Wednesday, May 10, 2017

 किसानों की नहीं सुनोगे तो भूखों मरोगे
--प्रियंका वरमा महेश्वरी


किसान! आज की ज्वलंत समस्या। हर जगह उसी की चर्चा, मीडिया, सोशल मीडिया सब जगह। बस उस पर बहस और राजनीति...। उधर किसान परेशान और बेहाल है और उनकी स्थिति ऐसी है कि वो आत्महत्या को अंतिम विकल्प मान बैठा है। ये समस्या कोई आज की नही है करीब 21 सालों से चली आ रही है। 2015 में मौसम की मार की वजह से पांच लाख किसान बर्बाद हो गये। कुछ दूसरी परेशानियां भी जुड़ी हुई हैं किसानों के साथ जैसे जरूरत के वक्त कर्ज का उपलब्ध ना होना, भूजल का स्तर गिर जाने की वजह से सिंचाई के लिए पानी का न मिलना, बिजली की सुविधा का ना होना या मंहगा होना, उर्वरक खाद,कीटनाशक का मंहगा होना, फसलों के लिए बाजार का ना होना, समय पर दाम ना मिलना ये। एक समस्या ये भी आती है कि किसान कर्ज तो ले लेते हैं पर समय पर किस्त नही भर पाते हैं, ऐसी स्थिति में वो कर्ज लेने से कतराते हैं और इन समस्याओं त्रसित होकर वो शहर की ओर पलायन करटे हैं । 2015 में आलू की पैदावार काफी अच्छी हुई थी लेकिन मौसम की मार के चलते और नुकसान न सहन कर पाने की स्थिति में किसानों को आत्महत्या का रास्ता अपनाना पड़ा। नुकसान की भरपाई के लिए केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने 6000 करोड़ देने की बात कही और कहा कि पहले 50% फसलों के नुकसान पर मुआवजा मिलता था जो अब 33% पर कर दी गई है।
पिछली अखिलेश सरकार ने भी सीधे किसानों से उनकी समस्या पूछी और राहत का आश्वासन दिया लेकिन हुआ कुछ नही वही ढाक के तीन पात किसान बेहाल ही रहा। केंन्द्र से भी कोई मदद नही मिली। ऐसी स्थिति में किसान कहां मदद की गुहार लगाये ? फसल के नुकसान की भरपाई, राहत मुआवजा जैसे आश्वासन देकर किसानों से वोट वसूलने की राजनीति भर की जाती है उसके बाद उनकी कोई पूछ परछ नही होती। कृषि मंत्री राधासिंह मोहन ने  बताया कि 56 फीसदी खेती योग्य जमीन को पानी उपलब्ध नही है। 99 बड़े प्रोजेक्ट जिससे 76 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हो सकती है, 25 वर्षों से लंबित पड़ी है। इन परियोजनाओं पर 50 हजार करोड़ का खर्च आना था। भाजपा सरकार बनने के बाद सकार ने सिंचाईं योजना के तहत नाबार्ड के सहयोग से 20 हजार करोड़ का कापर्स  फंड बनाया लेकिन डेढ़ साल तो सिर्फ योजनाएं बनाने में लग गया । दूसरी समस्या खेती की लागत की, व्यवस्था और वितरण की थी।
फसल बीमा योजना में किसानों को कोई विशेष लाभ नही मिला। अलग-अलग राज्य के अलग-अलग रेट, अलग अनाज के लिए भी अलग रेट। एक सीमा तय थी , जिससे ज्यादा मुआवजा नही मिल सकता था, जो ऋणी किसान थे वो ही इसका फायदा उठा सकते थे। 2016 में दलहन का उत्पादन 1.73 लाख टन की उम्मीद जताई गई जबकि 09 लाख टन की मांग बढ़ी और खपत 2.46 करोड़ टन की है। अब शायद इजाफा हो गया होगा। दाल की बढ़ती हुई कीमतों को रोकने के लिये और उत्पाद बढ़ाने के लिए सरकार ने विदेशों में दाल की खेती "कांट्रैक्ट खेती" की बात रखी थी। कुछ आंकड़े जो  फसलों की पैदावार बताती है...
