Friday, March 2, 2012

आदमी के भरोसे में है खबरपालिका


सच लिखुंगा तो सियासी मुहल्ले के जांबाज हाथ काटे लेंगे। झूठ लिखुंगा तो अपनी ही आत्मा धिक्कारेगी। ऐसी जद्दोजहद से कई बार आमना-सामना हुआ। चार दशक से अधिक खबरपालिका के गलियारों में गुजारने के बाद भी दाल-भात-तरकारी का रोना, गरीबी का बांझ होना और नैतिकात की सड़ती लाश पर राम नाम सत्य है का जयकारा लगाने का कर्मकांड जस का तस है। पिछले दिनों सूबे के बेहद पिछड़े इलाके सोनभद्र जिले के राबर्ट्सगंज मंे पत्रकार बिरादरी के एक आयोजन में जाना हुआ। पहली बार किसी जिले में ग्यारह पत्रकार संगठनों के साझा मंच पर बैठने, बोलने, बतियाने, समझने, सुनने, सीखने और गुनने का मौका मिला। जल, जंगल, जमीन के झंझट से लेकर खबरपालिका में भरोसे के संकट पर लगातार तीन घंटे तक बातें हुईं। वहीं मुझे चेतावनी जैसे अंदाज में जानने-सुनने को मिला पत्रकारिता पांचवा वेद है, चैथा खम्भा है। मुझे अफसोस भी हुआ और भरोसे के लुटेरों से गाफिल जमात को नैतिकता की अंतहीन सड़क पर बिखरे पाखण्डी कंकड़ों पर दौड़ते देखने की पीड़ा भी हुई।
सच तो यह है कि ‘भरोसे’ का कहीं कोई संकट नहीं है। भरोसा कहीं नहीं टूटा है। यह तो बाजार का खड़ा किया गया छद्म है। क्योंकि इसकी आड़ मंे खबरपालिका को बदनाम किया जा सके, उसमें सेंध लगाई जा सके, उसके चरित्र पर उंगलियां उठाई जा सकें। ऐसा हो भी रहा है। दरअसल बाजार के देवताओं की नजर में आदमी सिर्फ और सिर्फ उपभोक्ता है। सो उपभोक्ता को भरमारकर लूटना उसका लक्ष्य है और उसके इस कुकर्म में सत्ता के स्वामियों की बराबर की साझेदारी है। तभी तो पढ़ाई, दवाई, सफाई व रोजमर्रा की आवश्यकताओं से लेकर लाशों और उनके ताबूतों के घपलों-घोटालों में रावणी ठहाके चारों ओर शोर मचाए हैं। ऐसे में धोबी द्वारा माता सीता पर लगाए झूठे लांक्षन में संदेह की तलाश बेमानी है। सो निष्पक्ष, राष्ट्रीय, पेड न्यूज, पीत-पत्रकारिता या पूर्वजों की गाथा से हटकर आज की जरूरतों पर मजबूती से कदम बढ़ाने की जरूरत है। अक्षरों से खेलना और अक्षरों को खौलाना दोनों अलग एकदम अलग तरह का बाजार खड़ा करते हैं। इसीलिए बाजार के साथ, सत्ता के साथ खबरपालिका को भी मौका-बे-मौका बदलना पड़ेगा। बाजार के अर्थशास्त्र से तालमेल -बिठाने होंगे लेकिन अपनी मां कलम का दामन थामे हुए। ऐसा हर युग में हुआ है और होता रहेगा।
हिन्दी पत्रकारिता के भीष्म पितामह सम्पादकाचार्य पं0 दुलारेलाल भार्गव ने अंग्रेजी, उर्दू और फारसी की फिरंगी-नवाबी तरबियत में डूबे लखनऊ में सन् 1924 में ‘माधुरी, ‘सुधा’ जैसी हिन्दी की पत्रिकाआंे व गंगा-पुस्तक-माला जैसा प्रकाशन खड़ा करके ‘दुलारे-युग’ का निर्माण कया था। वह नवाबों, राय बहादुरों, ताल्लुकेदारों के अंग्रेज हाकिमों की कोठियों पर सलाम बजाने का जमाना था। तब सच को सरेआम फांसी दिये जाने का चलन था। फिर भी हिन्दी पुत्र ने भारतीय मानस को उच्चकोटि के साहित्य, सूचना और शिक्षा से सराबोर कर दिया। बस ‘दुलारे युग’ के पन्ने पलट कर प्रेरणां लेने भर से ‘भरोसे’ और ‘सच’ के संकट से उबरने का रास्ता मिल जाता है। मुझे चवालीस बरस पहले उस ‘कवि-कुटरी’ में माथा टेकने का मौका मिला था, जहां से हिन्दी के सैकड़ों दिग्गज नाम निकले थे। हिन्दी पत्रकारिता और साहित्य के उस गुरूकुल में मुझे दीक्षा देते वक्त गुरूवर पं0 दुलारेलाल भार्गव ने समय और सामयिकता का भरपूर अध्ययन कर समाज से सामंजस्य बनाते हुए शब्दों का हलफनामा आदमी की अदालत में दाखिल करने की हिदायत दी थी।
और अंत में इतना ही कि पत्रकार भी इसी समाज की इकाई है। उसकी भी सीमाएं हैं। उसकी भी जरूरतें हैं। उसका भी परिवार है, परिवेश है। उसे भी बदचलन हवाएं गुमराह कर सकती है। बावजूद इसके उसकी हथेली पर सच और भरोसे वाला खरा सिक्का था, है और रहेगा कवि नीरज के शब्दों में कहें तो-
धूप चाहे रंग बदले, डोर और पतंग बदले।
जब तलक जिंदा क़लम है, हम तुम्हें मरने न देंगे।

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