लखनऊ। इंसाफ बेहद महंगा और अराजक हो गया है? यह महज सवाल भर नहीं है; बल्कि गम्भीरता से इस पर बहस होनी चाहिए। हर कोई अपने लिए विशेष सुविधा चाहता है। अपनी बात मनवाना चाहता है। अपने को सर्वोपरि या वीआईपी जनवाना चाहता है। उसके लिए हिंसा का सहारा लेना कहां तक जायज है? फिर सवाल दर सवाल? इसलिए, इंसाफ के देवता जब मामूली गुंडों की तरह नंगी सड़क पर हथियार लेकर आम लोगों को मारे-पीटें, उनको देखकर बच्चे, महिलाएं रोने-चीखने लगें, बीमार लोग उनकी दहशत में एम्बुलेंस के भीतर अपनी जान गंवा दें या अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते मौत के मुंह में समा जायें और पुलिस महज तमाशबीन रहे तो भी सवाल करन का हक किसी को नहीं है?
पिछले महीने नाका में वकील श्रवण कुमार की हत्या को लेकर वकील समुदाय ने जो तांडव किया उसमंे दो जिन्दा इंसानों की मौत हो गई, पचासों लोग घायल हुए, पत्रकारों की पिटाई के साथ उनके उपकरण तोड़ दिये गये। पुलिसवाले घायल हुए। सैकड़ों वाहन तोड़े व फूंके गये। बच्चे, बुजुर्ग व युवतियों के रोने-चीखने पर खदेड़ दिया गया। वकील साहबान सरेआम डंडा, लोहे के सरिया और पिस्तौल लहराते तोड़-फोड़ करते टीवी पर दिखाये गये, अखबारों में छापे गये। सारा माहौल सहम गया। लखनऊ कराह उठा। कानून गूंगा हो गया, इतना तांडव फिर फिर भी सवाल पूछा गया, किसके आदेश से पुलिस न्यायाय परिसर में घुसी, आंसू गैस के गोले छोड़े और लाठी चार्ज कियाा? पुलिस किसलिये हैं? पुलिस की चेतावनी कोई मानेगा नहीं और पढ़े-लिखे वकील साहबान खुली सड़क पर सरकरी गैर सरकारी संपत्ति की फूंकते रहेंगे, बच्चों, महिलाओं, बुजुर्गाें और नागरिकों की हत्या पर अमादा रहेंगे? फिर भी कोई आवाज नहीं उठे, कोई सुरक्षात्मक लाठी नहीं उठे? वकीलों द्वारा की गई हिंसा महज अपराध है? उससे भी बड़ी बात, यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले वकीलों ने व्यापारी नेता बनवारी लाल कंछल को पीटते-पीटते सड़क पर उन्हें नंगा कर दिया? पिछले बरस अपने साथी वकील निखलेन्द्र की हत्या को लेकर वकील समुदाय ने हिंसक तांडव में लखनऊ को खासा नुकसान पहुंचाया? इलाहाबाद में दरोगा शैलेन्द्र की वकीलों द्वारा पिटाई के दौरान दरोगा द्वारा बचाव में चलाई गोली से एक वकील नवी अहमद की मौत के बाद भीषण उपद्रव हुआ, ऐसा ही जेएनयू अध्यक्ष कन्हैया की पिटाई के दौरान वकीलों ने दिल्ली में किया। इसके साथ ही कार्य बहिष्कार/हड़ताल का भयादोहन (ब्लैकमेल) अलग से किया गया? इससे पहले की तमाम हिंसात्मक घटनाओं में तहसील बदले जाने के समय वकीलों द्वारा हिंसक वारदातें की गईं। इन मामलों में क्या कदम उठाये गये और जो उठाये गये उनसे क्या वकीलों के आचरण मंे सुधार आया?
