झूठ के ठीहे पर सच को ठोंक पीटकर अपने माफिक गढ़ लेने की कला का इधर बड़ी तेजी से विकास हुआ है। इसी कला की काॅरपोरेट दुकानदारी का बड़ा और लुभावना नाम मीडिया है। इस एक शब्द को परिभाषित करने, परिमार्जित करने और प्रचारित करने के लिए जो हथकंडे अपनाए गए या अपनाए जा रहे हैं, उसे किसी भी नजरिये से ठीक नहीं कहा जा सकता। उससे समाज का भला भी नहीं होगा। बगैर पूरी पड़ताल किये, आधे-अधूरे सच के साथ बात कहने की महारत हासिल पत्रकारों की नुची-खुची और बदरंग जींस वाली नई कौम खुद भी गुमराह हैं और समाज को भी बदचलनी के रास्ते पर धकेलने को बजिद है। अखबारों में पिछले दिनों एक खबर छपी थी, ‘एक विदेशी महिला उप्र के मुख्यमंत्री से जनता दरबार में मिलने आई। उसके पास सूबे के रिक्शेवालों की गरीबी दूर करने व उनके हालातों में बेहतरीन बदलाव लाने की एक योजना भी थीं।’ इसी विदेशी युवती के बहाने उत्साहित एक चैनल ने रिक्शेवालों की तस्वीरें दिखाते हुए उनकी गरीबी, बदहाली और मेहनत की चीख बुलंद करने की कोशिश की। वे भूल गये कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं।
सूबे भर के हालात भले ही एक जैसे न हों, न ही पैसों की रेल-पेल में बराबरी हो, लेकिन सभी शहरों, कस्बों के रेलवे स्टेशनों/बस स्टेशनों के बाहर खड़े रिक्शे/आॅटो/टैम्पो का आचरण एक जैसा देखने को मिलेगा। राजधानी लखनऊ के रिक्शेवाले आमतौर पर एक दिन में आठ सौ से हजार रूपया कमा रहे हैं। जो रिक्शेवाले स्कूल जाने वाले बच्चों को ढो रहे हैं, उनकी आमदनी 25-30 हजार प्रतिमाह बैठ रही है। क्योंकि वे स्कूल के बाद सवारियों के अलावा सामान ढोने का काम भी करते हैं। इसी तरह सामान ढोने वाले ट्राॅली चालकों की आमदनी भी तीस-चालीस हजार रूपए प्रतिमाह है। उसके अलावा इनमें तमाम रिक्शाचालक रिक्शा मालिकों को किराया तक नहीं अदा करते। इनकी जेबों में मोबाइल, घरों में टी.वी., फ्रिज जैसी लग्जरी के साथ महंगे शैम्पू, ब्रांडेड कपड़े/ज्वैलरी के अलावा ब्रांडेड खाद्य सामग्री तक मिल जायेगी। बेशक इसे उनकी बेहद मेहनत का फल मानने से इन्कार नहीं किया जा सकता। मेरे निजी दो अनुभव हैं। सूबे का अति पिछड़ा इलाका सोनभद्र, इसके मुख्यालय राबटर््सगंज सेमिनार, पत्रकार सम्मेलन के चलते दो-तीन बार जाना हुआ। लखनऊ से चलने वाली त्रिवेणी एक्सप्रेस राबर्ट्सगंज आधी रात या अलसुबह में पहंचती हैं मुझे लेने मित्रों/शुभचिंतकों के वाहन समय से पहले पहुंच जाते हैं। बावजूद इसके पत्रकार आॅखंे/कान और दिमाग अपने पेशेगत आदत से देखते-सुनते हैं। स्टेशन से एक-डेढ़ किलोमीटर जाने का किराया एक दम्पत्ति से पचास रूपया तय हुआ। इसी तरह लखनऊ में ‘प्रियंका’ कार्यालय हुसैनगंज से चारबाग स्टेशन तक जाने का किराया रिक्शेवाले ने बीस रूपया मांगी। वहां जाकर तीस रूपए पर अड़ गया। यह बानगी उनकी कमाई का अन्दाज बताती है। रह गया खर्च तो दोनों जगहों पर आटे और पकी हुई रोटी एक है। यहां एक बात कहना नहीं भूलंगा कि डाॅ0 राम मनोहर लोहिया ने कभी किसी प्रसंग पर कहा था, ‘आदमी को बैठाकर आदमी रिक्शा खींचे, बेहद शर्मनाक है।’ वे अपने जीवन में कभी रिक्शे पर नहीं बैठे, होना तो यह चाहिए हम उन्हें इससे निजात दिलाने और उससे अच्छा रोजगार दिलाने की किसी योजना पर काम करते, सुझाव मांगते, उसे दिखाते लेकिन समाचार चैनलों पर खबर कम मनोरंजन के नाम पर फूहड़ तमाशे और अश्लील विज्ञापनों की भरमार है। और जब प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष इसके सुधार के लिए कोई टिप्पणी करते हैं, तो टुच्ची सोंच भड़क कर अपनी ‘भड़ास’ निकालने की हिमाकत कर बैठती हैं। उन्हें यह भी इल्म नहीं कि जस्टिस काटजू होने के लिए मीडिया की मोहताजगी की आवश्यकता नहीं होती।
