Thursday, September 19, 2013

इतिहास के घूरे पर हिन्दी पुत्र पं. दुलारे लाल भार्गव


अपनी मां को अम्मा और अपने पिता को बप्पा कहने में हम हिन्दी भाषियों को बड़ी शर्म आती हैं। फिर हिन्दी पत्रकारिता के पुरोधाओं का स्मरण या हिन्दी साहित्य के युग निर्माताओं को प्रणाम करने की सुध हमें कहां रहेगी? आज जिस हिन्दी की समृद्धि का बखान करते हम नहीं थकते या हिन्दी पत्रकार के कन्धे से झोला उतारकर ‘अमिताभ’ बना देने के ‘होर्डिंग’ लगा रहे हैं, उसी हिन्दी को लखनऊ में ‘गणपति बप्पा’ की तरह स्थापित करने वाले हिन्दी पुत्र पं0 दुलारेलाल भागर्व को इतिहास के घूरे में डाल दिया है।
    6 सितम्बर, 1975 को उनकी देह ने लखनऊ के मेडिकल कालेज मंे विश्राम लिया था। तबसे लेकर आज तक हिन्दी जगत में उनकों लेकर कोई सुनगुन नहीं हुई। वे प्रथम ‘देव पुरस्कार’ विजेता थे जो उनकी कृति ‘दुलारे दोहावली’ पर उन्हें ओरछा नरेश ने दिया था। ‘माधुरी’, ‘सुद्दा’ जैसी स्तरीय पत्रिकाओं के सम्पादक थे। हिन्दी के प्रथम प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता तथा कवि सम्मेलनों के माध्यम से हिन्दी के प्रचारक थे। वे अपने जीवन के अंतिम समय तक हिन्दी की सेवा में लगे रहें। 8 जनवरी 1972 को भारत की प्रधानमंत्री रहीं श्रीमती इंदिरा गांधी के सम्मान में उन्होंने लखनऊ के रवीन्द्रालय सभागार में एक कवि सम्मेलन व मुशायरे का आयोजन किया था। इस कवि सम्मेलन मंे स्व. इंदिरा गांधी के साथ पं. कमलापति त्रिपाठी, डाॅ0 राजेन्द्री कुमारी बाजपेई के अलावा मंच पर भगवती चरण वर्मा, अमृत लाल नागर, सिरस जी, शिव सिंह ‘सरोज’ जैसे हिन्दी पुत्रों की एक बड़ी जमात मौजूद थी।
    उन्होंने गंगा-पुस्तकमाला के माध्यम से सैकड़ों लेखक, कथाकार, कवि हिन्दी जगत को दिये। उनमें निराला, प्रेमचन्द, आचार्य चतुरसेन, श्री गुलाब रत्न, ब्रदीनाथ भट्ट, रामकुमार वर्मा, क्षेमचन्द्र सुमन, श्रीनाथ सिंह जैसे नामों की भरमार है। लखनऊ को भगवती चरण वर्मा व अमृतलाल नागर जैसे उपन्यासकार दिये। मुझे कलम पकड़ना उन्होंने ही सिखाया। ‘नवजीवन’ दैनिक समाचार-पत्र में उनके प्रयासों से ही मुझे प्रशिक्षण का अवसर मिला। वे अपनी गंगा-पुस्तकमाला और कवि कुटरी में आये दिन गोष्ठियों का आयोजन किया करते थे। इन गोष्ठियों में हिन्दी जगत के मूर्घन्यों के साथ तबकी राजनैतिक हस्तियां भी होती थी। हिन्दी पत्रकारिता के उस विश्वविद्यालय में मेरा प्रशिक्षण तब चाय-समोसा लाने से शुरू हुआ था। उसी प्रांगण में मैंने प्रतिष्ठा और सम्मान देने पाने का पहला पाठ पढ़ा। वहीं मैंने जाना ब्रजभाषा काब्य की पुनप्र्रतिष्ठापना और ‘तुलसी संवत्’ का प्रचलन सबसे पहले ‘माधुरी’ पत्रिका के माध्यम से उन्होंने ही किया। उनकी प्रयोगवादी लाइनें हैं।
सत-इसटिक-जग फील्ड लै जीवन-हाकी खेलि
वा अनंत के गोल में आतम बालहिं मेल।
