भी गजब की चीज है। यह डाॅलर के सिवा और किसी की वफादार नहीं- इसकी बेहयाई देखिए कि सद्र रीगन चंद अमरीकी नागरिकों को लेबनान के शीया आतंकवादियों के कब्जे से निकालने के लिए खुमैनी सरकार से बातचीत करने पर तैयार हुए। यह बात बिल्ली के गुह की तरह छिपाई गयी। उस पर इंगलैंड की मिट्टी डाली गयी.. मोल-तोल हुआ। अमरीकी नागरिक छूट गये और इस सौदे में अमरीका ने सैकड़ों मिलियन डाॅलर कमा लिये!... और यह कमाई निकारागुआ में आतंकवादियों की मदद के लिए खर्च की गयी! ऐसी दोगली, ऐसी झूठी, ऐसी बेईमान राजनीति! यह मैली राजनीति दुनिया की किसी लाडरी में धुल कर साफ नहीं हो सकती... इसलिए इतिहास को प्रतीक्षा करनी पड़ेगी उस दिन की, जब अमरीकी जनता यह फैसला करेगी कि यह राजनीति उसका अपमान है। उस दिन वह इसे उतार फेंकेगी और डाॅलर की गुलामी से आजाद होकर अपनी क्रांति को पूरा कर लेगी।
    परंतु मैं आज राष्ट्रपति रीगन की बात करना नहीं चाहता था, पर वह जब भी ध्यान में आते हैं मेरी जुबान में खुजली होने लगती है; क्योंकि सच पूछिए तो हमारी राजनीति का हाल भी वैसा ही है। स्वतंत्रता जो आयी वह मेड इन इंगलैण्ड थी। स्वतंत्रता मेड इन इंगलैंड इसलिए आई कि जो पार्टी स्वतंत्रता संघर्ष की अगुवाई कर रही थी, अर्थात इंडियन नेशनल कांग्रेस, वह भी मेड इन इंगलैड ही थी.. इसलिए जब खुद ब्रिटेन डाॅलर की छत्रछाया में जा बैठा है तो भारतीय राजनीति भला डाॅलर की पाठशाला में कैसे न जा बैठती। और जनाब हमारी राजनीति ने भी डाॅलर के सबक फर-फर याद कर लिये। डाॅलर की सभ्यता यह है कि राजनीति देश के लिए नहीं है, देश राजनीति के लिए है और राजनीति उस ‘व्यक्ति’ के लिए है जिसकी स्वतंत्रता का ढिंढोरा डाॅलर सरकार पीटती रहती हैं। परंतु अमरीका दूसरे देशों के व्यक्तियों की स्वतंत्रता बरदाश्त नहीं कर सकता। अमरीका में दूसरों की स्वतंत्रता की परिभाषा डाॅलर की गुलामी है; और जो देश डाॅलर के गुलाम नहीं हैं, उन्हें यह ‘मेड इन अमरीका’ स्वतंत्रता देने के लिए अमरीकी सरकार करोड़ों डाॅलर खर्च करती रहती है। हमारा रूपया सींकिया पहलवान है। डाॅलर की तरह मुंहजोरी तो नहीं कर सकता.... परंतु जीवित है और डाॅलर के कदम चूमकर आत्महत्या करने पर तैयार नहीं, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय मैदान में वह डाॅलरबाजी का विरोध करता है और दुनिया के सारे कमजोर देशों का साथ देता है। पर देश के अंदर वह डाॅलर ही का खेल-खेल रहा है। जो आतंकवाद उसके दुश्मन का दुश्मन है, वह आतंकवाद नहीं; जैसे गोरखालैंड की मांग करने वाले। दिल्ली सरकार उनके खिलाफ नहीं क्योंकि वह बंगाल सरकार का तख्ता उलटने की कोशिश में दिल्ली सरकार के काम आ सकते हैं। यह मत कहिए कि भारत एक लोकतंत्र है और यहां ऐसा नहीं हो सकता। केरल में नम्बूदरीपाद सरकार कैसे उलटी थी? कश्मीर में अब्दुल्लाह सरकार कैसे उलटी थी? आंद्द्र में एन.टी.आर. की तेलुगूदेशम की सरकार कैसे उलटी थी? भारतीय लोकतंत्र इस खेल का उस्ताद है। लोकतंत्र का मतलब यह थोडे़ है कि यहां सचमुच का लोकतंत्र है।
    हमारे संविधान में तो और भी बहुत सारी खूबसूरत बातें लिखी हुई हैं। उसमें लिखा हुआ है कि भारत एक सेक्युलर डिमोक्रोसी है। लेकिन यहां न तो सेक्युलर ही है और न ही डिमोक्रेसी। यहां शिवसेना के नेता सर्वश्री बाल ठाकरे शिवाजी पार्क में माइक्रोफोन लगाकर भारतीय मुसलमानों को विदेशी बताते हैं और उन्हंे सीधा करने की बात करते हैं, और मुख्यमंत्री यह बयान देकर चुप हो जाते हैं कि मैं उन्हें ऐसा कहने पर छोडुंगा नहीं! गालिब का कोई माशूक अवश्य श्री चव्हाण जैसा रहा होगा; जभी तो उन्होंने यह लिखा है:
तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान छूट जाता
कि खुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता।
    और भारतीय राजनीति की सबसे मजेदार बात यहां 8 दिसम्बर के समाचार पत्रों में छपी। म्युनिसिपल बाई इलेक्शन में एक शिव सैनिक भारतीय जनता पार्टी के आदमी (?) को हराकर चुनाव जीत गया तो उसने यह बयान दिया कि उसकी जीत हिंदूइजम की जीत है। यह तो रोमनों से भी ज्यादा रोमन होने की बात हो गयी। जहां दो ईंटों के बीच में जरा सी भी जगह नहीं है, वहां भी मज़हब का भूत धुँआ बनकर घुसने की कोशिश कर रहा है और दुर्भाग्य से सफल भी हो रहा है।
    हर धर्म कभी न कभी मनुष्य को रास्ता दिखने आया था। परंतु, आज हर धर्म अपने मानने वालों को कुछ लोगों के फायदे के लिए राह से भटकाने का काम कर रहा हैं। लोग वोटो के दरबे पर धर्म का ताला लगाना चाहते हैं कि बस चुनाव के दिन वोटर दरबे से निकाले जायें, वोट दें और फिर पांच बरस के लिए बंद कर दिये जाएं। यदि आज अस्सी प्रतिशत हिंदुओं को यह समझाने का काम किया जा सकता है तो उनका धर्म खतरे में है, तब तो फिर 12 प्रतिशत मुसलमानों और 2) प्रतिशत सिखों को यह समझाना बहुत ही आसान है।
    इस बात पर याद आया कि 8 दिसम्बर को एक सभा बुलायी गयी थी। डाॅ. भ.दी. फड़के ने मराठी भाषा में एक किताब लिखी है- ‘‘स्वतंत्र आंदोलनातील मुसलमान’’ यह सभा इसी किताब के सिलसिले में थी और एक भारतीय मुसलमान के नाते मैं वहां बुलाया गया था। जब मैं भाषण देने के लिए उठा तो पहली बार यह सोचकर दुःख हुआ कि मैं मराठी नहीं जानता।
    जब मैं मराठी जानता होता तो शायद ज्यादा खुल के बात कर पाता। पर हम हिंदीवालों का दिल इस बात में बहुत छोटा है। हम यह तो चाहते हैं कि हिंदी देश भर में स्वीकार कर ली जाए, पर हम देश की दूसरी भाषाओं की न इज्जत करते हैं और न ही उनकी जरूरत समझते हैं। शायद यही कारण है कि अहिंदी भाषियों के लिए हिंदी का स्वीकार करना मुश्किल हो रहा है। परंतु यह बात फिर कभी।
    डाॅ. फड़के ने यह किताब बड़ी मेहनत
और गम्भीर सच्चाई से लिखी हैं। यह साबित भी कर  दिया है कि मुसलमानों ने स्वतंत्रता आंदोलन में बड़े काम किये हैं। पर मुझे इन मौकों पर हमेशा यह लगता है कि मैं मुलजिमों के कटघरे में खड़ा हूं और मेरी सफाई का गवाह अपना बयान दे रहा हैं। मुझे ऐसे में बड़े अपमान का अनुभव होता है। इसलिए मैंने उस सभा में कहा कि मुसलमानों ने स्वतंत्रता आंदोलन में कुछ नहीं किया, पर हिंदुओं ने भी कुछ नहीं किया; और अगर कुछ किया हो तो बताइए। सिखों और ईसाइयों का भी कोई योगदान नहीं.... स्वतंत्रता आंदोलन में तो हिस्सा लिया था किसानों-मजदूरों ने; विद्यार्थियों और अध्यापकों ने; क्लर्काें और दुकानदारों ने... रामप्रसाद बिसमिल हिंदू नहीं हिंदुस्तानी क्रांतिकारी थे; भगत सिंह सिख नहीं थे; भारतीय इंकिलाबी थे; धर्म तो स्वतंत्रता के रास्ते का रोड़ा था, जैसे आज प्रगति के रास्ते का रोड़ है... वह कहीं सर्वश्री बाल ठाकरे को नेता बना देता है, कहीं मौलाना बुखारी को। इनके हाथों से धर्म छीन लीजिए तो इन फुकनों की हवा निकल जाएगी।
    पंजाब में संत भिंडरवाला उभरे। उन्हें खोज के निकाला किसने था? कांग्रेस के भीतरी झगड़े ने, सरदार जैल सिंह और सरदार दरबारा सिंह की अनबन ने। दरबारा सिंह का सूरज डूब गया। जैलसिंह जी राष्ट्रपति हो गये, और पंजाब जल रहा है। इसी तरह श्री ठाकरे का सूरज स्वर्गीय नायक की राजनीति के क्षितिज से निकला। वह डांगे को हराकर बम्बई के मजदूरों को कम्युनिस्टों के असर से निकालना चाहते थे।
    डांगे आखिरकार हार तो गये। कम्युनिस्टों का असर भी टूट गया। परंतु बम्बई भी कांग्रेस के हाथ से निकल गयी और जो वातावरण यही रहा, तो शरद पवार को मिलाने के बाद भी आने वाले चुनाव में कांग्रेस के हाथ से महाराष्ट्र के निकल जाने का बड़ा डर है। क्योंकि, शिवसेना के हाथ में धर्म और क्षेत्र दोनों की लाठी है और कांग्रेस या किसी और पार्टी के पास इस दोहरे जादू की कोई काट नहीं है। असम में चुनी हुई सरकार से त्यागपत्र दिलवा कर असम को आतंकवादियों के हवाले कर दिया गया। कांग्रेस का बस चला तो बंगाल में एक ‘गुरखिस्तान’ भी बन जाएगा।
    मुझे तो उत्तर प्रदेश और बिहार भी थोड़े ही दिनों के मेहमान दिखाई देते हैं। इन दोनों का बंटवारा भी होने ही वाला है क्योंकि दाल बांटने के लिए जूतियां कम पड़ रही हैं....
यह बात सही नहीं है कि 14 अगस्त सन 47 को देश का विभाजन हो गया था। सही बात यह है कि 14 अगस्त सन 47 को देश का विभाजन शुरू हुआ था और विभाजन का काम खत्म नहीं हुआ है, जारी है।
    वहां अमरीका में मैंने हिंदुस्तानी- पाकिस्तानी दोस्तों से यह कहा कि-अपने घर की यादों को मत ताजा रखिए। भूल जाइए कि आप हिंदुस्तानी या पाकिस्तानी हैं। आप अमरीकी हैं। डाॅ. अब्दुल्लाह वाशिंगनटनवी... डाॅ. सलमान अख्तर फिलेडलफियावी...
    परंतु यहां, अपने घर में यह कहना चाहता हूं कि घर की याद को ताजा रखिए। भाषा भी ठीक, धर्म भी ठीक, पर यह भी सोचिए कि देश भी ठीक है या नहीं! जरा सी बात पर धर्म का यूं सड़क पर निकल आना, धर्म और देश दोनों की सेहत के लिए ठीक नहीं है।
    कल किसी ने शिवाजी की तस्वीर को जूते का हार पहना दिया, तो सजा मिली सैकड़ों बेगुनाहों को, जो कत्ल कर दिये गये। सजा मिली सैकड़ों  दुकानों को जो लूट ली गयीं, सजा मिली सैकड़ों घरों को जो जला दिये गये।
    आज किसी समाचार पत्र में इस्लाम के पैगम्बर के बारे में किसी ने कुछ अंट-शंट लिख दिया तो सजा मिली बाजारों को, सजा मिली सरकारी बसों को...
    सीधी बात यह थी कि उस समाचार पत्र पर मुकदमा चलाया जाता। उस कहानी के लेखक को सजा दिलावाने की कोशिश की गयी होती, क्योंकि पैगम्बर का अपमान बसों ने या दुकानों ने तो किया नहीं था!
    मगर कुर्सियों के आसमान से नीचे उतर कर कोई सोचने पर तैयार नहीं है.. यह झगड़े वोट बैंकों के दरवाजे हैं, लोग या डरके वोट दे रहे हैं या गुस्से में। और डर और गुस्से दोनों के लिए किसी न किसी फसाद की जरूरत पड़ती है।


आधा गांव

थानेदार ठाकुर हरनारायण प्रसाद को हम्माद मियाँ वगैरह को सजा दिलवाने मे कोई दिलचस्पी नहीं थी। उन्हंे तो केवल फुन्नन मियाँ में दिलचस्पी थी। उनसे भी उनकी कोई जाती अदावत नहीं थी और उन्हें यह भी मालूम था कि फौजदारी में ज्यादती उत्तर-पट्टीवालों की ही थी, फिर भी उन्होंने एकतरफा तफतीश की। वह इस काम में सफल भी हुए और फुन्नन मियाँ के साथ-साथ दक्खिन-पट्टी के और कई लोगों को भी सजा हो गयी। इनाम में उन्हंे सर्विस-बुक में चार इन्दराजात मिल गये।
    वह उसी वक्त घोड़ा कसवाकर कासिमाबाद की तरफ चल पड़े।
    गुलाबी जान उनके क्वार्टर में उनकी राह देख रही थी। ठाकुर साहब का हश्शाश-बश्शाश चेहरा देखकर उसे यकीन हो गया कि वह मियाँ लोगों को सजा दिलवाने में सफल हो गये। उसने उसी वक्त दुखीराम कांस्टेबल से हवलदार समीउद्दीन खां को बुलवाया। कासिमाबाद थाने में उनके सिवाय कोई और मुसलमान नहीं था। उन्हें बीस आने देकर गुलाबी जान ने बहादुरगंज चलता किया कि वह हशमतुल्ला हलवाई की दुकान से मिठाई लायें कि ठाकुर साहब की जीत की खुशी में दोना नियाज दिलवाया जा सके। गुलाबी जान ने फुल्लन शाह और चंदन शहीद के मजारों पर भी चादरें तान रक्खी थीं, गरज कि गुलाबी जान ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा रक्खा था।
    मगर गुलाबी जान को भी ठाकुर साहब ही की तरह फुन्नन मियाँ से कोई जाती अदावत नहीं थी। उसने तो फुन्नन मियां को केवल एक बार देखा था- बहादुरगंज के बड़े खाँ साहब की छोटी बेटी की शादी के नाच में!
    फुननन मियाँ घराती थे। बारातवालों ने गुलाबी जान के साथ-साथ गाजीपुर की प्रसिद्ध चंदा बाई को भी बुलाया था।
    उन दिनों चंदा बाई के बड़े शुहरे थे। वह बड़े ठस्से से आयी। गुलाबी जान महफिल में आ चुकी थी। चंदा बाई उसे हिकारत से देखकर एक तरफ बैठ गयी। इन दोनों से थोड़ी ही दूर पर चमार का एक नमकीन-सा लौंडा, होंठों पर पान का लाखा जमाये, बैठा इन दोनों पर हिकारत से मुसकरा रहा था, और अपने हर तरफ बैैठे हुए लोगों की गंदी जुमलेबाजी का तड़ातड़ जवाब दे रहा था, और इठला रहा था। उसकी इठलाहट देखकर गुलाबी जान को ख्याल आया कि नाज-नखरे के सबक उन्होंने बेकार ही लिये। उस लौंडे के पास बैठने वालों की आँखों में वासना के चिराग जल रहे थे। गुलाबी जान और चंदा बाई के पास बैठनेवालों की आँखों में भी इन्हीं चिरागों की जोत जाग रही थी, परन्तु इन चिरागों की लवें इतनी ऊँची न थीं।
    यह छः या सात साल पहले की बात है। उन दिनों गुलाबी जान कोई चैदह-पंद्रह साल की थी, और उसकी उतरी हुई नथ अभी बिल्कुल ताजा थी। फुन्नन मियां इज्जत की जगह, यानी दूल्हा के पास, बैठे थे। पहले गुलाबी जान का मुजरा हुआ। गुलाबी जान मियाँ लोगों की महफिलों को जानती थी। दो-तीन पूरबी गीत गाने के बाद उसने गालिब की एक गजल छेड़ी। चंदा बाई गरदन टेढ़ी किये बैठी अपने दाहिने पैर से ताल देती रही, मगर वह लौंडा अपने चारों तरफ बैठे हुए लोगों से ठठोल करता, हंसता और लोगों को हंसाता रहा। उसके पास बैठनेवालों की आवाजों में वासना की नमी बढ़ती ही चली गयी। यहां तक कि गुलाबी जान ने यह महसूस किया कि वासना की इस बाढ़ में शायद वह अपनी आवाज-समेत डूब जानेवाली है। उसने उस्तादजी की तरफ कनखियों से देखा, मगर वह बेचारे कर ही क्या सकते थे! वह लौंडा अरीब-करीब के मशहूर नचय्यों में था। और मशहूर था कि सलीमपुर के जमींदार अशरफुल्ला खाँ ‘अशरफ’ अपने दादा के कलमी दीवान की तरह उस लौंडे को भी रक्खे हुए थे! और फुरसत में इन दोनों ही के पन्ने उल्टा-पल्टा करते थे। उन्होंने तो उसका नाचना भी बंद करवा दिया था। उसे बस खास-खास मौकों पर नाचने की इजाजत थी। मगर जाहिर है कि इन खास मौकों पर भी वह उनके पास तो बैठ नहीं सकता था। बहादुरगंज के खान साहब से उनका याराना था, इसीलिए उनकी बेटी के ब्याह की महफिल में उनका लौंडा नाचने तो आ गया था, मगर उनसे दूर बैठा हुआ लोगों से चुहलें कर रहा था। अशरफुल्ला खां मसनद पर थे और फुन्नन मियां से अपने दादा की शायरी की बातें कर रहे थे। वह लौंडा उनसे दूर फर्श पर था। खान साहब उन गंदे-घिनौने जुमलों को सुन रहे थे जो गुड़-से उस लौंडें के चारों ओर मक्खियों की तरह भिनभिना रहे थे, और बार-बार उस पर बैठ जाना चाहते थे। खान साहब बेचारे उस वक्त तो कुछ कर नहीं सकते थे, मगर उन्होंने यह तय कर लिया था कि इस जश्न के बाद बहादुर गंज और सलीमपुर के बीच में पड़नेवाले जंगल में वह इस लौंडे को काटकर डाल देंगे। उनसे यह हतक झेली नहीं जा रही थी। खान साहब का गुस्सा सदा नाक पर धरा रहता था, मगर शरीफ आदमी थे और हर जगह गुस्से में बरस नहीं सकते थे। वरना उनके बारे में तो यह मशहूर था कि जब गुलाबी जान ने नथ पहना और यह खबर खान साहब को इस दुमछल्ले के साथ मिली कि नसीराबाद के ठाकुर साहब गुलाबी जान का नथ उतारने का फैसला कर चुके हैं, तो खान साहब को ताव आ गया। बोले, ‘‘वह क्या खाकर गुलाबी जान का नथ उतारेगा! भाई साहब मरहूम ने उसकी बड़ी बहन का नथ उतारा था, बाबा मरहूम ने उसकी खाला का नथ उतारा था, इसलिए गुलाबी जान का नथ मैं उतारूँगा।’’
    नतीजे में गुलाबी जान का दाम चढ़ गया। उसका नथ एक सौ एक नगद और पांच बीघे की माफी पर उतरा। ठाकुर साहब हिम्मत हार गये। मगर संयोग कुछ ऐसा हुआ कि पानी पड़ने लगा। अब गुलाबी जान भला बरसते पानी में कैसे आती! खान साहब पहले तो पहलू बदलते रहे, फिर कमरे में टहलने लगे। जब पानी किसी तरह न थमा तो वह अपनी दोनाली लेकर बाहर निकल आयें। उन्होंने आसमान की तरफ धाँय-धाँय दो गोलियाँ चलायीं। वह अल्लाह मियाँ से खफा हो गये थे। फिर शायद खुदा ही का करना ऐसा हुआ कि पानी रूक गया। गुलाबी जान आयी और उसका नथ उतर गया। उसी दिन से यह बात मशहूर हो गयी कि सलीमपुर के खान साहब से तो अल्लाह मियां तक डरते हैं।
    अब भला ऐसे से कौन न डरता, मगर उस लौंडे को अपने नमक पर नाज था। वह यह कह सकता था कि सलीमपुर के खान साहब ने उसके पाॅव दाबे हैं, और उसके तलबों से आँखें मलकर रोये हैं। अगर वह कभी किसी की तरफ देखकर मुस्करा दिया है तो वह जल-जल गये हैं, और उन्होंने उसे औरतों की तरह कोसने दिये हैं। बार-बार कहा है, ‘‘आज सता ले, जालिम! जब मर जाऊँगा तो याद करेगा।
    और शायद यही वजह है कि लौंडा खान साहब की परवाह किये बिना लोगों से ठठोल कर रहा था और जोर-जोर से हंस रहा था। इस हंगामे में गुलाबी जान बार-बार सुर ले रही थी और बार-बार सुर की डोर टूट रही थी। चंदा बाई हिकारत से मुसकराकर अपने उस्तादजी से कानाफूसी कर रही थी।
    फुन्नन मियाँ एकदम से खड़े हो गये। वह उस लौंडे की तरफ बढ़े। वह उनकी तरफ देखकर बड़ी निर्लज्जता से मुसकराया। फुन्नन मियां ने उसे एक ऐसा तमाचा मारा कि उस्तादजी के बायें की गमक दब गयी। महफिल में सन्नाटा छा गया। फुन्नन मियां फिर अपनी जगह लौट आये। सारी महफिल की निगाहें खान साहब पर जमी हुईं थीं।
    ‘‘वह गालिब की ग़जल गा रही थी, भाई।’’ फुन्नन मियां ने कहा। वैसे वह अलिफ-बे नहीं जानते थे, मगर अनीस और वहीद के मर्सियों ही की तरह उन्हें मोमिन, गालिब और दाग के अनगनित शेर याद थे। वह गालिब की हतक बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। खान साहब की समझ में भी यह बात आ गयी। उन्होंने फिर कुछ नहीं कहा। बाद में थानेदार शिवधन्नी सिंह और उत्तर-पट्टी के जमींदार ने खान साहब को चढ़ाने की पूरी कोशिश की कि फुन्नन मियाँ का थप्पड़ उस चमार के लौंडे के मुँह पर नहीं पड़ा था, बल्कि उनके मुहं पर पड़ा था, मगर खान साहब ने उन लोगों की बात मानने से इन्कार कर दिया।
    कहते हैं कि उस लौंडे का मंुह हफ्तों सेंका गया, लेकिन सूजन न गयी। जब वह अच्छा हुआ तो खान साहब ने उसे बड़ी भयानक सजा दी। उन्होंने उसे किसी काम से खलवत में भेजा। उस खलवत में सिराजुद्दीन खां पहलवान और उनके आठ पट्ठे पहले से मौजूद थे। वे उसी की राह देख रहे थे। दूसरे दिन खान साहब ने उस लौंडे को उसकी टोली समेत गांव से निकाल दिया और फिर वह अरीब-करीब के किसी गाॅव में भी नहीं देखा गया....
    लेकिन ये बातें तो और लोगों के साथ गुलाबी जान ने बाद में सुनीं। उस दिन तो बस इतना हुआ कि तमाचा खाकर लौंडा सन्न खींच गया। वह सोच भी नहीं सकता था कि फुन्नन मियाँ जैसा मामूली जमींदार भरी महफिल में उस पर हाथ भी उठा सकता है। मगर जो बात उस लौंडे को नहीं मालूम थी वह यह थी कि फुन्नन मियाँ लाख छोटे जमींदार सही, मगर सय्यद थे। और खान साहब के पुरखे सय्यद नूरूद्दीन शहीद के साथ आये थे। यह बात न फुन्न मियाँ भूले थे और न अशरफुल्ला खाँ ‘‘अशरफ’’- जो ‘नूह’ नारवी के शागिर्द थे। इसलिए जब फुन्नन मियाँ ने खान साहब को यह बताया कि गुलाबी जान गालिब की गजल गा रही थी, तो फिर कहने या सुनने के लिए कुछ रह ही नहीं गया।