‘सत्यमेव जयते’ का नारा लगाने में और आमिर खान की तरह कन्याभू्रण हत्या जैसे अहम् मामले को राजस्थान के दो पत्रकारों मनीष-मीना की मेहनत को छोटे पर्दे के जरिए उठाने में बड़ा फर्क है। पत्रकारिता बड़े जोखिम का काम है। खासकर रिपोर्टिंग में आने वाली तकलीफों का बयान तक नहीं किया जा सकता। दंगा, युद्ध, नक्सल/माओवादी या स्टिंग आॅपरेशन के समाचार कवरेज में जान हथेली पर रखकर काम करना पड़ता है। पुलिस, सियासतदानों और नौकरशाहों के गड़बड़झालों को उजागर करने में अपहरण से लेकर हत्या तक का शिकार होना पड़ता है। मैं स्वयं कई बार इन खतरों से दो-चार हो चुका हूं। छोटे-मझोले कहे जाने वाले अखबारों में छपता हैं कि कृषि क्षेत्र का 32हजार करोड़ रूपए का कर्ज बैंक के जरिए महानगरों में बांटा जा रहा है और उप्र, बिहार, झारखण्ड, राजस्थान, मप्र. छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े राज्यों के किसानों को बेहद कम ऋण बैंक दे रहे हैं। कर्ज न चुका पाने पर किसानों द्वारा आत्महत्या की खबरें भी छपती हैं। बड़े लोग जो किसानांे के हिस्सों को आसानी से पचा जाते हैं। उनकी आत्महत्या की खबर कभी सुर्खियों में नहीं होती? ऐसी खबरें लिखने/कवर करने के खामियाजे में अखबर के विज्ञापन तो बंद होते ही हैं और बोनस में हवालात, मुकदमें, मारपीट तक मिलते हैं।
हम बड़े गर्व से कहते हैं, प्रेस लोकतंत्र का चैथा खंभा है, लेकिन हकीकत क्या हैं? पिछले साल दुनियाभर में 70 पत्रकारों की हत्या कर दी गई और सात सौ को जेल जाना पड़ा। घायलों और मुकदमों में फंसे पत्रकारों की सही गिनती कौन करेगा? इस जोखिम को उठाने से काॅरपोरेट पत्रकारों की नई कौम पूरी तरह परहेज करते हुए पांच सितारा सरकारी सुख भोगने में विश्वास रखेगी तो समाज का भला कैसे होगा? सच की हिफाजत कौन करेगा? ‘राम का नाम सत्य’ है सिर्फ भीड़ का जयकारा भर नहीं है। भारतीय जीवन की रग-रग में धड़कता विश्वास है। इसी विश्वास में दरार डालने के षड़यंत्र में लगे लोगों से हमें सावद्दान रहकर अपनी भूमिका निभानी होगी और सच का हलफनामा दाखिल करते रहना होगा।
सूबे भर के हालात भले ही एक जैसे न हों, न ही पैसों की रेल-पेल में बराबरी हो, लेकिन सभी शहरों, कस्बों के रेलवे स्टेशनों/बस स्टेशनों के बाहर खड़े रिक्शे/आॅटो/टैम्पो का आचरण एक जैसा देखने को मिलेगा। राजधानी लखनऊ के रिक्शेवाले आमतौर पर एक दिन में आठ सौ से हजार रूपया कमा रहे हैं। जो रिक्शेवाले स्कूल जाने वाले बच्चों को ढो रहे हैं, उनकी आमदनी 25-30 हजार प्रतिमाह बैठ रही है। क्योंकि वे स्कूल के बाद सवारियों के अलावा सामान ढोने का काम भी करते हैं। इसी तरह सामान ढोने वाले ट्राॅली चालकों की आमदनी भी तीस-चालीस हजार रूपए प्रतिमाह है। उसके अलावा इनमें तमाम रिक्शाचालक रिक्शा मालिकों को किराया तक नहीं अदा करते। इनकी जेबों में मोबाइल, घरों में टी.