Monday, September 17, 2012

‘सुधा’ की सम्पादकीय सम्मति कुछ अपने संबंध में


ईश्वर की कृपा से सुधा के प्रथम वर्ष का प्रथम खंड सकुशल समाप्त हो गया। यह सातवीं संख्या प्रेमी पाठकों की सेवा में उपस्थित की जाती है। सुधा कैसी निकली या निकल रही है, इसका फैसला करने का अधिकार पाठकों को हैं। हम केवल इतना ही निवेदन कर देना चाहते हैं कि हमने यथाशक्ति पाठकों की सेवा में उत्कृष्ट सामग्री उपस्थित करने की चेष्टा की है, और यह हमारी चेष्टा उत्तरोत्तर बढ़ती ही जायगी। इस समय हिंदी की दिन-दूनी रात-चैगुनी उन्नति हो रही है। उच्च साहित्य का आदर्श भी उच्चतम होता जा रहा है। नई-नई उच्च कोटि की पत्रिकाएं निकल रही हैं। प्रत्येक हिंदी का पत्र अपनी उन्नतिकरने में लगा हुआ है। यह बड़े ही हर्ष की बात है। हम सातवीं संख्या सुधा में कुछ परिवर्तन कर रहे हैं। आशा है, ये परिवर्तन पाठकों को रूचिकर होंगे। ‘चित्रकला’-स्तंभ के स्थान पर ‘ललित कला’ स्तंभ रक्खा गया है। इसमें चित्र, संगीत, अभिनय, रंगमंच, उपन्यास, कहानी, नाटक, कविता आदि सभी ललित कलाओं पर लेख और नोट रहेंगे। इस स्तंभ में विश्व-साहित्य का भी परिचय देने की चेष्टा की जायगी। इस प्रकार यह स्तंभ बहुव्यापक और अधिक उपयोगी बन जायेगा। इसके अतिरिक्त ‘चारू चयन’, ‘देश-विदेश’ आदि कई अस्थायी स्तंभ भी देने का विचार है। उनमें से कभी कोई स्तंभ रहेगा, कभी कोई। हमने इस बात का भी प्रबंध किया है कि प्रतिमास किसी विदेशी नाटककार, उपन्यासकार या कहानी-लेखक का परिचय, उसकी सर्वोत्कृष्ट रचना का अनुवाद या आलोचना भी दी जाया करे। इस संख्या से पं0 विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक का ‘मा’ उपन्यास भी शुरू कर दिया गया है। यह क्रमशः निकलेगा। इसके बाद वर्तमान उत्कृष्ट हिंदी-लेखक, हमारे परम मित्र बा0 जयशंकरप्रसादजी का ‘कंकाल’ उपन्यास क्रमशः निकाला जायगा। यह उपन्यास बहुत ही उच्च कोटि का होगा। अगली संख्या से हिंदी के वर्तमान लेखकों और लेखिकाओं का सचित्र परिचय भी, ‘साहित्य-संसार’-स्तंभ देकर, क्रमशः प्रकाशित किया जायेगा। तात्पर्य यह कि सुधा को और भी अधिक उत्कृष्ट और उपयोगी बनाने के लिये भरसक पूरी चेष्टा की जायेगी। आशा है, हिंदी-प्रेमी जनता की ओर से हमें पूर्ण सहायता और सहयोग प्राप्त होगा।

नाच बेटा नाच...पैसा मिलेगा


लखनऊ। छोड़-छाड़ के अनारकली चली अपने सलीम की गली... ओ... अनारकली डिस्को चली या पौव्वा चढ़ा के आई चमेली से भी दो कदम आगे माशाअल्लाह... गानों पर कमर मटकाती तीन से तीस साल की नई पीढ़ी को खुलेआम घरों में, स्कूलों में, सड़कों पर देखा जा सकता है। और चालीस से साठ की अघाई-बुढ़ाई पीढ़ी को इस नाच-गाने पर ताली बजाने में कतई संकोच नहीं। इस जमात में पिज्जा-पास्ता, पराठा-तरकारी से लेकर लिट्टी-चोखा खाने-पचाने वालों की पूरी साझेदारी है। किटी से सीटी पार्टियों, किचन से क्लासरूम, बस से बेडरूम और दफ्तर से सड़क तक मोबाइल पर गाना सुनते और थिरकते दिखना नई पीढ़ी का ‘स्टेटस’ हो गया है। सरकारी रजिस्टरों में दर्ज गरीबी की रेखा के नीचे