शादी

दीनानाथ अपनी बेटी सरिता की शादी को लेकर काफी परेशान थे। सरिता की शादी के लिए जहां भी जाते लड़के वालों की भारी दहेज की मांग के आगे नतमस्तक हो कर घर लौट आते। अभी तक दीनानाथ दस-बारह जगह लड़का देख चुके थे। मगर कहीं बात नहीं बनी। दीनानाथ ने अपने रिश्तेदारों में भी कह रखा था, कोई लड़का हमारे लायक मिले तो जरूर बताइएगा। दीनानाथ के पास इतना रूपया भी नहीं था कि दो-चार लाख अपनी बेटी की शादी में खर्च कर सकें।
    एक रोज दीनानाथ अपनी दुकान पर बैठे हुए थे। तभी उनके मोबाइल की घंटी बज उठी। दीनानाथ ने मोबाइल में नाम देखा तो फोन उनके मामा जी का था। फोन कान से लगाकर दीनानाथ बोले, ‘‘हलो मामा जी, नमस्कार कहिए क्या समाचार है?’’
    ‘‘समाचार तो सब ठीक है। आपने अपनी बेटी सरिता के लिए एक लड़के के लिए हमसे कहा था न, तो हमें एक लड़का मिल गया है। लड़का अपने मां-बाप का अकेला हैं। गोलाबाजार में रहता है। लड़के के पिता नही ंहै सिर्फ मां है। लड़का बाजार में ठेला लगाकर शाम को चाट और चाऊमीन बेचता हैं रोज दो-तीन सौ कमा लेता है। लड़के का बाजार में अपना तीन कमरे का पक्का मकान है। लड़के का नाम संजय है। मैंने पंडित जी से दिखवा लिया, शादी अच्छी बन रही है। आप लड़का आकर देख लीजिए। दहेज में तीन हजार रूपया और सोने की जंजीर व अंगूठी देनी हैं। बाकी लड़की को आप जो देंगे वह आपकी मर्जी पर निर्भर है। कब आ रहे हैं लड़का देखने? आते वक्त लड़की की एक फोटो जरूर लेते आइएगा।’ मामा जी की बात सुनकर दीनानाथ बोले, ‘‘मामा जी मैं फोटो लेकर परसों आ रहा हूँ। हमारी बेटी सरिता की यह शादी जरूर करवा दीजिए। हमें यह रिश्ता मंजूर है।’ इतना कहकर दीनानाथ ने फोन काट दिया। मामा के माध्यम से दीनानाथ की बेटी सरिता की शादी पक्की हो गई। व धूमधाम से शादी हो गई।
    शादी के बाद सरिता अपने पति के घर चली गई। वह वहां चार-पांच दिन ही ठीक से रह पाई थी कि एक रोज रात को उसका पति शराब के नशे में घर आया और अपनी पत्नी सरिता से बोला, ‘मेरीजान आज मैं तुम्हारे साथ सुहाग रात मनाऊंगा। तुम्हें जी भरकर प्यार करूंगा चलांे कमरें में चलते हैं।’ संजय सरिता का हाथ पकड़ कर कमरें की तरफ बढ़ा। सरिता ने अपना हाथ छुड़ा कर कहा, ‘मैं तुम्हारे साथ आज नहीं सोऊंगी। मां जी के पास सो जाऊंगी। मुझे पहले यह पता होता तो मैं तुम्हारे साथ शादी नहीं करती।’ इतना सुनना था कि संजय सरिता के गाल पर चार-पांच थप्पड़ जड़कर चीखा, ‘मेरे साथ नहीं सोएगी तो किसी दूसरे के साथ सोएगी। जा मैं तुझे नहीं रखूंगा। कल सुबह अपने पापा को बुलाकर उनके साथ अपने घर चली जाना। मैं आज से नही पीता हूँ कई सालों से पी रहा हूं। बस शादी तक कसम खायी थी शराब नहीं पीऊंगा। अब तो मेरी शादी हो गई। मैं अब रोज शराब पीकर घर आऊंगा। मुझ कौन रोकेगा।’ इतना कहकर संजय कमरे में जाकर पलंग पर सो गया।
    सरिता को रोते देखकर उसकी सास बोल पड़ी, ‘बेटी मत रो कल मैं तेरे पापा को बुलाकर तुम्हें बिदा कर दूंगी। मैं तो इस शादी के खिलाफ थी। मगर तेरे मामा ने यह शादी करवाने के वास्ते हमारे बेटे संजय से दस हजार रूपया लिया था। तेरा माना ही सबसे बड़ा दोषी है।’
    अगले दिन संजय की मां ने दीनानाथ को फोन करके अपने घर बुला लिया और घर का सारा हाल सुनकर कहा, ‘समघी जी मुझसे बड़ी भूल हो गई जो आपकी बेटी से अपने बेटे की शादी कर ली। इसके लिए आप हमें जो चाहें वह सजा दे सकते हैं। मैं तो आप से यही प्रार्थना करूंगी कि आप अपनी बेटी को दो-चार महीने के लिए अपने घर ले जाइए। जब हमारा बेटा संजय शराब पीना छोड़ देगा तभी अपनी बेटी को बिदा कीजिएगा। वर्ना कभी मत बिदा कीजिएगा। इसकी दूसरी जगह शादी कर दीजिएगा, मै शादी का सारा खर्च अपने जेवर बेचकर दे दूंगी।
    ‘‘हां पापा, मां जी ठीक कह रही हैं। मैं अब यहां नहीं रहूंगी। न कभी इस घर में आऊंगी। मेरी शादी दूसरे जगह कर दीजिएगा। मुझे मंजूर है।’’ सरिता बोल पड़ी। पास खड़ा सरिता का पति संजय सबकी की बातें पत्थर का बुत बना सुना रहा था। सरिता के वापस न आने की बात सुनकर वह अपने ससुपर का पैरा पकड़कर रो-रोकर कहने लगा पापाजी मैं भगवान की सौगंध खा कर कहता हूं आज के बाद शराब को हाथ नहीं लगाऊंगा। आज के बाद आपको यह सुनने को नहीं मिलेगा कि संजय ने शराब पीकर अपनी पत्नी को मारा-पीटा। पापाजी शराब पीने की आदत हमें आपके मामाजी ने लगाई वर्ना मैं शराब से बहुत डरता था। सरिता मैं तुम्हारे पांव पड़कर कहता हूं आज के बाद कभी शराब नहीं पीऊंगा न तुम्हें मारूंगा। मेरी बातों पर विश्वास करके रूक जा सरिता आज से मै तुम्हें कभी नहीं मारूंगा। कल रात जो भूल हो गई उसे क्षमा कर दो।
    आज रात मै शराब पीकर घर आया तो तू अपनी मर्जी से यह घर छोड़कर चली जाना। संजय को रोता देखकर दीनानाथ बोल पड़े, ‘बेटा अगर सुबह का भूला रात को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते हैं। बेटी तू मेरी बात मानकर रूक जा अगर संजय ने दोबारा गल्ती की तो मैं तुम्हें यहां से लेकर चला जाऊंगा। मैं घरी चलता हूं तुम एक बात याद रखना रोज हमें फोन करती रहना।’ इतना कह कर दीनानाथ बेटी के घर से चल दिए। इस घटना से संजय की जिन्दगी ही बदल गई उसने शराब पीने के साथ-साथ मामा जी का भी साथ छोड़ दिया और अपनी पत्नी, मां के साथ सुखमय जीवन व्यतित करने लगा।

महंगाई के अनुष्ठान का अर्थशास्त्र...!

महंगाई और भ्रष्टाचार का नगाड़ा इस कदर ऊँची आवाज में बज रहा है कि देश का भूगोल लांघकर यह पूरी दुनिया में हैरतअंगेज शोर में बदल गया है। बुलंद आवाज में हलक फाड़नेवाले सियासतदां और मीडिया की जुगलबंदी 125 करोड़ आदम की औलादों को गुमराह करने के षड़यंत्र में दिन-रात एक किये हैं। सच का दामन थामने से हर एक को परहेज हैं। एकतरफा आंकड़ों का पहाड़ा याद कराने की कामयाब कोशिश में कौटिल्य के अर्थशास्त्र को धता बताया जा रहा है। और तो और चाणक्य की सियासी सलाहों की पुस्तकें दीमक का भोजन बन चुकी हैं, शायद मुगल शासक अकबर के शूरा-ए-गुल का सर्वधर्म समभाव जातीय राजनीति के चक्रव्यूह में दम तोड़ गया है। नेहरू का समाजवाद वंशवाद के राजमहल मे ंचाकरी को मजबूर है। भ्रष्टाचार के सियासी गणित पर ‘नमो’ और ‘राहु’ की गणना करके आमजन को ठगने की साजिश की जा रही है।
    पहले बात करते हैं बढ़ती महंगाई के हल्ला मचाओं अनुष्ठान में शामिल न किये जाने वाले 35 करोड़ इंसानों की, जो ‘सस्ता’, ‘महंगा’ दोनों शब्दों से अंजान हैं। न इनका तन ढका है, न मन। न पेट भरा है, न इनके पास सर छुपाने के लिए पांच वर्गफुट जमीन का टुकड़ा है। श्रम के बदले औरतों को नंगा करके धूप, बारिश में खुले आसमान के नीचे मुर्गा बना दिया जाता है और मर्दाें को कुत्ता! भोजन के नाम पर जूठन और वो प्राकृतिक वनस्पति जो जानवरों तक से बच जाती है। कहीं-कहीं तो ये इंसान मरे हुए जानवरों के मांस पर जीवित हैं। अब तो जूठन का भी बाजार तरक्की कर रहा है। पहले मुंबई में ही जूठन बिकते देखा था, आजकल लखनऊ से भी आगे छोटे शहरों में जूठन का कारोबार बड़ी तेजी से अपने पांव पसार रहा है। इस सच से सामना करने से हर कोई भाग रहा है। कोई भी इन मजलूमों की बात नहीं करना चाहता। वोटों के लिए पाखण्डी कर्मकाण्ड मीडिया के कैमरों के सामने बड़ी गंभीरता से किये जा रहे हैं लेकिन हकीकत की द्दरती पर इनका पांव धरना भी इन्हें अपवित्र कर जाता है। चुनाचे इनकी सद्गति के लिए झूठ और भ्रष्टाचार की चिता हमेशा धू...धू करके जलती रहती हैं।
    नब्बे करोड़ में लगभग दो करोड़ देवगण सोने के गिलास में ‘मिनरल वाइन’ फूंक-फूंक पर पीते हैं। इन्हें असत्य, महंगाई और भ्रष्टाचार के पौधारोपण कार्यक्रम चलाने में महारत हासिल है। इन्हीं से प्रशिक्षण प्राप्त बाकी के 80 करोड़ को महंगाई डायन खाय जात है। भ्रष्टाचार इनकी जड़ों और जोड़ों में मजबूती लाने की अचूक दवा है। यही कैंडिलमार्च से लेकर हिंसा के तमाम नातेदारों के साथ सड़क जाम, तोड़-फोड़, आगजनी, लूट के आयोजक एवं कार्यकर्ता होते हैं। इन्हीं का छोटी-छोटी बातों से धर्म भ्रष्ट या खतरे में पड़ जाता है। ये ही जमीन कब्जाने से लेकर बिजली चोरी जैसे कर्मकांड में लिप्त या ताली बजानेवाले तमाशाई होते हैं। यही शोहदई और फसाद के निर्माता हैं। इनको प्याज का रेट याद है। दाल का भाव याद है। मांस की कीमत में हुआ इजाफा याद हैं, दूध में हुई वृद्धि की गिनती जुबानी याद है। साग-सब्जी की बढ़ी दर याद है। इसी जमात को तेल, चीनी, रसोई गैस, पेट्रोल-डीजल की बढ़नेवाली कीमतों पर सरकार को गाली देने की आदत है। इन्हीं के सुर में सुर मिलाकर तुष्टीकरण करता मीडिया भी चीखता है कि पिछले 10 वर्षाें में देश में खाने-पीने की चीजे 100 से 16 सौं फीसदी तक महंगी हुई हैं। पिछले दो महीने से फल-सब्जियों खासतौर पर प्याज की बढ़ी हुई कीमतों को लेकर बड़ा हल्ला-गुल्ला मचा हुआ है। हर साल बरसात के मौसम में बाजार में सब्जियों की आवक में कमी से भाव बढ़ जाते हैं। इसके और भी कई कारण हैं, उनमें बाढ़ प्रमुख है। कई पर्व भी इसी दौरान पड़ते हैं, जमाखोरों का अधिक मुनाफा कमाने का लोभ भी है। यह हाल केवल भारत में ही नहीं है पड़ोसी देशों में भी है। दक्षिण अफ्रीका जैसे देश में भी धार्मिक मान्यताओं और आपूर्ति में कमी होने के चलते हर साल सितम्बर-अक्टूबर में फल-सब्जी 50-60 फीसदी तक महंगे हो जाते हैं।
    अगर महंगाई नहीं बढ़ती है तो शराब, कास्मेटिक्स, कवाब, पिज्जा, ड्रेसेस, मोबाइल, लैपटाॅप, चार -दो पहिया वाहन, यौनवर्धक दवाओं, कंडोम, सेक्सशापी और मनोरंजन मस्ती जैसे तमाम लग्जरी आइटमों पर, इनकी बिक्री में लगातार इजाफा होता जा रहा है। महंगाई का शोर मचाने वाला वर्ग 50 हजार रूपयों के टमाटर की होली खेलकर मस्ती करने में आगे हैं? इन्हीं का बाजार तय करता है कि आप पितृपक्ष में क्या खरीदेंगे? ब्रांडेड हो जाती है सत्यनारायण कथा! एनआरआई हो जाते हैं बकरीद पर बकरे तक! मंदिरों में स्वर्णदान अगर नहीं बढ़ता तो अरबों-खरबों की संपति के मालिक कैसे हैं देश के तमाम मंदिर? हाल ही में मुंबई के सिद्धनाथ मंदिर में गणेशोत्सव के दौरान चढ़ावे में चढ़े सोने-चांदी की नीलामी हुई है। किसी अखबार में नहीं छपता कि 2004 में आम आदमी की तन्ख्वाह क्या थी? कोई टीवी चैनल नहीं बताता कि पेटी बगल में दबाए हुए नाई की एक दिन की आमदनी क्या हैं? जबकि केवल शमशानघाट पर एक सिर मूंडने का सौ रूपया तक वसूला जा रहा है, बाकी कर्मकांडों की बात ही बेमानी है। सरकारी मुलाजिमों से अधिक वेतन प्राइवेट कम्पनियों के कर्मचारी पाते हैं। व्यापार में लगे लोग एक रूपये को तीन रूपये के मुनाफे में कैसे बदल रहे हैं, यह खुली आंखों से हर कोई देख रहा है। शिक्षा की दुकानों की आमदनी में किस वर्ग की साझेदारी है और कौन वर्ग लूट रहा है, लुट रहा है? पेट्रोल की खपत कौन बढ़ा रहा है? आबादी बढ़ाने की मशक्कत में कौन दिन-रात एक किये दे रहा हैं? देश में 90 करोड़ मोबाइल आपस में बातचीत के लिए सक्रिय हैं। इन मोबाइल कंपनियों को अरबों का मुनाफा कमाने की दावत कौन दे रहा है? यदि महंगाई सौ से सोलह सौ फीसदी बढ़ी है तो आमदनी में भी सौ से दो हजार फीसदी तक बढ़ोतरी हुई है। अमीरों की गिनती में काफी बड़ा इजाफा हुआ है। उप्र जैसे पिछड़े सूबे के सबसे पिछड़े इलाके सोनभद्र के राबर्ट्सगंज, चोपन, ओबरा, डाला, दुद्धी जैसे इलाकों में जाकर देखिए बाजार चमक रहे हैं, वहां के छुटभइये पत्रकार तक चार पहिया वाहन के मालिक हैं। मजदूरी करने वालों की झोपड़ी तक में रंगीन टीवी बैटरी से चल रहे हैं।
    कांशीराम आवास योजना या हरिजन काॅलोनियों में जाकर झांकिये हर घर रंगीन, टी.वी., फ्रिज, बाइक से गुलजार है। जिन मुसलमानों के लिए हल्ला है कि उन्हें इस मुल्क में गरीबी के अलावा कुछ नहीं मिला। उन्हीं मुसलमानों ने देश भर के रियल स्टेट कारोबार में आग लगा दी है। जिन इलाकों में आज से महज दस साल पहले तक तीन-चार लाख में छोटे रिहाइशी मकान मिल जाया करते थे आज वहां 30-35 लाख कीमत हो गई है। सच इससे भी अधिक नंगा है। सांतवां वेतन आयोग गठित होते ही उसे 2011 से लागू करने की मांग उठ गईं? गोया सारे जहां की दौलत का मालिक ‘मैं’ होऊंगा? एक तरफा तमाशा, चिल्लापों वोट की राजनीति के लिए समझ में आता है, लेकिन मध्यवर्ग अपनी बेईमानी पर गौर क्यों नहीं करता? कोई जवाब देगा कि दरोगा कौन है? सिपाही कौन है? इंजीनियर कौन हैं? डाॅक्टर कौन हैं? बाबू कौन हैं? बिजली-पानी कर्मी कौन हैं? दवा-दुआ विक्रेता कौन है? गोकि सब तो मध्यमवर्ग के लोग ही ‘हम-आप’ हैं। फिर बेईमान कौन है? भ्रष्टाचारी कौन है? मामूली रिक्शावाला दो रूपए की ठगी करके, तो सब्जी विक्रेता सौ ग्राम कम तौलकर भ्रष्टों की जमात में शामिल है। शहर से लेकर गांव तक कवाब-पराठे-चाउमीन से लेकर ‘डव’ साबुन, लोरियाल लिपिस्टिक की बिक्री की धूम है। और सरकार की नीतियों को हम बेइमान कोसने से पीछे नहीं हटते? जब सौ बेईमान एक बड़े बेईमान/अपराधी को राजा बना देंगे तो उससे ईमानदारी की उम्मीद कैसे की जा सकती है? गिनती के जो 10 करोड़ लोग बचते हैं वे ‘संतोषं परम सुखम्’ के खामोश अनुयाई हैं। सच का आइना इससे भी अधिक खतरनाक है। आंकड़ों की बाजीगरी और उधार की संस्कृति का खामियाजा जिन्दा कौमों को ही भुगतना होगा। चुनाचे महंगाई के अनुष्ठान में लक्ष्मी को बख्श दो लक्ष्मीपुत्रों!

