Thursday, July 5, 2012

जन्म दिन पर विशेष:- अखबार और औरत सभ्य जगत की आदत में...!

अखबार और लड़की में कोई खास फर्क नहीं होता। लड़की सेवक तो अखबार सेवाभावी। दोनों ही हिंसा के शिकार। ब्याह कर ससुराल पहुंचने तक लड़की की सुरक्षा के तगड़े इंतजाम, तो अखबार के छपकर पाठकों तक पहुंचाने के बीच उसे महफूज रखने को सौ जतन करने पड़ते हैं। लड़की शोहदई से लेकर बलात्कार के दंश से अपमानित, तो अखबार अलमारी में बिछाने और बच्चों का गू पोंछकर नाबदान में फेंके जाने को अभिशप्त। इतना ही नहीं ब्याह के बाद लड़की को दहेज कम लाने, ढंग से काम न कर पाने के झूठे आरोपों के साथ सास के ताने और दूल्हेराजा के बिस्तर पर सिनेमाई करतब में नाकाम रहने पर जिंदा जला दिये जाने की हैवानियत का शिकार होना पड़ता है।
    वहीं अखबार पाठकों की नापसन्द खबरों, लेखों व फोटों के लिए ‘क्या छापते हैं.... सा... ल्...ले’ जैसी दसियों गलियों के साथ अखबार में छपी सिने तारिकाओं की अधनंगी तस्वीरों में सेक्स के खास उपकरण की तलाश में हताश होने के बाद पाखण्डी प्रवचन के साथ आग जलाने, तापने की भेंट चढ़ा दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि अखबार या लड़की की भूमिका का खैरमकदम नहीं होता, स्वागत नहीं होता। होता है, बखूबी होता हैं। मां, बहन, बेटी और पत्नी जहां सृष्टि की रचनाकार हैं, वहीं पालनकर्ता भी हैं। तभी तो स्त्री के सभी स्वरूपों का पूजन, वंदन, अभिनंदन कर उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है। ठीक इसी तरह अखबार का भी इस्तकबाल होता है। सूचना, समाचार और सम्बन्धों का गणित हल करने की कुंजी है, अखबार।
    गो कि अखबार और औरत सभ्य जगत की आदत में, अदब में और अर्दब में शामिल हैं। तभी तो आदमी की हर पीड़ा पर, हर चीख पर दोनों बेचैन हो उठते हैं। इसके लाखों उदाहरण हमारे आस-पास ही मौजूद हैं। सच मानिये मेरे लिए अखबार, बिटिया से कम नहीं है। मेरी बिटिया का नाम प्रियंका। अखबार का नाम प्रियंका। मैं दोनों में आज तक कोई अंतर नहीं तलाश पाया। दोनों के प्रति एक सी भावना के साथ जीवन के 63 बरस पूरे कर लिये। चैसंठवी सीढ़ी पर इसी 7 जुलाई को अपने दोनों पांव रख दिये। अजीब इत्तफाक है, मेरी पैदाईश के नजदीकी दिनों में ही गुरू पूर्णिमा/अषाढ़ी पूर्णिमा का महात्म्य बखाना जाता है। भर अंजुरी बरसात होती है। नदी-नाले, घर-आंगन पानी ही पानी। भले ही इस बरस अषाढ़ में धूप की जिद जारी रही हो, फिर भी पानी ही जीवनदायनी। जल ही जीवन। सच, भरी बरसात में मैं जन्मा और उसी बरखा में मेरी मां भर गई। पानी के दोनों रूपों का सच राम, राम का नाम सत्य है। रामचरितमानस में तुलसी के राम ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप हैं। वेदों के प्राण हैं, निर्गुण, उपमा रहित और गुणों का भण्डार हैं। और आगे श्रीराम की भक्ति को वर्षा ऋतु कहते हैं, दोनों अक्षरों को सावन-भादों माह मानते हैं -
बरखा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास।।