जीने वालों की जमात के कानों में भी ‘इयरफोन’ ठुंसा हुआ दिखाई ही नहीं देता बल्कि उन्हें थिरकते हुए देखा जा सकता है। स्कूलों में बाकायदा ‘डांस के सुपर किड्स’ जीटीवी शो के आडीशन के लिए अलग से कक्षाएं लगाई जाती हैं। प्रधानाचार्या से लेकर शिक्षिकाएं तक उत्साह से बच्चों की तैयारी में हिस्सा लेते हैं। अभिभावक-शिक्षक बैठक में अभिभावकों पर बच्चों को घर पर अभ्यास कराने के लिए प्रशिक्षक रखने का दबाव डाला जाता है। यानी स्कूलों ने इसे आमदनी का जरिया बना लिया है। जब घर-स्कूल दोनों जगह बच्चों को प्रोत्साहन दिया जाता है, तो वे रिक्शा, आॅटो, वैन, बस में मस्ती करते नाचते-गाते दिखते हैं। ऐसे में किसी भी हादसे से इन्कार नहीं किया जा सकता। किशोरियों, युवतियों को तो लगातार हादसों का शिकार होना पड़ रहा है। इसके पीछे पैसा कमाने की होड़ भर नहीं है बल्कि यह सोंचा समझा ‘ग्लोबलाइबल कारपोरेट’ षड़यंत्र है। टीवी के लाइफ ओ.के. चैनल पर ‘झलक दिखला जा-5’ नृत्य कार्यक्रम दिखाया जा रहा है। इसमें नाच कम फूहड़ता, अश्लीलता अधिक दिखती है। इसमें अधिकांश नाचनेवाले जोड़ों के ‘सेक्स उपकरण’ उभार कर दिखाने की होड़ सी लगी रहती है। औरत को सामान्यरूप से छू भर देने से हंगामा खड़ा हो जाता है। बेडरूम से बाहर जिन नारी अंगों का भूल से भी दिखना तक नारियों को गंवारा नहीं उनकी नुमाइश बकायदा तबला-पेटी बजाकर की जा रही है। इसका असर यह है कि घरों के गुसलखाने, रसोई यौनाक्रमण के शिकार हो रहे हैं, तो बैठकों, शयनकक्षों में नृत्यशाला का अतिक्रमण हो गया है। संगीत की दुनिया में आई इस नई क्रांति का शिकार राजधानी की हजारों युवतियां हो रही हैं और सुरों की महफिल से आत्महत्या तक की नाकाम कोशिश करने वाली पूनम जाटव का नाम भुलाया जा सकता है?
‘झलक दिखला जा-5’ के मंच पर ईशा शरवानी-सलमान की जोड़ी संभावित विजेता में ईशा के हाथ में चोट लगने से वह बाहर हो गई है। रश्मि और ऋत्विक की जोड़ी को भी सराहा जा रहा है। इनके अलावा एक बच्चा जोड़ा दर्शील-अवनीत का भी रहा जो अपनी उम्र से पहले ‘कामशास्त्र’ का प्रशिक्षण लेकर विदा हो गया।
    कामेडियन भारती की गरीबी की दास्तान देशभर को सुनवाकर उसकी फूहड़ता से भरपूर जज रोमो के साथ रोमांटिक होने के नखरों को देर तक दिखाकर मनोरंजन करने की नाकाम कोशिश जारी है। इसके अलावा ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के विजेता बिहार के सुशील कुमार से उल्टे-सीधे हाथ-पैर उछलवाकर निम्नमध्यम वर्ग के दर्शकों को जोड़ने की भरपूर कोशिश की गई है। माधुरी के माधुर्य से दर्शक जहां बंधे हैं, वहीं लगातार आनेवाले मेहमान अभिनेता/अभिनेत्री भी दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब हैं। इस शो के दर्शकों में सर्वाधिक संख्या बच्चों और युवतियों की है। यही वजह है कि इसकी टीआरपी भी पहले पायदान पर है। गो कि नाचने की धूम है। अधिक दिन नहीं बीते लखनऊ के कोठों और कोठेवालियों को उजड़े हुए। इन्हें सुनने और इनके नृत्य की एक शरीफाना उम्र और जगह तय थी और ‘झलक दिखला जा’ हर जगह नाच रहा है?
