Sunday, October 10, 2010

मुसलमान भी तरक्की पसन्द... इंशा अल्लाह

इक्कीसवीं सदी की दस सीढ़ियां चढ़कर मुस्लिम युवा मस्जिद और मदरसे में गजब का तालमेल बनाये हुए अपने मुल्क हिन्दुस्तान की तरक्की में शामिल होकर तेज रफ्तारी से आगे बढ़ रहा हैं। उसे अपने लिए अल्पसंख्यक कहा जाना नागवार लगने लगा है। युवतियां पर्देदारी के एहतराम के साथ कारपोरेट जगत में गोरे अंग्रेजों की जुबान फर्राटे से बोलती हुई भारतीय लोकशाही में अपनी जबर्दस्त पहचान दर्ज करा रही हैं। इन युवाओं को अब सियासीदल बरगला नहीं सकते। उनमें फैसला लेने की ताकत में एक बड़ा इजाफा हो चुका है।

मुसलमान वोटों की राजनीति का वो खास मोहरा रहे हैं, जिसका इस्तेमाल देश के सियासतदानों से कही अधिक मौलाना, इमाम या उलेमा नाम की संज्ञा ने अपने जाती फायदे के लिए बखूबी किया। आज भी दीनी तालीम या अपने तईं बनाये गये मजहबी कट्टरता के कानूनी ख़ौफ के मजबूत फंदे में आम मुसलमानों को लटकाए हैं और इन्हीं का एकमुश्त सौदा सियासीदलों से हर चुनावों में किया जाता है। मगर नई पीढ़ी ने मस्जिद की सीढ़ियां चढ़ते-उतरते तरक्की की ताजी हवा में सांस लेेते हुए देश के हर मोर्चे पर अपनी भागीदारी तय करने की ओर कदम बढ़ा दिये है। अब वे अपने को अल्पसंख्यक कहे जाने से आहत होते हैं। फिरकापरस्तों की गाली ‘मुसलमानों का मुल्क है पाकिस्तान’ को दर-किनार करते हुए मुस्लिम युवा अपने सुनहरे भविष्य के प्रति बेहद सतर्क है। कम्प्यूटर, मोबाइल, बाईक, कार से लेकर जींस-टाॅप इन युवाओं की पहली पसंद बन गये हैं। यही वजह है कि काॅरपोरेट जगत में इनकी भागीदारी पिछले दस सालों में बढ़कर आज 24 फीसदी और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी तक हो गई है।
मुस्लिम युवा देश की मुख्यधारा से जुड़ने को बेताब है, तभी तो इस साल स्नातक कक्षाओं व रोजगारपरक पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने वालों में इनकी तादाद काफी अधिक हैं। इन युवाओं का मानना है कि दीनी तालीम नमाज, कुरान, हदीस जहां मोहम्मद की हिदायत है, वहीं अंग्रेजी, हिन्दी, कम्प्यूटर का ज्ञान आज की जरूरत। नौकरी से निकाह तक शिक्षा की अनिवार्यता की अहमियत बढ़ी है। राजधानी लखनऊ के पश्चिमी कोने में बसे गली-मुहल्लों में अम्बरगंज जहां पुरानी रवायतों की पाकीजगी में जिंदगी सांस लेती है; वहीं के एक पुराने दड़बेनुमा मकान से एम.ए. पास लड़की शाहीन सिद्दीकी तीन बसें बदलते हुए गोमतीनगर के एक काॅलसेन्टर में नौकरी करने रोज आती है। पूरे सफर में उसका चेहरा नकाब से ढका होता है। आफिस पहुंचते ही बुर्का बैग में पहुंच जाता है और जींस टाॅप में चहकती हुई शाहीन अपने काम में मसरूफ हो जाती है। इस एक उदाहरण को नवाबों की विरासत सम्भाले इलाकों के घर-घर में देखा जा सकता है। लखनऊ के नदवा काॅलेज को कौन नहीं जानता। शिया डिग्री काॅलेज, मुमताज गल्र्स काॅलेज, सुन्नी स्कूल व काॅलेज और कई मदरसे तरक्की के रास्ते में रौशन हैं।