उर्दू साहित्य के गढ़ लखनऊ में हिन्दी साहित्य को प्रवष्टि कराने की ही नहीं, उसे अपनी गरिमा के अनुकूल स्थान दिलाने में दुलारे लाला भार्गव की अविस्मरणीय भूमिका रही हैं। इसके साथ ही उन्होंने उर्दू-हिन्दी का पूर्ण समन्वय भी रखा। यही कारण है कि ‘माधुरी’ में हिन्दी के साथ ही उर्दू साहित्य पर भी अनेक लेख छपते थे। लखनऊ में भार्गव जी के इर्द-गिर्द युवा साहित्यकारों को जमघट रहता और बाहर से पधारने वाले साहित्यकार तथा साहित्य प्रेमियों का निवास स्थान दुलारे लाला जी का कवि कुटीर ही था।
    आज कदाचित् यह आश्चर्यजनक लगे कि आकाशवाणी जब लखनऊ में संस्थापित हुई, तो उसमें हिन्दी के साहित्यिक कार्यक्रमों की श्रृंखला भार्गव जी ने प्रारंभ की। लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना के लिए दुलारे लाल जी ने अथक सक्रिय एवं सफल प्रयास किया। व्यक्तिगत स्तर पर ‘माधुरी’ में तर्कपूर्ण लेख प्रकाशित करके उन्होंने इस जनोपयोगी कार्य को पूर्ण किया। ये सारे लेख एक स्थान पर एकत्रित किए जाएं। तो लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग का इतिहास स्वतः स्पष्ट हो जायेंगा किस प्रकार भार्गव जी के सुतर्काें के समक्ष विश्वविद्यालय प्रशासन को झुकना पड़ा। फिलहाल एक समाचार ‘माधुरी’ के वर्ष 3 खंड 1 संख्या 4 से प्रस्तुत किया जा रहा है:-
    ‘‘जबसे यह विश्वविद्यालय खुला है तभी से बी.ए. परीक्षा के लिए हिन्दी, उर्दू, बंग्ला या मराठी में एक परीक्षा पास कर लेना प्रत्येक विद्यार्थी के लिए अनिवार्य हैं। परन्तु भारत के अन्य प्राचीन विश्वविद्यालयों के समान बी.ए. की परीक्षा में इतिहास, अर्थशास्त्र, अंग्रेजी, गणित, संस्कृति इत्यादि के समान हिन्दी या उर्दू को एक स्वतंत्र विषय के रूप में अभी तक नहीं रखा गया। कलकत्ता, बनारस और प्रयाग के विश्वविद्यालयों में तो हिन्दी में एम.ए. की डिग्री तक प्राप्त की जा सकती है। लखनऊ विश्वविद्यालय की यह कमी यहां के हिन्दी प्रेमी सज्जनों को पहले ही से खटकती थी। इस वर्ष मार्च में इस विश्वविद्यालय के कोर्ट के अद्दिवेशन में पं0 ब्रजनाथ जी शर्मा ने यह प्रस्ताव उपस्थित किया कि बी.ए. में हिन्दी और उर्दू भी स्वतत्र विषय के रूप में हों। इसके समर्थन में उन्होंने एक सारगर्भित, भाषण दिया। कुछ सज्जनों के भाषणों के बाद एक पादरी साहब ने इस प्रस्ताव का बड़े जोरदार शब्दों में समर्थन किया। उसका इतना असर हुआ कि शर्मा जी का प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ। यह प्रस्ताव एक सिफारिश के तौर पर था। उसका यहां के आर्ट्स फैक्ल्टी और एकेडेमिक कौंसिल में पास होना आवश्यक था। इस वर्ष वह इन दोनों सभाओं में भी पास हो गया और आगामी वर्ष से बी0ए0 की परीक्षा के लिए हिन्दी और उर्दू भी स्वतंत्र विषय होंगे। इस सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय बात है, यह प्रस्ताव पास कराने में सुदूर मद्रास प्रांत के रहने वाले प्रोफेसर शेषाद्री और डाॅ0 बी.एस. राम ने बड़ा परिश्रम किया। इनका हिन्दी प्रेम सराहने योग्य है। हमें लज्जा के साथ यह स्वीकार करना पड़ता है कि इन्हीं सभाओं के कुछ अन्य भारतीय सदस्य ऐसे भी थे, जिन्होंने इस प्रस्ताव के समर्थन में भाषण देना तो दूर रहा, उसके पक्ष में अपना मत तक नहीं दिया। क्या हम आशा कर सकते हैं कि शीघ्र ही लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी एम.ए. की परीक्षा के लिए भी एक स्वतंत्र विषय के रूप में रखी जायेगी।
