Sunday, August 12, 2012

पूर्वी उत्तर प्रदेश में कृषि के सर्वांगीण विकास की प्राथमिकताएं एवं प्रदेश सरकार से अपेक्षाएं


पूर्वी उत्तर प्रदेश प्राकृतिक संसाधनों में सबसे धनी क्षेत्र है। यहां की मृदा उपजाऊ, जल की पर्याप्त उपलब्धता एवं अनुकूल जलवायु है, परिश्रमी किसान है, फिर भी विकास गति धीमी है। खाद्यान उत्पादन एवं उपादकता कम है। दलहन एवं तिलहन में निरन्तर गिरावट हो रही हैं फलदार वृक्षों में ह्यस तथा फलोत्पादन में गिरावट है, दुधारू जानवरों की कमी के कारण दुग्ध उत्पादन निम्नतम श्रेणी में हैैं। सूखे एवं बाढ का प्रकोप वर्ष प्रतिवर्ष बढ़ा जा रहा हैं। ऊसर, परती भूमि का टिकाऊ सुधार नहीं हो पा रहा हैं। जायद उत्पादन निम्नतम है।
    इस कृषि प्रधान क्षेत्र के सर्वांगीण विकास के लिये नये सिरे से विचार करने तथा कार्य योजना तैयार कर क्रियान्वित कराने की आवश्यकता है। कृषि विकास की प्राथमिकताएं एवं रणनीतियां इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के अनुकूल होना जरूरी हैं। पूर्वांचल विकास संस्थान द्वरा प्रतिपादित कुछ विकास सूत्र निम्नवत है, जिसको आधार बनाकर शासन द्वारा कार्ययोजना तैयार कराने की जरूरत है।
    बाढ़ की स्थाई रोकथामः विगत 50 वर्षों के आकड़ों से स्पष्ट निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वर्षा की प्रकृति में बदलाव से वर्ष प्रतिवर्ष बाढ़ का प्रकोप बढ़ता है। वर्षा की मात्रा लगभग वही है परन्तु वर्षा का समय घट गया हैं। अब प्रायः तूफानी वर्षा होती है। जिसके कारण एक साथ वर्षा का जल नदियों में आ कर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करता है। इसकी स्थाई रोकथाम के लिये जल विशेषज्ञों, अभियंताओं एवं समाज सेवियों की एक उच्चस्तरीय समिति गठित कर दीर्घकालीन एवं अल्प कालीक कार्ययोजना तेयार करना आपेक्षित है।
सूखे से बचावः सूखें की अवधि में सिंचाई एवं पेयजल का गम्भीर संकट उत्पन्न हो जाता है। जबकि पूर्वांचल में पर्याप्त वर्षा जल एवं पर्याप्त भू-जल सम्पदा उपलब्द्द है। इसके लिए सूखा प्रभावी क्षेत्रों में अद्दिकाधिक वर्षा जल के संरक्षण एवं संग्रहण के लिये गांव में जल संरक्षण कार्यक्रम चलाना आवश्यक है तथा प्रत्येक 2.50 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र के लिये एक निजी नलकूप की व्यवस्था करने की जरूरत है। प्रथम चरण में प्रत्येक जनपदों में  10-10 गांव चयन कर शतप्रतिशत निजी नलकूपों की सिंचाई व्यवस्था को संतृप्त करने की रणनीति बनानी उचित एवं सार्थक होगी। इनसे भू-जल का दोहन बढ़ेगा तथा वर्षा ऋतु में वर्षा जल का संग्रहण भी बढ़ेगा। यह कार्य बड़े पैमाने पर सूखा उन्मूलन कार्यक्रम एवं ग्राम विकास के हित में होगा।