    इसी तर्ज पर सुरों की महफिलें भी सजी हैं। ‘इंडियन आइडल’, ‘सुरक्षेत्र’ जैसे कार्यक्रमों में छोटे-बड़े सभी गाते दिख जाएंगे। इससे पहले भी ‘जुनून’ जैसे कार्यक्रम से लखनऊ की मालिनी अवस्थी का नाम सामने आया। वहीं कल्पना भी कलप गयीं। इनकी नकल स्थानीय स्तर पर भी की जा रही है। चुनाचे नाचने-गाने की घोर महत्वाकांक्षी पीढ़ी का शिक्षा जगत से नाता टूटता जा रहा है और अपराध की नई किस्मों के जंगल उग रहे हैं। इस सबकी जिम्मेदारी समाज की नहीं है? ताली बजाकर ‘नाच बेटा नाच..पैसा मिलेगा’ का प्रोत्साहन क्या संज्ञेय अपराद्द की श्रेणी में नहीं आता? इन सभी सवालों का जवाब तलाशना ही होगा वरना बदलाव का कुतर्क बरबाद कर देगा।

बहूरानी भूखे हैं बच्चे


लखनऊ। बहूरानी की राजनैतिक जन्मभूमि कन्नौज के गांव बीसापुर तराई में 6 नाबालिंग (4-17 साल के) बच्चे भूख से बेजार इच्छा मृत्यु की मांग कर रहे हैं और युवा ‘टीपू’ सरकार के हाकिम व समाजवादी नेता उनके मुंह में झूठ का काढ़ा जबरन ढकेले दे रहे हैं। जबकि उन बच्चों की ढाई बीघा जमीन दबंगों ने हथिया ली हैं। उन बच्चों के पिता की दुर्घटना बीमा राशि भी मिलनी है, लेकिन राजस्व व पुलिस महकमा उनसे खुलेआम रिश्वत मांग रहा है।     कन्नौज की जिलाधिकारी सेल्वा कुमार जे. बच्चों के शिकायती पत्र की जांच और उचित कार्यवाही में व्यस्त हैं। उधर बच्चों को दर-दर भटकने के साथ दुत्कार मिल रही है। इन बच्चों की बेबसी देखकर गांव के लोग अपनी सांसद बहू से बेहद नाराज हैं।

मीडिया की सनसनी हैं रामदेव!

जून, अगस्त और अब अक्टूबर से फिर रामलीला मैदान में बाबा रामदेव देश को ‘आन्दोलन’ का तमाशा दिखाएंगे? यह सवाल देश के हर पढ़े-लिखे मानस के दिमाग में खदबदा रहा है। पिछले दो आन्दोलनों में बाबा के योग और भोग को देख चुके लोगों के मन में और भी कई सवाल हैं? बाबा जिस कालेधन के वापसी की बात कर रहे हैं, वह क्या विदेश से अधिक देश में नहीं हैं? बाबा हर विषय की ठेकेदारी स्वयं क्यों लेने का प्रयास करते हैं? बाबा के आन्दोलनों में खर्च होनेवाली रकम क्या सफेद है? उनके ट्रस्टों की संपत्ति में यदि कालाधन नहीं है तो उसकी जांच पर इतनी हाय-तौबा? वे कहते हैं 9वें योगी हैं, सन्यासी हैं और जनहितार्थ संघर्ष कर रहे हैं। यहीं सवाल उठता है कि क्या सन्यासी चार्टड हवाई जहाज/हेलीकाफ्टर व कारों के काफिले में चलने का हकदार हैं? उनके संस्थान द्वारा बेचे जाने वाले उत्पाद इतने महंगे हैं कि हर शख्स उन्हंे खरीद नहीं सकता। डाॅबर और वैद्यनाथ जैसी ख्याति प्राप्त और भरोसे वाली कम्पनियों के उत्पादों से पतंजलि के उत्पाद 20-25 फीसदी महंगे हैं। उनके ‘लौकी के जूस’ का हश्र देश देख चुका है। वे मामूली बुखार से लेकर कैंसर तक के इलाज का दावा करते हैं और स्वयं का इलाज इलौपैथिक पद्धति के नर्सिंग होम में कराते हैं?