सोने के तस्कर...‘कबूतर’!

लखनऊ। दीपावली में सोने की खरीद का खासा महत्व है। धनतेरस के दिन हर खास-ओ-आम की चाहत सोने के गहने, गिन्नी खरीदने की होती है। कुछ लोग सिक्के, श्रीगणेश-लक्ष्मी की मूर्ति, स्वास्तिक चिन्ह, चरणपादुका भी सोने और चांदी के खरीदते हैं। भारतीयों का सोने के प्रति असीम प्रेम है; इसकी गवाही में गये साल (2012-13) आयात किये गये 875 टन सोने को रखा जा सकता हैं गए साल दीवाली के धनतेरस में 300 किलो सोना अकेले लखनऊवासियों ने खरीदा था। देश भर में इसी दिन चार सौ टन सोना बिकने का अनुमान हैं इस साल सोने का आयात प्रतिबंधित हैं। आयात पर शुल्क भी कई बार बढ़ाया गया मगर सोने की खरीद पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वल्र्ड गोल्ड कौंसिल की माने तो अप्रैल-जून, 2013 तक 370 टन सोने की मांग रही, जो पिछले साल से 71 फीसदी अधिक है। यही हाल सोने के वायदा कारोबार में भी है। सोने के कारोबारियों का अनुमान है कि लखनऊ में पिछले साल से कम बिक्री नहीं होगी। दरअसल सोने में निवेश को फायदेमंद माना जाता है।
    भारतीयों के सोने के प्रति लगाव ने ही इसे वायदा बाजार और तस्करों का प्रिय बनाया। पिछले महीने की 7 तारीख को दुबई से चेन्नै आये एयर इंडिया के विमान के टाॅयलेट से 32 किलो सोना पकड़ा गया। इसकी कीमत 15 करोड़ आंकी गई है। चार लोगों को पकड़ा गया है। अकेले जून, 2013 में दिल्ली के इन्दिरा गांधी हवाईअड्डे पर दुबई, बंैकाक से आने वाले तस्कर कोरियरों से चार करोड़ से अधिक का सोना पकड़ा गया। चेन्नई में सौ किलों से ऊपर सोना अगस्त 2013 तक पकड़ा जा चुका है। जबकि पिछले साल महज 5.5 किलो ही पकड़ा गया था। भारत-नेपाल सीमा पर भी इस साल अगस्त तक 60 किलो से अधिक सोना तस्करों से बरामद किया जा चुका है। कोलकाता, मुंबई, हवाईअड्डों पर भी तस्करी से लाया गया सोना काफी तादाद में पकड़ा जा रहा है। समुद्र के रास्ते आने वाला अवैध सोना भी पकड़ा जा रहा है। अगस्त, 2013 में हैदराबाद के राजीव गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर एक करोड़ रू0 से अधिक व वाराणसी के बाबतपुर हवाईअड्डे पर छः किलो सोना पांच आदमियों के पेट से बरामद किया गया। तस्करी के जरिये आने वाला सोना लगातार भारत के बाजारों में तमाम सख्ती के बावजूद पहुंच रहा है। सोने की तस्करी के मामले में अकेले भारत ही नहीं श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल व बांग्लादेश की सरकारें भी परेशान हैं। खबरों के मुताबिक पाकिस्तान में पिछले सालों की तुलना में सोने का आयात 386 फीसदी व श्रीलंका में दोगुना तक बढ़ा है। इन दोनों देशों में आयात शुल्क का अंतर और ड्यूटी फ्री पोर्ट होने से तस्करों की चांदी है। श्रीलंका में तस्कारों को ड्यूटी फ्री शराब और सुअर का मांस भी मिलता है जो उन्हें आकर्षित करने के लिए काफी है। सोने के कारोबारियों का अनुमान है कि दीपावली में हर साल से भी अधिक सोना इस साल बिकेगा। आंकड़ों की बाजीगरी से परे पूरे देश में तस्करी के सोने से धनतेरस, दीपावली के साथ आनेवाली सहालग में भी सोना कारोबारियों की चांदी रहेगी।
    सोने की तस्करी के कारोबार में श्रीलंका, सिंगापुर, बैंकाक, दुबई की हवाई उड़ानों के कई यात्री, छोटे व्यापारियों, के साथ ‘कबूतरबाज’ तक शामिल हैं। इन तस्करों ने भोले-भाले हाजियों तक को अपना कोरियर बनाने की साजिश रची है। पहले भी हाजियों (स्त्री/पुरूष) के जरिए भारत से तम्बाकू, बनारसी साड़ी, हीरे जड़ी अंगुठियों जैसे कीमती सामानों को हर हज यात्री को यह कहकर दिया जाता था कि इसे लेते जाइए वहां हमारे भाई/बहन या अन्य रिश्तेदार आपसे आकर ले लेंगे। इसी तरह वहां से सोने के आभूषण भारत के लिए रवाना किये जाते थे जिसे यहाँ ट्रेवल एजेन्ट्स हाजियों से वसूल कर लेते थे। यही तरीका आद्दे- अधूरे कागजातों के साथ विदेश जाने वाले श्रमिकों (कबूतर) के माध्यम से भी अपनाया जा रहा है। अधिकतर यात्रियों को मालूम तक नहीं होता और वो सोने की तस्करी में शामिल हो जाता है। यहां गौरकरने लायक है कि यात्रियों को उतना ही सोना या सामान दिया जाता है जितना सरकार द्वारा लाने-ले जाने के लिए मान्य है या शुल्क मुक्त है। पकड़े जाने वालों में ऐसे यात्रियों की संख्या न के बराबर है। इन यात्रियों या कोरियर्स का इस्तेमाल बड़ी चालाकी से किया जाता है। भारत से विदेश जाने वाले श्रमिक भी जाने-अनजाने  इन तस्करों के ‘कोरियर’ का काम करते हैं। हैरत की बात है कि सउदी अरब ने पिछले महीनों अपनी नई श्रमनीति निताकत लागू कर दी है, जिसमें रोजगार देने के लिए स्थानीय लोगों को वरीयता (निर्माण के लिए 6-10 फीसदी व तेल/गैस निकालने के लिए 30 फीसदी) दिए जाने का नियम हैं। इस समय सउदी अरब में लगभग 13 लाख भारतीय कामगार हैं। तमामों को वापस आना पड़ रहा हैं, बावजूद इसके भारतीय कामगारों को सउदी अरब भेजनेवाले एजेन्ट्स के दफ्तरों में कामगारों की भारी भीड़ है। इन श्रमिकों से पासपोर्ट मेडिकल, इमीग्रेशन व बीजा के नाम पर ये एजेंन्ट्स अंधी कमाई कर रहे हैं। इन्हें आधे-अधूरे दस्तावेजों के साथ भेजने के अलावा यहां बतायें जाने वाले काम से दीगर निम्नतर कामों में जबरिया झोंक दिया जाता है। तस्करों के पेशेवर कोरियर उपन्यासों से मिलते-जुलते किरदार जैसे रास्ते अपनाने में भी पीछे नहीं हैं। चार महीने पहले दुबई से दिल्ली आये हवाई जहाज में टीवी बाॅक्स को स्ट्रेपल करने वाले पिन की शक्ल में चांदी की कोटिंग चढ़ाकर लाया गया सोना बरामद किया था। इसी तरह कई कोरियर (महिला/पुरूष) अपने गुप्तांगों में या अंतःवस्त्रों में सोना छुपा कर लाते हैं, लेकिन ये लोग 1 से 2 किलों तक ही ला पाते है। इन कोरियरों को जहां अच्छी कमीशन मिलती है वहीं सुनहरे भविष्य का लालच भी इन्हें इस पेशे में धकेलता हैं। लब्बोंलुआब यह कहा जा सकता है कि सोने का कारोबार एक बार फिर तस्करों के हाथों में लौट आया है। इन तस्करों के पास से देश के तमाम हवाई अड्डों व बन्दरगाहों से अब लगभग 1 हजार किलो सोना पकड़ा जा चुका है और तीस लोगों को गिरफ्तार किया गया है। इनमें एक अब्दुल रहमान को कस्टम के लोगों ने छत्रपति शिवाजी एयरपोर्ट पर पकड़ा, जिसने कस्टम अधिकारियों को बताया था कि वो अब तक 13 बार दुबई से भारत सोना लेकर आ चुका है। हर बार वह अपने शरीर के भीतरी हिस्सों में छुपाकर सोने की खेप लाता रहा। अद्दिकारी हैरत में थे कि वह उनकी नजरों से कैसे बच गया। जबकि वे महीने में 15-20 बार देश के बाहर आने-जाने वालों पर पूरी नजर रखते हैं। सोने की तस्करी नब्बे के दशक से थम गई थी। देश में तस्करों की जमात के सरगना नशीले पदार्थाें (ड्रग्स), हथियारों, हीरे-जवाराहतों व नकली नोटों के कारोबार में उतर गये या फिर डाॅन दाऊद इब्राहीम के साथ आतंकवादी षड़यंत्र में शामिल हो गये। क्योंकि भारत सरकार ने सोने के आयात से प्रतिबंध हटा लिया और प्रवासी भारतीयों को 5 किलो तक सोना लाने की इजाजत 450 रू0 प्रति 10 ग्राम ड्यूटी देकर दी गई थी। बाद में यह शुल्क 220 रू0 प्रति 10 ग्राम कर दिया गया। इससे सोने का समूचा कारोबार सर्राफा कारोबारियों के बीच सिमट गया। गौरतलब है कि सोने की तस्करी के असल जनक सुकुर नारायण बखिया, राजनारायण बखिया थे। ये दोनो भाई सत्तर-अस्सी के दशक में गोवा-मुंबई के समुद्री तटों के बादशाह कहे जाते थे। मुंबई बंदरगाह पर हाजी मस्तान कुली थे। दोनों भाइयों का सोना बंदरगाह से बाहर फिर शहर में पहुंचाने का काम हाजी मस्तान ने शुरूआत में किया। बाद में मस्तान के दाहिने हाथ व यूसुफ पटेल व अन्य तीन साथियों वरदराजन मुदलियार, करीम लाला और लल्लू जोगी के साथ हाथ मिलाकर साझे में गोवा-मुंबई के समुद्रतट व शहर बांट लिये। बड़े भाई राजनारायण बखिया की बीमारी से मौत होने पर सुकुरनारायण बखिया अकेला पड़ गया। उस पर तस्करी का एक भी मुकदमा नहीं दर्ज हुआ। उसे मीसा, कोफेपोसा व साफेया के तहत निरूद्ध किया गया था। छोटे बखिया की मौत के बाद हाजी मस्तान का एक छत्रराज्य सोने की तस्करी में रहा। यूसुफ पटेल से हुए झगड़े में हुई गैंगवार ने हाजी को और मजबूत किया। उसी गैंगवार के बाद युसूफ और लल्लू जोगी किनारे हो गये। सोने की तस्करी हाजी मस्तान, वरदा भाई व करीम लाला के बीच रही लेकिन एशिया का ‘गोल्ड किंग’ हाजी मस्तान ही रहा। इसी बीच दाऊद की आमद हुई और उसकी तेजी देखकर बूढ़े होते व राजनीति के खेमे में दाखिल होने को ललायित मस्तान ने गिरोह की बागडोर दाऊद के हाथों सौंप दी। खुद अल्पसंख्यकों के नाम से संगठन बनाकर अपनी मृत्यु तक सक्रिय रहे।

Tuesday, November 12, 2013

वाह! वाह! क्या बात है मैं रूपया तुम डाॅलर हो!


राम प्रकाश वरमा
‘गुनगुनाना चाहिए और मुस्कराना चाहिए। जिंदगी है चार दिन हंसना-हंसाना चाहिए।’ उम्मीद और ऊर्जा से भरपूर अंबर की ये लाइने महज कोरी कल्पना नहीं हैं। आज के माहौल में तमाम बेचारगियों, मजबूरियों और आदमी को हर क्षण यथार्थ से जूझने के बावजूद उसकी बेहतरी के पक्ष में इससे सार्थक व सकारात्मक आवाज शायद नहीं हो सकती और यह कविता में ही संभव है।
    कविता, कल्पना और विज्ञान का तालमेल है। इसी कारण सच को जितनी जोरदार आवाज में भावलोक में ले जाती है उतनी ही संजीदगी से पीड़ा की गली में भी खड़ा कर देती है। व्यथा-कथा-व्यंग्य ही नहीं वरन वर्तमान को हास्य के मेघों में संजोकर कहकहों से भरपूर बरखा में आदमी को तरबतर कर देती है। गौर फर्माइए सूर्य कुमार पाण्डेय की लव इकोनाॅमी पर, ‘मैं एक अनुभवी बैट्समैंन और तुम नई बाॅलर हो... मैं रूपया तुम डाॅलर हों’।
    कविता को एक मंच सब टीवी चैनल ने ‘वाह! वाह! क्या बात है!’ के नाम से दिया है। इसका प्रसारण हर शनिवार व रविवार रात नौ बजे होता हैं जहां कवियों की नई-पुरानी पीढ़ी एक साथ मंच पर होती है। हास्य-व्यंग्य की रचनाओं के बीच उबलते कहकहे और तालियां बजाते हर्षित श्रोताओं का जीवन के प्रति उल्लास और विश्वास नृत्य करता है। इस मंच के सौ एपीसोड की धूम में पढ़ी गईं तमाम लाइने हसंने-हंसाने के साथ आज के हालात पर गंभीरतापूर्वक सोंचने को मजबूर करती हैं। बानगी देखिए।
    लखनऊ के सूर्य कुमार पाण्डेय कहते हैं, ‘फैमिली का बोझ ढोते-ढोते कंधे थक गये’ तो अनामिका अंबर गा उठती हैं, ‘‘आपके जैसी छवि हो वर तो मेरा कवि हो...’ हाथ जोड़ते हुए संजय झाला संुदर सी हरियाणवी में सरकार की कार्यशैली पर तंज भरी उंगली उठाते हैं, ‘सरकार क्या है। वो जो सर पर कार चलाती है। जो सरका सरका कर काम चलाती है।’ वहीं डाॅ0 कुंवर बेचैन की प्रेम में पगी और सकारात्मकता से भरपूर लाइने मुलाहिजा हों, ‘सबकी बात न मानाकर/ खुद को भी पहचाना कर.... दर्द मिले तो गीत बना/दुनिया बहुत सुहानी है। इसे और सुहाना कर।’’
    ‘वाह! वाह! क्या बात है!’ के मंच पर एक पुरानी परम्परा को नए सिरे से जीवंत किया गया हैं। हर एपीसोड में एक नए कवि को अवसर दिया जाता है। जिसे छुपा रूस्तम की संज्ञा से नवाजा गया है। उसकी पीठ ठोंकने के साथ एक ट्राॅफी देकर उसका उत्साह भी बढ़ाया जाता है। अब तक के सौ एपीसोड में एक से बढ़कर एक नई सोंच वाले कवियों का काव्य-पाठ समूचे भारत ने सुना हैं। सौवें एपीसोड में छुपा रूस्तम के तौर पर आये फिरोज सागर ने जब पढ़ा, ‘खुशी-खुशी बन जा नेता/भाई मेरे राज करेगा/ फिर तेरे आगे कोई न आवाज करेगा...’ तो श्रोता झूम उठे और होस्ट शैलेष लोढ़ा ने एक और गीत की फर्माइश कर डाली तो फिर सागर में लहरें उठीं, ‘भइया-भइया रे मेरे भइया रे/ हमको झगड़ता देख रो रही भारत मइया रे...’। इन कविताओं में चारो और व्याप्त विसंगतियों के प्रति व्यंग्य का स्वर अपनी उदग्रता के साथ दिखा।
    मंचीय कविता का सूत्रपात तो दिनकर, निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा के समय में ही हो गया था। लखनऊ में ‘माधुरी’, ‘सुधा’ सम्पादक आचार्य पं0 दुलारेलाल भार्गव ने कवि सम्मेलनों की परम्परा डाली। 1922  से 1975 तक वे मंच पर कवियों को जहां बढ़ावा देने के लिए चांदी/सोने के सिक्के पुरस्कार स्वरूप देते रहे वहीं उनकी कविताओं को अपनी मासिक पत्रिका में व अपने प्रकाशन ‘गंगा पुस्तक माला’ में छापते रहे। ब्रजभाषा के वे स्वयं प्रतिष्ठित कवि थे। उनका कविता प्रेम मात्र इतने से ही जाहिर हो जाता है कि उन्होंने अपने घर का नाम ‘कवि कुटीर’’ रखा था। इतना ही नहीं  उन्होंने ‘कवि-कोविद क्लब’ भी बना रखा था जिसके तहत साप्ताहिक/मासिक कवि गोष्ठियां उनके ‘कवि कुटीर’ में हुआ करती थीं। उनके जीवनकाल का अंतिम कवि सम्मेलन 1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर भारत की विजय के उपलक्ष्य में लखनऊ के रवीन्द्रालय सभागार में हुआ था, जिसमें स्वर्गीय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री होते हुए भी काफी देर तक मौजूद रही थीं। दरअसल वे हिंदी के विशाल वट वृक्ष थे। इसके बाद मंचीय कविता को बच्चन, नीरज, रमानाथ अवस्थी आदि ने और स्वस्थ व मजबूत किया।
    ‘वाह! वाह! क्या बात है!’ की बात करते हुए पुरखों की याद इसलिए करनी पड़ी कि किराये के मंचों, ठेके के पंडालों पर लड़ते-झगड़ते भोंड़े कवियों के सस्ते मनबहलाव से उकताये श्रोता कविता से किनारा करने लगे। हालांकि इसका एक कारण टीवी की नई मनोरंजक दुनिया भी है। ऐसे माहौल में कवियों/गीतकारों का ताजा स्वर टीवी पर ही लोकप्रिय हो सकता था। भले ही इसकी टीआरपी का पायदान बहुत ऊँचा न हो या कुछ कवियों का अंदाज न भाये लेकिन ‘गीत के यह हंस तुम तक आ रहे हैं/ और मेरा हाल इनसे जान लेना...’ गुनगुनाता है इसका हर एपीसोड। इसके होस्ट शैलेष लोढ़ा खुद कवि हैं और बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वे अतिशय कुशल वक्ता और सुकंठी होने के साथ अपने युवा मन से मंच पर कवियों को मुखरित होने का भरपूर अवसर देते हैं। कई बार तो उन्हें हर्षातिरेक नृत्य करते और साथी होस्ट नेहा के मेहता के साथ मनोरंजक वार्तालाप में आकंठ डूबे हुए देखा जाता है और अंत पंत इतना ही ‘लेकिन धारा की लहर-लहर है कर्मशील।’’