सुनिश्चित एवं सामायिक सिंचाई/हर खेत का पानीः पूर्वांचल के जागरूक किसान एवं बड़े, छोटे, मझोले किसान सिंचाई जल की पर्याप्त उपलब्धता न होने से कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाने में असमर्थ एवं लाचार हैं। इस क्षेत्र में नहर सिंचाई व्यवस्था अधिक हैं जिनसे औसत मात्र 2.3 सिंचाई ही मिल पाती है तथा वह भी समय पर नहीं मिल पाती। जायद के मौसम में नहरे प्रायः बन्द ही रहती है। ऐसी परिस्थिति में कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाना दिवास्वप्न ही कहा जा सकता है। इसके लिए नहर समादेश एवं समादेश के बाहर के समस्त कृषि क्षेत्रों में प्रति 2.50 हेक्टेयर से 4.0 हेक्टेयर क्षेत्र में एक निजी नलकूप की व्यवस्था करना उचित एवं अपरिहार्य है। जिन क्षेत्रों में जलभराव एवं उथले भू-जल स्तर की समस्या है, उन क्षेत्रों के लिए निजी नलकूप वरदान प्रमाणित हुए हैं। भू-जल स्तर में वांछित गिरावट के लिए बहुत ही प्रभावी प्रमाणित हो रहे हैं। इसके लिए यह आवश्यक है कि ग्राम्य विकास कार्यक्रम योजना के अन्तर्गत प्रत्येक गांव को निजी नलकूप से संतृप्त किए जायें। प्रथम चरण में प्रत्येक जनपद के प्रत्येक विकास खण्डों में 10-10 गांव ‘गांधी गांव’ के नाम से चयन कर निजी नलकूप सिंचाई व्यवस्था से संतृप्त किए जाये। इसका अनुकरण कर आगामी 10 वर्षों में शतप्रतिशत कृषि भूमि को सुनिश्चित सिंचाई उपलब्ध कराया जा सकता है। इससे कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता दूना से भी अधिक बढ़ाया जा सकता है।
सिंचाई नीति का पुनिरीक्षण: वर्तमान समय में प्रोटेक्टिव सिंचाई नीति लागू है जिसमें नहर के टेल (छोर भाग) में पानी पहुंचाने की कार्ययोजना पर बल दिया जाता है। इससे पानी की अधिकता की अवधि में टेल (छोर भाग) में एक या दो बार पानी पहुंचाया भी जा सकता है परन्तु इससे कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाना कदापि सम्भव नहीं है। इसी तरह गहरे राजकीय नलकूपों का समादेश क्षेत्र 100 हेक्टेयर रखा गया है जबकि मात्र 15 से 20 हेक्टेयर क्षेत्र की सुनिश्चित सिंचाई क्षमता है। नहरों एवं राजकीय नलकूपों का समादेश बड़ा होने से सामयिक सिंचाई भी सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में वर्तमान ‘प्रोटेक्टिव सिंचाई नीति’ का पुर्नरीक्षिण कर ‘नई सुनिश्चित वं सामयिक सिंचाई नीति’ बनाने की आवश्यकता हैं इसके लिए भू-जल एवं सतह जल का समन्वित एवं संतुलित उपयोग की विधि विकसित करनी होगी। उथले भू-जल स्तर वाले क्षेत्रों में निजी नलकूप सिंचाई तथा गहरे भू-जल स्तर वाले क्षेत्रों में नहर सिंचाई की प्राथमिकता निर्धारित करनी होगी। पुनरीक्षित सिंचाई नीति के अनुसार सम्पूर्ण पूर्वी उत्तर प्रदेश का सुनिश्चित सिंचाई कार्ययोजना बनाना आवश्यक है तथा आगामी 10 वर्षों में हर खेत को सुनिश्चित सिंचाई उपलब्ध कराने का लक्ष्य बनाना होगा। इस क्षेत्र की शतप्रतिशत सिंचाई के लिए पर्याप्त जल सम्पदा उपलब्ध है।
