Sunday, August 12, 2012

मेरे आत्मीय पं0 हरिशंकर तिवारी

राम प्रकाश वरमा
सियासत के मुहल्ले में तब बड़ी हलचल मची थी, जब 1985 में पहली बार पं0 हरिशंकर तिवारी विधायक चुनकर आये। यकीन मानिये ऐसी हलचल कि अखबारों के छापाखानों में मशीनों तलक की सरगोशियां बढ़ गईं थीं। धमाकाधुनी पत्रकारों को सुर्खियों के लिए खासा मसाला मिल गया था। पंडित जी के शपथ लेने से लेकर उनकी हर जुम्बिश खबर बन जाती। उन दिनों लखनऊ में पत्रकारों की जमात में सदाशिव द्विवेदी का पंडित जी के यहां आना-जाना कुछ अधिक था। ‘प्रियंका’ पत्रिका को द्विवेदी जी का स्नेह प्राप्त था। द्विवेदी जी ‘प्रियंका’ की साफबयानी से जहां गदगद थे, वहीं खुद यूनीवार्ता समाचार एजेंसी में रहते हुए घपलों-घोटालों की खबरों के लिए मुझे प्रोत्साहित भी करते थे। उस समय तक ‘प्रियंका’ पर पांच मुकदमें दायर हो चुके थे। मुझे भी तिवारी जी को छपाने की ललक थी। कांग्रेस की सरकार थी प्रदेश में पूर्वांचल की आवाज मुखर हो रही थी। तिवारी जी निर्दलीय विधायक थे।
    पंडित हरिशंकर तिवारी जी के राजनैतिक ‘हाईवे’ पर कई सरकारी अवरोध आये दिन व्यावधान पैदा किये जा रहे थे। दरअसल सभी के अपने स्वार्थ थे। उन पर आरोपों, मुकदमों की जहां बाढ़ आई हुई थी, वहीं उनके दिमाग पर गरीब-गुरबों, पीडि़तों, शोषितों का दर्द दूर करने उनकी समस्याओं को दूर करने का भूत सवार था। उन दिनों चिल्लूपार क्षेत्र की समस्याओं के लिए वे जूझकर काम करने में लगे थे। उनके बड़हालगंज चुनाव कार्यालय पर क्षेत्र से व क्षेत्र के बाहर के लोगों की भीड़ जमा होती थी। पंडित जी की गैरमौजूदगी में लोगों की छोटी-मोटी समस्या उनके सहयोगियों द्वारा दूर कर दी जाती थी। जो काम गोरखपुर मुख्यालय या राजद्दानी लखनऊ से होने वाले होते उनकी अर्जियां ले ली जाती और बाद में उनका निस्तारण होता। हर अर्जी की कार्यवाही की सूचना तक फरियादी को चिट्टी के जरिये दी जाती। पंडित जी कार्यालय में होते तो सारा दिन लोगों के बीच घिरे रहते।
    एक बार वे अपने कस्बे बड़हलगंज में जन समस्या निवाणार्थ घूम रहे थे। एक महिला की गुहार पर कस्बे की एक गली में सार्वजनिक शौचालय की दुर्दशा देखकर लौट रहे थे, बेहद गुस्से में थे। उसी समय एक वृद्ध सामने आ गया उसने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि उसकी बहू को अकारण थाने ले जाया गया है। वे क्रोध में तो थे ही थाने की ओर चलने को हुए तभी उनके एक सहयोगी ने उन्हें रोका और स्वयं वृद्ध को साथ लेकर थाने चला गया। इस बीच पंडित जी कस्बे की तमाम सड़के नापते रहे, लोगों से मिलते रहे।
    कार्यालय वापस आते ही बोले, ‘कोई नगर पंचायत से आया है क्या?’ जो सज्जन आये थे उनसे शौचालय की दुर्दशा के बारे में पूंछा। उन्होंने सरकारी जवाब दिया। पंडित जी ने कहा, ‘कथा मत सुनाइये, एक हफ्ते के अन्दर उसे साफ कराईये फिर बजट, फाइल, शासन का ककहरा पढि़येगा। सोंचिए जरा उस दुर्गंध भरे इलाके में आपका घर होता तो आप रह पाते?, इसके साथ ही अपने एक सहयोगी को इस काम की जिम्मेदारी सौंप दी।
