Monday, March 14, 2011

अभी तो मुट्ठी भर जमीन नापी है, आसमान बाकी है।

साल की शुरूआत के ढाई महीने पिछले बरस की वसीयत थामें अपनी पूरी ताकत से गरियाऊ संस्कृति को पालने-पोसने  की मशक्कत में बेहद मसरूफ रहे। और आदमी की पीड़ा से कराहती चीखें जस की तस गूंजती रही। समस्याओं का हांका लगातार जारी है, लेकिन समाधान के भगीरथ प्रयास कहीं नहीं होते दिख रहे। बस यहीं ‘चीथड़े’ कहे जाने वाले अखबारों की बेचैनी बढ़ जाती है और इसी तकलीफ ने 32 बरस पहले ‘प्रियंका’ को पाठकों के बीच खड़ा किया। यह वह समय था, जब इमरजेंसी की कोख से जन्मी जनता पार्टी की नाकामियों का जश्न इंदिरा कांग्रेस पूरे दंभ से मना रही थी। ‘प्रियंका’ के पहले अंक की महज दो सौ प्रतियां छपीं थी। छठे अंक के आते-आते शराब माफिया से सामना हुआ। तब पहली बार तमाशाचारी चमगादड़ों की चिचियाहट के खौफ ने थोड़ी सिहरन पैदा की , लेकिन पाठकों से मिलने वाले दुलार ने ताकत दी। इसी दौरान पुलिस-अपराधी गंठजोड़ का सिनेमाई चेहरा भी देखने को मिला। एक सुबह आठ-दस मुस्टंडे मेरे गली वाले घर के दरवाजे पर आ धमके। उनमें से कइयों के मुंह पर पाव-पाव भर की मूंछे भी थीं। वे बेधकड़क मेरे बैठक कम स्टडी में घुस आये। मेरी दुबली-पतली चालीस किलों की काया को देखकर घुड़कते हुए बोले, ‘बुला राम प्रकाश को ... मा.....।’ मैं सन्न....... ऐसे अपमान से पहली बार दो-चार हो रहा था। तभी उनमें से एक पहलवान ने फिर डपटा। थोड़ा सहमते हुए मैने अपना नाम बताया। उसी मूंछधारी ने बड़े ही ठंडे लहजे में गरम -गरम वाक्य बोलने शुरू किये, ‘बीबी तो है न। साड़ी रंगीन ही पहनती होगी। सफेद रंग की एक खरीद ला। कल से उसको वही पहननी होगी। सा... ला... चीथड़े सा अखबार उस पर ये ठसक.........।’
    यहां बताते चलें जिस गली में मेरा घर है, वहीं पहले गरीबे दहीवाले और मंगाला भौजी दूधवाली का कारखाने की शक्ल में बड़ा सा घर भी था। जहां देहात से आने वाले तमाम दूधवालों का जमावड़ा रातो-दिन रहता था। उनमें अधिकांश मेरा बेहद सम्मान करते थे। उन आने वाले मुस्टंडों ने उन्हीं लोगों से मेरे घर की पूछताछ की थी, जिससे वे कुछ सशंकित हो गये थे। उनकी एक छोटी सी भीड़ दरवाजे पर आ गई। जिसकी वजह से कोई धमाकाधुन न गूंज पाई। बाद में पता लगा उन्हें एक सी.ओ. साहब ने भेजा था। वे मेरी लिखी ‘मंशा राजपूत कांड’ की खबर के चलते बर्खास्तगी के कगार पर थे। उन पहलवानांें में कई पुलिसवाले स्थानीय थाने से थे। उन सबको तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के गुस्से का शिकार होना पड़ा। आहत स्वाभिमान और मुखर हो उठा।