यहां बताते चलें कि छः साल पहले उच्च न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी का गठन किया था। इसके अलावा सीबीआई जांच सहित अन्य जांच एजेंसियों को वकीलों के कारनामों की जांच के लिए छूट दी थी। उसी दौरान 11 मुकदमें सीबीआई को सौंपे गये थे। इन छः सालों में 60 वकीलों के खिलाफ मुकदमें दर्ज हुए, उनमें एक में भी अब तक कोई फैसलाकुन कार्रवाई नहीं हुई? यह देरी हौसला बढ़ाने में सहायक होती रही है। कई बार पुलिस खुद पिट चुकी है और उनको सियासी दबावों के चलते पिटते रहने को मजबूर होना पड़ा। पत्रकारों को दसियों बार वकीलों की पिटाई का सामना करना पड़ा, दिल्ली में जेएनयू मामले में वकीलों द्वारा पिटे पत्रकारों ने अपने साथियों के साथ बाकायदा मोर्चा निकाला। लखनऊ में भी पत्रकारों ने विरोध जताया।
‘ऐसा लगता है कि जिला न्यायालय परिसर में कानून-व्यवसथा की स्थिति दिनों-दिन बदतर होती जा रही है। ऐसे में मामले की जांच केन्द्रीय एजेंसी से कराने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं है- हाईकोर्ट।’ यह टिप्पणी तब की गई थी, जब 243 वकीलों (लखनऊ जिला कचेहरी) के खिलाफ 330 मुकदमें दर्ज थे, 5 हत्या व 3 अपहरण के, 53 जमीन हथियाने के और 75 हिंसक घटनाओं के थे। इनमें क्या हुआ? इस बार भी वकीलों द्वारा की गई हिंसा के बाद उच्चन्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही वकीलों ने हड़ताल वापस ली।
मजे की बात है विधानसभा के भीतर और प्रेस के सामने हलक फाड़कर समूचा विपक्ष कानून-व्यवस्था को लेकर हंगामा करता है, सपा सरकार को नाकरा बताते नहीं थकता। वही विपक्ष वकीलों द्वारा की जाने वाली गुंडई पर खानापूरी भर करता रहता है? और देखिये वकीलों का तर्क कि देश में 19 लाख वकील हैं जिनसे सबसे अधिक राजस्व प्राप्त होता है फिर भी उन्हें कोई सुविधा नहीं? शायद सियासी दल इन वोटों के लालच में ‘हिंसा’ को जायज मानते हैं? अगर ऐसा है तो बाकी का 86 करोड़ वोटर क्या इन मुट्ठी भर वकीलों को ‘नया गब्बर’ मानकर डरा-सहमा रहे?
पिछले महीने नाका में वकील श्रवण कुमार की हत्या को लेकर वकील समुदाय ने जो तांडव किया उसमंे दो जिन्दा इंसानों की मौत हो गई, पचासों लोग घायल हुए, पत्रकारों की पिटाई के साथ उनके उपकरण तोड़ दिये गये। पुलिसवाले घायल हुए। सैकड़ों वाहन तोड़े व फूंके गये। बच्चे, बुजुर्ग व युवतियों के रोने-चीखने पर खदेड़ दिया गया। वकील साहबान सरेआम डंडा, लोहे के सरिया और पिस्तौल लहराते तोड़-फोड़ करते टीवी पर दिखाये गये, अखबारों में छापे गये। सारा माहौल सहम गया। लखनऊ कराह उठा। कानून गूंगा हो गया, इतना तांडव फिर फिर भी सवाल पूछा गया, किसके आदेश से पुलिस न्यायाय परिसर में घुसी, आंसू गैस के गोले छोड़े और लाठी चार्ज कियाा? पुलिस किसलिये हैं? पुलिस की चेतावनी कोई मानेगा नहीं और पढ़े-लिखे वकील साहबान खुली सड़क पर सरकरी गैर सरकारी संपत्ति की फूंकते रहेंगे, बच्चों, महिलाओं, बुजुर्गाें और नागरिकों की हत्या पर अमादा रहेंगे? फिर भी कोई आवाज नहीं उठे, कोई सुरक्षात्मक लाठी नहीं