 सूबे के तमाम शहरों में कमोबेश मुस्लिम युवा एमबीए, बीबीए, बीसीए, पीजीडीसीए, बीटेक, एमटेक जैसे कोर्सों के साथ मीडिया के पाठ्यक्रमों में बढ़ रहे हैं। रामपुर जनपद के फुर्कानिया गल्र्स काॅलेज में निम्न मध्यम वर्गीय मुस्लिम लड़कियां शिक्षा पाती हैं। यहां की एक शिक्षिका का कहना है कि लड़कियों को पढ़ाने का नजरयिा इधर बदला है क्योंकि अब पढ़े-लिखे लड़के शिक्षित लड़की से ही निकाह करना चाहते हैं। यहीं जामिया-तुस्-सालेहात मदरसे ने हमदर्द युनिवर्सिटी से तालमेल करके लड़कियों के लिए बीबीए, बीसीए कोर्स शुरू किये हैं। फीस में भारी छूट भी दी जा रही है। आजमगढ़ जनपद के शिब्ली नेशनल पीजी कालेज में पढ़ने वाले लड़के-लड़कियों से सारा देश परिचित हैं। मऊ और गोरखपुर में चलने वाले मदरसों ने भी नई तकनीक को खुले दिल से अपनाया है। पश्चिमी उप्र के मदरसों ने भी जामिया मिलिया दिल्ली की देखरेख में लड़कियों को उच्च शिक्षा के साथ रोजगारोन्मुख शिक्षा देने की ओर बेहतर कदम उठाए हैं।
 हरियाणा के बेहद पिछड़े व मुस्लिम बाहुल्य जिले मेवात में हरियाणा वक्फ बोर्ड ने वहां के विधायक आफताब अहमद के प्रयासों से एक इंजीनियरिंग काॅलेज खोला है। महर्षि दयानन्द युनिवर्सिटी, रोहतक से सम्बद्ध है व एआईसीटीइ से मान्यता प्राप्त है। यहां मुस्लिम छात्रों के लिए 42.5 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं। दाखिलों का जोर और पढ़ने वालों का उत्साह देखते हुए मास्टर डिग्री व एमबीए के कोर्स शुरू करने की भी तैयारी है। यहां कई मदरसे व काॅलेज भी हैं जिन्हें वक्फ बोर्ड द्वारा संचालित किया जाता है। यहीं नूह में 650 करोड़ की लागत से एक मेडिकल काॅलेज भी बन रहा है।
 मेवात देश की राजधानी दिल्ली से महज 50 किमी. दूर है और आठ लाख की कुल आबादी में सत्तर फीसदी मुसलमान है। इनमें 44 फीसदी लोग शिक्षित हैं। यहां के लोग शिक्षा की ओर बहुत पहले से ही कदम बढ़ा चुके थे। अब उच्च व रोजागारपरक शिक्षा पर उनका जोर है, क्योंकि वे जान चुके हैं, शिक्षा ही उनका जीवन सुधार सकती है और वे मान रहे हैं कि शिक्षा ही सम्पत्ति है।
 हैदराबाद, आंध्र प्रदेश की राजधानी जहां चारमीनार के लिए जाना जाता है। वहीं बीस साल पहले तक अरब शेखों द्वारा मुस्लिम लड़कियों के खरीदे जाने व निकाह करके गुलाम बनाकर ले जाने की खबरों से व गरीब मुसलमानों की गुरबत के किस्सों से पहचाना जाता था। आज हैदराबाद ‘कम्प्यूटर हब’ कहा जाता है। यहां के निम्न मध्यम वर्गीय युवा डिग्री द्दारक हैं और अच्छी नौकरियांे में हैं। बुर्के के भीतर सहमकर चलने वाली युवतियां जीन्स-शर्ट पहने सिर पर स्कार्फ बांधे बसों-आॅटों व दो पहिया वाहनों पर सवार फर्राटा भरते देखी जा सकती हैं। फल-सब्जी बेचने वाले से लेकर मजदूरी करके पेट पालने वाले भी अपने बच्चों को पढ़ाने का जज्बा पाले दिखाई देते हैं।