    विपक्षी राजनीतिज्ञों की तरह सरकार पर तरह-तरह के आरोप लगा कर सनसनी तो पैदा करते हैं उनमें से एक का भी सुबूत नहीं देते। उनका सवाल है, ‘सरकार योग सिखाने पर टैक्स क्यों लगा रही है? तो कोई सनसनी सिद्ध पत्रकार पलट कर बाबा से यह क्यों नहीं पूंछता, क्या वे मुफ्त में योग सिखाते हैं या अपने शिविरों में मोटी फीस वसूलते हैं? इसी तरह वे महंगे उत्पाद बेंचकर जनता की जेबंे नहीं हल्की कर रहे? मोटी सी बात है कि व्यापारियों पर जब भी सरकार टैक्स लगाएगी तो व्यापार मण्डल हल्ला मचाता है। उसी तर्ज पर बाबा के आरोप नहीं हैं? योग से स्वास्थ बनेगा लेकिन गरीब का पेट कैसे भरेगा? या योग अमीरों के लिए ही है? रही फकीर और वजीर की लड़ाई तो वे कतई फकीर नहीं हैं, सिर्फ गेरूआ धारण कर लेने से, दाढ़ी बढा लेने से और कुछ करतब दिखाने भर से सन्यास का नाम बदनाम करना तो कहा जा सकता है, सन्यासी नहीं। वे बात राजनैतिक करते हैं, ढोल सामाजिकता का पीटते हैं? उनका हर हल्ला केवल और केवल कांग्रेस के मुखालिफ होता है? जिसे टीआरपी बढ़ाने वाले चैनल अपने दर्शकों को दिखाकर उनका मनोरंजन करते हैं। उनके बीच ‘बाबा’ ब्रांड की सनसनी पैदा करते हैं? वे यदि वास्तव में संत हैं तो ‘ब्रांडेड’ महत्वाकांक्षा छोड़कर सन्यासियों जैसा आचरण करें, जनसेवा कर जनता के बीच जाकर वह भी पूर्णरूप से निःशुल्क। किराए के पंडाल के नीचे देशी कालेधन के दान की पूड़ी-कचैड़ी खा-खिलाकर आन्दोलनों का तमाशा दिखाकर नहीं।

यू.पी. में कचरे पर पशु रोमांस शो!

लखनऊ। पर्यटन के मानचित्र पर सूबा उप्र के महानगरों व राजधानी को कचरा, कुत्ता, सांड, बंदर, मच्छर, अंधेरे और बीमारों के लिए दर्ज किया जा रहा है। यही वजह है लखनऊ आगरा, मथुरा, इलाहाबाद, श्रावस्ती, अयोध्या, चित्रकूट, वाराणसी जैसे शहरों में विदेशी-देशी पर्यटक लगातार घट रहे हैं। इससे जहां राजस्व घट रहा है, वहीं रोजगार चैपट हो रहा है। सरकारी कर्मचारी निठल्ले और भ्रष्ट हो रहे हैं। शहरी हलकान और बीमार होकर अपनी मशक्कत की कमाई से बने सरकारी अस्पतालों में द्दक्के खा रहे हैं। नई पीढ़ी सेक्स के सारे करतबों का प्रशिक्षण खुली सड़कों पर पा रहे हैं। और जिम्मेदार नगर निगम के पार्षद, अधिकारी अपनी कमाई के संसाद्दन तलाशते हुए गुण्डई पर अमादा है। महापौर कोरे बयानों के जरिए अपनी पीठ अपने ही हाथ से थपथपाने और माला पहनने में व्यस्त हैं। नगरों का विकास करने वाले मंत्री जी नाराज हैं। आखिर कौन सुनेगा सूबे के आदमी की किल्लतों भरी चीख?
    गौर करने लायक है कि आगरा में कूड़ा उठानेवाली ठेकेदार कंपनी अल्ट्रा अर्बन इन्फ्राटेक के मुखालिफ नागरिकों का आक्रोष इतना बढ़ा कि नगर निगम को खुद आगे आना पड़ा फिर भी कूड़ा नहीं उठाया जाता। सिल्ट और जूता कारखानों का कचरा शहर के पर्यावरण में जहर घोल रहा है। इसी को देखते हुए पिछले दिनों उच्चन्यायालय के आदेशानुसार 40 जूता कारखानों को शहर के रिहायशी इलाकों से बाहर जाने का नोटिस प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दिया है। बावजूद इसके नागरिक आन्दोलित तो सफाईकर्मी आनन्दित। ऐसे ही हालात वाराणसी, इलाहाबाद में भी है। अयोध्या, चित्रकूटद्दाम और श्रावस्ती कचरे और आवारा जानवरों से त्रस्त है। गंगा-सरयू में स्नान का सारा पुण्य कचरे-कुत्तों को दान करने वाले भक्तगण बेहद दुखी हैं। हाल ही में पितरों के श्राद्ध शुरू होने वाले हैं और इन तीर्थ नगरियों में सड़ांध, संक्रामक रोग और पशु आतंक पैर फैलायें है। ऐसे हालातों में कैसे होगा पिण्डदान और श्राद्धकर्म?