    इस संदर्भ में यह भी लिखना समीचीन और उपयुक्त होगा कि दुलारे लाल जी के पश्चात्वर्ती परिश्रम से तत्कालीन संस्कृत विभागाध्यक्ष (बाद में उपकुलपति) डाॅ0 सुब्रहमण्यम ने हिन्दी विषय को स्वतंत्र रूपेण संस्कृत विभाग का ही एक अंग बनाना स्वीकार किया। इस प्रकार हिन्दी का लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश हुआ और भार्गव जी के अनन्य मित्र श्री ब्रदीनाथ भट्ट सर्वप्रथम हिन्दी के प्रथम प्राध्यापक नियुक्त हुए।’’
    अफसोस हिन्दी पत्रकारिता व हिन्दी साहित्य के पुरोधा को पाखण्डी पितृपक्ष (हिन्दी पखवारा/हिन्दी दिवस) के हिमायती भी भूले गये। आज महज बाजार के मूल्यों पर सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए अपने ही मित्रों साथियों का तर्पण करने का चलन है। तभी तो हमबिस्तरी और अनैतिक सम्बन्धों को लिखकर चटखारेदार चाट बेचने से भी मन नहीं भरता तो ‘छिनाल’ कारतूस दाग कर नामवर हो जाते हैं। फिर भला आद्दुनिक हिन्दी के युग निर्माता के चित्र के नीचे अगरबत्ती जलाकर दो फूल रखने की फुर्सत किसे हैं।
हिन्दी-द्रोही उचित ही तुव अंग्रेजी नेह;
दई निरदई पै दई नाहक हिन्दी देह।
आदरणीय गुरूवर की इन्हीं लाइनों का स्मरण करते हुए उन्हें शत्-शत् नमन। चरणवंदना!

दूध, जल, फल, अन्न की बर्बादी!

लखनऊ। आस्था और आबादी के गड़बड़ाते संतुलन के दौर में दूध, जल, फल और अनाज की बर्बादी की बाढ़ से देश के 40 फीसदी लोग बेजार हैं। वह भी तब, जब महंगाई लगातार बढ़ रही है। रूपया लुढ़कता जा रहा है। गरीबों का पेट भरने के लिए खाद्य सुरक्षा कानून तक लाना पड़ा है। हाल ही में दूध के दामों में बीस-पच्चीस फीसदी व उससे बने उत्पादों की कीमतों में तीस-चालीस फीसदी का इजाफा हुआ है। फल आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रहा है। एक केला चार रूपये, एक सेब 25 रूपए का बिक रहा हैं। सब्जियों का राजा आलू आम भारतीय रसोई से गायब होने लगा है। ऐसे भीषण संकट के दौर में बीते सावन में महादेव को प्रसन्न करने की गरज से लगभग सात लाख लीटर दूध अकेले लखनऊवासियों ने बेकार बहा दिया। इसके साथ ही करोड़ों लीटर पानी, टनों अनाज, फल-फूल कूड़े में फेंके गये। पूरे देश में इस आस्था की भेंट कितना दूध, जल, फल और अनाज बर्बाद हुआ होगा? और भादों, कुआर, कात्रिक (सितंबर, अक्टूबर, नवंबर) के पर्वाें पर कितनी बर्बादी होगी? श्रीकृष्ण जन्मोत्सव, श्रीगणेशोत्सव, पितृपक्ष, नवरात्र, दीपोत्सव व गंगास्नान पर्वाें पर इन सभी खाद्य वस्तुओं की भीषण बर्बादी होगी। आपका अखबार ‘प्रियंका’ पहले भी (देखें ‘प्रियंका’ 1 मार्च, 2012 अंक में) लिख चुका है कि हम भारतवासी 883.3 करोड़ किलो अनाज हर साल जूठन में नष्ट कर देते हैं। इसकी तस्दीक संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के तहत खाद्यान्न बचाओं मुहिम ने भी इसी साल की शुरूआत में अपने आंकड़े जारी करके की है। यूएनइपी के अनुसार एशियाई