    ‘प्रियंका’ के साथ मैं जिस अखबार के लिए काम करता था उसने मुझे पूर्वांचल की आपराधिक गतिविधियों की खोजपरक रिपोर्टिंग का जिम्मा सौंपा। यह पड़ाव ‘प्रियंका’ के लिए सबसे अहम् साबित हुआ। चार पन्नों के इस ‘चीथड़े’ ने सूबे के मुख्यमंत्री के गड़बड़झाले से लेकर लाॅटरी, अफीम तस्करी, और व्यवस्था के काले खेमों की असलियत का खुलासा करना शुरू किया। नतीजे में मुकदमों और जेल की सलाखों के साथ आर्थिक अभावों का सामना करना पड़ा। इस पूरे सफर में जब भी कोई गरियाता तो ‘प्रियंका’ को ‘चीथड़ा’ कहना नहीं भूलता। हालांकि ‘चीथड़े’ से खौफजदा भी रहता। दरअसल खौफ और गालियांे के बीच दंभ का रावण उनको लक्का कबूतर की शक्ल में होने का भ्रम दे देता था, जिसका काम सिर्फ और सिर्फ मशक्कली मादा (सत्ता) के आसपास मंडराने का रह जाता। हालांकि हासिल कुछ भी न होता। असफलता और निराशा अपनी तमाम ताकत गालियां देने में महारत हासिल करने में बर्बाद कर देती है।
    ‘प्रियंका’ को अखबार मानने से परहेज करने वाले मुट्ठी भर काबिल कुनबे ने चांदी-सोने के टुकड़ांे से उसके संघर्षों के पसीने को बार-बार तौलने के नाकाम प्रयास किये। और तो और कई बार दया दर्शाने वालो ंसे भी सामना होता रहा और आज भी होता है। इससे भी आगे मेरे लंगोटिया यारों में भी ‘प्रियंका’ के छोटे  होने की फांस खरकती है। यहां मैं साफ कर दूं सच का सामथ्र्य भले ही छोटा लगे और स्वाभिमान की संपदा नंगी आंखों से न दिखे, लेकिन सच सिर्फ सच होता है। उसकी जुबान नहीं काटी जा सकती। स्वाभिमान, संस्कार के बेटे का नाम है, जिस पर समूचे समाज को अभिमान है। और साफगोई से कहूं तो, जो बात धारदार है वो रु-ब-रु कहो/  वरना बिखेर देंगे ये जालिम दुभाषिये।
    श्रीकृष्णा ने अर्जुन से कहा था तुम निमित्त मात्र हो, कर्ता मैं हूँ। इसलिए तुम योद्धा हो, केवल युद्ध करो। मेरे गुरू ने मुझे सादगी, साफदिली और सचबयानी के सबक सिखाए थे। उसी साधना के बलबूते ‘प्रियंका’ लगातार 32 सालों से संघर्ष का पर्व हर बरस वार्षिकांक छाप कर अपने दो-चार, दस-बीस पाठकों के साथ मनाती हैं। हो सकता है पाठकों की संख्या का आंकड़ा बड़ा हो लेकिन ‘प्रियंका’ उनमें से दुखियारों की आवाज अपनी पैदाइश के दिन से रही है। इसे यूं भी कह सकता हूं कि इतिहास की भूमि पर खड़े होकर आज के गूंगे पद-दलितों की पीड़ा  के लिए हलक फाड़कर चीखना होगा तभी तो ‘चीथड़ों’ के जरिए भविष्य में इंकलाब का जलजला आएगा। यहां और साफ-साफ बता दूं कि इन्हीं ‘चीथड़ों’ ने आजादी के आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह किसी पगलाए हुए अखबारनवीस की कलम से निकला प्रलाप नहीं है, वरन आदमी की भाषा का व्याकरण है। जहां संज्ञा के ‘व्यंजन’ और सर्वनाम के ‘विज्ञापन’ हो जाने की छटपटाहट व्याकुल किए है।
    और अन्त में इतना ही, ‘‘अभी तो मुट्ठी भर जमीन नापी है, आसमान बाकी है।’’ इसी प्रबल आशा, जिज्ञासा, के साथ ‘प्रियंका’ का वार्षिकांक, 2011’ आपको कैसा लगा जानने की इच्छा रहेगी। हमेशा की तरह आपकी आलोचना, आपका दुलार इस ‘चीथड़े’ को और धारदार बनाएगा।    प्रणाम!

No comments:

Post a Comment