Thursday, September 19, 2013

इतिहास के घूरे पर हिन्दी पुत्र पं. दुलारे लाल भार्गव


अपनी मां को अम्मा और अपने पिता को बप्पा कहने में हम हिन्दी भाषियों को बड़ी शर्म आती हैं। फिर हिन्दी पत्रकारिता के पुरोधाओं का स्मरण या हिन्दी साहित्य के युग निर्माताओं को प्रणाम करने की सुध हमें कहां रहेगी? आज जिस हिन्दी की समृद्धि का बखान करते हम नहीं थकते या हिन्दी पत्रकार के कन्धे से झोला उतारकर ‘अमिताभ’ बना देने के ‘होर्डिंग’ लगा रहे हैं, उसी हिन्दी को लखनऊ में ‘गणपति बप्पा’ की तरह स्थापित करने वाले हिन्दी पुत्र पं0 दुलारेलाल भागर्व को इतिहास के घूरे में डाल दिया है।
    6 सितम्बर, 1975 को उनकी देह ने लखनऊ के मेडिकल कालेज मंे विश्राम लिया था। तबसे लेकर आज तक हिन्दी जगत में उनकों लेकर कोई सुनगुन नहीं हुई। वे प्रथम ‘देव पुरस्कार’ विजेता थे जो उनकी कृति ‘दुलारे दोहावली’ पर उन्हें ओरछा नरेश ने दिया था। ‘माधुरी’, ‘सुद्दा’ जैसी स्तरीय पत्रिकाओं के सम्पादक थे। हिन्दी के प्रथम प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता तथा कवि सम्मेलनों के माध्यम से हिन्दी के प्रचारक थे। वे अपने जीवन के अंतिम समय तक हिन्दी की सेवा में लगे रहें। 8 जनवरी 1972 को भारत की प्रधानमंत्री रहीं श्रीमती इंदिरा गांधी के सम्मान में उन्होंने लखनऊ के रवीन्द्रालय सभागार में एक कवि सम्मेलन व मुशायरे का आयोजन किया था। इस कवि सम्मेलन मंे स्व. इंदिरा गांधी के साथ पं. कमलापति त्रिपाठी, डाॅ0 राजेन्द्री कुमारी बाजपेई के अलावा मंच पर भगवती चरण वर्मा, अमृत लाल नागर, सिरस जी, शिव सिंह ‘सरोज’ जैसे हिन्दी पुत्रों की एक बड़ी जमात मौजूद थी।
    उन्होंने गंगा-पुस्तकमाला के माध्यम से सैकड़ों लेखक, कथाकार, कवि हिन्दी जगत को दिये। उनमें निराला, प्रेमचन्द, आचार्य चतुरसेन, श्री गुलाब रत्न, ब्रदीनाथ भट्ट, रामकुमार वर्मा, क्षेमचन्द्र सुमन, श्रीनाथ सिंह जैसे नामों की भरमार है। लखनऊ को भगवती चरण वर्मा व अमृतलाल नागर जैसे उपन्यासकार दिये। मुझे कलम पकड़ना उन्होंने ही सिखाया। ‘नवजीवन’ दैनिक समाचार-पत्र में उनके प्रयासों से ही मुझे प्रशिक्षण का अवसर मिला। वे अपनी गंगा-पुस्तकमाला और कवि कुटरी में आये दिन गोष्ठियों का आयोजन किया करते थे। इन गोष्ठियों में हिन्दी जगत के मूर्घन्यों के साथ तबकी राजनैतिक हस्तियां भी होती थी। हिन्दी पत्रकारिता के उस विश्वविद्यालय में मेरा प्रशिक्षण तब चाय-समोसा लाने से शुरू हुआ था। उसी प्रांगण में मैंने प्रतिष्ठा और सम्मान देने पाने का पहला पाठ पढ़ा। वहीं मैंने जाना ब्रजभाषा काब्य की पुनप्र्रतिष्ठापना और ‘तुलसी संवत्’ का प्रचलन सबसे पहले ‘माधुरी’ पत्रिका के माध्यम से उन्होंने ही किया। उनकी प्रयोगवादी लाइनें हैं।
सत-इसटिक-जग फील्ड लै जीवन-हाकी खेलि
वा अनंत के गोल में आतम बालहिं मेल।
उर्दू साहित्य के गढ़ लखनऊ में हिन्दी साहित्य को प्रवष्टि कराने की ही नहीं, उसे अपनी गरिमा के अनुकूल स्थान दिलाने में दुलारे लाला भार्गव की अविस्मरणीय भूमिका रही हैं। इसके साथ ही उन्होंने उर्दू-हिन्दी का पूर्ण समन्वय भी रखा। यही कारण है कि ‘माधुरी’ में हिन्दी के साथ ही उर्दू साहित्य पर भी अनेक लेख छपते थे। लखनऊ में भार्गव जी के इर्द-गिर्द युवा साहित्यकारों को जमघट रहता और बाहर से पधारने वाले साहित्यकार तथा साहित्य प्रेमियों का निवास स्थान दुलारे लाला जी का कवि कुटीर ही था।
    आज कदाचित् यह आश्चर्यजनक लगे कि आकाशवाणी जब लखनऊ में संस्थापित हुई, तो उसमें हिन्दी के साहित्यिक कार्यक्रमों की श्रृंखला भार्गव जी ने प्रारंभ की। लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना के लिए दुलारे लाल जी ने अथक सक्रिय एवं सफल प्रयास किया। व्यक्तिगत स्तर पर ‘माधुरी’ में तर्कपूर्ण लेख प्रकाशित करके उन्होंने इस जनोपयोगी कार्य को पूर्ण किया। ये सारे लेख एक स्थान पर एकत्रित किए जाएं। तो लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग का इतिहास स्वतः स्पष्ट हो जायेंगा किस प्रकार भार्गव जी के सुतर्काें के समक्ष विश्वविद्यालय प्रशासन को झुकना पड़ा। फिलहाल एक समाचार ‘माधुरी’ के वर्ष 3 खंड 1 संख्या 4 से प्रस्तुत किया जा रहा है:-
    ‘‘जबसे यह विश्वविद्यालय खुला है तभी से बी.ए. परीक्षा के लिए हिन्दी, उर्दू, बंग्ला या मराठी में एक परीक्षा पास कर लेना प्रत्येक विद्यार्थी के लिए अनिवार्य हैं। परन्तु भारत के अन्य प्राचीन विश्वविद्यालयों के समान बी.ए. की परीक्षा में इतिहास, अर्थशास्त्र, अंग्रेजी, गणित, संस्कृति इत्यादि के समान हिन्दी या उर्दू को एक स्वतंत्र विषय के रूप में अभी तक नहीं रखा गया। कलकत्ता, बनारस और प्रयाग के विश्वविद्यालयों में तो हिन्दी में एम.ए. की डिग्री तक प्राप्त की जा सकती है। लखनऊ विश्वविद्यालय की यह कमी यहां के हिन्दी प्रेमी सज्जनों को पहले ही से खटकती थी। इस वर्ष मार्च में इस विश्वविद्यालय के कोर्ट के अद्दिवेशन में पं0 ब्रजनाथ जी शर्मा ने यह प्रस्ताव उपस्थित किया कि बी.ए. में हिन्दी और उर्दू भी स्वतत्र विषय के रूप में हों। इसके समर्थन में उन्होंने एक सारगर्भित, भाषण दिया। कुछ सज्जनों के भाषणों के बाद एक पादरी साहब ने इस प्रस्ताव का बड़े जोरदार शब्दों में समर्थन किया। उसका इतना असर हुआ कि शर्मा जी का प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ। यह प्रस्ताव एक सिफारिश के तौर पर था। उसका यहां के आर्ट्स फैक्ल्टी और एकेडेमिक कौंसिल में पास होना आवश्यक था। इस वर्ष वह इन दोनों सभाओं में भी पास हो गया और आगामी वर्ष से बी0ए0 की परीक्षा के लिए हिन्दी और उर्दू भी स्वतंत्र विषय होंगे। इस सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय बात है, यह प्रस्ताव पास कराने में सुदूर मद्रास प्रांत के रहने वाले प्रोफेसर शेषाद्री और डाॅ0 बी.एस. राम ने बड़ा परिश्रम किया। इनका हिन्दी प्रेम सराहने योग्य है। हमें लज्जा के साथ यह स्वीकार करना पड़ता है कि इन्हीं सभाओं के कुछ अन्य भारतीय सदस्य ऐसे भी थे, जिन्होंने इस प्रस्ताव के समर्थन में भाषण देना तो दूर रहा, उसके पक्ष में अपना मत तक नहीं दिया। क्या हम आशा कर सकते हैं कि शीघ्र ही लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी एम.ए. की परीक्षा के लिए भी एक स्वतंत्र विषय के रूप में रखी जायेगी।
    इस संदर्भ में यह भी लिखना समीचीन और उपयुक्त होगा कि दुलारे लाल जी के पश्चात्वर्ती परिश्रम से तत्कालीन संस्कृत विभागाध्यक्ष (बाद में उपकुलपति) डाॅ0 सुब्रहमण्यम ने हिन्दी विषय को स्वतंत्र रूपेण संस्कृत विभाग का ही एक अंग बनाना स्वीकार किया। इस प्रकार हिन्दी का लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश हुआ और भार्गव जी के अनन्य मित्र श्री ब्रदीनाथ भट्ट सर्वप्रथम हिन्दी के प्रथम प्राध्यापक नियुक्त हुए।’’
    अफसोस हिन्दी पत्रकारिता व हिन्दी साहित्य के पुरोधा को पाखण्डी पितृपक्ष (हिन्दी पखवारा/हिन्दी दिवस) के हिमायती भी भूले गये। आज महज बाजार के मूल्यों पर सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए अपने ही मित्रों साथियों का तर्पण करने का चलन है। तभी तो हमबिस्तरी और अनैतिक सम्बन्धों को लिखकर चटखारेदार चाट बेचने से भी मन नहीं भरता तो ‘छिनाल’ कारतूस दाग कर नामवर हो जाते हैं। फिर भला आद्दुनिक हिन्दी के युग निर्माता के चित्र के नीचे अगरबत्ती जलाकर दो फूल रखने की फुर्सत किसे हैं।
हिन्दी-द्रोही उचित ही तुव अंग्रेजी नेह;
दई निरदई पै दई नाहक हिन्दी देह।
आदरणीय गुरूवर की इन्हीं लाइनों का स्मरण करते हुए उन्हें शत्-शत् नमन। चरणवंदना!

दूध, जल, फल, अन्न की बर्बादी!

लखनऊ। आस्था और आबादी के गड़बड़ाते संतुलन के दौर में दूध, जल, फल और अनाज की बर्बादी की बाढ़ से देश के 40 फीसदी लोग बेजार हैं। वह भी तब, जब महंगाई लगातार बढ़ रही है। रूपया लुढ़कता जा रहा है। गरीबों का पेट भरने के लिए खाद्य सुरक्षा कानून तक लाना पड़ा है। हाल ही में दूध के दामों में बीस-पच्चीस फीसदी व उससे बने उत्पादों की कीमतों में तीस-चालीस फीसदी का इजाफा हुआ है। फल आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रहा है। एक केला चार रूपये, एक सेब 25 रूपए का बिक रहा हैं। सब्जियों का राजा आलू आम भारतीय रसोई से गायब होने लगा है। ऐसे भीषण संकट के दौर में बीते सावन में महादेव को प्रसन्न करने की गरज से लगभग सात लाख लीटर दूध अकेले लखनऊवासियों ने बेकार बहा दिया। इसके साथ ही करोड़ों लीटर पानी, टनों अनाज, फल-फूल कूड़े में फेंके गये। पूरे देश में इस आस्था की भेंट कितना दूध, जल, फल और अनाज बर्बाद हुआ होगा? और भादों, कुआर, कात्रिक (सितंबर, अक्टूबर, नवंबर) के पर्वाें पर कितनी बर्बादी होगी? श्रीकृष्ण जन्मोत्सव, श्रीगणेशोत्सव, पितृपक्ष, नवरात्र, दीपोत्सव व गंगास्नान पर्वाें पर इन सभी खाद्य वस्तुओं की भीषण बर्बादी होगी। आपका अखबार ‘प्रियंका’ पहले भी (देखें ‘प्रियंका’ 1 मार्च, 2012 अंक में) लिख चुका है कि हम भारतवासी 883.3 करोड़ किलो अनाज हर साल जूठन में नष्ट कर देते हैं। इसकी तस्दीक संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के तहत खाद्यान्न बचाओं मुहिम ने भी इसी साल की शुरूआत में अपने आंकड़े जारी करके की है। यूएनइपी के अनुसार एशियाई देशों में 11 किलों खाद्य प्रति व्यक्ति बर्बाद होता है। पिछले महीने केंद्रीय मंत्री शरद पवार ने राज्य सभा में बताया था कि देश में हर साल 44 हजार करोड़ का खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है। वह भी तब जब भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2012 में 79 देशों में 65वें स्थान पर है और 47 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। गरीबों की संख्या 40 करोड़ के आस-पास है। उप्र की राजधानी लखनऊ समेत कई शहरों में इसी साल अप्रैल-मई में 60-70 रूपए लीटर दूध बिका है। नागपंचमी पर कई सार्वजनिक संगठनों ने अपील की थी कि नागों को दूध न पिलाएं। दूध पीने से नागों की मृत्यु तक हो जाती है। यह वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के अनुसार अपराध है लेकिन आस्था के नाम पर दूध की बर्बादी रूक नहीं रही। देश में 11.6 करोड़ दूध का उत्पादन होने के बाद भी आधी से अधिक आबादी दूध से वंचित रह जाती है।
    आस्था का जुनून यहीं नहीं थमता जेठ के मंगलवारों (जून के महीने) मंे लखनऊ की हर सड़क पर दो-चार किलोमीटर की दूरी पर भंडारे के पंडाल दिख जाते हैं। नगर निगम, लखनऊ के एक अनुमान के अनुसार केवल बड़े मंगल पर 3500 भंडारे आयोजित किये गये थे। जिसमें लगभग 35 लाख लोगों ने भोजन किया। इन भंडारों में जल संस्थान का एक करोड़ 44 लाख लीटर पानी मुफ्त बांटा गया। इसमें कितना पानी बहाया गया, कितना खाद्यान्न कूड़े में फंेका गया किसी के पास आंकड़े हैं? इसी तरह सावन भर जगह-जगह भंडारे आयोजित होते हैं। देश भर में कभी कुम्भ, कभी अमरनाथ, तो कभी महादेव दर्शन की यात्राओं के लिए भंडारे आयोजित होते हैं। इन भण्डारों से लोग आवश्यकता से अधिक खाद्यान्न लेकर स्टोर कर लेते हैं, फिर खा न पाने से इधर-उधर फेंक देते हैं। इससे खाद्यान्न की बर्बादी के साथ शहर भी गंदगी से शर्मसार होता है। गणेशोत्व की धूम है। 11 दिन चलने वाले इस महोत्सव में अकेले मुंबई में 30-35 लाख मैट्रिक टन फूल-माला, 40 लाख किलो गुलाल, 5-6 सौ टन मोदक व दोना-पत्तल, कागज बेहिसाब बर्बाद होगा। बाकी शहरों का जिक्र ही बेमानी है। यही हाल दुर्गा पूजा में होगा।
    इससे भी अधिक खतरनाक है आस्था का जूनून, जो लोगों की जान तक ले लेता है। कई बाद भगदड़ में लोग मारे जाते हैं, तो कई बार भीड़ के उन्माद में। अभी हाल ही में सहरसा-पटना के घमरा घाट रेलवे स्टेशन पर रेल की पटरियां पार कर कत्यायनी मंदिर में भगवान शिव को जल चढ़ाने जाते 37 कांवडि़ये राज्यरानी एक्सप्रेस की चपेट मंे आकार अपनी जान गांव बैठे। इसकी अति अपराद्द को भी जन्म दे रही है। हर साल कांवडि़ये देश के तमाम राजमार्गाें पर जाम लगाते हैं, लूट-पाट करते हैं, आपस में झगड़ते हैं। इसी सावन के आखिरी सोमवार को विद्दानसभा मार्ग पर ‘प्रियंका’ अखबार के दफ्तर के सामने बेहद रफ्तार से भागने वाले ट्रैफिक में घुसकर लोगों को जबरिया रोककर उनसे दस-बीस, सौ-पचास की वसूली करते कांवडि़यों को ‘प्रियंका’ संवाददाता ने स्वयं देखा। ये कांवडि़ये युवा थे। यह कौन सी आस्था हैं?

तो अब सरकारी बाबा!


लखनऊ। उप्र के युवा मुख्यमंत्री के इर्द-गिर्द चाचा-चाची की लम्बी फौज के साथ उन्हंें एक लोकप्रसिद्ध ‘बाबा’ का भी आशीर्वाद मिल रहा है। ये नामवर बाबा पूरी उप्र सरकार के मुफ्त के सलाहकार होने के साथ प्रदेश के प्रमुख बुजुर्ग या सरकारी बाबा होने का गौरव पा रहे हैं। इन्हें मुख्यमंत्री के गाल प्यार से थपथपाते देखा जा सकता है, तो छः फुटे मंत्री की रौबदार मूंछों को सहलाते भी। मूंछें हो तो राजा साहब जैसी वाकये ने उन्हें अभिताभ भले ही नहीं बनाया हो लेकिन बड़े बाबा (बिग बी) जरूर बना दिया हैं। वे नौकरशाहों पर दबाव बनाने से लेकर किसी को भी सिफारिशी चिट्ठी लिख देते हैं। सरकारी समारोह में मुख्य/विशिष्ट अतिथि के तौर पर देखें जाते हैं।
    कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, उप्र/उत्तराखण्ड के पूर्व मुुख्यमंत्री, आंध्रप्रदेश के पूर्व राज्यपाल व पूर्व केन्द्रीय मंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी अश्लील सीड़ी कांड और अवैद्द संतान प्रकरण में जहां खासी बदनामी झेल कर कांग्रेस के लिए अछूत हो गये हैं, वहीं उप्र की सपा सरकार के खासे चहेते हो रहे हैं। दो महीना बारह दिन कम एक साल से वे सरकार के बाबा की हैसियत से लखनऊ से छपने वाले अखबारों की सुर्खियों में व टीवी के ब्रेकिंग न्यूज पर छाये हैं। कभी वे अस्पतालों का मुआयना करते, तो कभी बिजली दफ्तर में खड़े, तो कभी चिडि़याघर की बाल रेल में घूमते दिखाई देते हैं। यही दिखना समाचार बन जाता है। उन्हें देहरादून, दिल्ली और लखनऊ के कांग्रेसियों से जितना प्यार नहीं मिला उससे कहीं अधिक सपा व उसकी सरकार से मिल रहा है। वे इस स्नेह से बेहद प्रसन्न दिखते भी हैं। पिछले दिनों विधानसभा की लाइब्रेरी में मुख्यमंत्री के साथ कार्यवाइयों/किताबांे के साथ उसके ताजा हालात पर चर्चा करते दिखे। उनकी इसी सक्रियता और सरकार के आदर के चलते उनके माल एवेन्यू के बंगले पर खासी भीड़ इकट्ठी होती है। वे इन लोगों की तकलीफों के लिए सरकार को चिट्ठी लिखते हैं, सिफारिश करते हैं।
    अनुभव और वरिष्ठता के आदर की सीख कांग्रेस शायद न ले सके लेकिन सपा पूरी गम्भीरता से राजनीति के चाणक्य का आशीष बटोरने में लगी है। यूं भी सपा के पास कोई ख्यातिनाम ब्राह्मण चेहरा नहीं है। वह उन्हें सम्मान देकर अपनी यह कमी पूरी करने के साथ लोकसभा-2014 के चुनावों के लिए ब्राह्मणांे के निकट होने की कोशिश में भी लगी है।
    बहरहाल उनकी तमाम बदनामियों और बढ़ती उम्र के बावजूद उनका लम्बा राजनैतिक अनुभव प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री व सरकार को जहां रास आ रहा है, वहीं स्वयं एनडी बाबा को भी सरकारी दुलार प्रसन्नता व स्वस्थता दे रहा है। इसीलिए वे लखनऊ में डेरा जमाए हैं।

प्याज... न...न... लिपिस्टिक का जलवा!