वी., फ्रिज जैसी लग्जरी के साथ महंगे शैम्पू, ब्रांडेड कपड़े/ज्वैलरी के अलावा ब्रांडेड खाद्य सामग्री तक मिल जायेगी। बेशक इसे उनकी बेहद मेहनत का फल मानने से इन्कार नहीं किया जा सकता। मेरे निजी दो अनुभव हैं। सूबे का अति पिछड़ा इलाका सोनभद्र, इसके मुख्यालय राबटर््सगंज सेमिनार, पत्रकार सम्मेलन के चलते दो-तीन बार जाना हुआ। लखनऊ से चलने वाली त्रिवेणी एक्सप्रेस राबर्ट्सगंज आधी रात या अलसुबह में पहंचती हैं मुझे लेने मित्रों/शुभचिंतकों के वाहन समय से पहले पहुंच जाते हैं। बावजूद इसके पत्रकार आॅखंे/कान और दिमाग अपने पेशेगत आदत से देखते-सुनते हैं। स्टेशन से एक-डेढ़ किलोमीटर जाने का किराया एक दम्पत्ति से पचास रूपया तय हुआ। इसी तरह लखनऊ में ‘प्रियंका’ कार्यालय हुसैनगंज से चारबाग स्टेशन तक जाने का किराया रिक्शेवाले ने बीस रूपया मांगी। वहां जाकर तीस रूपए पर अड़ गया। यह बानगी उनकी कमाई का अन्दाज बताती है। रह गया खर्च तो दोनों जगहों पर आटे और पकी हुई रोटी एक है। यहां एक बात कहना नहीं भूलंगा कि डाॅ0 राम मनोहर लोहिया ने कभी किसी प्रसंग पर कहा था, ‘आदमी को बैठाकर आदमी रिक्शा खींचे, बेहद शर्मनाक है।’ वे अपने जीवन में कभी रिक्शे पर नहीं बैठे, होना तो यह चाहिए हम उन्हें इससे निजात दिलाने और उससे अच्छा रोजगार दिलाने की किसी योजना पर काम करते, सुझाव मांगते, उसे दिखाते लेकिन समाचार चैनलों पर खबर कम मनोरंजन के नाम पर फूहड़ तमाशे और अश्लील विज्ञापनों की भरमार है। और जब प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष इसके सुधार के लिए कोई टिप्पणी करते हैं, तो टुच्ची सोंच भड़क कर अपनी ‘भड़ास’ निकालने की हिमाकत कर बैठती हैं। उन्हें यह भी इल्म नहीं कि जस्टिस काटजू होने के लिए मीडिया की मोहताजगी की आवश्यकता नहीं होती।
‘सत्यमेव जयते’ का नारा लगाने में और आमिर खान की तरह कन्याभू्रण हत्या जैसे अहम् मामले को राजस्थान के दो पत्रकारों मनीष-मीना की मेहनत को छोटे पर्दे के जरिए उठाने में बड़ा फर्क है। पत्रकारिता बड़े जोखिम का काम है। खासकर रिपोर्टिंग में आने वाली तकलीफों का बयान तक नहीं किया जा सकता। दंगा, युद्ध, नक्सल/माओवादी या स्टिंग आॅपरेशन के समाचार कवरेज में जान हथेली पर रखकर काम करना पड़ता है। पुलिस, सियासतदानों और नौकरशाहों के गड़बड़झालों को उजागर करने में अपहरण से लेकर हत्या तक का शिकार होना पड़ता है। मैं स्वयं कई बार इन खतरों से दो-चार हो चुका हूं। छोटे-मझोले कहे जाने वाले अखबारों में छपता हैं कि कृषि क्षेत्र का 32हजार करोड़ रूपए का कर्ज बैंक के जरिए महानगरों में बांटा जा रहा है और उप्र, बिहार, झारखण्ड, राजस्थान, मप्र. छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े राज्यों के किसानों को बेहद कम ऋण बैंक दे रहे हैं। कर्ज न चुका पाने पर किसानों द्वारा आत्महत्या की खबरें भी छपती हैं। बड़े लोग जो किसानांे के हिस्सों को आसानी से पचा जाते हैं। उनकी आत्महत्या की खबर कभी सुर्खियों में नहीं होती? ऐसी खबरें लिखने/कवर करने के खामियाजे में अखबर के विज्ञापन तो बंद होते ही हैं और बोनस में हवालात, मुकदमें, मारपीट तक मिलते हैं।
हम बड़े गर्व से कहते हैं, प्रेस लोकतंत्र का चैथा खंभा है, लेकिन हकीकत क्या हैं? पिछले साल दुनियाभर में 70 पत्रकारों की हत्या कर दी गई और सात सौ को जेल जाना पड़ा। घायलों और मुकदमों में फंसे पत्रकारों की सही गिनती कौन करेगा? इस जोखिम को उठाने से काॅरपोरेट पत्रकारों की नई कौम पूरी तरह परहेज करते हुए पांच सितारा सरकारी सुख भोगने में विश्वास रखेगी तो समाज का भला कैसे होगा? सच की हिफाजत कौन करेगा? ‘राम का नाम सत्य’ है सिर्फ भीड़ का जयकारा भर नहीं है। भारतीय जीवन की रग-रग में धड़कता विश्वास है। इसी विश्वास में दरार डालने के षड़यंत्र में लगे लोगों से हमें सावद्दान रहकर अपनी भूमिका निभानी होगी और सच का हलफनामा दाखिल करते रहना होगा।
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