अल्ला-अल्ला खैर सल्ला। आपकी दुआ है कि बारात के तम्बू और पूरी रात बजने वाले कानफोड़ू बाजों के बावजूद मैं हूं और यह मेरा वजूद है कि सब कुछ सहने को मजबूर है। अभी पिछले हफ्ते शहर की भरी पूरी सड़क से गुज़र रहा था बीच सड़क पर तम्बू लगा हुआ था, कुर्सिया थीं, मेजों पर सफेदी की चमकार वाली चादरें थीं, मेरे ड्राइवर ने जीप रोक दी, आगे सड़क बंद है।
पी.डब्ल्यू.डी. भी पुल बगैरह बनाने के लिए सड़क बंद करती है, तो बगल से कामचलाऊ बाई पास बनाती है और चमकता हुआ बोर्ड लगवाती है। सड़क बंद है, कृपया दायें से जाएं मगर यहां कोई बाईपास नहीं। बोर्ड की जगह बिजली के बल्बों से चमकता बोर्ड सोनू वेड्स पिंकी। मैं उतर पड़ा, गनर को उतरता देखकर दो-तीन लोग आगे बढ़े मेरी ओर मुखातिब हुए ‘‘आइए-आइए, हम लोग अभी आपकी ही बात कर रहे थे कि सोनू के फूफा आएंगे जरूर।’’
मैंने कहा, ‘‘मगर मैं तो आगे जा रहा था।’’
‘‘कोई बात नहीं भैय्ये, राह भूल ही जाती है, आज कई ठो बाराती राह भूल गए, बाद में लौट आए।’’
हमारे गनर ने समझाने की कोशिश की ‘‘साहब हैं, हम लोग उन्नाव.....’’
‘‘अरे उन्नाव जाना हो या आमा, दीवान जी जब निजी मोटर है तौ बगैर खाए पिए...........’’
मैंने हाथ जोड़ लिए, मेरा मन गुस्से से अमरीशपुरी हो रहा था मगर मैं राखी की तरह रूआ सा होकर बोल, ‘‘मैं आपके यहां निमंत्रण में नहीं आया हूं। यह तम्बू राह में लगा है, इसीलिए रास्ता पता लगाने के लिए शैडो उतरा है।’’
शादी पिंकी की हो या सक्सेना बाबू के चिरंजीव पुक्कू की। तम्बू रास्ते को बंद करके ही लगाया जाता है। लड़की के घर का माल लड़के के बाप का होता ही है, मुझसे क्या लेना-देना? मगर सड़क रोकना कहां का ‘शगुन’ है।
रास्ता था नहीं, मैंने कार रूकवा दी थी। नचनिहा लड़के कार की ओर लपके, ‘अबे साले अगवानी में कार पेल रहे हो। ‘मैंने कार के भीतर से हाथ जोड़े, चूंकि बारात सम्भ्रात लोगों की थी, और क्योंकि बारात में अच्छे भले घरों के लड़के शामिल थे और चूंकि सब सुशिक्षित थे इसलिए उन लड़कों ने मेरे ड्राइवर को पीटना शुरू कर दिया। जब मैंने व मेरे साथ अंगरक्षक ने असलहे निकाले तब लड़के भागे और उपस्थित नसेड़ी सम्भ्रातों ने मुझे नसीहत दी ‘‘लड़के हंै, अब आपको ऐसा शोभा नहीं देता। तो मुझे नाराज होना चाहिए, मगर चूंकि वे लड़के हैं और सम्भ्रांत हैं और दारू पिए हैं इसलिए उनका संस्कृति-सिद्ध अधिकार है कि राह रोकें और मारपीट करें।
लखनऊ राजधानी के एक थानेे में थानाध्यक्ष हैं, मेरे एक परिचित। उनके भाई की बारात। वे भाई उन्नाव में
