Sunday, August 12, 2012

स्वतंत्रता संग्राम में लखनऊ का संघर्ष

लखनऊ के सुख-दुख की दास्तानों और किस्सों में जनानों, बांकों और नवाबों की नाकारा ठिठोलियों के चटखारेदार बयान दर्ज हैं। हकीकतन इन बेहूदगियों से खालिस लखनउवों से न कोई वास्ता तब था, न अब है। नवाब वाजिदअली शाह के लिए फिरंगियों ने जो बेपर की उड़ा रखी है, उसी को हमारे नये नवाबों ने हवा देकर अपनी दिलजोई का सामान कर लिया। अस्ल में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में कानपुर के युद्ध में 125 महिलाएं और 4 मर्दो को छोड़कर एक हजार अंग्रेजों का कत्ल करके विजय प्राप्त करने के बाद नाना फड़नबीस की अगुवाई में बादशाह बहादुरशाह के सम्मान में 101 तोपों की सलामी दी गई थी। इसके बाद शंखनाद करती विजयी सेना लखनऊ के चिनहट की ओर बढ़ आई।
    अंग्रेज चीफ कमिश्नर सर हेनरी लारेन्स ने आगे बढ़ कर लोहे वाले पुल पर अपनी सेना पंक्तिबद्ध की। इन्होंने कुछ गांव भी जीत लिये थे इनके पास हथियार भी अधिक थे किन्तु स्वदेशी सेना के उत्साह और भावना ने आगे बढ़ती हुई विदेशी सेना और उसके देशी चाटुकारों को भयानक रूप से हानि पहुँचाई और उनको पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। वह पुनः रेजीडेन्सी में जाकर छुप गये और सर हेनरी लारेन्स ने मच्छी भवन से भी अपनी सेना वहीं स्थानान्तरित कर ली। 30 जून के इस संघर्ष में स्वदेशी सेना का नेतृत्व मौलवी अहमद शाह कर रहे थे।
    दूसरे संघर्ष में स्वदेशी सेना ने रेजीडेन्सी के सलीबी गारद वाले द्वार पर आक्रमण किया। 20 जुलाई को गोला चलना अचानक रूक गया और दीवार के नीचे से बारूदी सुरंगों के भयंकर धमाकों के पश्चात कई दिशाओं से शत्रुओं पर हमला बोल दिया गया। इस संघर्ष में यद्यपि स्वदेशी सेना को विजय नहीं प्राप्त हो सकी लेकिन उन्होंने दो अंग्रेज चीफ कमिश्नरों सर हेनरी लारेन्स और मेजर बैंक्स को जीत लिया। इनके अपनी ओर के सेनापति अहमद शाह भी घायल हुए और गम्भीर हानि के बाद भी पाला अंग्रेजों के हाथ ही रहा। लेकिन वह इस योग्य नहीं रहे कि वह घेरा तोड़कर रेजीडेन्सी से बाहर निकल सकें उन्होंने कानपुर से सहायता मंगवाई वहां से सूचना आई कि जनरल हैवलाक मदद लेकर 5-6 दिन में लखनऊ पहुंच जायें। हैवलाक ने इस उद्देश्य से 29 जुलाई को गंगा पार भी कर लिया।
    इनके आने की सूचना पाकर नाना साहब अवध को छोड़कर कानपुर की ओर बढ़े इनकी गतिविधि की सूचना पाकर हैवलाक मंगलौर की ओर हट गये और सेनानियों ने इस क्षेत्र में बशीरत गंज पर विजय प्राप्त कर ली। इस पर कुछ ही दिनों में तीन बार अधिकार बदला लेकिन स्थायी विजय किसी भी पक्ष को प्राप्त नहीं हो सकी। इसी समय नाना साहब बिठूर की ओर से कानपुर पर आक्रमण करने की योजना बनाने लगे। और जनरल नील ने जनरल हैवलाक को कानपुर वापस बुला लिया।