देशों में 11 किलों खाद्य प्रति व्यक्ति बर्बाद होता है। पिछले महीने केंद्रीय मंत्री शरद पवार ने राज्य सभा में बताया था कि देश में हर साल 44 हजार करोड़ का खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है। वह भी तब जब भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2012 में 79 देशों में 65वें स्थान पर है और 47 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। गरीबों की संख्या 40 करोड़ के आस-पास है। उप्र की राजधानी लखनऊ समेत कई शहरों में इसी साल अप्रैल-मई में 60-70 रूपए लीटर दूध बिका है। नागपंचमी पर कई सार्वजनिक संगठनों ने अपील की थी कि नागों को दूध न पिलाएं। दूध पीने से नागों की मृत्यु तक हो जाती है। यह वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के अनुसार अपराध है लेकिन आस्था के नाम पर दूध की बर्बादी रूक नहीं रही। देश में 11.6 करोड़ दूध का उत्पादन होने के बाद भी आधी से अधिक आबादी दूध से वंचित रह जाती है।
    आस्था का जुनून यहीं नहीं थमता जेठ के मंगलवारों (जून के महीने) मंे लखनऊ की हर सड़क पर दो-चार किलोमीटर की दूरी पर भंडारे के पंडाल दिख जाते हैं। नगर निगम, लखनऊ के एक अनुमान के अनुसार केवल बड़े मंगल पर 3500 भंडारे आयोजित किये गये थे। जिसमें लगभग 35 लाख लोगों ने भोजन किया। इन भंडारों में जल संस्थान का एक करोड़ 44 लाख लीटर पानी मुफ्त बांटा गया। इसमें कितना पानी बहाया गया, कितना खाद्यान्न कूड़े में फंेका गया किसी के पास आंकड़े हैं? इसी तरह सावन भर जगह-जगह भंडारे आयोजित होते हैं। देश भर में कभी कुम्भ, कभी अमरनाथ, तो कभी महादेव दर्शन की यात्राओं के लिए भंडारे आयोजित होते हैं। इन भण्डारों से लोग आवश्यकता से अधिक खाद्यान्न लेकर स्टोर कर लेते हैं, फिर खा न पाने से इधर-उधर फेंक देते हैं। इससे खाद्यान्न की बर्बादी के साथ शहर भी गंदगी से शर्मसार होता है। गणेशोत्व की धूम है। 11 दिन चलने वाले इस महोत्सव में अकेले मुंबई में 30-35 लाख मैट्रिक टन फूल-माला, 40 लाख किलो गुलाल, 5-6 सौ टन मोदक व दोना-पत्तल, कागज बेहिसाब बर्बाद होगा। बाकी शहरों का जिक्र ही बेमानी है। यही हाल दुर्गा पूजा में होगा।
    इससे भी अधिक खतरनाक है आस्था का जूनून, जो लोगों की जान तक ले लेता है। कई बाद भगदड़ में लोग मारे जाते हैं, तो कई बार भीड़ के उन्माद में। अभी हाल ही में सहरसा-पटना के घमरा घाट रेलवे स्टेशन पर रेल की पटरियां पार कर कत्यायनी मंदिर में भगवान शिव को जल चढ़ाने जाते 37 कांवडि़ये राज्यरानी एक्सप्रेस की चपेट मंे आकार अपनी जान गांव बैठे। इसकी अति अपराद्द को भी जन्म दे रही है। हर साल कांवडि़ये देश के तमाम राजमार्गाें पर जाम लगाते हैं, लूट-पाट करते हैं, आपस में झगड़ते हैं। इसी सावन के आखिरी सोमवार को विद्दानसभा मार्ग पर ‘प्रियंका’ अखबार के दफ्तर के सामने बेहद रफ्तार से भागने वाले ट्रैफिक में घुसकर लोगों को जबरिया रोककर उनसे दस-बीस, सौ-पचास की वसूली करते कांवडि़यों को ‘प्रियंका’ संवाददाता ने स्वयं देखा। ये कांवडि़ये युवा थे। यह कौन सी आस्था हैं?

