Sunday, August 12, 2012

गाय, गोबर, गांव और जिंदा आदमी!

घरों पर नाम थे नामों के साथ ओहदे थे। बहुत तलाश किया लेकिन कोई आदमी न मिला। बशीर बद्र की यह लाइने राजनीति के राजमार्ग से गलियों तक पर सटीक हैं। मैंने खुद भी आदमी की तलाश में अशोक रोड, अकबर रोड, कालीदास मार्ग, विक्रमादित्य मार्ग, कबीरलेन, गौतम बुद्ध नगर पर काफी समय लगाया है। आदमी तो नहीं ही मिला, लेकिन उससे मिलती-जुलती शक्ल की चमचमाती सफेद झक्क सैकड़ों मूर्तियां मिलीं। वे बुद्ध-कबीर की धूल-कीचड़ में पड़ी पत्थर वाली मूर्तियों से अधिक सम्पन्न दिखीं। अपनी ही अयोध्या में तपते, भीगते, ठिठुरते श्रीराम से समृद्ध दिखीं। भले ही लोग उन्हें ईश्वर मानते हों। आज की तारीख के जिंदा देवी-देवताओं की मूर्तियों के टूटने पर देश तोड़ने के खम ठोंके जा सकते हैं। नये सिरे से टूटे हुए को लगाने के लिए सरकार-शासन का सौहार्द तक दण्डवत हो सकता है। गो कि कुल मुर्दे कारोबार के लिए और जिन्दा कौमें वोट के लिए?
    वोट देने के बाद भी बिजली नहीं, पानी नहीं, सफाई नहीं, दवाई नहीं और रोजगार भी नहीं। हलक फाड़कर फरियाद करने पर पुलिस की दो गजी लाठियों से पिटाई का भत्ता? औरत की देह को लैपटाॅप समझने की जिद? मुखालिफों को हलाक करने की सनक? मुफलिसों की भूख पर नियंत्रण का डाका? माना कि उद्दंडता हमारे रक्त में है, लेकिन जिंदा और मुर्दा वजूद की यह कैसी नाप तौल है? यह महज चंद सवाल नहीं है। उसी आदमी की चीख है जिसे मैं गलत जगह तलाश करने गया था। मुझे आदमी जिला उन्नाव के छोटे से गांव में मिला, राजधानी लखनऊ के अलीगंज के खण्डहर से मकान में मिला, मुम्बई जैसे शहर में भी कई आदमी मिले। ये सबके सब आदमी की ही आपदा के लिए चीखते मिले। अपनांे से अधिक धकियाते, लतियाते, बेहाल आदमी के लिए लड़ाई लड़ते मिले। इन सबकी बात फिर कभी। आज सिर्फ उसे बेचैन आदमी की बात जो जीवन के 73वें मेले में खड़ा आदमियों के पांवों के नीचे से उड़ती धूल को बड़े गौर से देख रहा है। इसी धूल ने उन्हें राजनीति के बहुमंजिले पर पहुंचाया और इसी ने बवंडरों के सामने ला खड़ा किया।
    मुश्किलों के खेतिहर पं0 हरिशंकर तिवारी कई चुनाव जीते, लेकिन पहला चुनाव जीतने के बाद ‘चिल्लूपार’ का नाम दुनिया के आसमान पर इन्द्रधनुष की तरह लिखा गया। कहीं कोई अभिमान नहीं, कोई आडम्बर नहीं। धर्मशाला में बदस्तूर मेला जारी रहा और हैं। मड़ई के नीचे चाय, दूध, दही से स्वागत और मानवीय संवेदना की सरस्वती का बहाव जस का तस। पसीना बेचकर पेट भरनेवाला हो या योजनाकार सबके शुभचिंतक हैं, ‘बाबा’। फिर भी पिछला चुनाव हार गये। तमामों को आश्चर्य हुआ, तमामों को दुःख। सच यह है कि वे चुनाव नहीं हारे थे, उनके आगे-पीछे बगुला भक्तों के जमघट ने उन्हें हार की ओर धकेला है। इसी धक्का-मुक्की में उनके तमाम समर्पित संगी साथी पीछे घूट गये। लोग बंट गये। कुछ सड़कों पर रह गये। कुछ गलियों में छंट गये। फिर व्यवस्था के संग साथ ने उन्हें ठग लिया।
    5 अगस्त पंडित जी का जन्मदिन है। हर साल इस दिन मेरी क़लम उन्हें प्रणाम करती है। बहुतेरे इसे चरणवंदना समझते हैं। मुझे उसकी तनिक भी परवाह नहीं। मेरी नजर में यह भावों की गंगा का शंकर के चरणों में प्रणाम है। इस बरस वे 72 वर्ष की आयु पूरी कर चुके हैं। इसी दौरान चंद दिन पहले मैं उनसे यही पार्क रोड पर मिला था। उस समय मैंने उन्हें आदमियत के दरवाजे पर पहरेदारी करने को बेचैन देखा था। वे आम, महुआ से लेकर मुंबईया तबेलेवालों की जीवनशैली पर बात करते हुए भी गाय, गोबर और गांव की कथा बिसरा नहीं पाते। इसी सबके बीच नई पीढ़ी के भविष्य के प्रति चिन्ता भी साफ दिखी। भला आज की मूल्यहीन संस्कृति के समय में आदमी की इतनी चिंता किसे हैं। ऐसे सहोदर को ‘हरि’ समझना क्या भूल है? जन्मदिन पर धर्मशाले के हाते में खड़े बाबा हरिशंकर तिवारी को प्रियंका परिवार का प्रणाम। और बहुत से शुभेच्छुओं ने अंदर के पन्नों पर उन्हें जन्मदिन पर प्रणाम किया है।
और अंत में केदार नाथ सिंह की कविता-
मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ।

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