    इन्होंने कम्पनी की आलाकमान से जो कलकत्ता में थी मदद का निवेदन किया जो लखनऊ जाकर रेजीडेन्सी का घेरा तोड़ सके लेकिन मदद आने से पहले ही लखनऊ जाने वाली सेना का नेतृत्व इनसे लेकर सर जेम्स ओट्रम को दे दिया गया। अलबत्ता ओट्रम अपनी इच्छा से हैवलाक के नेतृत्व में कार्य करने लगे। और 23 सितम्बर, 1958 को ओट्रम नील और हैवलाक तीन हजार दो सौ पचास सैनिकों पर आधारित सेना के साथ जिसमें 1200 देश से दगा करने वाले भारतीय फौजी थे आलमबाग तक आ गये। वहीं अंग्रेजी सेना को दिल्ली पर दूसरी बार विजय प्राप्त होने का समाचार मिला और हैवलाक की सेना उत्साह के साथ लखनऊ की ओर बढ़ने लगी, 25 सितम्बर को वह चारबाग में थी।
    रेजीडेन्सी के मोर्चे पर 87 दिन के लगातार युद्ध में 700 व्यक्ति मारे गये। लगभग 500 अंग्रेज और 400 भारतीय अभी जीवित थे। इनमें कुछ घायल भी सम्मिलित थे। हैवलाक के साथ जो कुमुक भेजी गयी थी इसके 722 व्यक्ति रेजीडेन्सी पहुँचने के पहले ही मारे जा चुके थे। इस मोर्चे पर अंग्रेजों की प्रतिष्ठा बल्कि भारत में उनकी उपस्थिति का भविष्य आधारित था। इसीलिए कमान्डार-इन-चीफ सर कोलन कैम्पवेल स्वयं कलकत्ता से लखनऊ की ओर बढ़े। पंजाब, मद्रास और देश के दूसरे भागों से भी सैन्य सहायता मंगाई गई और जल सेना भी इलाहाबाद से नावों के द्वारा कानपुर लायी गयी।
    सर कोलन 3 नवम्बर को कानपुर पहुंचे। 9 नवम्बर को आलमबाग पहुँचे। 14 को लखनऊ की ओर बढ़े 26 दिसम्बर को रेजीडेन्सी का घेरा टूट गया। बाहर से आने वाली फौज बन्दी सेना से मिल गयी लेकिन स्वदेशी सेना ने पराजय स्वीकार नहीं की और न हथियार डाले। कानपुर में नाना साहब और अवध में अहमद शाह आजादी के मतवाले देशभक्तों को साथ लेकर अंग्रेजी सेना को धमकाते रहे। और अंग्रेज सैन्य अधिकारियों को चकमें व झांसे देते रहे।
    जब स्वदेशी सेना की सफलता की कोई सम्भावना न बची तब भी वह जिहाद को एक फरीजा मानकर देश के शत्रुओं से लड़ते रहे। जब लखनऊ में अंग्रेजी सेना और उसके भारतीय पिठ्ठुओं ने लूटपाट करके गदर मचा दी, एक के बाद एक किला और मोर्चा जीत लिया-सिकन्दर बाग, दिलकुशा, कदमें रसूल शाहनजफ, बेगम कोठी इत्यादि और अंत में खास शाही महल पर छापा मारने के लिए कैंसरबाग पर आक्रमण किया तो स्वदेशी सेना ने अपने बादशाह व उनकी माता बेगम हजरत महल को उनके घेरे से निकालने का प्रबन्ध कर लिया। कर्नल होप ग्रान्ट ने उनका पीछा किया मगर अहमद उल्लाह शाह ने पीछा करने वाली सेना पर पीछे से आक्रमण करके उसे उलझा लिया।
    इसके बाद भी अहमद उल्लाह शाह ने लखनऊ के मोहल्ले सआदतगंज में मोर्चा बनाया। अंग्रेजों ने सोचा कि वह इन्हें इस जगह पर घेरकर मार लेंगे या बन्दी बना लेंगे। मगर यह महानवीर एक बार फिर शत्रुओं के घेरे से बच निकला और इसके बाद भी सीतापुर और शाहजहांपुर के जिलों में मुजाहिदों के संगठनों और युद्ध की तैयारियों में स्वास्थ्य की खराबी के बाद भी संलग्न रहा। लखनऊ के युद्ध की एक उल्लेखनीय घटना यह है कि शहनशाहे हिन्दुस्तान बहादुर शाह जफर के पुत्रों का सिर काटने वाला अंग्रेज अधिकारी हडसन इसी शहर में स्वदेशी सेना के हाथों 10 मार्च, 1858 को मारा गया।

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