Sunday, October 31, 2010

किसी राह में दहलीज पर दिये न रखो...

     2010 की दीवाली कई मायनों में पिछली दीवालियों से एकदम अलग है। यह पहला मौका है, जब उप्र के तख्त पर समूची दलित सरकार मय बाम्हनों के कुनबे समेत काबिज है। हालांकि पिछली तीन दिवालियां बसपा सरकार की अगुवाई में उप्र मना चुका है। इन तीन सालों में उसी के दमखम से हिंदू वोट बैंक, मुसलमान वोट बैंक, पिछड़ा वोट बैंक और माफिया वोट बैंक दीवालिया हो गए। यही वजह है कि मुसलमानों के खलीफा बनने की हसरत पाले समाजवादी साफा बांधे मुलायम सिंह यादव को सबसे पहले भारतीय न्यायपालिका में खोट दिखा। उसके बाद उनके हरकारों ने तास्सुब के जंगल में हांका लगाने जैसी हरकतें शुरू कर दीं। फिर भी कहीं कोई आवाज नहीं बुलंद हुई। तो दिल्ली से आयातित मुसलमानों की जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना बुखारी का हिंसक आचरण रावण को फूंके जाने के पारम्परिक पर्व से चार दिन पहले लखनऊ को देखना पड़ा। इस घटना के ठीक पांच दिन बाद लखनऊ के वक़ार को खतरनाक बम से भरे एक थैले से खौफजदा करने की कोशिश की गई। बावजूद इसके मस्जिद की ऊँची मीनारों से ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ की पाकीजा आवाज और मन्दिरों से ‘ऊँ जय जगदीश हरे’ की मीठी स्वरलहरी गूँज रही है।
 आदमियत को बरकरार रखने के लिए यह बेहद जरूरी है कि हम अपना मानसिक संतुलन बनाये रखें और धीरज को महज अवसरवादी नपुंसक राजनीति के हाथों सौंपकर राष्ट्रीय अस्मिता को खुलेआम आहत करने जैसा अपराध कतई न करें। खासकर उस वक्त तो कतई नहीं जब आस्था, विश्वास और इंसाफ के मजबूत पेड़ की जड़ों पर किए गए भावनात्मक कुल्हाड़ों की चोट से पैदा हुए जख्म की मरहम पट्टी के साधन तलाशे जा रहे हों। सीधे-सीधे कहें तो महज वोटों की खोज के लिए अनर्गल प्रलाप करके अपनी मां की गोद और जनभावनाओं को शार्मिन्दा करने जैसी नीच हरकत न करें।
अयोध्या में राम मन्दिर और मस्जिद बनाने को लेकर इतनी चीरफाड़ हो चुकी है कि अयोध्या समूची जख्मी है। भाजपा के लठैतों और धर्मनिपरेक्ष तलवारों ने फिर से एक बार उसे नये जख्म देने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। ऐसे हालातों में इनकी अगुवाई करने वाले नेताओं की चैराहों-चैराहों पर निंदा की जानी चाहिए।
 अयोध्या में विवादित भूमि के मालिकाना हक को लेकर जो फैसला उच्च न्यायालय ने किया है, उसे लेकर हाय-तौबा मचाने वाले जहां सुप्रीमकोर्ट जाने का फैसला लगभग ले चुके हैं, तब उच्चन्यायालय की अवमानना करने जैसा अपराध क्यों कर रहे हैं? रही बात सुलह के प्रयासों की तो इतिहास गवाह है कि सन् 1856 में पहली बार हिन्दु-मुसलमानों के बीच समझौता हुआ था कि यह स्थान हिन्दुओं को दे दिया जाए और बगल में मस्जिद बना दी जाए। अंग्रेजों को यह पसंद नहीं आया लिहाजा 18 मार्च 1857 में दोनों पक्षों के नेता बाबा रामचंद्रदास तथा अमीर अली को नीम के पेड़ से लटकाकर सरेआम फांसी दे दी गई। कुछ ऐसी ही हरकतें साइकिल पर बैठकर मुलायम सिंह यादव और भाजपाई रथ पर सवार विनय कटियार करने की कोशिश में लगे हैं। इन प्रयासों को राष्ट्रप्रेम कहा जाएगा?