 मुंबई में पिछले महीने एक मुस्लिम एनजीओ ने तरक्की के लिए बातचीत का आयोजन किया था। इस आयोजन में डाक्टर, इंजीनियर, व्यापारी, उद्योगपति, नौकरशाह, प्रोफेसर, तकनीशियन, साइंसदा सभी ने शिरकत कर मुसलमानों की नई पीढ़ी को रोजगारोन्मुख शिक्षा की ओर बढ़ने को सराहा। वहां आये 31 साल के इमरान खान, 18 करोड़ की वेस्टर्न इंडिया मेटल प्रोसे. लि. के प्रबंध निदेशक ने जहां अपने अनुभव बांटें, वहीं भाभा रिसर्च सेन्टर के रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट विंग में तैनात साइंटिफिक आफिसर 36 वर्षीय मेहर तबस्सुम तमाम युवतियों के लिए रोल माॅडल रहीं। उन्होंने वहां कहा ‘आमतौर से लड़कियां होम साइंस की ओर ही जाती रही हैं लेकिन ग्लोबलाइजेशन ने तमाम नये अवसर उपलब्ध करा दिये हैं।’ मेहर तबस्सुम 85 हजार रूपए प्रतिमाह तनख्वाह पाती हैं।
 युवा मुसलमानों की आंखों में नये सपने और नये आसमान में उड़ने की ललक साफ देखी जा सकती हैं। इसी मुंबई में तीन दशक पहले तक इन युवाओं का इस्तेमाल ‘अंडरवल्र्ड’ करता था तो युवतियों के लिए वेश्यालयों के दरवाजे और शेखों के हरम खुले थे। आज अंजुमन-ए-इस्लाम के सौ शिक्षण संस्थानों में एक लाख छात्र-छात्राएं शिक्षारत हैं। इन्हीं में डिप्लोमा इंजीनियरिंग के एक छात्र ने महाराष्ट्र में टाप किया है। यहां के इंजीनियरिंग व कैटरिंग के छात्र शत-प्रतिशत नौकरियों पा रहे हैं।
 देश में मुसलमानों को बरगलाने वाले सियासतदानों को मुंह चिढ़ाते हुए अशिक्षित या तकनीकी ज्ञान वाले युवा खाड़ी देशों में जाकर अच्छी कमाई कर अपनी माली हालात सुधार रहे हैं। कई परिवार तो पीढ़ियों से खाड़ी देशों में हैं और उनके परिवार यहां विभिन्न व्यवसाय करके मुख्यधारा से जुड़े हैं। हर साल रमजान के महीने में शुरू होने वाले ‘उमरा’ के नाम पर लाखों की तादाद में युवा सऊदी अरब जारकर चोरी छिपे कमाई करके देश वापस आते हैं। हज के दौरान इन्हीं में सैकड़ों नाई जाते हैं जो केवल हाजियों के सिर मूंडकर अच्छी खासी कमाई कर लाते हैं। इन ‘पेट्रोे मुस्लिमो’ में भी शिक्षा का बढ़ता असर साफ देखा जा सकता है। इनके बच्चे मदरसों से लेकर कान्वेंट स्कूलों, युनिवर्सिटियों में शिक्षा पा रहे हैं। सियासत के अढ़तिये और सरकारी कमेटियां गलत आंकड़े देकर अपना उल्लू सीधा करती रही हैं और करने में लगी हैं। आज तक मुसलमानों के हालातों का सही व ईमानदार आकलन करने की कोशिश की ही नहीं गई। हां उनकी कौम को, उनके गांव को, उनके शहर को आतंक से, अंडरवल्र्ड से जोड़ने की तमाम कोशिशें जरूर हुई है।
 भारत का सच्चा मुसलमान अपने सिर पर गोल टोपी लगाकर ऊँचा पायजामा पहने मस्जिद की ऊँची मीनार पर चढ़कर अल्लाह-ओ-अकबर पुकराते हुए अपने ईमान को बरकरार रखें हैं, तो बाइक पर सवार उसके बेटे-बेटी कम्प्यूटर से जूझते हुए देश की तरक्की में साझेदार हैं। इंशाअल्लाह! मुसलमानों की नई पीढ़ी के सुनहरे सपने सच होंगे।

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