Friday, March 2, 2012

ए फाॅर एप्पल गलत जवाब


लखनऊ। सही जवाब है, एडमिशन, एडवांस फीस। जी हां, अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई का दावा करने वाले गली-गली खुले क्राइस्ट/विसडम/सेन्ट फ्रांसिस/मान्टेसरी स्कूलों में बच्चों के दाखिले का मौसम है। इन नकली अंग्रेजों का शिकार ग्रामीण पृष्ठभूमि से आये शहर में कमाने वालों, सब्जी बेचने, रिक्शा चलाने वालों से लेकर खोमचे वालों, सफाई कर्मियों तक के परिवार हो रहे हैं। इन परिवारों की ललक मध्यम वर्गीय परिवारांें के बच्चों को देखकर इधर काफी बढ़ी है। इसी का फायदा दो कमरों वाले अंग्रेजी स्कूल उठा रहे हैं। इनकी फीस तीन-पांच से सात सौ रूपए प्रतिमाह बताई जाती है। इसके अलावा वर्दी-जूता, बस्ता, किताबें-कापियां और आये दिन मैंगो डे, रोज डे, फाडर्स-मदर्स डे, टीचर्स डे, बर्थ डे या फ्रेंड्स डे आदि का खर्चा अलग। पैरेंट-टीचर्स मीटिग के नाम पर भी ठगी के अनोखे तरीके अपनाये जाते हैं।
दरअसल अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने में अभिभावक कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। पिछले दस सालों में लोगों में जहां शिक्षा के प्रति जागरूकता पैदा हुई है, वहीं स्कूल को दुकान में बदलने का काम भी बड़ी तेजी से हुआ। इसकी प्रेरणां सिटी माॅटेसरी स्कूल से लेकर कई अच्छे स्कूल जहां खुले, वहीं हर किलोमीटर पर दुकानें या माॅल जैसे अंग्रेजियत का बखान करते स्कूल भी खुल गये। इन ‘ब्लैंक अंग्रेजों’ के यहां कुत्ता, बिल्ली, बतख, मुर्गी, कबूतर, घोड़ा, गधा, गाय तक पाले गये हैं। इन जानवरों के आकर्षण से छोटे-छोटे बच्चों को बहलाया जाता है। अभिभावक भी झूले, कम्प्यूटर, सुंदर आधुनिक मास्टरनी को गिटपिट-गिटपिट फर्राटे से ‘एक्चुअली...वी...केयर.. ओह.. डोंट... चिंता.... आपका ... बेबी... इज.. सेफ... अई... विल...’ बोलते देख अभिभूत हो जाते हैं। उससे भी मजेदार बात है इनक स्कूलों का घोर जातिवादी होना। हिन्दू सवर्ण मालिकों के यहां ‘ऊँ भूर्भुवः....’ से लेकर ‘वंदे मातरम्..’, मुसलमान, दलित या अन्य मालिकों के यहां अंग्रेजी की प्रेयर होती हैं। इसी तरह यहां होने वाली छुट्टियों का भी हाल है। जहां इन स्कूल के मालिकों ने अपनी जेबें भरने का इंतजाम किया है, वहीं चाहे-अनचाहे साक्षारता की दर मंे भारी इजाफा किया हैं आज उप्र में साक्षरता दर 80.2 प्रतिशत है। लखनऊ में 88.5 प्रतिशत है।
ऐसा नहीं है कि सरकार मुंह ढककर सो रही है। सूबे मंे एक लाख पांच हजार पांच सौ पांच प्राथमिक और 42 हजार उच्च प्राथमिक स्कूल है। इसके बाद भी हर तीन सौ की आबादी पर एक प्राथमिक स्कूल खोलने का फैसला उप्र सरकार ले चुकी है। शिक्षा के अधिकार के तहत इन स्कूलों का जायजा भी लिया जा रहा है। जहां अध्यापक, प्रधानाध्यापक, पुस्तकालय नहीं हैं या अनिवार्य शिक्षा के तहत मिलने वाली सुविधाएं नहीं है, वहां उन्हें दूर करने के प्रयास भी जारी हैं। मगर मिड डे मील में होने वाली अनियमितताओं से अधिक बडे अपराधों की ओर गंभीरता से नहीं ध्यान दिया जा रहा है। बच्चों से शौचालय साफ कराये जाते हैं, उनका यौन शोषण तक होने के समाचार हैं। ऐसे में अभिभावकों का सरकारी स्कूलों से दूर होना स्वाभाविक है। आउट आॅफ स्कूल बच्चों की राज्य स्तरीय परियोजना के मुताबिक इसका अकेला उदाहरण राजधानी लखनऊ हैं जहां के 5.5 हजार से अधिक बच्चे आज तक स्कूल गये ही नहीं।
बहरहाल ‘ब्लैक हिंग्लिश मीडियम’ स्कूलों की चांदी काटने का मौसम है। इन्हें कमाई के साथ गुरूकुल परम्परा पर एक निगाह अवश्य डालना चाहिए।

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