तो अब सरकारी बाबा!


लखनऊ। उप्र के युवा मुख्यमंत्री के इर्द-गिर्द चाचा-चाची की लम्बी फौज के साथ उन्हंें एक लोकप्रसिद्ध ‘बाबा’ का भी आशीर्वाद मिल रहा है। ये नामवर बाबा पूरी उप्र सरकार के मुफ्त के सलाहकार होने के साथ प्रदेश के प्रमुख बुजुर्ग या सरकारी बाबा होने का गौरव पा रहे हैं। इन्हें मुख्यमंत्री के गाल प्यार से थपथपाते देखा जा सकता है, तो छः फुटे मंत्री की रौबदार मूंछों को सहलाते भी। मूंछें हो तो राजा साहब जैसी वाकये ने उन्हें अभिताभ भले ही नहीं बनाया हो लेकिन बड़े बाबा (बिग बी) जरूर बना दिया हैं। वे नौकरशाहों पर दबाव बनाने से लेकर किसी को भी सिफारिशी चिट्ठी लिख देते हैं। सरकारी समारोह में मुख्य/विशिष्ट अतिथि के तौर पर देखें जाते हैं।
    कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, उप्र/उत्तराखण्ड के पूर्व मुुख्यमंत्री, आंध्रप्रदेश के पूर्व राज्यपाल व पूर्व केन्द्रीय मंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी अश्लील सीड़ी कांड और अवैद्द संतान प्रकरण में जहां खासी बदनामी झेल कर कांग्रेस के लिए अछूत हो गये हैं, वहीं उप्र की सपा सरकार के खासे चहेते हो रहे हैं। दो महीना बारह दिन कम एक साल से वे सरकार के बाबा की हैसियत से लखनऊ से छपने वाले अखबारों की सुर्खियों में व टीवी के ब्रेकिंग न्यूज पर छाये हैं। कभी वे अस्पतालों का मुआयना करते, तो कभी बिजली दफ्तर में खड़े, तो कभी चिडि़याघर की बाल रेल में घूमते दिखाई देते हैं। यही दिखना समाचार बन जाता है। उन्हें देहरादून, दिल्ली और लखनऊ के कांग्रेसियों से जितना प्यार नहीं मिला उससे कहीं अधिक सपा व उसकी सरकार से मिल रहा है। वे इस स्नेह से बेहद प्रसन्न दिखते भी हैं। पिछले दिनों विधानसभा की लाइब्रेरी में मुख्यमंत्री के साथ कार्यवाइयों/किताबांे के साथ उसके ताजा हालात पर चर्चा करते दिखे। उनकी इसी सक्रियता और सरकार के आदर के चलते उनके माल एवेन्यू के बंगले पर खासी भीड़ इकट्ठी होती है। वे इन लोगों की तकलीफों के लिए सरकार को चिट्ठी लिखते हैं, सिफारिश करते हैं।
    अनुभव और वरिष्ठता के आदर की सीख कांग्रेस शायद न ले सके लेकिन सपा पूरी गम्भीरता से राजनीति के चाणक्य का आशीष बटोरने में लगी है। यूं भी सपा के पास कोई ख्यातिनाम ब्राह्मण चेहरा नहीं है। वह उन्हें सम्मान देकर अपनी यह कमी पूरी करने के साथ लोकसभा-2014 के चुनावों के लिए ब्राह्मणांे के निकट होने की कोशिश में भी लगी है।
    बहरहाल उनकी तमाम बदनामियों और बढ़ती उम्र के बावजूद उनका लम्बा राजनैतिक अनुभव प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री व सरकार को जहां रास आ रहा है, वहीं स्वयं एनडी बाबा को भी सरकारी दुलार प्रसन्नता व स्वस्थता दे रहा है। इसीलिए वे लखनऊ में डेरा जमाए हैं।

प्याज... न...न... लिपिस्टिक का जलवा!


