Thursday, August 11, 2011

लखनऊ में महादेव ही... महादेव

¬ त्रयम्बकम् यजामहे सुगन्धि पुष्टि वर्धनम्।   उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।

केतकी वरमा
लखनऊ। सावन भर भोले बाबा महादेव की पूजा अर्चना कर जीवन में सुख-शान्ति की कामना करने वाले भक्तों की भीड़ मनकामेश्वर मंदिर, कोनश्ेवर मंदिर या बुद्धेश्वर मंदिर में अधिक रहती हैं। बुद्धेश्वर महादेव का मेला हर बुधवार को पूरे सावन भर मंदिर के पास लगता है। मोहान रोड पर बने इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्वार पूरी तरह हो गया है। इस मन्दिर के शिवलिंग को गुप्तकालीन माना जाता है। मन्दिर के पिछली ओर एक सरोवर का खण्डहर भी है, जहां वीरवर लक्ष्मण के स्नान करने की बात कही जाती हैं। इससे इस तीर्थ की महिमा आंकी  जा सकती है। ग्रामीण और अपढ़ जन इसे ‘बुद्धेसुरन’ कहकर पुकारते हैं। मंदिर में यूं तो हर बुधवार खासी भीड़ होती हैं, लेकिन सावन में यहां भक्तों का तांता देखा जा सकता है। कहते हैं बरसात में लगने वाले मेले में आने के लिए भक्तों को एक उफनाते हुए नाले को पार करने में दिक्कतें होती थी। महादेव की एक भक्तिन धनिया महरी ने उस नाले पर पुल बनवा दिया था, जो आज भी है और धनिया महरी पुल के नाम से जाना जाता है।
    लखनऊ में गोमती नदी के बाएं तट पर मन की सभी इच्छाओं को पूरा करने वाले मनकामेश्वर महादेव का शिव मन्दिर है। शिव मन्दिर मे डालीगंज पुल से होकर जाया जा सकता है। यह बेहद प्राचीन शिवालय है। राजा हिरण्यधनु ने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के उल्लास में इस मंदिर का निर्माण कराया था। मंदिर के शिखर पर 23 स्वर्णकलश थे। दक्षिण के शिव भक्तों और पूर्व के तारकेश्वर मन्दिर के उपासक साहनियों ने मध्यकाल तक इस मंदिर के मूल स्वरूप में बनाए रखा था। आज के भव्य मंदिर का निर्माण सेठ पूरन शाह ने कराया।
    गोमती नदी के कुड़िया घाट (कौण्डिन्य घाट) के पास कौण्डिन्येश्वर महादेव मन्दिर है, जिसे कोनेश्वर मन्दिर व आम बोलचाल में कोनेसुरन शिवाला कहा जाता है। इस मंदिर के खण्डित शिवलिंग की प्राचीनता और महिमा से भक्तगण बेहद प्रभावित हैं। हर सोमवार मेले जैसा वातावरण रहता है।
    रकाबगंज से नक्खास जाने वाली सड़क नादान महल रोड पर अहाता कमाल जमाल के पास सिद्धनाथ महादेव मंदिर है। इस मंदिर का शिवलिंग काफी समय तक भूमिगत रहा। यहां शिवलिंग की लाट धरती में बहुत अधिक गहरी है, जो चांदी से मढ़ी है। बाबा सिद्धनाथ की ताम्रवर्णी गुप्ताकलीन मूर्ति पर अर्ध्य जल की धार से एक गढ़े का चिन्ह सा बन गया है। शिवालय में पंचदेवोंपासना का निर्वाह होता है। यहां विशाल त्रिशूल और धवलनंदी देखने लायक हैं।
    रानी कटरा मोहल्ले में 9वीं सदी से पहले की सहस्त्रलिंग प्रतिमा वाला बड़ा शिवाला है। इसका निर्माण कश्मीरियों द्वारा दोबारा कराया गया है। यहां के ठाकुरद्वारे में शिव-पार्वती की मूर्तियां हैं। आगे चौपटिया जाते समय खेतगली में छोटा शिवाला है, जिसे 12वीं सदी में सांस्कृतिक संक्रमण के बाद दोबारा पांच सौ दस बरस पहले निर्मित कराया गया था। किंवदंती है कि उस समय इसका अरधा जब दक्षिण उत्तर किया जाता था तो वो अपने आप घूमकर पूरब पश्चिम हो जाता था।
    अलीगंज में जागेश्वर मन्दिर है जो पहले अहिबरनपुर में आता था। इसे कल्लनमल व्यापारी ने बनवाया था। वे शिवभक्त होने के साथ अलीगंज हनुमान मंदिर के निर्माता जाटमल के सम्बन्धी थे।