थानाध्यक्ष है। रास्ते में बारात चली। थोड़ी दूर तक कोई 15-20 कदम तक तो बारात गांधीवादी रही। शांत। अभद्रता रहित। आगे चलकर मनुवादी हो गई। राजधानी वाले थानाध्यक्ष नाचने लगे। कोई बात नहीं। भाई की शादी है। सिपाही भी नाचने लगे। होमगार्डों ने भी सुलगती बीड़ी के साथ नाचना शुरू कर दिया। राह ठप्प। नेशनल हाईवे जाम। दोनों और ट्रैफिक रूक गया। मैंने नेतागीरी की कोशिश की। यार दरोगा को समझाने का उपक्रम किया, जैसा की जरूरी है कि बारात में सुशिक्षित और हनक वालों को लाया जाता है और प्रतिष्ठा की खातिर दारू पीनी ही पड़ती है, सो वे भी पिए हुए थे। उन्होंने मुझसे कहा ‘‘गुरूजी नाचो’’।
गुरू घबड़ाया। दरोगा लोगों को थाने में मुर्गा बनाते, गाना सुनते और थाने आए हुए लोगों से अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम कराते सुन रखा था। नाचने का हुक्म सुना। मैं रिरिया, गया। ‘‘गुरू को नाचना होगा’’ उन्होंने दोनों हाथ पकड़े। इधर-उधर धुमाया। मैंने द्रोपदी होकर कृष्ण को पुकारा। गिरधारी बचाओं लाज। एक डिप्टी एस.पी. गा रहे थे, ‘‘समधिन तेरी घोड़ी चने के खेत में।’’ मैं, विवाह एक संस्कार है, पवित्र बंधन है और बारात गधा पच्चीसी है, रास्ता रोको बदतमीजी है या पूर्व जन्म का कोई पाप है? आदि सोच-सोचकर खुन्नस में था। मैं उधेड़बुन में हूं, क्योंकि ‘‘फुर्सत में’’ हूं। सोचता हूं एक बारात के स्वागत में रास्ता रोकना क्यों जरूरी है? दारू पीकर नाचना किस संस्कार का हिस्सा है? रास्ते में तम्बू लगाकर आवागमन ठप्प करने से क्या वर-कन्या का विवाह बंधन ज्यादा मजबूत रहता है? आदि प्रश्न मुझे काट रहे हैं। मगर मैं कर क्या सकता हूंँ?
अठारह साले पहले ‘प्रियंका’ के जून, 1994 अंक में छपा व्यंग्या फिर से पाठकों के लिए छापा जा रहा है।
पी.डब्ल्यू.डी. भी पुल बगैरह बनाने के लिए सड़क बंद करती है, तो बगल से कामचलाऊ बाई पास बनाती है और चमकता हुआ बोर्ड लगवाती है। सड़क बंद है, कृपया दायें से जाएं मगर यहां कोई बाईपास नहीं। बोर्ड की जगह बिजली के बल्बों से चमकता बोर्ड सोनू वेड्स पिंकी। मैं उतर पड़ा, गनर को उतरता देखकर दो-तीन लोग आगे बढ़े मेरी ओर मुखातिब हुए ‘‘आइए-आइए, हम लोग अभी आपकी ही बात कर रहे थे कि सोनू के फूफा आएंगे जरूर।’’
मैंने कहा, ‘‘मगर मैं तो आगे जा रहा था।’’
‘‘कोई बात नहीं भैय्ये, राह भूल ही जाती है, आज कई ठो बाराती राह भूल गए, बाद में लौट आए।’’
हमारे गनर ने समझाने की कोशिश की ‘‘साहब हैं, हम लोग उन्नाव.....’’
‘‘अरे उन्नाव जाना हो या आमा, दीवान जी जब निजी मोटर है तौ बगैर खाए पिए...........’’