चावल---.(2015-16) (2016-17)
                 91.31.      93.88

कुल दलहन..  (2015-16)
                           5.54
(2016-17)
    8.7
मक्का.... (2015-16) (2016-17)
          .          15.24.     19.3

तिलहन... (2015-16)
                    16.59
(2016-17)
   23.36
कुल खाद्यान्न... (2015-16)
                            124.01
(2016-17)
  135.03
ये सिलसिलेवार बात इसलिए हो रही है क्योंकि आज की सरकार हो या पिछली सरकार हो उससे किसानों को कोई फायदा नहीं मिला बल्कि नई सरकार के वादों से उम्मीद लगाये किसान नोटबंदी की मार से दोहरा हो गया। प्रधानमंत्री ने करीब 14 करोड़ किसान परिवारों पर सीमित प्रभाव पड़ने की संभावना व्यक्त की लेकिन नकदी की समस्या का समाधान नही किया। प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि जिन किसानों ने रबी की फसल के लिए जिला सहकारी बैंको से और प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों से कर्ज लिया हो उनको 1जनवरी से 60 दिन के ब्याज का भुगतान नही करना होगा। लेकिन इसका विशेष लाभ नजर नही आया क्योंकि दिये गए फसल सत्र में कुल कर्ज का करीब 70% किसानों द्वारा अनुसूचित वाणिज्य बैंको से लिया जाता है और महज 30%  डीसीसीबी, पीएसीएल और क्षेत्री ग्रामीण बैंको से लिया जाता है। 2016-17 में केन्द्र सरकार ने 9,00,000 करोड़ रूपये कृषि ऋण दिये जाने का लक्ष्य रखा जिसमें वाणिज्यिक  बैंकों का अधिकतम हिस्सा है। केन्द्र सरकार ने ऋण के भुगतान की सीमा 2 महीने की बढ़ाई लेकिन इस सुविधा से किसानों से बहुत लाभ नही हुआ। सत्र मे यदि किसान एक लाख का कर्ज लेता है तो 7% की दर से पूरे साल का ब्याज 7000 होता है और दो महीने के ब्याज की माफी 1200 आयेगी जो कि बहुत मामूली है। प्रधानमंत्री ने अपनी दूसरी घोषणा मे कहा कि नाबार्ड को किसानों को क्रेडिट व कर्ज देने के लिए 2016-17 वित्त वर्ष में 20,000 करोड़ रूपये की सुविधा देंगे। 40 प्रतिशत से ज्यादा किसान संस्थागत क्रेडिट व्यवस्था से अलग है। किसानों को सस्ती दरों पर कर्ज देने के लिए 21000 करोड़ रूपये की वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई गई थी लेकिन 1990 के बाद से कृषि क्षेत्र मे संस्थागत ऋण की हिस्सेदारी 40% के करीब स्थिर है और हालात सुधरे नही है। प्रधानमंत्री ने कहा कि 3 करोड़ किसान क्रेडिट कार्डों को रूपे में बदल दिया जायेगा ताकि किसान आसानी से कैश निकाल सके लेकिन नोटबंदी के दौर में बैंक और एटीएम नगद निकासी की सीमा निर्धिरित रहने के कारण किसान इसका फायदा नही उठा सका। कैश में खाद और बीज खरीदनें उनको परेशानी हुई। घर में रखे गल्ले को ही बीज की तरह उपयोग में लिया। सूखा, ओलावृष्टि की मार सहते जो किसानआत्महत्या कर रहे हैं वो 39% कर्जदार थे और नुकसान भरपाई का मुआवजा भी नही मिला था। ये अब तक पिछले दो सालो की बात है अब वर्तमान समय की बात करते हैं करीब 45% या इससे ज्यादा भी हो सकता है किसानों ने आत्महत्या की। इन भूमिपुत्रों पर सियासी राजनीति चलती है। बैंको, सूदखोरों से बचने के लिए और अपनी जमीन खो जाने के डर से गरीब किसान के पास आत्महत्या के अलावा कोई रास्ता नही बचता है। भाजपा पर वरूण गांधी ने किसानों की आत्महत्या के आंकड़े छिपाने का आरोप लगाया । आंकड़ों में 7500 किसानों के आत्महत्या करने की बात कही गई जबकि लगभग 50,000 किसानों ने आत्महत्या की है। झारखंड के किसान टमाटर की खेती से बहुत परेशान हुए। टमाटर की बिक्री के लिए खरीदार नही मिल रहा था और खेती के लिए किसानों ने 40 हजार कर्ज भी लिया था नतीजा किसान खुद ही अपनी खेती नष्ट करने लगे। करोड़ों के टमाटर रोड पर फेंक दिये गये। अब कर्ज चुकाने के लिए किसान मजदूरी की तलाश मे शहर की ओर पलायन कर रहा है।