    लखनऊ के उत्तर में इटौंजा के पूर्व में महोना में बाबा गंगागिरी आश्रम में समाधियां हैं इन सभी समाधियों पर शिवलिंग हैं। कहते हैं यहां बाबा गंगागिरी ने जीवित समाधि ली थी। यहीं एक पक्का तालाब है और उसी के पास मन्दिर है। यहां के दुखहरण द्वार पर गुप्तकालीन चौखट लगी है। इस शिवाले के भक्तों में बड़े राजा रईसों का नाम आता है।
    लखनऊ के उत्तर पूर्व में कुम्हारावां ब्राह्मणों की बस्ती है। यहां के राजा पृथ्वीपाल की रानी जिन्हें गांव वाले धिराजरानी कहते थे, ने कारसेवन मन्दिर का निर्माण अयोध्या के कुशल कारीगरों से कराया। कहते हैं मन्दिर में जो शिवलिंग है। उसे जंगल में चरवाहों ने देखा था। धिराजरानी इस शिवलिंग को अपनी हवेली के पास प्रतिष्ठापित कराना चाहती थी लेकिन शिव को कोई हिला भी नहीं सका सो वहीं पर मन्दिर बना। शिवरात्रि, कजरीतीज और सावन में आज भी मेले जैसा आयोजन होता है।
    लखनऊ के दक्षिण रायबरेली-लखनऊ सीमा पर सई नदी के तट पर भंवरेश्वर मंदिर है। इस शिवाले को औरंगजेब की फौज ने गिरा दिया था लेकिन जैसे ही मूर्ति पर प्रहार किया तो अरधे के पास से इतने भंवरे निकल पड़े कि फौज इनके आतंक से भाग खड़ी हुई। यहां के शिवलिंग पर उस आघात के निशान आज भी बाकी हैं। इसका वर्तमान निर्माण कुर्री सुदौली के राजा सर रामपाल सिंह की पत्नी रानी गणेश कुंवर ने अपनी किसी मनौती के सन्दर्भ में कराया।
    नगर के पश्चिम में सड़क के बांयी ओर नवाब आसिफुद्दौला के शासनकाल में हरिद्वार से आए बाबा कल्याण गिरी ने यहां मुख्य शिवलिंग स्थापित किया था और मन्दिर का निर्माण राजा भवानी महरा द्वारा किया गया था। अब तो कई मन्दिर बन गए हैं। इन्हीं को कल्याणगिरी मन्दिर कहा जाता है। यहां सावन के अलावा कजरीतीज व शिवरात्रि में मेला लगता है। लखनऊ के काकोरी (कर्कपुरी) के करीब बेता नदी के तट पर नवाब आसिफुद्दौला के दीवान राजा टिकैतराय का बनवाया राज राजेश्वर मन्दिर है। यह शिवाला भारशिवों की परम्परा कान्धे पर जल से भरी कंवर उठाए शिवाराधना का जीवंत प्रमाण है। इटौंजा में रत्नेश्वर महादेव के मन्दिर का निर्माण सन् 1892 में इटौंजा नरेश राजा इन्द्र विक्रम सिंह ने कराया था। यहां शिवरात्रि में बड़ी भीड़ होती है।
    लखनऊ से 25 किलोमीटर दूर मोहनलालगंज में काशीश्वर शिव मन्दिर का निर्माण सिसेंडी के ताल्लुकेदार राजा काशी प्रसाद ने सन् 1860 में कराया था। दोबारा सन् 1926 में उनकी रानी सुभद्रा कुंअर ने भी इसे सुन्दर रूप दिया। इस शिव मन्दिर के साथ आठ कोणों पर आठ शिवाले बने हैं। खास बात यह है कि मन्दिर का द्वारपाल रावण है। यहां शिव दर्शन की बड़ी मान्यता है।
    लखनऊ नगर से मोहान कस्बे के बीच नवलगंज में राजा नवल राय का बनवाया शिवाला अपने शिखर को लेकर बेहद लोकप्रिय है। इसे रचनाधर्मिता के लिहाज से रतन शिवाला भी कहा जाता है। राजा साहब ने एक शिवाला मलिहाबाद में भी बनवाया था, जो आज भी है।
    नवलगंज के पास महाराजगंज है जिसे नवाब वाजिद अली शाह के वित्त मंत्री दीवान राजा बालकृष्ण ने बसाया था। संवत् 1880 में दीवान साहब ने यहां एक भव्य शिव मन्दिर, धर्मशाला व कुआं बनवाया था। इसके शिखर पर पीतल के सिंह और मर्कट बने हैं। द्वार पर कबूतरों का एक जोड़ा बना है।
    लखनऊ के इन सभी शिव मन्दिरांे में सावन, शिवरात्रि, कजरीतीज और हर सोमवार को उत्सव जैसा वातावरण रहता है। सावन में भक्तगण इनकी परिक्रमा लेटकर करते देखे जाते हैं। शिवभक्ति में रचे बसे लखनऊ की गलियों में भी तमाम छोटे शिवाले देखने को मिलते हैं। कई छोटे शिवाले तो सौ से दो सौ बरस पुराने हैं। इन सभी शिव मन्दिरों में आजकल ‘बम भोले’ की गूंज है।

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