    राजधानी की अंधेरी सड़कों-गलियों पर सिल्ट-कूड़ा फैला पड़ा है। सांड-कुत्तों की सेक्सक्रिया के कार्यक्रम मुफ्त में देखने के साथ नागरिकों के घायल होने का सिलसिला जारी है। पिछले दिनों एक पार्षद अपने समर्थकों के साथ निजी सफाई व्यवस्था के ठेकेदार कंपनी पाॅवर सिक्योरिटी का ठेका रद्द होने से नगर निगम अद्दिकारियों से मारपीट कर बैठे। वहीं सफाई कर्मचारी संविदा पर रखे जाने के बाद भी काम न करने पर हटाए गये तो धरना-प्रदर्शन कर बैठे। ऐसे तमाशे रोज देखने-सुनने में आते हैं। पूरे शहर में सफाईकर्मी काम करने से परहेज करते हैं। जहां काम करने की गलती करते हैं, वहां घर-घर से वसूली करते हैं। पैसा वसूलने के बाद आंखें अलग दिखाते है। हद तो यह कि कूड़ा-उठाने को कहने पर बवाल काटने की धमकी तक देते हैं। गए महीने मोहनलालगंज सीएचसी में तैनात अधीक्षक के सफाईव्यवस्था दुरूस्त करने को कहने पर कर्मचारियों के हिमायती ड्राइवर ने उन्हें काट डालने की धमकी दे डाली। इनकी धमकियों को हकीकत में बदलते भी राजधानीवासी कई बार देख चुके हैं और आज भी ओमनगर में देखी जा सकती है। ऐसा नहीं है कि गंदगी-कचरे के लिए अकेले नगर निगम/सफाईकर्मी ही जिम्मेदार हैं, नागरिक भी जिम्मेदार है। सामाजिक संगठन और भ्रष्टाचार का हल्ला मचानेवाले भी जिम्मेदार हैं। बाबा/अन्ना के कार्यकर्ताओं को खस्ताहाल शहरी सेवा कोई मुद्दा नजर नहीं आती?

गरीबी का फैशन फुटपाथ पर!


लखनऊ। राजधानी की फुटपाथों पर पड़े नंग-धड़ंग बेसुध शरीर हों या हाथ पसारे रिरियाते जिन्दा ‘स्लम डाॅग्स’, इनकी ओर देखने वाला कोई नहीं। हजारों-हजार की संख्या में खुले आसमान के नीचे फुटपाथों पर जाड़ा, गर्मी, बरसात की मार झेलते मैले-कुचैले इंसानों की कौम स्थानीय पुलिस व दबंगों को रंगदारी देने और उनकी लातखाने को मजबूर हैं। इन्हीं मजलूमों में भारी जेबों वाले बेगैरतों की भी खासी संख्या है।
    लखनऊ के दिल हजरतगंज व मुंह चारबाग में इन फुटपाथियों को कई किरदारों में देखा जा सकता है। इसे गरीबी का फैशन शो भी कह सकते हैं और इसके डिजाइनर हैं, उप्र सरकार, उसकी पुलिस व तथाकथित नवधनिक गौर से देखिएगा तो कोई रोटी के लिए डिवाइडरों पर बैठा है, तो कोई हाथ फैलाये रूपया दो रूपया पाने का गीत गा रहा है। कोई कारों को साफ करके मेहनत करने में लगा है। कई देह-व्यापार से लेकर तमाम तरह के आपराधिक द्दंद्दों में व्यस्त हैं। कोई आॅटो/होटलों तक ग्राहक लाने की मशक्कत में लगा है, तो कोई अखबार/पत्रिकाएं, पानी/रेवड़ी, कई तो खाली जुबान और हाथ के कमाल से रोटी की जुगाड़ में लगे हैं। इनमें से कोई भी सरकार के द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं के किसी रजिस्टर में दर्ज नहीं है। हां, वोटर कार्ड और मोबाइल फोन आधे से अधिक के पास मिल जाएंगे।