लखनऊ। महंगाई, मंदी और मार्केट की अस्थिरता ने मध्यमवर्ग की हालत खस्ता कर रखी है, वहीं पूर्वांचल के निर्यातकों और विदेशों में कार्यरत कामगरों की बांछें खिली हुईं हैं। एक और हैरतअंगेज खबर है कि चैपट अर्थव्यवस्था के दौर मंे औरतों
ने पिछले तीन महीनों में अपने होठों का सौंदर्य बढ़ाने वाली लिपिस्टिक की बिक्री आसमान पर चढ़ा दी है।
    गौरतलब है शेयर बाजार की उठा-पटक, सट्टे की गरमी ने सोने की चमक ही नहीं फीकी की है वरन आम आदमी के खाने की थाली से लेकर भगवान के मंदिरों में चढ़ावे तक में कमी की है। लखनऊ के हनुमान सेतु से लगाकर आंध्रा के तिरूपति बालाजी मंदिर तक में दर्शनार्थियों की भीड़ जहां आधी रह गई हैं, वहीं चढ़ावा भी 35-40 फीसदी तक घट गया है। मध्यमवर्गीय परिवारों ने अपने भोजन से फल और सब्जियों के साथ मांसाहार में खासी कटौती की है। रेस्टोरेन्ट और ढाबों में खाने वालों में इधर खासी कमी आई है। पर्यटन के क्षेत्र में भी भारी गिरावट दर्ज की गई है। हैरतअंगेज है कि रूपए के लगातार गिरते जा रहे दौर में सौंदर्य प्रसाधन के कारोबार में कई वस्तुओं की बिक्री में अच्छी बढ़त हुई है। देश के बड़े अखबार ‘इकनाॅमिक टाइम्स’ के अनुसार देश में कलर कास्मेटिक्स का बाजार 16 सौ करोड़ रूपये का हैं जो पिछले दो सालों में 8 फीसदी सीएजीआर से बढ़ रहा है। इस बिक्री  में लिपिस्टिक का हिस्सा 42 फीसदी है जो पिछले तीन-चार महीनों में 25-30 फीसदी बढ़ा है। चेहरे पर लगाने वाले प्रसाधनों की बिक्री में 13 फीसदी व आंखों की सुंदरता बढ़ाने वाले प्रसाधन में 10 फीसदी की दर से बढ़त देखने को मिली है। 2013 के शुरूआती छः महीनों में रेवलाॅन लिपिस्टिक की बिक्री 30 फीसदी से अधिक बढ़ी है। अखबार के मुताबिक फिल्म अभिनेत्री और अमिताभ बच्चन की बहू ऐश्वर्या राय लोरियाल लिपिस्टिक के विज्ञापन में टीवी के पर्दे पर दिन में बीस बार दिखाई पड़ती हैं। काॅन फिल्म समारोह में भी वे इसी लिपिस्टक का एक खास शेड लगाये दिखीं थीं। मध्यवर्गीय परिवारों की औरतें ऐश्वर्या की नकल करने में दीवानी है, यह बात लोरियाल लिपिस्टिक की बढ़ी हुई बिक्री ने साबित कर दी है। लखनऊ के कई बड़े स्टोरों में आज भी लोरियाल आसानी से नहीं मिल पाती। औरतें महंगा प्याज व सोना खरीदने की जगह लिपिस्टिक खरीदने में अपने को अधिक सहज पाती है।
    बतातें चलें कि पूर्वांचल के खासे श्रमिक खाड़ी देशों में काम कर रहे हैं।, उनके द्वारा अपने घरों को भेजी जा रही तनख्वाह में इधर अच्छी बढ़त हो रही हैं। रूपए की गिरावट से कालीन, बनारसी साड़ी, सिल्क, रेशम फैब्रिक्स, हैंडीक्राफ्टस के दो - सवा दो हाजर करोड़ के निर्यात कारोबार से जुड़े निर्यातको में भी खुशी की लहर दौड़ रही है। विदेशों में कार्यरत भारतीयों ने पिछले साल देश में 70 अरब डाॅलर और 2011 में 55 अरब डाॅलर से अधिक की रकम भेजी थी।