लखनऊ। महंगाई, मंदी और मार्केट की अस्थिरता ने मध्यमवर्ग की हालत खस्ता कर रखी है, वहीं पूर्वांचल के निर्यातकों और विदेशों में कार्यरत कामगरों की बांछें खिली हुईं हैं। एक और हैरतअंगेज खबर है कि चैपट अर्थव्यवस्था के दौर मंे औरतों
ने पिछले तीन महीनों में अपने होठों का सौंदर्य बढ़ाने वाली लिपिस्टिक की बिक्री आसमान पर चढ़ा दी है।
    गौरतलब है शेयर बाजार की उठा-पटक, सट्टे की गरमी ने सोने की चमक ही नहीं फीकी की है वरन आम आदमी के खाने की थाली से लेकर भगवान के मंदिरों में चढ़ावे तक में कमी की है। लखनऊ के हनुमान सेतु से लगाकर आंध्रा के तिरूपति बालाजी मंदिर तक में दर्शनार्थियों की भीड़ जहां आधी रह गई हैं, वहीं चढ़ावा भी 35-40 फीसदी तक घट गया है। मध्यमवर्गीय परिवारों ने अपने भोजन से फल और सब्जियों के साथ मांसाहार में खासी कटौती की है। रेस्टोरेन्ट और ढाबों में खाने वालों में इधर खासी कमी आई है। पर्यटन के क्षेत्र में भी भारी गिरावट दर्ज की गई है। हैरतअंगेज है कि रूपए के लगातार गिरते जा रहे दौर में सौंदर्य प्रसाधन के कारोबार में कई वस्तुओं की बिक्री में अच्छी बढ़त हुई है। देश के बड़े अखबार ‘इकनाॅमिक टाइम्स’ के अनुसार देश में कलर कास्मेटिक्स का बाजार 16 सौ करोड़ रूपये का हैं जो पिछले दो सालों में 8 फीसदी सीएजीआर से बढ़ रहा है। इस बिक्री  में लिपिस्टिक का हिस्सा 42 फीसदी है जो पिछले तीन-चार महीनों में 25-30 फीसदी बढ़ा है। चेहरे पर लगाने वाले प्रसाधनों की बिक्री में 13 फीसदी व आंखों की सुंदरता बढ़ाने वाले प्रसाधन में 10 फीसदी की दर से बढ़त देखने को मिली है। 2013 के शुरूआती छः महीनों में रेवलाॅन लिपिस्टिक की बिक्री 30 फीसदी से अधिक बढ़ी है। अखबार के मुताबिक फिल्म अभिनेत्री और अमिताभ बच्चन की बहू ऐश्वर्या राय लोरियाल लिपिस्टिक के विज्ञापन में टीवी के पर्दे पर दिन में बीस बार दिखाई पड़ती हैं। काॅन फिल्म समारोह में भी वे इसी लिपिस्टक का एक खास शेड लगाये दिखीं थीं। मध्यवर्गीय परिवारों की औरतें ऐश्वर्या की नकल करने में दीवानी है, यह बात लोरियाल लिपिस्टिक की बढ़ी हुई बिक्री ने साबित कर दी है। लखनऊ के कई बड़े स्टोरों में आज भी लोरियाल आसानी से नहीं मिल पाती। औरतें महंगा प्याज व सोना खरीदने की जगह लिपिस्टिक खरीदने में अपने को अधिक सहज पाती है।
    बतातें चलें कि पूर्वांचल के खासे श्रमिक खाड़ी देशों में काम कर रहे हैं।, उनके द्वारा अपने घरों को भेजी जा रही तनख्वाह में इधर अच्छी बढ़त हो रही हैं। रूपए की गिरावट से कालीन, बनारसी साड़ी, सिल्क, रेशम फैब्रिक्स, हैंडीक्राफ्टस के दो - सवा दो हाजर करोड़ के निर्यात कारोबार से जुड़े निर्यातको में भी खुशी की लहर दौड़ रही है। विदेशों में कार्यरत भारतीयों ने पिछले साल देश में 70 अरब डाॅलर और 2011 में 55 अरब डाॅलर से अधिक की रकम भेजी थी।

Wednesday, August 7, 2013

लखनऊ फिर घायल

लखनऊ। रमजान के मुबारक महीने में झगड़ा फसाद जायज है? वह भी आपस में.. भाई-भाई में एक ही फिरके में? हर गली-कूचे की मस्जिदों से र्कुआन की आयतें गूंज रही हैं... तमाम हिदायतें दी जा रही हैं। मौलाना या आलिम से लेकर आम मुसलमान नेकी और ईमान के रास्ते पर चलने की बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं.... ऐसे में ये फसाद? यह सारे सवाल लखनऊ के हर वाशिन्दे के हैं। और क्यों न हो?  शहर की इकलौती माँ गोमती का ही पानी शिया भी पीते हैं... सुन्नी भी पीते हैं... हिन्दू भी पीते हैं... और वे पटरी दुकानदार भी पीते हैं, फिर यह हिंसां?        इन सवालों के जवाब तलाशने जब ‘प्रियंका’ ने सआदतगंज से हजरतगंज तक तफसील जानी तो कई जवाबों का खुलासा हुआ। दरअसल हर त्यौहार से पहले पटरी दुकानदार स्थानीय पुलिस नगर निगम व जिला प्रशासन से अपनी दुकानें लगाने की इजाजत लेकर लगभग पन्द्रह दिनों तक नक्खास (विक्टोरिया स्ट्रीट) में अस्थायी दुकानें लगाते हैं। इनमें वे लाखों रूपयों का सामान पहले से भर लेते हैं। ये दुकानदार रातों में भी उन्हीं दुकानों में सोते हैं। जूता बेचनेवाले अकबर अहमद का कहना है, ‘कुछ असामाजिक तत्व हर साल अवैध रूप से वसूली करते हैं। इन लोगों से पुलिस भी मिली रहती है। पिछली बकरीद में वसूली को लेकर काफी झंझट हुआ था, जो मौलाना याकूब के हस्तक्षेप से शांत हो गया था।’ गौरतलब है 12वीं रबीअव्वल के जुलूस में इन्हीं मौलाना के काॅम्पलेक्स के पास गोलियां चलीं थीं। इन पर मुकदमें भी हैं।
    इस बार भी बाजार सजते ही असामाजिक तत्व सक्रिय हो गये और मनमानी पर उतर आए। शहर के वरिष्ठ नागरिक मुश्ताक खान कहते हैं, ‘खुदा जाने पुलिस क्यों तमाशाई बन जाती है। रमजान के पाक महीने में इबादत की जगह फसाद करने-कराने वालों को खुदा भी माफ नहीं करेगा और इसमें शामिल सियासी लोगों की मंशा भी नहीं पूरी होगी। बहरहाल लखनऊ एक बार फिर घायल हुआ। फसादियों ने रोजेदारों को सरेराह पीटा, खुदा के सच्चे बन्दों को गोलियों से भून दिया, इससे ईद की आँख में आँसू छलक आये हैं।

सावन और ईद की मुस्कराहट है समाजवादी

सावन आता है भर मन। हर एक चेहरा मुस्कराता है। यहां तक कड़वी नीम भी खिलखिलाने लगती है। हर उम्र की महिलाएं बगैर झूले के हिलोरें लेती हैं, तो मर्दानगी अखाड़ों में छाती फाड़कर श्रीराम के दर्शनों को आतुर दिखती। जीन्स-शार्ट या टाॅपलेस भी चूड़ी...बिंदी... मेहंदी की दीवानगी से बच नहीं पाते। माॅल... की भीड़ भी मेलों में मस्ती की छेड़छाड़ और बरखा रानी की अठखेलियों से अपने को बचा नहीं पाती। भले ही ढीठ यौवन... शिट.. ‘सा..वन’... कहकर मुंह बिचकाए और आधुनिक गुसलखाने में लगे फुहारे के नीचे खड़े हो गुनगुनाए ‘आग लगे सावन में...।’ बरखा रानी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वो दुलारी बिटिया की तरह अपने मायके आकर आपनी धरती मां के गले से लिपटकर जार-जार आँसू बहाती हैं और खूब प्रसन्न होती हंै। उसकी खुशी गांव-शहर, हिन्दू-मुसलमान, गोरा-काला, बाभन-दलित, सावन और ईद में कोई फर्क नहीं करती।
    इस बरस भरपूर उफनाये सावन में ईद का इस्तकबाल त्योहार के हुस्न को दोबाला करने को बेताब है। समूचा मंजर गले मिलकर जय हिन्द... जय भारत के नाद की गंूज सुनने का ख्वाहिशमंद है। बाजार तक इससे अछूते नहीं है। नवाबों का शहर लखनऊ सावन और ईद की रौनक से भरपूर चहक रहा है। मस्जिदों से गूंजती आयतें, तो मन्दिरों से हर-हर महादेव की भाई-बन्दगी लखनऊ की हर गली में आबाद है। चैक, नक्खास, अमीनाबाद, मौलवीगंज के बाजार रातों में मुगलिया खाने की सोंधी महक से गुलजार हैं। दिन फूलों, फलों, दूध, सिवइंयों सूतफेनियों व अनरसे की मीठी गोलियांे-पूरियों से बरौनक हैं। आलमबाग हो या गोमतीनगर या कस्बा काकोरी, बंथरा, निगोहा या फिर बालागंज, गोसाईगंज सब जगह सावन झूम रहा है, रमजान इबादत में नतमष्तक।
    गुडि़या-रक्षाबंधन को तैयार, तो ईद की नमाज के लिए नन्ही-मुन्नी टोपियों से सजा लखनऊ अदब से आदाब बजा रहा है। औरतों की खरीदारी से बाजार के कहकहे बेतरह बुलंद हैं। सावन और ईद की सेवाइंयों के गले मिलने का हाल बयान करने का नहीं देखने का गजब मंजर है। हुसैनगंज, सआदतगंज में गुडि़यों का मेला जहां दोनों फिरकों की औरतों की चूडि़यां खनकती हैं, बच्चों की जिदभरी चिल्लापों से समूचा माहौल मुस्कराता है। बुद्वेश्वरन से मनकामेश्वर मन्दिर तक भोलेबाबा का जयकारा गूंज रहा है। टीले वाली मस्जिद से लेकर ईदगाह तक सहरी की इत्तिला और तरावीह (कुअऱ्ान के पाठ) की पाकीजगी से रूबरू है, लखनऊ। गो कि गोमती के पानी मिले दूध में पकी सेवेइयों में हिन्दू-मुसलमान की तलाश बेमानी है।
    सियासत के मुहल्लों में बाढ़ और शहरिया सीवर के बदबूदार पानी से पैदा डेंगू, मलेरिया, वायरल से पीडि़तों की कराहटों से बड़ी चर्चा दिल्ली की गद्दी हथियाने की जारी है। वह भी यह भूलकर कि इसी सावन में देश आजाद हुआ था और आजाद देश का बचपन आज भी अधनंगा है, यौवन हाथ पसारे है, तो बुढ़ापे के खण्डहर बस दफ्न होने को हैं। लैपटाॅप, खाद्य सुरक्षा कानून, नमो और सर्व समाज के दंगल से आदमी पहलवान का खिताब हासिल कर पायेगा? सवाल इससे भी अधिक हैं मगर बहरे कौओं की कांय-कांय में दोहरा कर होगा क्या? जब आदमी के जलने के लिए चिता की लकड़ी तक कीमती हो जाये तब सावन का रूदन बढ़ेगा नहीं? जब ईद की सेवइयां सरे बाजार लुट जाएं और भाई-बहनों से शोहदई करने लग जाएं तब बरखा के वेग से आदमी को कौन बचाएंगा? खुद आदमी, और कौन? सच यही है, इस साल जश्न-ए-आजादी के दिन घर में घुसे घरेलू लुटेरों से छुटकारा पाने की कसम खानी होगी। भोलेबाबा को दूध से नहलाने की जगह हर बच्चे को दूध उपलब्ध कराने का संकल्प लेना होगा। ईद की नमाज के वक्त मुल्क की हिफाजत की हलफ उठानी होगी और अम्मा के हाथ की बनी मीठी सेवइयों का लुत्फ उठाने के लिए सावन और ईद को गले मिल कर आजाद उद्ंदडों को सबक सिखाना होगा। चुनाचे प्रेमचन्द की ‘ईदगाह’ से लौटे हमीद के हाथों में लोहे का चिमटा देखकर दादी की आँखों में उमड़ आये सावन का दुलार पूरे मुल्क को भिगो दे और सच्ची व मासूम खिलखिलाहटें समाजवादी हो जाएं। तभी तो सावन और ईद की सेवइयों की मिठास एक रस होगी और अन्त में-
अगर मिलकर बरस जाएं यही बिखरे हुए बादल।
तो फिर सहराओं को सैलाब में तब्दील करते हैं।।

नये नवाब!

लखनऊ। शाही अंदाज में जीने का सलीका नवाबों के शहर में तमाम नए नवाबीनों को रास आया है। सूबे की मुख्यमंत्री रहीं मायावती का मलिकाओं वाला अंदाज खासा चटखारेदार रहा है। उनसे कम नहीं हैं नई उमर के नये मुख्यमंत्री।
    खबरों के मुताबिक आरटीआई के जरिए खुलासा हुआ है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 2012-13 के दौरान मुख्यमंत्री आवास मंे मूल निर्माण पर 41 लाख 73 हजार व सामान्य मरम्मत कार्य पर 1 लाख 95 हजार रूपए खर्च किये। जबकि मायावती ने अपने अन्तिम कार्यकाल 2011-12 में मूल निर्माण पर 21 लाख 20 हजार रूपए व सामान्य मरम्मत पर दो लाख रूपए खर्च किये थे। बताते चलें कि यह जानकारी आरटीआई एक्टिविस्ट उर्वशी शर्मा ने मुख्यमंत्री सचिवालय से हासिल की है।

दूध, फल और सब्जी में जहर!

नई दिल्ली। दूध और फल लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते जा रहे हैं। साग-सब्जी भी रासायनिक पदार्थाें की गिरफ्त में है। स्वास्थ्य मंत्रालय की पिछले दिनों आई रिपोर्ट बताती है कि उप्र में बिकने वाला 50 फीसदी दूध मिलावटी होता है और दस फीसदी फल रासायनयुक्त।
    मिलावट को रोकने के लिए कड़े कानून भी हैं, लेकिन जान से खिलवाड़ का गोरखधंधा जारी है। स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक वर्ष 2009 से इस वर्ष नवंबर तक फल के 523 नमूने लिए गए, जिसमें से 49 नमूने निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं पाए गए, जबकि 46 मामलों में फलों को रसायनों के माध्यमों से पकाए जाने का पता चला। बताते चलें कि खाद्य सुरक्षा व मानक (बिक्री संबंधी प्रतिषेध व प्रतिबंध), विनियम, 2011 के खंड 2/3/5 में वैसे फलों की बिक्री को प्रतिबंधित किया गया है, जिसको कार्बाइड से पकाया गया हो। मंत्रालय के मुताबिक पकड़ में आए मामलों में 48 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया तथा दो को कारावास की सजा दी गई। वैसे कार्बाइड के प्रयोग में गुजरात सबसे आगे हैं। अकेले गुजरात में तीन सालों में 2000 कुंटल कार्बाइड पकड़ में आया। इसी तरह वर्ष 2009 से नवंबर तक उप्र में दूध के 7889 नमूने एकत्रित किया गए, जिसमें से 3448 नमूने निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं पाए गए तथा 45 मामलों में हानिकारक रसायनों के अवशेष पाए गए, यूरिया और अन्य रासायनिक पदार्थ लीवर को कमजोर करते हैं। मंत्रालय के आंकड़ों के मुतबिक दूध में रासायनिक पदार्थांे के मिलावट के मामले में कुल 126 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया तथा 183 व्यक्तियों को कारावास की सजा दी गई तथा
54.12 लाख का जुर्माना लगाया गया। मिलावट से सब्जियां भी अछूती नहीं हैं। सब्जियों के भी 687 नमूने निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं पाए गए। बताते चलें कि इन दो मामलों में सात व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया।

सावधान! नकली है दवा...!

लखनऊ। दवा नकली, दवा की दुकान नकली, डाॅक्टर नकली और सरकारी अस्पताल बिगड़ैलों का बाड़ा। गजब है कि बीमार भी नकली दर्ज हैं सरकारी कागजोें पर! इस घपले में असली बीमारों को श्मशान तक जाना पड़ रहा है, जहां लकड़ी भी महंगी और गीली बिक रही है। इन हालातों में आदमी कैसे स्वस्थ्य रहकर जीने का रास्ता तलाशे?
    देशभर से आ रही खबरें बताती हैं कि नकली और यौनवर्धक दवाओं से दवा बाजार पटा पड़ा है। नेपाल और बांग्लादेश के बाद उप्र में आगरा को नकली दवाओं की बड़ी मंडी माना जाता है। मुंबई, लखनऊ, भोपाल, दिल्ली और अहमदाबाद का भी नाम इस कारोबार के नक्शे पर बेहद असरदार है। इन बाजारों में किसी भी दवा या इंजेक्शन की नकल मिल सकती है। इनकी पहचान आसान नहीं है और जिम्मेदार हाथ ही इसमें शामिल हैं। पिछले महीनों में आगरा में एलोथ्रोसिन 200/500 एमजी (एंटीबायटिक गले के इंफेक्शन के लिए), डोमेस्टल (उल्टी के लिए), मिकासिन (एंटीबायाटिक), वोवराॅन, एसआर, रेजेस्ट्रोन, मैक्सक्लेव टैब, डूफास्टोन, कैल्शियम टैब, मैंटेन टैब, इंडोकैप एसआर कैप, शेलकैल 500 एमजी आदि दवाओं की नकल का खुलासा कई डाॅक्टरों ने किया तो उन्हीं के खिलाफ मुहिम चलाई जाने लगी। ड्रग कंट्रोल अथार्टी भी इस धंधे में शामिल होने के संदेह से परे नही है। दवा बनाने वाली बड़ी कंपनियां भी इस गोरखधंधे में शामिल हैं। क्योंकि एस्ट्रोजेनेका के अधिकारी नकली दवा की शिकायत करने पर टाल-मटोल कर चुप्पी साध जाते हैं। निओन लेनोटेरटीजा, सिटला, सन फार्मा, बंगाल केमिकल जैसी नामी कम्पनियां भी घटिया दवाएं बाजार में उतार रही हैं। केन्द्रीय औषधि मानक प्राधिकरण की आकस्मिक जांच में 61 दवाएं घटिया स्तर की पाई गईं। राज्य स्तर पर भी धर-पकड़ की गई लेकिन कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं किया गया। पैरासीटामाॅल (दर्द निवारक/बुखार), क्लोरोक्वीन (मलेरिया), इबुजेसिक (आर्थराइटिस) जैसी नकली दवाओं की तो भरमार है। ग्रामीण इलाकों में ये नकली दवाइयां धड़ल्ले से खपाई जा रही हैं।
    मुंबई के औषधि एवं अन्न प्रशासन (एफडीए) कमिश्नर ने दो महीने पहले एक प्रेसवार्ता में खुलासा किया था कि दवा कम्पनियों और दवाओं को बाजार में बेचने वाले ड्रगिस्ट एवं केमिस्ट के बीच बाकायदा लेन-देने होता है। गौरतलब है कि दवा उत्पादन कंपनियों को ड्रगिस्ट एंड केमिस्ट के आॅल इंडिया आॅर्गनाइजेशन के अडि़यल रवैए के सामने झुकना पड़ता हैै। कंपनियों को बाजार में अपनी नई दवा बेचने से लेकर स्टाॅकिस्ट की नियुक्ति करने तक आॅर्गनाइजेशन से एनओसी लेनी पड़ती है। बिना इनकी एनओसी कोई भी दवा कंपनी अपनी दवा बाजार में नहीं बेच पाती है। कोई कंपनी इनकी एनओसी के बिना स्टाॅकिस्ट या दवा बाजार में लाती है तो आॅर्गनाइजेशन इन कंपनियों को बायकाॅट कर देती है।
    कमिश्नर एफडीए के मुताबिक एनओसी के नाम पर बड़े पैमाने पर दवा कंपनियों और आॅर्गनाइजेशन के बीच करोड़ों रूपयों का लेन-देन भी होता है। स्टाॅकिस्ट, नई दवा की लांचिंग के अलावा व्यवहार में होनेवाले मुनाफे की अतिरिक्त राशि की रिश्वत इनके द्वारा ही तय की जाती है। केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट के इस घपले पर तीन महीने पहले स्पर्धा आयोग ने दवा विक्रेता संगठन आॅल इंडिया आॅर्गनाइजेशन आॅफ केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट को 47 लाख रूपए का दंड भरने का आदेश भी दिया था। आॅर्गनाइजेशन के इशारे पर नए स्टाॅकिस्ट को दवा देने से इंकार कराने वाली तीन दवाई कंपनियों पर एफडीए ने आपराधिक मामला भी दर्ज किया है। इन्हीं कारणों से दवा के दामों में इजाफा हो रहा है और इसकी शिकार आम जनता हो रही है।
    इससे भी आगे शहरी/ग्रामीण क्षेत्रों में खुले अनगिनत मेडिकल स्टोर्स में कोई भी सरकार द्वारा तय मानकों पर खरा नहीं उतरता। नियम कहता है हर मेडिकल स्टोर पर एक फार्मेसिस्ट होना चाहिए लेकिन 80-85 फीसदी पर वह नहीं होता। जो लोग दवा बेचते हैं वे दवाओं की उपयोगिता से नवाकिफ साधारण सेल्समैन होते हैं। नियमानुसार दवा बेचने वाले कर्मचारी को हाथ में दस्ताना पहनना अनिवार्य है व दवा पत्ते से काट कर नहीं बेची जानी चाहिए। स्टोर पूरी तरह कवर्ड व साफ-सुथरा हो और एक निश्चित तापमान में होना चाहिए, लेकिन शायद ही ऐसा कहीं हो। जिम्मेदार अधिकारियों का कहना है कि ये सभी मानक व्यवहारिक रूप से मानना संभव नहीं है।
    लखनऊ शहर में लगभग साढ़े चार हजार मेडिकल स्टोर्स हैं। इन मानकों व नई दवा नीति, दवा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मुखालिफ लखनऊ केमिस्ट एसोसिएशन ने एक दिन की हड़ताल दो महीने पहले की थी। एसोसिएशन के मुताबिक उस दिन लगभग दो सौ करोड़ का नुकसान हुआ था। यह नहीं बताया गया कि उस दिन बगैर दवा के कितने मरीज भगवान को प्यारे हो गये। यह भी नहीं बताया गया कि अधिक मुनाफे के लिए नकली दवाइयां क्यों, कौन-कौन और कितनी बेचते हैं?