नम भूमि का विकास: पूर्वी उत्तर प्रदेश में हजारों हेक्टेयर नम भूमि है, जो प्रायः अभी तक उपयोग में नहीं लाई जा रही है। इसके लिए ग्राम्य विकास योजना कार्यक्रमों के अन्तर्गत पायलट फेस में प्रत्येक जनपद के एक विकास खण्ड में नम भूमि के विकास का कार्य प्रारम्भ करने की आवश्यकता है। समग्र नम भूमि के विकास के लिये वाहा पोषित संस्थाओं से आर्थिक एवं तकनीकि सहयोग की कार्ययोजना बनाने की आवश्यकता है।
ऊसर/परती का टिकाऊ सुधारः पूर्वी उत्तर प्रदेश में ऊसर एवं परती भूमि की अधिकता है। कृषि विभाग के आंकड़ों के अनुसार कुछ जनपदों में परती भूमि की बढ़ोत्तरी भी हुई है। ऊसर भूमि में भी आशानुकूल सुधार नहीं हो रहा हैं ऊसर/परती सुधार के प्रति कृषकों का आकर्षण बहुत अधिक नहीं है, साथ ही वर्तमान ऊसर सुधार विधियों में व्यय भार बहुत अधिक तथा कृषकों की सहभागिता कम है। इस सुधार प्रक्रिया को सरल सस्ती एवं कृषकों को ग्राहय बनाने के लिए सुधार प्रक्रिया में बदलाव की आवश्यकता है। नईप्रणाली में कृषकों को प्रत्येक 4 हेक्टेयर में निःशुल्क निली नलकूप की व्यवस्था कराकर सतत तीन वर्षों तक निःशुल्क सिंचाई की व्यवस्था लागू कराना उचित होगा तथा तीन वर्ष बाद उक्त नलकूप कृषकों को आधे/तिहाई मूल्य पर हस्तांरित किया जा सकता है। पूर्वांचल संस्थान के ऊसर/परती सुधार में निःशुल्क सिंचाई के लिये उत्तर प्रदेश शासन से अपेक्षा करता हैं कि इस कार्य योजना को पायलट फेज में कुछ गांवों में लागू कर ऊसर/परती विहीन आदर्श कृषि गांव बनाये जायं।
जलाक्रान्ति क्षेत्र का विकास: पूर्वी उत्तर प्रदेश में जलाक्रान्ति क्षेत्र की अधिकता है, जहां कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता में गिरावट हो रही है। दलहन एवं तिलहन के उत्पादन में कमी हो रही है। ऐसे जलाक्रान्ति क्षेत्रों में निजी नलकूप सिंचाई व्यवस्था सघन किये जायें तथा नहर सिंचाई को कम किया जाये। निजी नलकूप स्थापना के लिये कृषकों को उत्साहित एवं उत्प्रेरित किया जाय। यदि सम्भव हो तो नलकूपों के लिये रियायत दर पर डीजल/बिजली उपलब्ध कराया जाय।
राज्य जलनीति बनाना: प्रदेश में लगभग 65 प्रतिशत सिंचाई भू-जल से तथा 30.35 प्रतिशत सतह जल से किया जा रहा है। नदी जल का उपयोग राष्ट्रीय जल नीति से अच्छादित है। परन्तु भू-जल राज्य सम्पत्ति है। तथा इसका प्रबन्ध एवं उपयोग राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में है। इस विषमता के कारण सतह जल एवं भू-जल का संतुलित उपयोग सम्भव नहीं हो पा रहा है। प्रायः वहीं नहर बनाई जा रही है जहां भू-जल की पर्याप्त उपलब्धता है। जिसके दुःस्परिणाम से जलाक्रान्ति ऊसर/परती की समस्याएं गम्भीर होती जा रही है तथा अन्य क्षेत्रों मंे भू-जल स्तर में निरन्तर गिरावट हो रही है अतः शीघ्रातिशीघ्र ‘राज्य जल नीति’ को प्रभावी बनाने की आवश्यकता है। जिसके अनुपालन से नहर सिंचित क्षेत्रों एवं भू-जल सिंचित क्षेत्रों का सीमांकन कर सिंचाई प्रणाली की प्राथमिकताएं निद्र्दारित की जा सके।