    राजधानी के हर इलाके में इस जमात का डेरा है। पुरातत्व संरक्षित इमारतों, पार्कों, बस-रेलवे स्टेशनों, मंडियों के अलावा गोमती तटबंधों/घाटों, मंदिर/ मस्जिद/गुरूद्वारों/मजारों/विद्दायक निवासों के आस-पास इन्हें रात को सोते देखा जा सकता है। यह गांवों से शहर आए हुए बेरोजगार लोगों की भीड़ के साथ मूल शहरियों की जमात है। पिछले महीनों में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की एक रिपोर्ट में उप्र के पांच महानगरों में झुग्गी-झोपड़ी  मेें रहनेवालों के आंकड़ों के साथ उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं दिए जाने के प्रयासों का जिक्र था। सर्वे के अनुसार लखनऊ में 8.2 प्रतिशत, आगरा में 9.67 प्रतिशत, वाराणसी में 12.54 प्रतिशत, इलाहाबाद में 12.72 प्रतिशत व कानपुर में 14.5 प्रतिशत के करीब लोग झोपडि़यों में रहते हैं।
    सरकारी दावों में ही स्वास्थ्य सेवाओं की कलई खोली गई है, प्रदेश में दस में से एक बच्चे को बेहतर चिकित्सा सुविद्दा नहीं मिलती जिससे वे पांच साल का जीवन भी नहीं पाते। मात्र 15.3 फीसदी बच्चों को टीकाकरण की सुविधाएं हासिल हैं। 16.3 फीसदी नवजातों को चिकित्सा सेवाएं हासिल हैं। कुल पचास फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। 74 फीसदी लोग खून की कमी का तो 41 फीसदी कुपोषण का शिकार हैं। ये आंकड़े साबित करते हैं कि सरकारी योजनाओं का लाभ गरीबों और गरीबी की लाइन में जबरन घुस कर खड़े लोेगों को कितना मिलता है। आंकड़े तो कागज पर लिखे भर हैं, हकीकत में शहरों में एक बड़ी भीड़ बेघरों/बेरोजगारों, मंदबुद्धियों, भिखारियों और मुस्टंडों की बढ़ रही है। यह सूबे का बदसूरत चेहरा भर नहीं बल्कि रोटी की छीना झपटी का सच्चा आइना है।

हिन्दी के श्राद्धपर्व पर हिन्दी पत्रकारिता का पिण्डदान


हिन्दी और हिन्दी पत्रकारिता के कर्मकांडी श्राद्धपर्व के माहौल में हिन्दी बोलने पर जुर्माने की सजा! हिन्दी का पिण्डदान करने सरकारी अय्याशों के साथ ‘कामसू़़त्र’ की नई विधा तलाशने का सपना संजोए हिंदी पुत्रों के विदेश जाने का शुल्क बस पांच हजार! देश में रोमन लिपि में लिखी हुई हिंदी का पाठ करके या फेसबुक पर हिन्दी के पुरखों का तर्पण करते हुए अंग्रेजी को एक आंख दबाकर सच्चे प्रेमी होने का दावा मुफ्त में बरकरार। हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के शंकराचार्यों की पालकियां भी अपने-अपने मठों से निकल कर प्रेमचंद, निराला, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की परिक्रमा कर चंदे-धंधे जुगाड़ लेंगी और श्राद्ध पर्व का समापन हो जाएगा बगैर यह जाने, बांचे कि अरबी-फारसी, उर्दू, अंग्रेजी के मजबूत किलों को हिन्दी के किन महारथियों की क़लम ने ध्वस्त किया था? हिन्दी पत्रकारिता के किस पितामह ने अपना सर्वस्व होम किया था। चंदनामों के आगे घंटा-घडि़याल बजा उनकी आरती का सस्वर पाठ शायद रोजी-रोटी का इंतजाम कर देता हो, लेकिन नई पीढ़ी को तो अज्ञानता के प्रदूषण का शिकार बना रहा है। तभी तो ताजादम पत्रकारों की पीढ़ी ‘माधुरी’ पत्रिका का प्रकाशक ‘गंगा-पुस्तक माला’ और प्रेमचंद को ‘माधुरी’ का सम्पादन करने लखनऊ आने को लिखने की भूल कर बैठती हैं।
