Tuesday, July 5, 2011

रोटी के रूठने का आतंकवाद अक्षरों के जेहाद से हार गया

साठ में दो और जुड़ गये। गोया बांसठ का हो गया। चुनांचे जिंदगी के 22630 दिन गुजर गये। इनको पलटने का अपना अलग आनन्द है, साथ में सठियाने का हलफनामा भी। सच कहूं तो आसमान पर छाये काले बादलों के जार-जार आंसुओं से भीगी-बौराई नदियों के शोर के बीच दुनिया में मेरी आमद मेरी अम्मा को कितनी नागवार लगी होगी। घर के आंगन से धुंआ भी उठा होगा। अषाढ़ का महीना। भर बरसात के दिन-रात। कोई गोला दगा, किसी ने शंख फूंका होगा। यह लंतरानी यूं ही नहीं है। महज साल भर बाद अम्मा को चिता की गीली लकड़ियों के बीच सुलगना पड़ा। तब भी अषाढ़ का महीना था। बरसात की गरज-तरज जारी थी। 7 जुलाई जब भी आती है, मेरी आत्मा बेचैन हो जाती है। अम्मा के लिए नहीं, उनकी पीड़ा भरी नाराजगी की कल्पना के लिए। तस्वीरों में मौजूद उनके चेहरे के भाव मेरी समझ में आज तक नहीं आये। घर में टंगे तमाम कलेंडरों में, रसोईघर की अलमारी के मन्दिर में मां दुर्गा की तस्वीरों के भाव भी नहीं समझ पाया। साफ कहूं तो माता के अभाव और बचपन के भयावह गलियारों की धूल ने एक जिद भी पैदा की। उसकी गवाही में किसी की दो लाइनें हैं, ‘टूटी हुई मंुडेर पर छोटा-सा एक चिराग/मौसम से कह रहा है, आंधी चला के देख बस ऐसी ही जिद ने संघर्ष को संकल्प में बदल दिया। रोटी के रूठने का आतंकवाद अक्षरों के जेहाद से हार गया। द्दनं जनं सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कमाये।इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं से परे माता सरस्वती के मन्दिर में उपासनारत हो गया।
            62 बरस बीत गये। सशररी अम्मा यशोदा की शक्ल में भी भले ही नहीं मिलीं, लेकिन संगिनी, बिटिया और बहुओं की शक्ल में जो दिखा, मिला शायद मातृत्व का मंगल ही होगा। तभी तो इन सबों को मेरा जन्मदिन भरअंजुरी याद रहता हैं। जब साठ का हुआ तो दोस्तों के साथ जन्मदिन का आनंद पहली बार लिया। अब हर बरस नाती-नतिनी, पोता-पोती दुलराते हैं, 7 जुलाई।
            अषाढ़ में ही गुरू पूर्णिमा पर्व होता है।तमसो मा ज्योतिर्गमय’, गुरू ने ही रौशनी दिखाई।नवजीवनसेप्रियंकातक की यात्रा में गुरू बृहस्पति की तरह संग रहे और आज भी हैं। गुरूकृपा से हीप्रियंकाबत्तीस बरसों से बराबर हिन्दी के पाठकों की दुलारी है। दरअसल उन्होंने मेरे हाथों में जो कलम थमाई थी, वह आज भी आदमी की आपदा के समय विस्फोट पैदा करने वाले शब्दों की जननी है। गुरू का आशीष उम्र के उस मोड़ पर मिला जब संघर्ष की कोखजायी पीड़ा वेश्या बनने को आतुर थी। पीड़ा के कौमार्य को सहेजना आसान नहीं होता। गुरूवर ने पीड़ा को अंकशयनी बनाने का गुर दिया। फिर क्या मजाल जो जिंदगी की सड़क पर उदासी की गश्त लग पाती। अखबार के दफ्तरों को बदलने के साथ कई खौफ, कई जीवट टकराये, विस्फोट हुए फिर सब शान्त। यहीं है गुरूकृपा। गुरूवर को शत्-शत् प्रणाम।
            संघर्ष को किसी कुरूक्षेत्र की आवश्यकता होती है ही किसी अर्जुन की, हर क्षणद्रौपदीसे बलात्कार के प्रयास होते हैं। बस यहींप्रियंकाका जन्म होता है। भले ही व्यवस्था या उसके भ्रष्ट सहोदर उसेचीथड़ामानते रहें। जब तीसों दिन हत्याओं और औरतों की आबरू लुटने का सिलसिला जारी रहे, पुलिस के पहरे में जिन्दा आदमी लाश में बदल जाये, हर आवाज को सरकारी लाठिया लहूलुहान कर दें और राजसिंहासन अहंकार के मद में मानवीय शिष्टाचार तक को विद्युत शवदाह घर का रास्ता दिखा दे, तबचीथड़ेही मानवता का तन ढकने के काम आते हैं।प्रियंकाके साथ इसी धर्म को निबाहना ही संघर्ष है।
            जन्मदिन पर बधाई देना औपचारिक हो सकता है, लेकिन अपने जन्मदिन पर अपनी ही पीठ ठोंकना, अपनी तमाम नाकामियों और लाचारियों पर हंसकर अपने को ताकतवर बनाना है। कुछ ऐसा ही यजुर्वेद में भी पढ़ा था, ‘हे मानव, स्वयं अपने शरीर को समर्थ कर, स्वयं सफल कर, स्वयं यज्ञकर, तेरा महत्व किसी दूसरे से प्राप्त नहीं किया जा सकता।यह सच है कि जन्म देने वाली मां और माता दुर्गा दोनों ही मेरे सामने तस्वीरों वाली मां की शक्ल में हैं। ये तस्वीरें मेरी ऊर्जा बनती रहीं हैं। मेरी पत्नी बताती हैं कि इस उम्र में भी रात को सोते समय मैं कभी-कभी दूध पीने जैसी आवाजें निकाल बैठता हूँ। कभी किसी आत्मीय से बातें करने, झगड़ने जैसी आवाजें निकालता हूँ। शायद माता स्वप्न में ही आशीषती होंगी। जो भी हो 62 की उम्र में शायद असुविधाओं और अज्ञानता के बादल गहरा जाते हैं, तब अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। मां सिर्फ मां होती है, तस्वीर वाली मां को प्रणाम!

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