 ‘सच यह है कि आम मुसलमान भारत की तरक्की में साझीदार हो रहा है। इन तरक्की के जियालों के हाथों में कट्टे का दस्ता या हथगोला नहीं, कलम है। रह गये बुखारी जैसे आतंक के हिमायती तो उन्होंने कलम के बेटे पत्रकार को पीटा है। वे हैं किस मुगालते में, उनसे उन्हीं की जुबान में कलम के जांबाज निपट लेने में सक्षम है। पूरी पत्रकार कौम सक्षम है और हम निपटेंगे भी। उससे पहले बेरोजगार नेताओं (विपक्षी) से मेरा सवाल है। उच्च न्यायालय के फैसले को आस्था आधारित कहकर भले ही वे अपने नंगे सिर को गोल टोपी से ढककर वोट की खोज का रास्ता मान रहे हो, लेकिन समूचा प्रदेश बीमार है। बिजली की किल्लत से हलकान है। दवाई, सफाई नदारद है। झूठे और ढीठ अधिकारी बहरे होकर मनमानी पर उतारूं हैं। मुख्यमंत्री अपने मिशन से लाचार हैं। ऐसे में आदमी के लिए वे क्या कर रहे हैं? क्या मानवीय मूल्यों का ककहरा उन्हें याद है? सिर्फ बातों-बयानों के बताशों से आदमी दीपावली मना लेगा? अकेले राजधानी में डेंगू से दसियों मौतें हो गईं। किसी समाजवादी, भाजपाई, कांग्रेसी की आत्मा मंदिर-मस्जिद मामले की तरह कलपी। उन लाशों के सिरहाने खड़ा होकर कोई नेता रोया या रोने वालों को कोई सांत्वना दी? बिजली मजदूर आये दिन हाइटेंशन लाइन से चिपक कर मर रहे हैं। उनकी जली हुई लाशों पर कफन डालने या उनकी धधकती चिता के आस-पास कोई जनसेवक फटका? इन सवालांे के पीछे मेरी मंशा है कि मंदिर-मस्जिद विवाद उच्चतम न्यायालय में जाना तय है, तो फिर इतनी उछलकूद? अगर यह फिरकापरस्त ताकतों को सक्रिय करने के लिए है, तो फिर यह राष्ट्रद्रोह कहा जाएगा।
 सच सारी दुनिया जानती है और जो नहीं जानने की जिद पर अड़े हैं वे भी जान लेने के लिए ही बड़ी अदालत के भीतर दाखिल होने को बेचैन हैं। ऐसे में आदमी के सुख को रौशन करने के लिए उसी की भाषा में, उसी की आस्था में उम्मीदों का एक चिराग जलाया जाये। दीपावली सिर्फ श्रीराम के राज्याभिषेक की प्रसन्नता के प्रतीक का पर्व भर नहीं है। यह आदमी के अंधियारे से लड़ने की ताकत का पर्व है। यहां सांप्रदायिक आतिशबाजियों की नहीं बल्कि अहंकारी अंधेरे में भटके हुए मुसाफिरों को ईमानदार रास्ता दिखाने के लिए एक प्यारा सा, छोटा सा चिराग जलाने की जरूरत है। और अन्त में बशीर बद्र की ये लाइनें
किसी राह में दहलीज पर दिये न रखो, किवाड़ सूखी हुई लकड़ियों के होते हैं
दीपावली मंगलमय हो। प्रेम और स्नेह से सराबोर हो। छप्पर फाड़ कर सुख व समृद्धि लेकर माता लक्ष्मी आपके घर पधारें और खुशियां आपके घर-आंगन चैबारे में झूम-झूम कर नाचें।    प्रणाम!

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