कहते हैं, तुलसी ने पैदा होते ही ‘राम’ शब्द को उच्चारित किया था। उनकी माता भी उनके जन्म लेने के तुरन्त बाद स्वर्गवासी हो गई थीं। पिता ने अबोध शिशु रूपी तुलसी से कोई सम्बन्ध नहीं रखा था। मेरे पिता भी मेरी चार साल की आयु में स्वर्गवासी हो गये। माता-पिता के न रहने पर बालक अनाथ कहलाता है। तुलसी भी अनाथ थे, लोगों की भीख पर पले-बढ़े, पढ़े। मैं भी दूसरों की दया पर पला-बढ़ा, पढ़ा। यहां तक की समानता का यह मतलब कतई नहीं कि मैं तुलसी में अपनी तलाश करने बैठा हूँ। कतई नहीं। वे प्रभु राम के उपासक, मैं नाम से राम। नाम के भी अर्थ होते हैं, शायद उसे ही सार्थक करने के लिए ‘प्रियंका’ अखबार को निकाल सका। यहां फिर तुलसी के मानस का ही एक दोहा याद आता है, जो मेरी प्रेरणा भी है -
भाग छोट अभिलाषु बड़ करऊँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास।।
    यानी मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी लेकिन मुझे एक विश्वास है, इसे सुनकर सज्जन सुख पायेंगे और दुर्जन हंसी उड़ाएंगे।
    ‘प्रियंका’ कारपोरेट घरानों के अखबारों और वीआईपी पाठकों की क्षुद्र सोंच के सामने पिछले 33 सालों से कैसे टिकी है, यह बखानने की आवश्यकता नहीं हैं। यहां लिखे बगैर रहा नहीं जाता, जब-तब दयाभाव से और अपनत्व की चाशनी में लिपटे पत्थर ‘वरमा जी लिखते बढि़या हैं लेकिन उन्हें कोई बड़ा मंच/प्लेटफार्म नहीं मिला वरना..’ मेरे स्वाभिमान को आहत कर जाते हैं। दरअसल उनकी मंशा मुझे निम्न दरजे का, अछूत मानने की होती है। वे पीठ पीछे ‘प्रियंका’ को चीथड़ा और मुझको मूर्ख कहने में गुरेज नहीं करते। वह भी ‘प्रियंका’ को और मेरे लिखे को बगैर पढ़े। मजा तो इस बात का उन्हें यह भी नहीं पता होता कि मेरे हाथों में क़लम किसने थमाई और क़लम ने अब तक कैसे -कैसे विस्फोट किये और उन धमाकों से कितने घायल हुए और मेरे अपने हाथ कितने झुलसे?
    झुलस तो शायद माता के मुंह मोड़ लेने से ही गये थे। जननी का मुंह न देख सकने का संताप, माता जगदम्बा से लगाव और साक्षात दो बहुओं, बेटी, और पत्नी को देखने बाद बहुत कम हो गया है। पालने वाली दादी की धोती के पल्लू से बंधा अधन्ना खोलने और पसीने से भीगा चेहरा साफ करने में जो सुख मिला, उससे भी कहीं अधिक ठहाके लगाने जैसा आनन्द सैकड़ों मित्रों को पाकर मिला। मेरे लिए मेरे मित्र ही ईश्वर हैं।
    मैं कई बार सांेचता हूँ कि क्या तुलसी ने अपनी मां को नहीं याद किया होगा? क्या उनके रूप-रंग, उनकी मुस्कान, उनके दुलार, उनकी डांट और अपने बालहठ की कल्पना कभी नहीं की होगी? फिर रामचरितमानस में ‘‘कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुक ठुमुक प्रभु चलहिं पराई।।’’ पढ़कर समझ आता है कि तुलसी ने माता कौसल्या में अपनी मां तलाश ली थी, तभी तो- ‘बार-बार मुख चुंबति माता। नयन नेह जलु पुलकित गाता।। गोद राखि पुन हृदयँ लगाए। स्त्रवत प्रेमरस पयद सुहाए।।’ यानी माता कौसल्या का प्रेमरस उनके लिए अमृत हो गया।
    मेरी मां का नाम है क़लम और अक्षर है मेरा भाई। गुरूवर हैं पं0 दुलारेलाल भार्गव और ईश्वर हैं मित्रगण। सबको प्रणाम। ‘गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।।’ सो राम पर ‘राम’ की कृपा ऐसे ही रहेगी तो अखबार ‘प्रियंका’ सेवाभावी और आदमी की आपदा का आन्दोलन, वेदना की चीख और सचबयानी का हलफनामा बना रहेगा। फिर भले ही चीथड़ा कहकर ताली बजाने वाले हीजड़ों की हथेलियां घायल हो जाएं। प्रणाम!
राम प्रकाश वरमा

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