    लखनऊ में भी उनके आवास पर भारी भीड़ जुड़ती। इतनी भीड़ अधिकांश मंत्रियों के यहां भी नहीं होती थी। भीड़ की समस्याओं को सुनना, उनके लिए फोन करना चिट्ठी लिखना उनका प्रिय शगल था। इन कार्यों में मैं उनका बरसों सहयोगी रहा। इस बीच ‘प्रियंका’ का प्रकाशन भी लगातार जारी रहा। सच और झूठ की जंग में कई और मुकदमें हो गये। पंडित जी के एक साक्षात्कार और प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री के गड़बड़झाले की ‘प्रियंका’ में छपी खबरों ने खासी हलचल मचा रखी थी। उसी दौरान पंडित जी ने एक प्रेसवार्ता अपने आवास पर आयोजित की थी। सौ सवा सौ पत्रकारों के जमावड़े में उन्होंने अपनी बात रखी। सभी अखबारों में छपी। अखबार में छपी खबर का असर भी हुआ। उसका श्रेय उन्होंने मुझे दिया। उनके स्नेह की गवाह अभी हाल की ही एक घटना का जिक्र किये बगैर यह लेख अधूरा रह जाएगा। विधानसभा चुनावों के दौरान 1991-92 में मऊ से लखनऊ लौटते समय गोरखपुर पुलिस ने बेवजह मेरा चालान धारा-151 में कर दिया था। उस घटना को मैं लगभग भूल गया था, क्योंकि कोई समन या वारंट कभी आया नहीं।
    अचानक पिछले साल मेरी गैर-मौजूदगी में एक रात बारह बजे पुलिस के दो सिपाही मेरे घर आ धमके। बच्चे परेशान, मेरे नाम के वारंट से परिवार हैरान। मैं बलरामपुर पत्रकारों के एक समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में भाग लेने गया था। मुझे खबर दी गई। वापस आने पर थाने जाकर समन देखा, समझ नहीं आया। गोरखपुर फोन लगाकर अपने वकील मित्र मद्दुसूदन त्रिपाठी को सब लिखाया और वहां पहुंचने का कार्यक्रम तय किया। बाद मंे पंडित जी को बताया, वे किसी काम से बाहर जाने वाले थे। मेरे कारण उन्होंने अपना कार्यक्रम स्थगित कर दिया। मेरे पहुंचने से पहले और कोर्ट परिसर में सबकुछ ठीक-ठाक होने तक पंडित जी ने कई बार वकील साहब को फोन करके कहा कि वरमा जी को किसी तरह का कष्ट नहीं होना चाहिए। मजा इस बात का कि मुझे इस बात का पता तक नहीं था। इतना ही नहीं एक छोड़ पांच-पांच जमानतदारों का इंतजाम करा दिया था फिर भी उनकी स्नेहमयी चिन्ता का हाल यह कि वे उस दिन कहीं नहीं गये। जब मैं कोर्ट से वापस आ गया और उन्हें बताया कि सब ठीक से निपट गया तब उनके चेहरे पर चिरपरिचित मुस्कान दिखी। सच कहूं तो वे सहृदयता एवं भावनात्मकता के असल नातेदर है।
    5 अगस्त उनका जन्म दिन है। हर बरस ‘प्रियंका’ गौरवांक’ छापकर उन्हें प्रणाम करती है। यह उनके उम्रदराज होने की कामना के साथ उनकी सेवाभावनाओं का समादर भी है। लिखने को बहुत कुछ है, कलम भी बेचैन है, लेकिन अखबार की अपनीसीमा है। उनका वंदन, अभिनंदन करते हुए उन्हें प्रणाम।

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