भइया दाल, भात और आलू-टमाटर पर कौन बहस करेगा? यह सवाल किसी ‘होरी’ या ‘घीसू’ ने नहीं मेरे सामने गरीबी की रेखा की तरह फैला दिया और न ही मनरेगा के स्मारक के इंतजार में खड़े ‘झंझटी’ ने उठाया है। यह तो एक शुद्ध भारतीय गृहिणी की उदास निराश लेकिन अहम् पूंछताछ है। उसे न तो किसी आरक्षण की आस है, न ही किसी सब्सिडी की, उसे तो अपनी रसोई में खाना पकाने के लिए सस्ती दर पर गैस सिलेंडर की जरूरत है। उस पर पकाने लिए दाल-चावल, सब्जी-आटे की दरकार है। इस गृहणी के ‘मन की बात’ ‘मेट्रो’ से चलकर कब तक सरकार के दरवाजे तक पहुंचेगी?
जो लोग कल संवारने में अपनी पूरी ताकत खपा दे रहे हैं और जिनकी अस्थियां तक भारत माता के जयकारे लगाने की बाकायदा कसमें खाने को तैयार हैं, क्या उनके कानों में भी यह मासूम सवाल सुनाई दे रहा है? या फिर जिस तरह रेल किराये की तुलना सेब, सिनेमा के टिकट से करते हुए उत्तर प्रदेश के खाते में बड़े-बड़े एलान कर दिये गये और पिछले वाले भुला दिये गये, उसी तरह इस पेट का दोजख भरने वाले सवाल को नजरअंदाज कर दिया गया।? क्या केन्द्रीय खाद्यमंत्री के बयान, ‘भारतीय दाल ज्यादा खाने लगे हैं, इसलिए अरहर दाल महंगी हो गई’ को सही मान लिया जायेगा?
सवाल और भी हैं और उन्हें उठाना भी बेहद जरूरी है। वकील साहबान से किस ‘देशप्रेम’ की प्रेरणां मिल रही है? मेरे चाचा ने मुझे वकील बनाना तय किया था। उसी हिसाब से सपने भी देखे, लखनऊ विश्वविद्यालय के भीतर तक पहुंचाने की कोशिश की लेकिन मैं वकील न बन पाया। आज लगता है शायद ईश्वर ने सही फैसला किया था, क्योंकि जो हिंसात्मक समाचार वकीलों के लिए सुर्खियां पाते रहते हैं, वह मेरी 35 किलो की काया कतई बर्दाश्त न कर पाती। तकदीर ने पत्रकार, वह भी लोगों की जुबानी चिथड़ा पत्रकार बना दिया। यूं तो पत्रकारों को गरियाने का फैशन या चलन जो भी हो काफी बढ़ गया है। कोई दलाल कहता है, तो कोई रंडी। इससे भी मन नहीं भरता, तो गालियों के शब्दकोश का हर पन्ना उछाल देते हैं। मजा इस बात का है कि यही गरियाने वाले अपने दोहरे चरित्र के साथ जीते हुये अपने समाचार/फोटो छपवाने के लिये सौ-सौ जतन करते हैं। इतना ही नहीं तमाम तरह के प्रलोभनों का सहारा लेते हैं। आज के युवा व देशभक्त श्रेणी की पहली पांत के नेता लिपी-पुती महिलाओं को ‘विजटिंग कार्ड’ की तरह साथ में लेकर अखबार के दफ्तरों के चक्कर लगाते देखे जा सकते हैं। इनमें तमाम अपनी खबर छपवाने के लिये फोन करके, कराके काम करना दूभर कर देते हैं। गो कि रंडी के खिताब से पत्रकारों को नवाजने वाले उसी ‘रंडी’ के आगे लार टपकाते नहीं थकते।
मुझे अपने पत्रकार होने पर नाज है,भले ही मूर्खों की जमात हिंसा पर, हत्या पर या जिंदा जला देने पर ही क्यों न उतारू हो। हां अंतिम बात या चेतावनी कि पत्रकार केवल गांधी या गणेश का शिष्य नहीं रह गया है, अब उसे भी कलम के साथ तमाम आधुनिक संसाधनो की जानकारी है।
हां! इन दिनों देशप्रेम, देशद्रोह का सवाल पूरे देश के सामने पसरा हुआ है। इस सवाल को खड़ा और बड़ा करने वाले महानुभाव रोज देशद्रोह जैसा अपराध करते नहीं थकते, कोई बिजली चोरी में लगा होता है, तो कोई टैक्स। इससे भी बढ़कर जमीनों पर कब्जा, पानी, अनाज, दवाई और जीवनदायी सामानों में सरेआम लूट करते हैं। और तो और आदमी की तस्करी जैसे जघन्य अपराध कर रहे हैं। दाल, आलू, प्याज तक की कालाबाजारी करने के साथ मिलावटी खाद्य वस्तुएं सरेआम बेंचते हैं। यह अपराध या देशद्रोह नहीं है? इन अपराधों में कितनों को पकड़ा जा रहा है या कितनों को सजा हो गई?
इन सारे सवालों से बड़ा सवाल यह है कि यह मुल्क किसका है? बयानबाजों का या भाजपा का या कांग्रेस का या साधू से नेता में बदले जुबानदराजों का या जातियों का, आखिर किसका है यह देश? क्या देश-प्रदेशों में काबिज सरकारों से पूंछकर देशप्रेम करना होगा? क्या मंत्री, अफसर तय करेंगे कि देशवासी अपनी पत्नियों के पास सोने, सेक्स के लिए कब जायेंगे? बगैर पूछे जाने पर बलात्कार का आरोपी माना जायेगा?
मैं राम प्रकाश वरमा, पत्रकार से पहले भारत का नागरिक होने की हैसियत से सरकारों और तमाम नेताओं से पूंछता हूं, देशप्रेम की क्या परिभाषा है? कौन आता है देशप्रेम के दायरे में? और क्या देश से प्रेम करने के लिये सियासी दलों से प्रमाण-पत्र लेना पड़ेगा?
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