    लखनऊ में हिन्दी पत्रकारिता के भीष्म पितामह आचार्य पं. दुलारेलाल भार्गव ने हिन्दी की कीर्ति पताका तब फहराई जब फारसी, उर्दू और अंग्रेजी आम भाषा थी। सबसे पहले उन्होंने सन् 1923 में ‘माधुरी’ का प्रकाशन अपने चाचा विष्णु नारायण भार्गव के साथ किया। इसके साथ ही लाटूश रोड स्थित अपने निवास से गंगा-पुस्तक माला प्रकाशन संस्था की शुरूआत की थी। इस संस्था में लाल बहादुर शास्त्री, निराला, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, गोपाल सिंह नेपाली, इलाचन्द्र जोशी, प्रेमचन्द, मिश्रबंधु जैसे दिग्गज भार्गव जी के सहयोगी रहे। सन् 1927 में ‘सुधा’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, इसमें उनके सहयोगी थे पं0 रूप नारायण पाण्डेय, इसके सह सम्पादक रहे प्रेमचन्द। एक सौ बीस पृष्ठ की पत्रिका में तीन-चार रंगीन चित्र छपते थे। उन्होंने तुलसी संवत् की शुरूआत की। प्रेमचन्द ‘गंगा-पुस्तक माला’ से प्रकाशित ‘बाल-विनोद वाटिका’ पत्रिका के सम्पादन से भी जुड़े रहे। उनका यादगार उपन्यास ‘रंगभूमि’ भार्गव जी के सम्पादकत्व में ही छपा। यह वह समय था जब आजादी के दीवाने फंासी पर झूल रहे थे और अंग्रेज भारत की तस्वीर अपने अनुरूप काफी कुछ बदल चुके थे। शहरों में अंग्रेजियत पूरी तरह पसर गई थी। लखनऊ में ठंडी सड़क हजरतगंज लंदन की डाउनिंग स्ट्रीट का आकार लें रही थी। तांगे-इक्कों का उस सड़क से गुजरना तक अपराध की श्रेणी में आता था। नवाबियत की कब्र पुख्ता हो चुकी थी। लोटे से चुल्लू (दोनों हथेलियों को जोड़कर अंजुरी) में पानी पिलाने वाले पंडित हजरतगंज में पांव नहीं घर सकते थे। ग्रामोफोन से लेकर अंग्रेजी अखबार, थिएटर, कैफे, बिलियर्ड पूल तक की धूम थी। अमीनाबाद जैसे इलाकों में सराय की जगह होटलों ने ले ली थी। ऐसे दौर में पं0 दुलारे लाल भार्गव ने उस नए बनते लखनउवा समाज के आदमी की तबीयत को समझा और उसे ‘सुधा’ से जोड़ा भर नहीं बल्कि उसे कथात्मक साहित्य के जरिए हिन्दी प्रेमी बनाया। उन्होंने भगवती चरण वर्मा, विश्वम्भर नाथ शर्मा ‘कौशिक’, डाॅ0 राम कुमार वर्मा, निराला, प्रेमचंद, अमृतलाल नागर, पंत, को छापा ही नहीं उन्हें समाज में प्रतिष्ठापित भी किया। लखनऊ में कवि सम्मेलनों की परम्परा को उन्होंने ही शुरू किया था। उनके जीवन का अंतिम कवि सम्मेलन चारबाग के रवीन्द्रालय सभागार में बांग्लादेश जन्म के तत्काल बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौजूदगी में हुआ था। उनका घर ‘कवि कुटीर’ के नाम से जाना जाता रहा। गंगा-पुस्तका माला भवन के अवशेष आज भी लाटूश रोड (गौतम बुद्ध मार्ग) पर मौजूद हैं। उन्होंने आकाशवाणी लखनऊ में हिन्दी के साहित्यिक कार्यक्रमों की श्रृंखला शुरू की, तो लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया और पहला प्राध्यापक बद्रीनाथ भट्ट को नियुक्त कराया।