बिजलीवाले मांगते हैं खर्चा पानी...?

लखनऊ। बिजली महंगी हो गई। चारो ओर अंधेरा, किल्लत का हाहाकार पूर्ववत जारी हैं। सड़कांे पर उतरते लोग बिजली गुल और कीमतों के इजाफे को लेकर हिंसक हो रहे हैं। उपभोक्ता परिषद और समूचा विपक्ष लामबंद होकर सरकार पर हमलावार है। व्यापारी, उद्योगपति सड़कों पर सरकार विरोधी नारे लगा रहे हैं। गृहणियां उमस और गरमी से हलकान अपने चेहरे का पसीना पोंछते हुए बिजलीवालों को कोस रही हैं। हालात यही नहीं ठहरते। सूबे के किसान, परद्दान से लेकर विधायकगण तक गुहार लगाते हुए हाकिमों से लेकर आलाकमान तक हकीकत बयान कर रहे हैं। जवाब में सरकार सियासत के शतरंज पर पिटे हुए नाकारा विपक्ष को कोसते हुए अपने प्यादों को विकास का भोंपू बजाने का ठेका सौंपकर मस्त है।
    राजधानी के सात लाख से अधिक उपभोक्ताओं की सुननेवाला कोई नहीं, उन्हें बिजलीचोर, गलत बिलिंग और बिजलीकर्मियों के खर्चा-पानी जैसी मुसीबतों का लगातार सामना करना पड रहा है। असल बिजली चोर बिजली कर्मियों की मिलीभगत से चैन की नींद एसी में सोते हैं और ईमानदार उपभोक्ता जुर्माना, मुकदमा, अपमान भोगता है। कई बार तो इन सदमों से अस्पताल से श्मशान तक पहुंच जाता है। गलत बिलिंग से परेशान लाखों उपभोक्ता विद्युत उपकेन्द्रों के चक्कर काटने में एक माह के बिजली के बिल से अधिक की रकम खर्च करके भी राहत नहीं पा रहे हैं। मरम्मत (मेन्टीनेन्स) के कामों में लगे विद्युतकर्मी बगैर ‘खर्ची-पानी’ उपकेन्द्रों से हिलते भी नहीं। उदाहरण के लिए देखें, यदि किसी उपभोक्ता की बिजली हाईटेंशन लाइन पोल से अवरूद्ध हो जाती है, तार टूट जाता है, कनेक्शन केबल में कोई दिक्कत आती है या मीटर में कोई परेशानी है तो उपभोक्ता उपकेन्द्रों पर जाकर नियमानुसार अपना बिल दिखाकर शिकायत दर्ज करा आता है। फिर उसे इंतजार में कितने दिन काटने होंगे, यह कहा नहीं जा सकता? उपभोक्ता यदि थोड़ी समझदारी दिखाता हुआ लाइनमैन से ‘खर्चा पानी’ तय कर लेता है, तो उसकी या उसके इलाके की बिजली आनन-फानन में दुरस्त हो जाती है। उपभोक्ता यदि रसूखवाला हुआ तो अद्दिशासी अभियंता तक गुहार लगा लेता है, फिर भी लाइनमैन के दर्शन उसे आसानी से नहीं होंगे। जब तक ‘बडे़ साहब’ गरम न हो जायें तब तक सीढ़ी, लेबर-मिस्त्री मौके पर नहीं जाएंगे। साहब जोर से बोल दें तो काम बंद की धमकी की ब्लैकमेलिंग झेलें या रिश्वत में हिस्सेदारी का ढोल सुने। फिर भी उपभोक्ता की बिजली ठीक करने के बाद ढीठ कर्मचारी बड़ी बेशर्मी से खर्चा-पानी की मांग करते हैं। हकीकत इससे भी अधिक खतरनाक है। रह गया ऐसी बातों को साबित करना तो जांच नहीं स्ंिटग आॅपरेशन कराए जा सकते हैं।
    विद्युतकर्मी अपने घरों में बिजली के उपभोग के लिए महज 168 रूपये से लेकर 1068 रूपये प्रतिमाह देकर अनाप-शनाप बिजली का उपयोग करने के साथ दूसरों को बेच भी रहे हैं। एसी के लिए 450 रूपये प्रतिमाह नियत है, लेकिन अधिकांश ने उसे दर्शाया तक नहीं यानी 168 या 426 रूपये में ही एसी भी चल रहे हैं। यदि विद्युतकर्मियों के यहां सघन जांच कराई जाए तो चतुर्थश्रेणी कर्मचारियों, बाबुओं और पेंशनधारकों तक के घरों में तीन-चार एसी चलते हुए मिल जाएंगे। क्या ये चोरी नहीं है? विद्युतकर्मियों के घरों पर बिजली के मीटर लगाने के आदेश विद्युत नियामक आयोग ने काफी पहले दिए थे। पाॅवर कारपोरेशन के अधिकारी, इस आदेश को न मानने के लिए लाचार हैं। इस लाचारी पीछे विद्युतकर्मियों के संगठनों की दादागीरी के अलावा विभाग में ऊपर से नीचे तक व्याप्त भ्रष्टाचार है। पिछले साल आगरा में दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम लि0 के प्रबन्ध निदेशक ने प्राइवेट कंपनी टोरंटो पाॅवर के जरिए विद्युतकर्मियों के घरों पर बिजली के मीटर लगवाने चाहे तो बिजलीकर्मियों की दहाड़.... ‘तो अब टोटंटो की इतनी हिम्मत’ की गूंज के कारण प्रबंध निदेशक को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। वहीं टोरंटो को दसियों आरोपों का सामना करना पड़ा। उनमें प्रमुख आरोप लगाया गया कि टोरंटों उप्र इलेक्ट्रिसिटी रिफार्मस् एक्ट 1999 और इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 2003 के टैरिफ का उल्लंघन करते हुए कर्मचारियों का उत्पीड़न कर रही है। यहां उल्लेखनीय है कि नियामक आयोग ने वर्ष 2013-14 का टैरिफ 31 मई को जारी करते हुए विद्युत कर्मियों के घरों पर मीटर लगाने के निर्देश दिए हैं। एक अनुमान के मुताबिक उपभोक्ताओं से वसूल होने वाले राजस्व का 25 फीसदी लगभग बिजलीकर्मी मुफ्त की बिजली जलाने के शौकीन हैं। इन लोगों पर भी करोड़ों रूपया बकाया है।
    बिजली सुधारों के प्रति लापरवाह नौकरशाहों की मनमानी सलाह मानकर सरकार ने बिजली दरों में 40-45 फीसदी की बढोत्तरी कर दी है। इसके विरोध में जहां धरना-प्रदर्शन हो रहे हैं, वहीं उपभोक्ता परिषद के नेता राज्यपाल से लेकर विधायक तक अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। राजधानी के तमाम उपभोक्ता एक साथ सारे शहर में एक साथ दो घंटे के लिए बिजली बंद करके गांधीवादी तरीके से विरोध दर्ज कराने की पहल करने की सोंच रहे हैं। इस विरोध में अपने घरों से ही हाय... हाय... बिजली या बढ़ी दरें वापस लो जैसे नारे लगाएंगे। कई समाजसेवी संगठन इस ओर सक्रिय हैं।

संघर्ष को विराम कहां...

संघर्ष की परिभाषा में विराम के लिए कोई जगह नहीं होती। उसका व्याकरण त्याग और तप की मुस्कान से भरा पुरा होता है। शायद इसी वजह से सच का दर्द सहनेवाले स्वाभिमान का हाथ थामे अपमानों से तपती पगडंडियों को बेखौफ पार कर जाते हैं। मगर ऐसे लोग भावुक अधिक होते हैं और भावुकता अनुशासन कहां मानती है। बस यहीं वे अपने लिए दुश्वारियां पैदा कर लेते हैं। फिर भी जलते हुए रौशनी बिखेरते हैं। उसी रौशनी की ऊर्जा से स्वार्थियों का जमघट भरपूर मस्ती करता है। इस हकीकत से वे वाकिफ भी होते हैं। ऐसी ही शख्सियत पं0 हरिशंकर तिवारी का बखान उनके 74वें जन्मदिवस पर करना लोगों को भले ही बेमौसम लगे, लेकिन चंद लाइनों में उनकी जिंदगी के सावन-भादों का गीलापन, रीतापन तमाम सपनों के लिए प्रेरक होगा।
    ऊँची दुनिया से लड़ने के कारण पंडित जी के आस-पास बहुत सारे लोगों का जमघट लगा रहा। वे अपने जीवन का पहला चुनाव विधान परिषद का लड़े तब कांग्रेस के महारथी हेमवती नंदन बहुगुणा के साथ गोरखपुर के स्थानीय मठाधीशों की साजिश का शिकार होकर महज एक वोट से हार गये। पिछला चुनाव अपनों की साजिश से हारे। इस बीच उनके जीवन में बहुत कुछ घटा। वे उप्र मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य भी रहे। स्वार्थियों ने ‘हाते’ से लेकर ए-4 पार्क रोड तक फूल ही फूल बिखरा दिये। हरिशंकर तिवारी जिन्दाबाद की गूंज से आसमान को झुकाने का परिहास भी कर दिया। ईमान को अहंकार की खाई में पटकने के ऐसे ही सैकड़ों जतन कर डाले।
    लाभ की चैखट पर खड़े लोगों ने शुभत्व के स्वास्तिक के भीतर धकेलकर पंडित जी को सम्पन्न मुग्ध करने का षड़यंत्र कर डाला। उनसे कई गलत फैसले करा दिये, नतीजा वही हुआ जो होना था। आज कहीं कोई नारा नहीं है, कोई स्वागत द्वार नहीं है, कोई महाभारत नहीं है, सारे शकुनी विदा हो गये। न कृष्ण हैं, न अर्जुन अगर कोई है तो ‘सुदामा’ सरीखे मित्र जो उन्हें कर्ण के रूप में भी स्वीकारते हैं। यह कोरी बकवास नहीं बल्कि फुंफकारता हुआ सच है। हजारों-हजार लोग आज सोने की थाली में चांदी की रोटी उनके नाम के पाटे पर रखकर आराम से खा रहे हैं। उनका जिक्र आने पर उन्हें महज परिचित बताकर छुट्टी पा लेते हैं। इसके सैकड़ों उदाहरण हैं। एक छोटा सा वाकया उनकी कानपुर यात्रा का याद आ रहा है। मैं इस यात्रा में उनके साथ था। पूरा दिन कई कार्यक्रमों में बीता गया, साथ चलनेवालों को भोजन का अवसर कहीं न मिल पाया। पंडित जी की इच्छा थी कि वापसी में किसी ढाबे पर रूका जाएगा। इसी दौरान अन्तिम कार्यक्रम में एक कर्मचारी नेता ने अपने यहां भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया।
    पंडित जी ने मेरी ओर देखते हुए.... चुप्पी साध ली। चुप्पी को उसने ‘हां’ समझा और साधिकार अपने निवास की ओर गाडि़यां मुड़वा दीं। मैंने कुछ दूर चलने के बाद पंडित जी से उस नेता के कई कारनामें बताते हुए उसके यहां न चलने को कहा तो बोले, उसका भाग्य है, हम बदल नहीं देंगे। उसका वो जाने हम तो अपना कर्म कर रहे हैं। सब भूखे भी हैं उनकी भूख मिटेंगी।’ वहां गये भोजन किया। उसके बाद वो नेता सच में भाग्यशाली हुआ और करोड़पति भी लेकिन पंडित जी की याद उसे फिर नहीं ही आई।
    चिल्लूपार से लेकर तमाम शहरों तक ऐसे हजारों उदाहरण हैं और सैकड़ों रिश्तेदार। चिल्लूपार ही नहीं पूर्वीं उप्र का तमाम हिस्सा मामूली वर्षा और नेपाल से नदियों में पानी छोड़े जाने से हर साल बाढ़ से पीडि़त रहता है। चिल्लूपार का काफी कुछ हिस्सा (नदियों के किनारे का क्षेत्र) ‘कछार’ कहलाता है। पंडित जी का गांव भी कछार में पड़ता है। वहां कभी जाना बेहद मुश्किल था, आज पक्की सड़क है। मजबूत बांध है। आषाढ़-सावन की एक बाढ़ में पंडित जी बाढ़ पीडि़तों के बीच मौजूद थे, उन्हंे बचाते हुए वे खुद नाव से हरहराती नदी में गिर पड़े थे। ऐसी ही सेवाओं के साथ संघर्ष आज भी जारी है। यह लाइने संताप से ग्रसित नहीं बल्कि जन्मदिन के बहाने याद आ जाती हैं और शायद किसी की प्रेरणां बन सके। इसलिए लिख जाती हैं। और अन्त में, उन्हें मेरा सलाम कह देना/गरीबी मुफलिसी में कौन सा तोहफा उन्हें दंू/ताकि उनमें हैसियत मेरी ढंकी हो क्या उन्हें दूं भेंट जिसमें/ कैफियत सारी टंकी हो इसलिए कुछ शब्द ले जाओ/इन्हें लिख लो इन्हीं अल्फाज को मेरा कलाम कह देना।

एक सुबह पं0 हरिशंकर तिवारी

सूर्याेदय से पहले ही नींद के आलिंगन से मुक्त हो माता पृथ्वी को प्रणाम कर उनके दुलार का आशीष लेते हुए थोड़ा व्यायाम करना ही प्रातः का प्रथम शगल है। नित्यकर्म के बाद एक प्याला चाय का और अखबार पढ़ना। इतने में ही भोर का उजाला और गाय-भैंसों का रंभाना शुरू हो जाता है। यही पंडित जी के पशुप्रेम और दिन की शुरूआत का दूसरा चरण होता है। अपनी गौशाला की ओर बढ़ते हुए अपने कुत्तों को दुलराते हैं। अच्छी नस्ल की गाय और उम्दा वंश के कुत्ते उनकी कमजोरी हैं। गौशाला उनके हाते (निवास) में ही आखिरी छोर पर है। अपने सामने वहां की साफ-सफाई से लेकर दूध दुहने व चारे आदि के काम कराते हैं।
    यदि कोई गाय या भैंस गर्भवती है तो उसकी देखभाल पर पूरा ध्यान रखते हैं। उनकी देख-रेख में ही उसका बच्चा पशुचिकित्सकों की निगरानी में जन्म लेता है। इस बीच उन्हें फोन पर बात करना भी पसन्द नहीं।
    गौशाला से बाहर आकर स्नान-
ध्यान और पूजन होता है। पूजन में कोई पाखण्ड नहीं, बस अगरबत्ती जलाकर ईश्वर का स्मरण भर। नाश्ते में कोई विशेष नियम नहीं कभी रोटी-सब्जी तो कभी टोस्ट-मक्खन, दूध या फिर दलिया, दही-चूरा। ऐसा ही सादा सा पहनावा सफेद धोती-कुर्ता। कांधे पर अंगौछा तब अवश्य होता है जब कहीं बाहर निकल रहे हों। अब तक सुबह के दस बज जाते हैं। बाहर हाते के मैदान में बनी झोपड़ी में तरह-तरह के फरियादियों और मिलनेवालों की भीड़ जमा हो जाती है। वे बाहर आते ही इस भीड़ के हो जाते हैं। उनके चेहरे की रौबदार मूंछें तक इस वक्त मुस्कराती रहती हैं।
    हर किसी से आत्मीयता, हर कोई अपना, हर एक की समस्या का निदान उनकी दिनचर्या के मजबूत उपकरण हैं। कोई आपाधापी नहीं, कोई तनाव नहीं। उनके अन्तस की ऊर्जा करूणावतार लिए समान रूप से पीडि़तों को चैतन्य करती है।
    राजनीति की चैसर के दसियों, प्यादे, हाथी-घोड़े, वजीर तक इस भीड़ में उनका आशीर्वाद लेकर अपने दिन की शुरूआत करने को आतुर आते हैं। वे इनसे भी निश्छल यथार्थपरक बातें करते हैं। एक बार ऐसी ही एक प्रातः उनके चुनाव क्षेत्र चिल्लूपार से उनके ही मुखालिफ चुनाव लड़ने का आशीर्वाद लेने एक शख्स आया, उन्होंने उसे ‘भोलेबाबा’ की तरह विजयी होने का आशीष दिया। आशीर्वाद का प्रभाव देखिए आज वही शख्स चिल्लूपार से विधायक है। पौराणिक कथाओं में है कि महादेव को कैलाश से लंका ले जाने के लिए रावण ने तमाम जतन किये, उनका आशीष भी पाया, पर वह सफल नहीं हुआ। अन्त-पन्त इतना ही कि महादेव के लिए कैलाश और कैलाश के लिए महादेव ही सत्य है।

खाओ बांस का अचार तो आओ...!