मैंने हाथ जोड़ लिए, मेरा मन गुस्से से अमरीशपुरी हो रहा था मगर मैं राखी की तरह रूआ सा होकर बोल, ‘‘मैं आपके यहां निमंत्रण में नहीं आया हूं। यह तम्बू राह में लगा है, इसीलिए रास्ता पता लगाने के लिए शैडो उतरा है।’’
शादी पिंकी की हो या सक्सेना बाबू के चिरंजीव पुक्कू की। तम्बू रास्ते को बंद करके ही लगाया जाता है। लड़की के घर का माल लड़के के बाप का होता ही है, मुझसे क्या लेना-देना? मगर सड़क रोकना कहां का ‘शगुन’ है।
रास्ता था नहीं, मैंने कार रूकवा दी थी। नचनिहा लड़के कार की ओर लपके, ‘अबे साले अगवानी में कार पेल रहे हो। ‘मैंने कार के भीतर से हाथ जोड़े, चूंकि बारात सम्भ्रात लोगों की थी, और क्योंकि बारात में अच्छे भले घरों के लड़के शामिल थे और चूंकि सब सुशिक्षित थे इसलिए उन लड़कों ने मेरे ड्राइवर को पीटना शुरू कर दिया। जब मैंने व मेरे साथ अंगरक्षक ने असलहे निकाले तब लड़के भागे और उपस्थित नसेड़ी सम्भ्रातों ने मुझे नसीहत दी ‘‘लड़के हंै, अब आपको ऐसा शोभा नहीं देता। तो मुझे नाराज होना चाहिए, मगर चूंकि वे लड़के हैं और सम्भ्रांत हैं और दारू पिए हैं इसलिए उनका संस्कृति-सिद्ध अधिकार है कि राह रोकें और मारपीट करें।
लखनऊ राजधानी के एक थानेे में थानाध्यक्ष हैं, मेरे एक परिचित। उनके भाई की बारात। वे भाई उन्नाव में
थानाध्यक्ष है। रास्ते में बारात चली। थोड़ी दूर तक कोई 15-20 कदम तक तो बारात गांधीवादी रही। शांत। अभद्रता रहित। आगे चलकर मनुवादी हो गई। राजधानी वाले थानाध्यक्ष नाचने लगे। कोई बात नहीं। भाई की शादी है। सिपाही भी नाचने लगे। होमगार्डों ने भी सुलगती बीड़ी के साथ नाचना शुरू कर दिया। राह ठप्प। नेशनल हाईवे जाम। दोनों और ट्रैफिक रूक गया। मैंने नेतागीरी की कोशिश की। यार दरोगा को समझाने का उपक्रम किया, जैसा की जरूरी है कि बारात में सुशिक्षित और हनक वालों को लाया जाता है और प्रतिष्ठा की खातिर दारू पीनी ही पड़ती है, सो वे भी पिए हुए थे। उन्होंने मुझसे कहा ‘‘गुरूजी नाचो’’।
गुरू घबड़ाया। दरोगा लोगों को थाने में मुर्गा बनाते, गाना सुनते और थाने आए हुए लोगों से अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम कराते सुन रखा था। नाचने का हुक्म सुना। मैं रिरिया, गया। ‘‘गुरू को नाचना होगा’’ उन्होंने दोनों हाथ पकड़े। इधर-उधर धुमाया। मैंने द्रोपदी होकर कृष्ण को पुकारा। गिरधारी बचाओं लाज। एक डिप्टी एस.पी. गा रहे थे, ‘‘समधिन तेरी घोड़ी चने के खेत में।’’ मैं, विवाह एक संस्कार है, पवित्र बंधन है और बारात गधा पच्चीसी है, रास्ता रोको बदतमीजी है या पूर्व जन्म का कोई पाप है? आदि सोच-सोचकर खुन्नस में था। मैं उधेड़बुन में हूं, क्योंकि ‘‘फुर्सत में’’ हूं। सोचता हूं एक बारात के स्वागत में रास्ता रोकना क्यों जरूरी है? दारू पीकर नाचना किस संस्कार का हिस्सा है? रास्ते में तम्बू लगाकर आवागमन ठप्प करने से क्या वर-कन्या का विवाह बंधन ज्यादा मजबूत रहता है? आदि प्रश्न मुझे काट रहे हैं। मगर मैं कर क्या सकता हूंँ?
अठारह साले पहले ‘प्रियंका’ के जून, 1994 अंक में छपा व्यंग्या फिर से पाठकों के लिए छापा जा रहा है।