मृदा एवं जल शोध संस्थान: पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं निकट के क्षेत्रों में राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मृदा एवं जल शोद्द संस्थान की नितान्त आवश्यकता है, जिसके माध्यम से इस क्षेत्र के अनुकूल सिंचाई, कृषि ट्रेनेज, बाढ़ एवं सूखा प्रबन्धन, ऊसर, परती सुधार इत्यादि विषयों पर शोध का कार्य किया जा सके। इस समय इन क्षेत्रों में राज्य सरकार, भारत सरकार एवं बाह्म पोषित संस्थाओं द्वारा सिंचाई, कृषि एवं भूमि सुधार हेतु विकास कार्यों के लिये अरबों रूपये प्रतिवर्ष व्यय किये जा रहे हैं। इन विकास कार्यों के 2-3 प्रतिशत इंगित परिव्यय से ही उपरोक्त शोध संस्थान विकसित किया जा सकता है।
स्वास्थ्य एवं पर्यावरण शोध संस्थान: पूर्वी उत्तर प्रदेश में विकास कार्यों की उत्तरोत्तर प्रगति से मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण पर कतिपय प्र्रतिकूल प्रभाव परिलक्षित होने लगे हैं। बड़ी नहर सिंचाई परियोजना क्षेत्रों में जलभराव बढ़ने से उस क्षेत्र की आद्रता बढ़ी है। परिणाम स्वरूप प्राण घातक बीमारियां जैसे इन्सेफेलाइटिस, फ्लोरिसिस, पीलिया, फाइलेरिया, गलाघोटूं, गैस्टीक इत्यादि की तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही हैं कीटनाशक दवाइयों से होने वाले कुप्रभाव में बीमारियों के रूप परिलक्षित हो रहे है। जीव जन्तु एवं वनस्पति पर भी भिन्न तरह के रोग पैदा हो रहे हैं। इन विषयांे पर शोध के लिए राष्ट्रीय स्तर के एक शोध संस्थान की आवश्यकता हैं जिसकी स्थापना के लिये उत्तर प्रदेश सरकार से अपेक्षा की जाती है।
कृषि उत्पाद प्रसंस्करण एवं संरक्षण हेतु गांधी कृषि उद्योग केन्द्रों की स्थापना: यह सर्वमान्य है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में कृषि उत्पादों विशेषकर अन्न, फल, सब्जी के संरक्षण एवं प्रसंस्करण उद्योग की कमी है। यही कारण है कि उत्पादन के समय इनका बाजार मूल्य निम्नतम हो जाता है तथा किसान को लागत मूल्य भी नहीं मिल पाता तथा अन्य महीनों में वही उत्पाद 20 गुने दाम पर बिकता है। अतः इन विषमताओं को कम करने तथा कृषि उत्पादों को खराब होने से बचाने के लिए कृषि उत्पादों के संरक्षण एवं प्रसंस्करण उद्योगों को बढ़ाने की आवश्यकता है। शासन से अपेक्षा है कि प्रत्येक विकास खण्ड में कम से कम एक संरक्षण एवं प्रसंस्करण उद्योग केन्द्र स्थापित किये जाय जहां हर प्रकार के कृषि उत्पादों के संरक्षण एवं प्रसंस्करण उद्योगों को लगाने की सुविधा एवं बिजली इत्यादि की व्यवस्था हो। प्रारम्भिक चरण में प्रत्येक जनपद के एक विकास खण्ड में एक-एक गांधी कृषि उद्योग गांव चयन कर कृषि उद्योग सेन्टर स्थापित कराये जायं।

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