लखनऊ। भारतीय रसोई में मसालांे का खासा महत्व है, भले ही डाॅक्टर इसके सेवन से परहेज बताते हों। देश का हर वर्ग मसालों के स्वाद से अपने को बचा नही पाता। यही वजह है कि आज बाजार में सैकड़ों ब्रान्डों का कब्जा है। बावजूद इसके लखनऊ के मुगलिया दस्तरख्वान पर आज भी खुले मसालों की महक बदस्तूर जारी है। इन खास मसालों को तैयार करने में महिलाओं का बड़ा योगदान है। इनके द्वारा घरों में आज भी पुराने तौर-तरीके अपनाकर खड़े मसालों को कूट-पीस कर बनाया जाता है। वहीं लखनऊ की पहचान और शान को बरकरार रखे बाजार चैक व नक्खास मंे खास मसालों को बेचनेवाली दसियों दुकाने हैं। जो सब्जी सालन, मुर्ग मुसल्लम से लेकर बिरयानी पकाने के उम्दा मसाले बेचते हैं।
    लखनऊ की ही तरह आगरा के रावत पाड़ा बाजार में भी मसालों, मेवों और अचार की मण्डी है। यहां मसाले थोक में मंगाकर कोल्ड स्टोरेज में रखने वाले व्यापारी भी हैं। बड़े व्यापारी हल्दी, मिर्च, आमचूर, मध्य प्रदेश से, धनिया राजस्थान से, जीरा गुजरात से और काली-मिर्च, लौंग दक्षिण से मंगाते हैं। इनमें जीरा, कालीमिर्च, लौंग छोड़कर सभी मसाले जल्दी खराब होते हैं इसलिए इन्हें कोल्ड स्टोरेज में रखा जाता है।
    हींग का आयात कच्चे माल के रूम में कजाकिस्तान से किया जाता है। हाथरस में इसे तैयार करने के कारखाने हैं। वहीं से उत्तर भारत के बाजारों में तैयार हींग भेजी जाती है। हींग के एक नामचीन व्यापारी बताते हैं कि कजाकिस्तान में पेड़ों पर हींग गोंद की तरह पैदा होती हैं। इसे इक्ट्ठाकर हींग का रूप दिया जाता है। सस्ती हींग मैदे से तैयार होती है, इस पर केवल महंगी हींग का लेप चढ़ा होता है। हींग 200 रू0 से लेकर 8 हजार रूपए किलो तक रावत पाड़ा बाजार में उपलब्ध है।
    रावतपाड़ा में अचार भी खूब बिकता है। यहां आचार की सालों पुरानी दुकान आपको ऐसा स्वादष्टि अचार खिलाएंगी कि आप सब्जी खाना भूलकर अचार की मांग करने लगें। अचार विक्रेता संजीव मित्तल बताते हैं कि उनके बाबा कन्हैयालाल अग्रवाल ने यहां अचार की दुकान 1910 में खोली थी। तब से उनका अचार शहर के अलावा ग्वालियर, झांसी, टूंडला, मिढ़ाकुर आदि जगह के लोगों को अंगुलियां चाटने पर मजबूर कर रहा है। वे बांस का अचार खास तौर पर तैयार कराते हैं। इसके लिए बांस हरिद्वार से मंगाया जाता है। यहां करौंदे का मुरब्बा, सेंजना का अचार भी अपने आप में अनूठे हैं।
    रावतपाड़ा बाजार के बारे में कहा जाता है यहां गदरकाल 1857 के बाद सबसे पहले लाला कोकामल ने मसालों का कारोबार शुरू किया था। आज भी उनके परिवार के लोग इसी व्यवसाय से जुड़े हैं। अब तो यहां मेवा, अचार, फूल, पेठे के अलावा दवाओं की भी दुकाने खुल गई है। इस बाजार का फैलाव सात-आठ सड़कों-गलियों तक है। ठीक लखनऊ के चैक-नक्खास बाजार की गलियों से मिलता जुलता।

दो घंटे में एक आत्महत्या

लखनऊ। खुदकुशी करनेवालों की संख्या में भले ही हेर-फेर हो लेकिन देश में हर दो घंटे में एक आदमी अपनी जान दे रहा है। खुशी की बात है कि उप्र इस मामले में सबसे पीछे है। अपनी जान देने वालों में अधिकतर प्यार में असफल प्रेमी जोड़े होते हैं। आर्थिक मोर्चे पर नाकाम, महत्वाकांक्षाओं का पूरा न होना, दहेज विवाद, नशेे की आदत, तंगहाली से परेशान, आपसी कलह, घरेलू हिंसा, परीक्षा में विफलता, संपत्ति विवाद, लांक्षन आदि आत्महत्या के बड़े कारण बन रहे हैं। हाल ही में नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरों (एन.सी.आर.बी.) द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2012 में 1,35,445 लोग देश में आत्महत्या के शिकार हुए जबकि 2010 में 1,35,585 लोगों ने असमय मौत को गले लगाया यानी 0.1 फीसदी की कमी हुई है।
    आंकड़ों के मुताबिक तमिलनाडु में आत्महत्या की दर सर्वाधिक है। इसके बाद क्रमशः महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश व कर्नाटक का स्थान है। देश में होने वाली आत्महत्याओं का कुल 55.3 फीसदी इन्हीं पांच राज्यों में होता है। केंद्र शासित प्रदेशांें मंे आत्महत्यााअें के मामले में देश की राजधानी दिल्ली अव्वल है और पांडिचेरी दूसरे नंबर पर है। वर्ष 2012 में जिन राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में आत्महत्या की दर में पिछले साल के मुकाबले सर्वाधिक वृद्धि हुई है, उनमें मिजोरम अव्वल है। यहां आत्महत्या की दर 92.2 फीसदी बढ़ी है। इसके बाद जम्मू व कश्मीर (44.3 फीसदी), उत्तराखंड (33.4 फीसदी), मणिपुर (24.2 फीसदी), त्रिपुरा (20.1 फीसदी) और असम (19.7 फीसदी) का स्थान है। आत्महत्या में संख्यावार सर्वाधिक गिरावट छत्तीसगढ़ में आई हैं। सर्वाधिक आबादी वाला उत्तर प्रदेश एकमात्र राज्य है जहां आत्महत्या से हुई मौतों की दर काफी कम यानि 16.9 फीसदी है जो देश में कुल आत्महत्याओं का महज 3.3 फीसदी हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक घरेलू व स्वास्थ्य समस्याओं के चलते सर्वाधिक आत्महत्याएं होती हैं। आंकड़ों के मुताबिक घरेलू समस्या के चलते 25.6 फीसदी और स्वास्थ्य संबंधी समस्या के चलते 20.8 फीसदी आत्महत्याएं हुईं।

पेट्रोल-डीजल का काला धंधा

आगरा। आगरा-मथुरा हाईवे पर कोठरियों में अवैध पेट्रोल पम्प चल रहे हैं। रिफायनरी से निकलने के बाद टैंकर सड़क किनारे जगह-जगह पेट्रोल-डीजल बेचते हैं। चार और दोपहिया वाहनों को देने के साथ पेट्रोल-डीजल से भरे ड्रम बाहर भी सप्लाई किये जाते हैं। खतरे का यह खेल कभी भी हादसे की वजह से मुसीबत बन सकता है। सुबह से रात तक तेल लेने वालों की लाइन लगी रहती है। इसकी भनक रिफाइनरी में भी कइयों को हैं। पुलिस के आला अधिकारियों द्वारा की गई छापा कार्रवाई के बाद कुछ समय के लिए यह कारोबार बंद हो जाता है, लेकिन फिर धड़ल्ले से चलने लगता है।
    रिफाइनरी से हर रोज दर्जनों टैंकर तेल लेकर निकलते हैं। मापतौल कर भरा जाने वाला पेट्रोल-डीजल पम्पों तक पहुंचते-पहुंचते सैकड़ों लीटर कम हो जाता है। यह तेल आगरा-मथुरा हाइवे के किनारे बने मिनी पेट्रोल पम्पों पर बेच दिया जाता है। सड़क किनारे झाडि़यों के पीछे बनी कोठरियों के पास टैंकर रूकता है। इससे पहले गुर्गे ड्रम लेकर तैयार हो जाते हैं।
    चालक-क्लीनर आनन-फानन में पाइप खोलते हैं और तेल निकालना शुरू कर देते हैं। पन्द्रह मिनट के अंदर तेल निकालने के बाद टैंकर गंतव्य को रवाना हो जाते हैं। इस तरह तेल का काला द्दंद्दा हाइवे पर एक जगह नहीं, कई जगह चल रहा है। काले धंधे की पहचान के लिए अड्डे के बाहर खाली ड्रम रख दिए जाते हैं। यह संकेतक का काम करते हैं कि यहां चोरी का ईंधन बिकता है। यह सारा खेल पुलिस के संरक्षण में ही चल रहा है। पुलिस को हर महीने मोटी रकम पहुंचती है, इस वजह से खाकी सब कुछ जानते हुए भी आंखों पर पट्टी बांधे रहती है। इन मिनी पम्पों पर दस से पन्द्रह गुगें हर समय मौजूद रहते हैं। वह लाठी-डंडोे के साथ हथियारों से लैस रहते हैं। कोठरियांें मे चल रहे पम्पों पर सुबह से रात तक पेट्रोल-डीजल लेने वाले दोपहिया और चार पहिया वाहनों की लाइन लगी रहती है। यही नहीं टैªक्टर भी डीजल लेने के लिए आते रहते हैं। वह टंकी फुल कराने के साथ कैन भी भरवाकर ले जाते हैं। कोठरी में पेट्रोल-डीजल के दस से पन्दह ड्रम हर समय भरे हुए रहते है। इसके साथ ही जमीन में पक्के टैंक भी बनवा रखे हैं। पम्पों पर मिलने वाले रेट से पांच-छह रूपये कम में तेल यहां बेचा जा रहा है। फरहा-सिकंदरा क्षेत्र में रहने वाले लोग पेट्रोल पम्पों पर तेल लेने के लिए नहीं दौड़ते। सस्ता मिलने के साथ नजदीक होने के कारण वह इन ठिकानों से ईंधन लेना ही उचित समझते हैं। रोजाना आते-जाते उनकी पहचान भी बढ़ गई होती है।
    लोगों का कहना है कि हाइवे पर अद्दिकांश पम्प रात को बंद हो जाते हैं लेकिन यहां कभी भी जाओ तो तेल मिल जाता है। आसपास के लोगों को इस गोरखधंधे के बारे में सब कुछ जानकारी है पर कोई मुंह खोलने को तैयार नहीं होता।

मंझली बहू

रेशमी कपड़ों में लिपटी एक गठरी जब घर के दरवाजे पर आकर रूकी तो मां ने बड़े ही उत्साह से स्वागत किया। मंगलगीत गाते हुए अपनी बाहों में लिपटाकर पलकों की छांव तले देशी घी के चिराग जलाकर घर में प्रवेश दिलाया। वो रेशमी कपड़ों की गठरी परिवारजनों, संबंधियों और पड़ोसियों के बीच सिमटी-सिकुड़ी सी एक कोने में रखी थी। कभी-कभी जब वह हिलती तो चूडि़यों की खनक से वातावरण संगीतमय हो उठता। लेकिन उस गठरी के खुलने के आसार नजर नहीं आ रहे थे। तभी मां की नजर अचानक मुझ पर पड़ी और वे एकदम बोल पड़ीं, ‘‘बड़े तुम आराम कर लो, अब औरतों का काम तो रात भर चलता रहेगा।’’ मैं इंतजार में था, तुरन्त तीसरी मंजिल की ओर बढ़ गया।    ?
    ऊपर आकर भी भाभियों, बहनों और अनेक रिश्ते की औरतों की खिल-खिलाहट के खनकते स्वरों से पीछा न छुड़ा सका। थका हुआ शरीर आराम चाहता था लेकिन आराम शायद नसीब में नहीं था। बार-बार मुझे अपने मंझले भाई का चेहरा याद आ जाता, जो आज्ञाकारी और सहृदय था। तभी तो बारात जब लड़की वालों के दरवाजे पहुंची तो मात्र औपचारिकताओं को लेकर विवाद हो गया, जिसने तूल भी पकड़ा और मैंने गरजदार आवाज में बारात वापसी की घोषणा कर दी। मंझला चुपचाप अपनी उमंगों की हत्या करके सर झुकाकर मेरे पीछे हो लिया। इस विवाद से पहले जयमाल पड़ चुका था, मंझले ने लजाई-शर्माई जेवरों से लदी-फंदी, औरतों और नाजुक बदनवाली गोरियों के बीच घिरी बनारसी साड़ी में लिपटी झुकी-दबी गठरी को एक नजर देख लिया था। फिर भी उसके चेहरे पर कोई हलचल नहीं थी, न कोई निराशा या कुण्ठा का ही भाव उजागर हो रहा था। मुझे उस पर गर्व हो आया था। मैं भूखा भी था और गुस्से ने कुछ ज्यादा ही भूख बढ़ा दी थी, परन्तु मंझले के धर्य ने मुझे बड़ी शक्ति दी। विवाद के निपटते ही मंझला चहकने लगा था। हंसी-ठिठोली के बीच मंझले को घर के अन्दर विवाह वेदी पर जाना पड़ा। मैं अपने संबंधियों व छोटे भाई के साथ बाहर गपशप करने में व्यस्त हो गया।
    मुझे कई रस्मों को अदा करने के लिए अन्दर बुलाया गया, तब मैंने देखा मंझला, एक रेशम की गठरी के करीब बैठा है। पंडित मंत्रोचार के साथ फेरे की तैयारी करा रहा था। फेरे पूरे हुए फिर शर्ताें और नियमांे का सिलसिला शुरू हुआ। पहले की छः शर्ताें को मंझले ने दोहराया और पाबंदी से पालन करने का वचन दिया। सातर्वी शर्त वधू के लिए थी कि मैं जीवन भर किसी दूसरे पुरूष को नहीं देखूंगी। हालाकि इस ‘‘न देखने’’ की शर्त की व्याख्या पंडित जी ने नहीं की थी, फिर भी मंझला बहुत खुश था।
    ‘‘अरे तुम अभी जाग रहे हो।’’ अचानक मेरी पत्नी के शब्दवाण ने विचारों का घेरा तोड़ा।
    ‘‘हां आवो। मंझली बहू कैसी लगी।’’
    ‘‘ठीक है, सुन्दर तो है ही, इतनी ही सुशील भी हो तो ठीक ही ठीक है।’’
    ‘‘क्यों क्या तुम्हें कुछ शक है?’’
    नहीं। नहीं! मैंने तो साधारण सी बात कही है। फिर वही मौन छा गया। अंधेरे ने नींद की चादर ओड़ने को मजबूर कर दिया।
    प्रातः की जाग में शोर के साथ कहकहे और ढोलक की थाप पर सुरीले गीत के बोल हवा में तैर रहे थे। आज मेहमानों की गहमागहमी कुछ अधिक हो गई थी। पूरा दिन दौड़ धूप में यूं बीत गया, जैसे हवाई सफर बीत जाता है। शाम की आमद मंे रंगीन बल्बों और टयूब की रोशनी में पंडाल नहाया हुआ था। पंडाल के एक कोने में मंझला उसी रेशमी गठरी के साथ ऊंची कुर्सी पर बैठा था। आज गठरी कुछ खुली सी लग रही थी। प्रीतिभोज कैसे और कब निपट गया, पता नहीं लग सका। दूसरे दिन मैं ऊपर की मंजिल पर खाना खा रहा था कि अचानक छत की ओर नजर उठ गई, एक सिल्क का आंचल हवा में लहरा रहा था, मैं एक दम चीख उठा, ‘‘ऊपर कौन है।’’
    ‘‘मंझली बहू।’’
    ‘‘क्यों अभी चैबीस घंटे भी नहीं बीते और शर्म की चादर में आग लग गई।’’ और न जाने क्या-क्या कह गया। मंझली बहू रोने लगी। लोगों ने ढांढस बंधाया, इस बीच मंझला खामोश व निर्विकार रहा।
    मगर मुझे लगा कि रेशमी गठरी खुल गई है। मुझे हैरत भी हो रही थी और डर भी लग रहा था कि गठरी की गांठें शीघ्र ही खुल जाएंगी और रेशमी गठरी बिखर जाएगी, पसर जाएगी तब... तब क्या होगा? दूसरे दिन मेहमानों से भरा घर खाली हो गया था और मंझली बहू मेरी आवाज सुनकर किसी पत्थर के बुत की तरह स्थिर हो जाती तब मां या भाभियां उसका मजाक उड़ाती और वह बुत भयभीत हो उठता, मानो उसे शंका हो कि कहीं महमूद गजनवी की तरह मैं भी पत्थर के बुत को तोड़ने वाला न बन जाऊ।
    इसी तरह आठ दिन बीत गए मंझले ने दुकान से नजरें फरे ली। मुझे लगा कि रेशमी गठरी खुलकर मंझले की बिछावन बन गई है। परन्तु शायद मैं गलत था। दूसरे दिन ही मंझला दुकान पर आया, लेकिन उसने मात्र ‘‘कैशबाक्स’’ को ही खाली किया और बगल में एक छोटा-सा पैकेट दबाए घर की ओर वापस हो लिया।
    समय कितनी तेजी से गतिमान है, अन्दाज लगा पाना बड़ा ही कठिन है। इन्हीं बदली हुई परिस्थितियों में मंझला भूखे मांसाहारी कुत्ते की तरह जिन्दा गोश्त के आसपास मंडराया करता। अगर किसी ने जरा भी छेड़छाड़ की तो फौरन गुर्रा उठता या एकदम काटने की मुद्रा में हमला कर बैठता। हालात यहां तक बदल गए थे कि मंझली बहू की कीर्ति पताका के नीचे खानदान की इज्जत दब गई।
    अब मंछली बहू के पांवों के नीचे सास की छाती थी और शरीर के नीचे मंझला। उसके पास मात्र मेकअप, जेवर और साडि़यों को अपने बदन पर सजाकर, किसी शो रूम की गुडि़या या बाजार की जीनत... बनने का काम रह गया था।
    मेरी निगाहों के सामने का वो खामोश बुत और दुनिया जहान की नजरों में मेरे परिवार की मंझली बहू मंझले के लिए खुदा का स्वरूप हो गई थी। खुदा की इबादत में भी आदमी स्वार्थी हो जाता हैं, लेकिन मंझला उस बुत की इबादत में कहीं से भी स्वार्थी नहीं दिखता था। उसने बुत के शरीर से रेशमी लिबास उतार कर खानदान की इज्जत पर कफन की तरह लपेट दिया।
    कफन में लिपटी खानदानी आबरू की अर्थी पर मंझला उस बुत की लेनाई और चिकनाई की बूंद-बूंद वात्सायन के ‘कामसूत्र’ की अग्नि में डालने में मशगूल था और परिवार एक भयानक तूफान के दहाने पर खड़ा था। जिसका मुझे डर था आखिर वही हुआ। छोटे ने बगावत का झंडा गाड़ दिया, बागी छोटे ने घर की चहार-दिवारी को त्याग दिया और सड़कों पर निकाल गया।
    छोटे के पांव इधर घर से बाहर हुए उधर मंझली बहू के ‘पावं भारी’ हो गए। उसने सास को जिन्दा ही तस्वीर के फ्रेम में जड़ दिया और जेठ को अपनी थाली की जूठन समझकर परे खिसका दिया। अब परिवार फूट का शिकार हो गया जिसका भरपूर फायदा मंझले ने उठाया और अकेला ही पारिवारिक संपत्ति का मालिक बन बैठा। मालिकाना हालात और मंझली बहू के दीवानेपन ने मंझले को कर्ज की कब्र में उतार दिया मगर मंझला सच्चाई को अपने सीने से न लगा सका।
    बाजार में मंझले की इज्जत, दो पैसों की नहीं रह गई, कर्जदारों ने जिन्दगी हराम कर दी और मंझला खानदानी निशानियांे को नीलाम करने पर उतर आया। कर्ज निपटाने के लिए सबसे पहले उसने मंझली बहू के गहनों से दूसरे घरानों की बहुओं की शोभा बढ़ा दी और अब दुकान की बोलिया लग रही थीं।
    इतना कुछ हो जाने पर भी मां मंझले
को बुरा न कहती थीं। उसी के गुण गाती। मुझे भरे समाज में अपमानित कर छोटे को कोसकर समाज में अपना और मंझले को गौरव बढ़ाती, इसके साथ ही स्वयं भी अपमानित होतीं। अपमान की पीड़ा घर की नालियों से बहकर सड़कों तक फैल गई थी।
    अपमान की ज्वाला मंे मेरा शरीर झुलस रहा है, मुझे अच्छी तरह याद है कि मंझले की शादी से पहले मां और मंझले ने मेरे चारों तरफ स्नेह तथा वात्सल्यता की चहारदीवारी खड़ी कर दी थी। उसी चहारदीवारी के अन्दर मैंने जी खोलकर खर्च किया था। बारात जाने के समय बहू के शरीर पर जो जेवर पहनाए जाते थे, उनका भी इंतजाम घर में नहीं था। यहां तक कि बारात घर के दरवाजे से चल पड़ी और जेवरों का कहीं दूर-दूर तक पता नहीं था, तब मामाजी, एक अदना कुंजडि़न और मैं मां की चूडि़यां और गले की जंजीर लेकर सर्राफा बाजार गए उसकी एवज मंे चढ़ावे के जेवर अपनी जमानत पर उधार लाकर बारात जाने के बाद बारात स्थल पर पहुंचा। वहां भी मेरे लिए अपमान और तिरस्कार का द्वार पहले से ही खुला हुआ था।
    बारात जब लड़की वालों के द्वार पर पहुंची थी और तमाम रस्मों की समाप्ति के बाद जिस भोज का आयोजन था, वह भी मेरी पसन्द का न था जिसको लेकर विवाद बढ़ गया था और मैं अपमान के कड़वे घूंट पीकर रह गया था। यहां तक कि पूरी बारात में अपमान और अपमान के सिवा कुछ भी न हासिल हुआ था।
    प्यार और वात्साल्य का झूठा आवरण एक मां भी ओढ़ सकती है क्या? मुझे तो यकीन ही नहीं आता, लेकिन जो इन आंखों ने देखा है और हृदय ने भोगा है, उसे झूठलाया नहीं जा सकता। यह सच है कि नारी हत्यारिणी, व्यभिचारिणी, और आंसू बहाने वाली प्रतिमा हो सकती है, लेकिन अपने दूध की एक बूंद में जहर नहीं मिला सकती। ममता का गला नहीं घोंट सकती और न ही ममतत्व की झूंठी झीनी चादर ओढ़ सकती है। मैं तो मां के प्यार और वात्सल्य की परिभाषा से पूर्णतया अनभिज्ञ रहा हूं। इस गहरे और पीड़ादायक जख्म पर नकली ममता के मरहम के अहसास ने मुझे सीमा से ज्यादा ऊंची छलांग लगाने को मजबूर कर दिया। जब गिरा तो एहसासा हुआ कि जो मेरे दूध की हत्यारिनी हो सकती है, उसे मां कहना कितना गलत है।
    औरत शरीर का व्यापार करती है, छल करती है, लेकिन ममता के साथ कोई सौदा नहीं करती। परन्तु आज मुझे एहसास होता है कि हम सब कहीं गलत अवश्य है। देखा जाए तो हम वैधानिक रूप से औरत के सामाजिक दलाल हैं। क्या फर्क है, वेश्याओं के दलालों में और सामाजिक रीति से वैवाहिक बंधनों में बांधने की अगुवई करने वालों में। मात्र इतना कि एक को समाज नैतिकता का लिबास पहनाकर मान्यता देता है और दूसरे को इन्द्रियों की प्यास बुझाने का अनैतिक साधन मानकर अवहेलना करता है।
    वैश्याओं के दलाल अपने ग्राहकों से कमीशन लेकर सुन्दर शरीर का सामना करा देते हैं, और ग्राहक उसके शरीर के एक-एक हिस्से से अपनी रकम वसूल करता है। यहां तक की स्वयं भी कभी-कभी बिक जाता है। ठीक उसी तरह सामाजिक दलाल वर को वधू तक पहुंचा देते हैं और वर, वधू के शरीर से गिन-गिन कर पूरे ब्याज सहित अपनी शान-ओ-शौकत से बढ़-चढ़कर कीमत वसूल करता है और उसके शरीर पर बिछ जाता है हालात यहां तक पहुंच जाते हैं जैसे वैश्या कंगले को अपने कोठे के जीने से नीचे ढकेल देती है, ठीक उसी तरह सामाजिक बन्धनों में बंधी औरत अपने शरीर की गर्मी में अपने पति को पिघलाकर खुली सड़कों पर संघर्ष के लिए छोड़ देती और खुद ऐश करती है। ठाठ से बनारसी, कांजीवरम साडि़यों से, मेकअप के महंगे सामानों से, कीमती हीरे-जवाहरातों और जेवरों से अपने को सजाती-संवारती है और पति को दुनियां के नर्क में झोंक देती है, और मूर्ख पति नर्क की आग में झुलसता हुआ उसके शरीर से जोंक की तरह चिपटा रहता है। औरत उसकी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर उसके जमीर की हत्या तक कर बैठती है।
    मंझले की भी यही मनोदशा थी। मंझले के जमीर को मंझली बहू ने अपनी जुल्फों की छांव में ढककर समाप्तप्राय कर दिया था। अब वह मंझले पर शासन कर रही थी। और ठाठ से ऐश की जिन्दगी जी रही थी। मगर उसे शायद नहीं मालूम कि झूठ और छल की नींव पर बना ताश का महल हल्के से हल्के तूफान का सामना नहीं कर सकता। मंझले की मां और मंझले ने जिस फरेब और दुर्भाग्य के लहू से सने पाए के शाही पलंग पर मंझली बहू को लिटाया था, उसका एहसास भी शायद मंझली बहू को नहीं था।
    उसे नहीं पता था कि उसकी सास ने दुधमुहें बच्चों की मां की हत्या भी की है और बड़ी बहू को आग की लपटों में झुलसाने की साजिश। हालांकि ईश्वर सब पर मेहरबान है। देखने वाला है और न्याय करने वाला है। जवानी के आंगन में वैद्दव्यता का तख्त और उसके बाद आंसूओं के सैलाब में डुबी जिन्दगी। शायद यही ईश्वर का न्याय है। मंझली बहू को तो खानदानी किस्सों की फहेरिस्त का एक सफा भी नहीं मालूम था। वास्तव में उसकी सास ने अपनी सास के कफन को अपनी ओढ़नी और जिठानी की अर्थी की नींव पर अपनी खुशियों का महल खड़ा किया था। आज वह महल कहां?
    हे ईश्वर आज मुझे भी एहसास हो रहा है, तूने शायद मुझे भी दलालों की कतार में खड़ा कर दिया। मैं मंझली बहू और मंझले को आबाद करने के तिलिस्म में इन दुनियाबी और समाजी कारकुनों से कमीशन के रूप में अपमान, तिरस्कार और दुत्कार पा गया था।

