सपनों को घूम-घूमकर बेचने को बेचैन सियासी दल लगातार बेरोजगारों को ठगते चले आ रहे हैं। सरकारें भी उन्हें ठगने में पीछे नहीं है? हर रविवार लाखों युवा लखनऊ के स्कूलों में प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लेने के लिए दूर-दराज से आता है।
ये बेरोजगार परीक्षा के लिए सरकार की तय फीस अदा करते हैं। रेल, बस या अन्य साधनों से धक्के खाते हुए लखनऊ तक आने और वापस जाने का किराया अदा करते हैं। लखनऊ की फुटपाथों पर सोने के लिए नकद पैसे देकर जगह खरीदने को मजबूर होते हैं। खाने के लिए मजबूरन कच्चे-पक्के भोजन पर गुजारा करते हैं। यही नहीं इन युवाओं खासकर युवतियों को शहर के रिक्शा-आॅटो वाले भी ठगने में पीछे नहीं रहते। गो कि डेढ़-दो लाख की आमद शौचालय से लेकर सड़कें तक अस्त-व्यस्त कर देती है, लेकिन सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता?
सरकारें रोजगार मांगने वालों को लाठियों का जोर दिखाने के साथ लुभावने वायदे करती रहतीं हैं। अभी तक शिक्षामित्रों के मामले पर कोई फैसला नहीं हो पाया है। उसके बाद भी कभी केन्द्र सरकार घोषणा करती है। 18 लाख नौकरियों, की तो कभी प्रदेश सरकार एलान करती है, ‘यूपी में नौकरियों की भरमार’, मगर होता जाता कुछ नहीं। 368 चपरासी के पदों के लिए सवा तेईस लाख बेरोजगारों के लाइन लगा लेने से देशभर के मीडिया में भूकंप की तरह समाचार छपे थे। आंकड़ों के साक्ष्य दिये गये। अगले-पिछले बयान दोहराये गये। घोटाले और ठगी के तमाम मामलों को उछाला गया। आरक्षण की तुरही भी पूरे जोर-शोर से बजायी गयी। सलाहें भी दी गयीं। उद्यमिता क्रांति का बिगुल भी फूंकने की जुबानी कोशिशें हुईं, लेकिन हुआ क्या? 368 चपरासियों के चुनाव के लिए एक समिति गठित कर दी गई जो सात-आठ महीनों में चयन योजना बनाएगी। गोया अगले विधानसभा चुनाव के दौर-दौरे की आपाद्दापी में ये बेरोजगार राह ताकते रहे जायेंगे? यहां यह बताना जरूरी होगा कि बेरोजगारों के अभिभावकों की जेब कटती रहती है और उनकी उम्मीदों पर पानी फिरता जाता है।
लखनऊ में हर रविवार परीक्षा देने आने वाले बेरोजगारों से समुचित शौचालयों के अभाव से गंदगी के साथ तमाम कचरा बढ़ जाता है जो सोमवार को सफाईकर्मियों के लिए नई मुसीबत बन जाता है। पेशाब और गू की सफाई के साथ शहर को भीषण जाम की तकलीफ भी झेलनी पड़ती है। जबकि 30 लाख से अधिक दो-तीन-चार पहिया वाहनों के अलावा घोड़ा गाडि़यां, साईकिल ट्रालियां पहले से ही राजधानी की सड़कों पर दौड़ रहे हैं। पैदल चलने वालों की संख्या अलग है। ऐसे हालात में रविवार बेहाल होकर हांफता नजर आता है। मजा तो तब आता है जब न ट्रैफिक सिपाही और न ही थानों से तैनात किये जाने वाले सिपाही दिखाई देते हैं।
बहरहाल शहर के वाशिन्दे हलकान हैं तो बेरोजगारों की फौज बदहाल है। इस सबका जिम्मेदार कौन है? आरोप लगाने से भला नहीं होगा लेकिन जिम्मेदारों को संजीदगी से इन हालातों पर सोंचना होगा और कारगार कदम उठाने ही होगे।
ये बेरोजगार परीक्षा के लिए सरकार की तय फीस अदा करते हैं। रेल, बस या अन्य साधनों से धक्के खाते हुए लखनऊ तक आने और वापस जाने का किराया अदा करते हैं। लखनऊ की फुटपाथों पर सोने के लिए नकद पैसे देकर जगह खरीदने को मजबूर होते हैं। खाने के लिए मजबूरन कच्चे-पक्के भोजन पर गुजारा करते हैं। यही नहीं इन युवाओं खासकर युवतियों को शहर के रिक्शा-आॅटो वाले भी ठगने में पीछे नहीं रहते। गो कि डेढ़-दो लाख की आमद शौचालय से लेकर सड़कें तक अस्त-व्यस्त कर देती है, लेकिन सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता?
सरकारें रोजगार मांगने वालों को लाठियों का जोर दिखाने के साथ लुभावने वायदे करती रहतीं हैं। अभी तक शिक्षामित्रों के मामले पर कोई फैसला नहीं हो पाया है। उसके बाद भी कभी केन्द्र सरकार घोषणा करती है। 18 लाख नौकरियों, की तो कभी प्रदेश सरकार एलान करती है, ‘यूपी में नौकरियों की भरमार’, मगर होता जाता कुछ नहीं। 368 चपरासी के पदों के लिए सवा तेईस लाख बेरोजगारों के लाइन लगा लेने से देशभर के मीडिया में भूकंप की तरह समाचार छपे थे। आंकड़ों के साक्ष्य दिये गये। अगले-पिछले बयान दोहराये गये। घोटाले और ठगी के तमाम मामलों को उछाला गया। आरक्षण की तुरही भी पूरे जोर-शोर से बजायी गयी। सलाहें भी दी गयीं। उद्यमिता क्रांति का बिगुल भी फूंकने की जुबानी कोशिशें हुईं, लेकिन हुआ क्या? 368 चपरासियों के चुनाव के लिए एक समिति गठित कर दी गई जो सात-आठ महीनों में चयन योजना बनाएगी। गोया अगले विधानसभा चुनाव के दौर-दौरे की आपाद्दापी में ये बेरोजगार राह ताकते रहे जायेंगे? यहां यह बताना जरूरी होगा कि बेरोजगारों के अभिभावकों की जेब कटती रहती है और उनकी उम्मीदों पर पानी फिरता जाता है।
लखनऊ में हर रविवार परीक्षा देने आने वाले बेरोजगारों से समुचित शौचालयों के अभाव से गंदगी के साथ तमाम कचरा बढ़ जाता है जो सोमवार को सफाईकर्मियों के लिए नई मुसीबत बन जाता है। पेशाब और गू की सफाई के साथ शहर को भीषण जाम की तकलीफ भी झेलनी पड़ती है। जबकि 30 लाख से अधिक दो-तीन-चार पहिया वाहनों के अलावा घोड़ा गाडि़यां, साईकिल ट्रालियां पहले से ही राजधानी की सड़कों पर दौड़ रहे हैं। पैदल चलने वालों की संख्या अलग है। ऐसे हालात में रविवार बेहाल होकर हांफता नजर आता है। मजा तो तब आता है जब न ट्रैफिक सिपाही और न ही थानों से तैनात किये जाने वाले सिपाही दिखाई देते हैं।
बहरहाल शहर के वाशिन्दे हलकान हैं तो बेरोजगारों की फौज बदहाल है। इस सबका जिम्मेदार कौन है? आरोप लगाने से भला नहीं होगा लेकिन जिम्मेदारों को संजीदगी से इन हालातों पर सोंचना होगा और कारगार कदम उठाने ही होगे।
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