उठे? वकीलों द्वारा की गई हिंसा महज अपराध है? उससे भी बड़ी बात, यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले वकीलों ने व्यापारी नेता बनवारी लाल कंछल को पीटते-पीटते सड़क पर उन्हें नंगा कर दिया? पिछले बरस अपने साथी वकील निखलेन्द्र की हत्या को लेकर वकील समुदाय ने हिंसक तांडव में लखनऊ को खासा नुकसान पहुंचाया? इलाहाबाद में दरोगा शैलेन्द्र की वकीलों द्वारा पिटाई के दौरान दरोगा द्वारा बचाव में चलाई गोली से एक वकील नवी अहमद की मौत के बाद भीषण उपद्रव हुआ, ऐसा ही जेएनयू अध्यक्ष कन्हैया की पिटाई के दौरान वकीलों ने दिल्ली में किया। इसके साथ ही कार्य बहिष्कार/हड़ताल का भयादोहन (ब्लैकमेल) अलग से किया गया? इससे पहले की तमाम हिंसात्मक घटनाओं में तहसील बदले जाने के समय वकीलों द्वारा हिंसक वारदातें की गईं। इन मामलों में क्या कदम उठाये गये और जो उठाये गये उनसे क्या वकीलों के आचरण मंे सुधार आया?
यहां बताते चलें कि छः साल पहले उच्च न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी का गठन किया था। इसके अलावा सीबीआई जांच सहित अन्य जांच एजेंसियों को वकीलों के कारनामों की जांच के लिए छूट दी थी। उसी दौरान 11 मुकदमें सीबीआई को सौंपे गये थे। इन छः सालों में 60 वकीलों के खिलाफ मुकदमें दर्ज हुए, उनमें एक में भी अब तक कोई फैसलाकुन कार्रवाई नहीं हुई? यह देरी हौसला बढ़ाने में सहायक होती रही है। कई बार पुलिस खुद पिट चुकी है और उनको सियासी दबावों के चलते पिटते रहने को मजबूर होना पड़ा। पत्रकारों को दसियों बार वकीलों की पिटाई का सामना करना पड़ा, दिल्ली में जेएनयू मामले में वकीलों द्वारा पिटे पत्रकारों ने अपने साथियों के साथ बाकायदा मोर्चा निकाला। लखनऊ में भी पत्रकारों ने विरोध जताया।
‘ऐसा लगता है कि जिला न्यायालय परिसर में कानून-व्यवसथा की स्थिति दिनों-दिन बदतर होती जा रही है। ऐसे में मामले की जांच केन्द्रीय एजेंसी से कराने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं है- हाईकोर्ट।’ यह टिप्पणी तब की गई थी, जब 243 वकीलों (लखनऊ जिला कचेहरी) के खिलाफ 330 मुकदमें दर्ज थे, 5 हत्या व 3 अपहरण के, 53 जमीन हथियाने के और 75 हिंसक घटनाओं के थे। इनमें क्या हुआ? इस बार भी वकीलों द्वारा की गई हिंसा के बाद उच्चन्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही वकीलों ने हड़ताल वापस ली।
मजे की बात है विधानसभा के भीतर और प्रेस के सामने हलक फाड़कर समूचा विपक्ष कानून-व्यवस्था को लेकर हंगामा करता है, सपा सरकार को नाकरा बताते नहीं थकता। वही विपक्ष वकीलों द्वारा की जाने वाली गुंडई पर खानापूरी भर करता रहता है? और देखिये वकीलों का तर्क कि देश में 19 लाख वकील हैं जिनसे सबसे अधिक राजस्व प्राप्त होता है फिर भी उन्हें कोई सुविधा नहीं? शायद सियासी दल इन वोटों के लालच में ‘हिंसा’ को जायज मानते हैं? अगर ऐसा है तो बाकी का 86 करोड़ वोटर क्या इन मुट्ठी भर वकीलों को ‘नया गब्बर’ मानकर डरा-सहमा रहे?
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