बबुआ धीरे-धीरे आई समाजवाद

देखिए एगो बात हमारा भी बूझ लिया जाय, साइकिली में बैटरी फिट कहकै हवा की माफिक ओकर रफ्तार बढ़ाई जा सकै, मगर टिरैफिक-विरैफिक भी कोई चीज है कि नहीं। सड़क का कायदा कानून तो मानना ही पड़ेगा। फिर खुली सड़का पर सरकारी सांड और महादेव के नंदी की बिरादरी वालों की धरपटक से भी सावधानी बरतनी है। सावधानी हटी दुर्घटना घटी। ठीक है समाजवादी एम्बुलेंस सेवा उपलब्ध है, मगर ट्रामा सेन्टर के डागडर साहब तो कैंडिल लाइट रोमांस की कक्षा में यौनवर्द्धक दवा के परीक्षण में व्यस्त हैं। फिर लाल-हरी बत्ती के बाजू में लगे चोर कैमरे से बचकर चैराहा पार करना है कि नहीं। उस पर तुर्रा यह कि सड़कों पर सीवर के बदबूदार पानी की नई बनी झीलों के किनारे-किनारे से ही गुजरना है। कहीं कूड़े का ढेर, कहीं सड़क टूटी, कहीं गढडे में झूलती सड़क। इससे बच भी गए तो जाम की ठसक औ रोना-धोना तम्बू ताने गली-गली में जारी ‘मैं तो छोड़ चली बाबुल की गली...’। भरी-पुरी सड़क पर गाती-बजाती, नाचती, भीड़ में ठाड़े रहियो बांके यार... या सब कुछ छोड़-छाड़ के चली अपने...’’ की द्दुन पर करीना, कैटरीना का मरम पाले मम्मियां अपने घर की रसोई या बाथरूम में की गई मशक्कत से बनाई गई अपनी बेडौल ‘बाॅडी’ के भूकम्प से सड़क का उत्पीड़न और शोहदों का मनोरंजन कर रही हों तो क्या सइकिल फर्राटा भर सकती है? तिस पर समूचा समाजवादी कुनबा भी साइकिल पर सवार हो!
    तो भइया, यूं समझों कि पंडित-मुल्ला ठडि़याए दिए गए सड़कन ते मैदान तलक, दलित-पिछड़े लोकसभा चुनाव ‘हाइवे’ घेरे खड़े हैं और जय श्रीराम.... जय द्वारकाधीश का नारा ‘इम्पोर्टेड नेता’ लगा रहे हैं। ऐसे में आप ही बताइए कि ससुरी साइकिल कितनी तेज चल सकती हैं? वह भी तब जब उस पर ‘लैपटाॅप’ का बोझ लदा हो! फिर लालबत्ती का हाल भी बेहाल, बिजली अलग से गुल। घुप्प अंधेरे में कोठी विक्रमादित्य का रास्ता कैसे तलाशा जाय? वहां भी कौन किसका ‘हौसला’ बढ़ाए पता नहीं। पहले ही हाथी से उतरकर आये ‘कुनबे’ को समाजवादी अक्षरज्ञान कराया जा चुका है। अब परिवार नियोजन के भी कोई मायने हैं या नहीं? आखिर एक साइकिल पर किस -किस को बैठाया जाये? आप ही बताईए ऐसे में साइकिल धीरे-धीरे नहीं चलेगी तो क्या दौड़ेगी?
    हर-हर महादेव...! सावन का महीना है तो भोले बाबा का जयकारा लगेगा ही। गाँव से गंगा तक बम..बम.. बम भोले सो हर की पैड़ी के शिवाले से काशी के बाबा विश्वनाथ वाली गली तक भंग भवानी के नाच का जायज हक है। जहां नाच, वहां हुड़दंग। जहां बूटी की हो महिमा वहां क्या बेनी के बोल... क्या पुलिसवालांे की मारकुटाई... क्या शोहदई और क्या दुराचार? भगत ‘जय-जय शिवशंकर न कांटा लगे न कंकर...’ गाते हुए समाजवादी साइकिल पर सवार होकर विदेश तो जायेगा नहीं जो उसकी बेइज्जती हो, वह तो ‘नेताजी’ के चरणों की धूल लेने पार्टी दफ्तर ही जाएगा। पानी महंगा हो जाय कोई बात नहीं, बिजली के दाम बढ़ गये कोई बात नहीं, बाढ़-पीडि़तों को तो फांकाकशी की आदत हो गई है। समाजवादी गांव-गांव जाकर बताएगा ‘भइयाजी’ साइकिल पर आ रहे हैं। अब उसको तो पता नहीं कि मांसाहारी कुत्ते एथलीट हो गये हैं और शाकाहारी बंदर जिमनास्ट। तभी तो सड़क से लेकर संडास तक जिस-तिस को काट ले रहे हैं। अब उन्हें तो बस अपना समाजवादी धर्म निभाना है। ऐसे में साइकिल की रफ्तार सुस्त तो होगी ही न, बोलो?
    आपको शायद न पता हो, समाजवादी छप्पर तले शौचालय बनाने की योजना अभी केन्द्र की मोहताज है। भले ही एलडीए के शौचालय टच-स्क्रीन मशीनों और सीसी टीवी कैमरों से कीमती हों। उधर बेरोजगारी भत्ता और टेबलेट बांटने का गतिण अफसरान पढ़ रहे हैं। इद्दर राशन, साड़ी वाले सिनेमा की स्क्रिप्ट अभी ‘पार्टी प्रेस’ लिख रहा है। चुनाव-14 के भौगोलिक नक्शे पर सच्चे समाजसेवकों के हाथों में लोहिया के बड़े वाले फोटो देकर तैनात कर दिया गया है। कार्य प्रगति पर है, धैर्य रखिए। राजनीति मनोरंजन के बाथरूम में नहा- धोकर तैयार हो रही है। तो बबुआ कुछ समझे, धीरे-धीरे आई समाजवाद।

Sunday, June 30, 2013

नगर आयुक्त की गाड़ी पर फेंका कूड़ा

कानपुर। कानपुर के नगर निगम परिसर में गोविन्द नगर के पार्षद और उनके समर्थको ने जमकर हंगामा किया। महानगर में जगह-जगह फैली गंदगी, नालों और नालियों के बाहर पड़ा सिल्ट का ढेर, बजबजाते कूड़े के ढेर से गुस्साए कानपुर दक्षिण के पार्षदों ने अपर नगर आयुक्त का घेराव किया। उनकी गाड़ी पर कूड़ा फैला कर विरोध प्रकट किया।
    कानपुर महानगर में कूड़ा उठाने की जिम्मेदारी एटूजेड कंपनी की है। नगर निगम ने महानगर में कूड़ा उठाने का ठेका उसको दे रखा है। एटूजेड कंपनी की हिला हवाली की वजह से इन दिनों शहर में जगह-जगह कूड़े का ढेर लगा हुआ है। नालियां बजबजा रही हैं। कानपुर दक्षिण के पार्षद नवीन पंडित और अन्य पार्षदों ने मिलकर नगर निगम कार्यालय में जमकर हंगामा किया। नगर निगम के अधिकारियों के खिलाफ नारेबाजी भी की।पार्षद नवीन पंडित की अगुवाई में पार्षदों के दल ने अपने साथ लाये कूड़े को नगर निगम कंट्रोल रूम और अपर नगर आयुक्त की गाड़ी पर कूड़ा डालकर अपना विरोद्द प्रकट किया। गुस्साए पार्षदों ने चेतावनी दी कि यदि 24 घन्टे के अन्दर महानगर का कूड़ा साफ नहीं हुआ तो नगर निगम आयुक्त समेत सभी अधिकारियों के आवास पर कूड़ा फेंको प्रदर्शन करेंगे।
    अपर नगर आयुक्त के मुताबिक शहर में कूड़ा बराबर उठ रहा है। केवल कुछ मोहल्ले में कूड़ा उठाने में देरी हो जाती है। शहर की सफाई का पूरा ध्यान रखा जा रहा है। बारिश का मौसम देखते हुए हर जोन के अधिकारियों को भी इस सिलसिले में आदेश दे दिए गए हैं।

एक मच्छर... आदमी को बना देता है हिजड़ा

लखनऊ। मच्छरों का हमला हो चुका है और उनकी आक्रमता युद्ध जैसी बर्बर है। क्योंकि वे अकेले नहीं हैं। उनके साथ कीट-पतंगों की भारी फौज उनकी सहयोगी है और सहयोगी हैं नगर निगम के नाकारा अधिकारियों, बेखौफ सफाईकर्मियों व उनके संगठनों की समूची ताकत। इसके अलावा उनकी तरबीयत के लिए है बरसात का पानी, जो राजधानी के हर हिस्से में पूरी ढिठाई से भरा है। यह हमला सियासत, आतंकवाद या नक्सलवाद से प्रभावित नहीं है। इसके पीछे भ्रष्टाचार, घपलों-घोटालों के माफिया और उद्दंड नस्लवादी ताकतें हैं, तो उनकी महत्वाकांक्षाओं के साझेदार हमारे अपने भाई बंद भी हैं।
    बरसात की शुरूआत के ऐन पहले सूबे के मुख्यमंत्री को शहर के शानदार इलाके गोमतीनगर के विकल्पखण्ड से सीवर के गंदे पानी में लापता सड़क से गुजरने का जोखिम उठाना पड़ा। यही नहीं प्रदेश के महामहिम, नगर विकास मंत्री और नगर के प्रथम नागरिक मेयर तक ने राजधानी की सड़कांे; गालियों में पसरी गंदगी से उठती दुर्गंध को साफ करने के आदेश दिये। गैरहाजिर सफाईकर्मियों का वेतन काटने के बयान अखबारों में छपवाये गये। नतीजा सिफर का सिफर। सारा शहर कूड़े-कचरे, जल भराव, बजबजाती नालियों, सड़ते भोजन सामग्रियों और प्लास्टि पाॅलीथीन से गंधा रहा है। नगर विकास मंत्री ने महज पांच दिन पहले राजधानी की नगरीय सुविधाओं को बदतर करार दिया है और अफसरों को नाकारा घोषित किया। नगर आयुक्त ने शहर में अपनी कार घुमाई तो पाया कि निजी संस्था व निगम के सफाईकर्मी गायब, उनके सुपरवाइजर, इंस्पेक्टर, जोनल अधिकारी तक लापता थे।इस बदइंतजामी के घमासान में राजधानी के नागरिकों, व्यापारियों और सफाईकर्मियों के बीच आये दिन झड़पों से लेकर सर फुटौव्वल तक की नौबत आ रही है। इसका सबसे बड़ा कारण सफाईकर्मियों का काम न करने का मंसूबा और इसे शह देते हैं उनके सफाई मजदूर संगठन। और इस शह-मात की बिसात पर चालें चलने वाले है, बड़े-बड़े राजनैतिक दल और उनके कद्दावर नेतागण। साफ-साफ यह वोटों के खेल का षड़यंत्र है?
    शर्मनाक तो यह है कि राजधानी की धरती पर सर झुकाए मुस्कराते हुए आने वाले तमाम देशी-विदेशी मेहमानों की व्यंगात्मक वाणी में कहा गया जुम्ला ‘माशाअल्लाह... ऐसा बदसूरत तो नहीं था लखनऊ’ भी इन नामाकूलों में कोई हरारत नहीं पैदा करता है। भले ही यह मेहमान लखनउव्वा कवाब, शवाब और रूआब की शान में रसपगे बयान दे जाएं, लेकिन वह शहर की नवाबी पहचान और सियासी तरबियत की शतरंज के खिलाडि़यों से संतुष्ट होकर नहीं जाते। यही वजह है कि दुनिया के पर्यटन मानचित्र पर लखनऊ धुंधला- द्दंुद्दला दिखता है। पिछले दिनों मशहूर शायर फैज अहमद ‘फैज’ की बेटी मोनीजा हाशमी लखनऊ आईं थीं। लखनऊ की तारीफ में उनका वाक्य था ‘मैंने दो तरह का लखनऊ देखा’, फिर भी इज्जतदार बेईमान अमला बेशर्मी से खीसे निपोरता रहा।
    गलियां गंदी हैं। नाले-नालियों मंे पानी सड़ रहा है। नाले उफना रहे हैं मासूमों की जान जा रही है। पिछले दिनों सआदतगंज के उफनाते नाले में गिरकर आठ साल के सादिक की मौत हो गईं। उसकी लाश भी तलाशने निगमकर्मी नहीं आये। इस नाले को ढकने के लिए पहले भी हंगामा हो चुका है। मच्छरों के जच्चा-बच्चा केन्द्रों की भरमार भी यहीं है। गोबर, गू और गंध के खाद-पानी से अघाए-मुटाए मच्छरांे ने मलेरिया, डेंगू, जापानी इंसफेलाइटिस व वेस्ट नाइल जैसी खतरनाक बीमारियों को फैलाने के लिए कमर कस ली है। इनसे निपटने का कोई भी इंतजाम शासन-प्रशासन के पास दिखाई नहीं देता। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हर साल दुनिया भर में मलेरिया से 2.5 करोड़ लोग प्रभावित होते हैं, जिनमें से 6.5 लाख लोग मरते है। डेंगू से प्रभावित होने वालों की संख्या लगभग 10 करोड़ है, इनमें 22 लाख के लगभग मौत के मुंह में समा जाते हैं। सेंट्रल डिजीज बोर्ड के अनुसार मच्छर हर साल करीब 700 मिलियन लोगों को बीमार करते हैं, जिनमें से 5.3 मिलियन लोगों की मृत्यु हो जाती है। सबसे मजेदार बात तो यह है कि इन पर प्रचलित कीटनाशकों का भी कोई खास प्रभाव नहीं होता। इनकी सूंघने की ताकत में लगातार इजाफा हो रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार मादा मच्छर इंसानों का खून चूसकर अपनी प्रजनन क्षमता बढ़ाती है।
    एक मच्छर.... आदमी को हिजड़ा बना देता है। यह सिनेमा का संवाद भर नहीं हकीकत है। मादा मच्छर जब खून चूसने के लिए अपना डंक आदमी के शरीर में चुभाती है तो आदमी के खून में बहुत जल्द थक्का बन जाता है फिर मच्छरों को खून चूसने में परेशानी हो जाती है। वे अपने महीन डंक के साथ अपनी जहरीली लार (रसायन) भी आदमी के खून में पहुंचा देती हैं जिससे उस जगह पर लगातार खुजली होती है और उस जगह पर लाल चकत्ता सा उभर आता है। आदमी को केवल मादा मच्छर ही काटती है, क्योंकि आदमी के खून में प्रोटीन व अन्य पोषक तत्व होते हैं, जो इनका भोजन होते हैं और इसी की सहायता से वे अंडे बनाती हैं। आमतौर पर मादा मच्छर पौधों से रस चूसती हैं।
डेंगू मच्छर से बचने का उपाय
डेंगू फैलाने वाले मच्छर प्रातः के समय अधिक सक्रिय होते हैं, तभी काटते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मच्छररोधी उपलब्द्द उत्पाद हमारे स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। इसलिए डेंगू मच्छरों से बचने के लिए बायोसाइड को पानी में मिलाकर घर के बाहरी हिस्सों पर ठीक से छिड़काव करने से यह घर में नहीं आ पाते। यह गंध रहित पदार्थ है, इसे पूरे गरमी-बरसात में केवल दो या तीन बार इस्तेमाल करने की आवश्यकता पड़ती है।
मच्छर की पूजादेश में मच्छरों के प्रकोप से शायद ही कोई हिस्सा छूटा हो। परेशान लोगों ने तरह-तरह के उपाय किये हैं, लेकिन झारखंड के बोकारों में लोग मच्छर भगवान की पूजा कर रहे हैं ताकि वे मच्छरजानित रोगों से बचे रहें। चास नामक स्थान में मच्छर की एक विशाल प्रतिभा स्थापित की गई और श्रद्धालुओं ने पदयात्रा निकाली। पदयात्रा में उन्होंने मृदंग बजाए और मंत्रोंच्चार किया। मच्छर की प्रतिमा के सामने हवन किया गया। एक पुजारी ने सैकड़ों लोगों के सामने मंत्रोच्चार किया और मच्छर भगवान को माला पहनाकर उनकी पूजा की। स्थानीय लोगों का कहना है कि हमने मच्छर से बचने की कोशिश की है और मच्छर की प्रतिमा लगाकर तथा इसकी पूजा कर इसे खुश करने की कोशिश की है। ज्ञात हो कि लोगों ने यह पहल तब की, जब स्वास्थ्य विभाग ने डेंगू के बढ़ते मामलांे पर ध्यान नहीं दिया। बरसों पहले जब स्वास्थ्य विज्ञान में बहुत तरक्की नहीं हुई थी, तो स्माॅल पाॅक्स और चिकन पाॅक्स जैसी बीमारियों का संबंध भी देवी प्रकोप से जोड़ा जाता था और बाकायदा इसके लिए पूजा होती थी। झाड़फूंक का अंधविश्वासी प्रचलन आज भी विद्यमान है, लेकिन मच्छर को भगवान बनाने की यह घटना अनोखी है और डरावनी भी।