    वे महज 16 वर्ष की आयु में ही हिन्दी लेखन, सम्पादन और प्रकाशन से जुड़ गये थे और 20-22 वर्ष की आयु में लखनऊ व आस-पास के इलाकों में प्रतिष्ठित हो चुके थे। ब्रजभाषा के कवियों में उनकी गिनती प्रथम पक्ति में थी। अयोध्या सिंह ‘हरिऔध’ की ‘प्रिय प्रवास’ के मुकाबले उनकी ‘दुलारे दोहावली’ को तब का प्रतिष्ठित पहला ‘देव पुरस्कार’ मिला था। उन्हें आधुनिक बिहारी कहा जाता रहा हैं। वे उस समय हिन्दी जगत की नहीं वरन सभ्य शहरियों की प्रतिष्ठित जमात में शुमार किए जाते थे। उनकी ख्याति उनसे पहले लोगों तक पहुंच जाती थी। साधारण चूड़ीदार पैजामा, अचकन और टोपी में सजा लम्बा-गोरा शरीर सामनेवाले के आकर्षण का केन्द्र यूं ही नहीं रहा। उनकी हिन्दी भक्ति, हिन्दू शाक्ति के प्रति निष्ठा का आदर गोरे साहब भी करते थे। उन्होंने ही ‘लखनवी भाषा’ (उर्दू-हिन्दी मिश्रित) को जन्म दिया था। उनके समय को ‘दुलारे युग’ कहा जाता है। उनकी बेचैनी अंतिम समय तक साइकिल के पहियों पर उनके साथ घूमती रही। वे ‘ब्रजभाषा रामायण’ की रचना में लगे-लगे ही 6 सितंबर 1975 को अचानक हृदय गति रूक जाने से स्वर्गवासी हुए थे।
    हिन्दी पत्रकारिता तब से अब तक तमाम करवटें बदल चुकी हैं, लेकिन लखनऊ में ही किसी पत्रकार को साठ लाख की आबादी में शायद ही छह लाख के बीच भी प्रतिष्ठा प्राप्त हो। अखबार हर गली-नुक्कड़ से छप रहे हैं, हजारों-लाखों की प्रसार संख्या के प्रमाण-पत्र थामे विज्ञापन के बाजार में हाथ पसारे खड़े हैं। इन अखबारों के पत्रकारों की क्या हैसियत हैं? कभी आशाराम बापू जैसे ढोंगी थप्पड़ मार देते हैं, तो कभी बाबा रामदेव दुत्कार देते हैं। कभी मामूली डाॅक्टर इंजीनियर लतिया देते हैं। सरकार का अदना सा मंत्री जो कल पहचानों के जंगल में गुम हो जाएगा वो भी हवालात में बंद करा देने की धमकी देकर भगा देता है। आरोप और उद्दंडता के हालात ऐसे कि प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष से लेकर चाट के ठेले पर खड़ा शहरी भी मीडिया पर नियंत्रण की आवश्यकता पर जोर दे रहा है। मीडिया लोगों की निजता में अतिक्रमण का दोषी माना जा रहा है, तभी ममता बनर्जी उस पर रिश्वतखोरी का आरोप लगाती हैं, तो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री मीडिया (खासकर टीवी चैनल्स के संवाददाताओं) से कहते हैं, ‘मैं आपसे क्यों बात करूं जब आप मेरे व मेरी नीतियों के बारे में नकारात्मक खबरें देतें हैं। यदि मैं जिलों में जाकर वहां के पत्रकारों से बात करूंगा तो मुझे व मेरे कामों को घर-घर जाना जाएगा।
    गो कि हिन्दी और हिन्दी पत्रकारिता की दुर्गति का यह दौर हमारा गढ़ा है। हम हैं उद्दंड और लोभी पत्रकारों की जमात। क्या कोई दुलारे लाल भार्गव फिर जन्म लेकर हमें दिशा देने आएगा? या हमें ही अपने हिन्दी पत्रकारिता के पुरखों के लिखे को पढ़कर योगीन्द्र पति त्रिपाठी, अखिलेश मिश्र को तलाशना होगा? कुछ तो करना ही होगा वरना आदमी की पैरोकारी का दम भरने वाली पत्रकारों की जमात ‘काॅरपोरेट गैलरी’ की दलाली करने भर के लिए जानी जाएगी। तो फिर हिन्दी और हिन्दी पत्रकारिता के ‘श्राद्धपर्व’ पर संकल्प लें कि हिन्दी के पुरखों को पढ़ेंगे और उन्हीं के रास्तों को गढ़ेंगे।