इधर तमिलनाडु के ऊपर भी संकट गहराया .... हर रोज करीब 100 किसान मौत को गले लगा रहे थे। राज्य द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता नही के बराबर रही। एक अनुमान के मुताबिक यह राज्य के आर्थिक इतिहास का सबसे खराब वित्तीय वर्ष है। जिन मुफ्त सौगातों के बारे में सरकार ने वायदे किये थे उसके लिए पैसों की जरूरत होती है..। बहरहाल तमिलनाडु का किसान जंतर मंतर पर अपना भाग्य आजमा कर निराश हुआ है । करीब 21 सालों से किसान तकलीफ झेलता आ रहा है मदद के नाम फर मामूली राहतें और सियासी वायदे मिलते हैं उसे।
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किसान को बुआई के समय से ही डर लगने लगता है। समय से बीज नही मिलता है, जो मिलता है उसमें नकली ज्यादा होता है। कमीशन के चक्कर में गुणवत्ता पर ध्यान नही दिया जाता है।
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सिंचाईं के नाम पर किसानों को समय से पानी नही मिलता। सरकार के भारी भरकम दावे और व्यवस्था सिर्फ कागजों पर ही देखने को मिलती है।
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बुंदेलखंड में दो साल से सूखे की मार झेल रहे किसानों को न तो बिजली मिली और न ही नलकूप चले, न बिजली बिल माफ हुआ और न ही बिजली सस्ती हुई।
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कभी सूखा, कभी बेमौसम बारिश से फसलों को नुकसान हुआ और उस नुकसान का मुआवजा अभी तक किसानों को नही मिला। किसानों को सियासी मुद्दा बनाया जाता है लेकिन उनकी पीड़ा को कोई समझना नही चाहता।
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कानपुर और फरूखाबाद के अलावा आलू की मंडी कही नही है। आलू से बनने वाली चीजों के कारखाने बंद हो गये हैं या है ही नही। ऐसे में उत्पादित आलू की खपत मुश्किल हो जाती है, नतीजा किसानों को औने पौने दाम में बेचना पड़ता है। यही हाल गन्ने की फसल का है समय पर भुगतान नहीं और कोई खुली मंडी ना होने से किसानों ने गन्ना उत्पादन बंद कर दिया ,लोगों के रोजगार बंद हो गये।
देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में यूपी सरकार ने सिर्फ चुनावी ढोल बजाया। उ.प्र. में 4.5 करोड़ युवा मतदाता है। सरकार ने लैपटाप, टैबलेट, स्मार्ट फोन बाटने की बात की लेकिन किसानों की दुर्दशा पर कोई बात नही। पंजाब और उत्तर प्रदेश में कृषि से जुड़े मतदाताओं की संख्या काफी बड़ी है। राजनीतिक दलों ने किसानों के लिए कर्ज माफी का लोभ लुभावन वादा किया। विशेषज्ञों के मुताबिक कर्ज माफी से छोटे किसानों को लाभ नही होता  है। इसका सबसे ज्यादा फायदा अपेक्षाकृत बड़े किसानों को होता है। छोटे और सीमांत किसान की तो बैंकिंग तंत्र तक पहुंच ही नही होती है। इस तरह के फैसले से बैंकिंग प्रणाली को नुकसान होता है। किसान कर्ज माफी के बजाय समय पर कर्ज मिल जाये उसे ज्यादा महत्व देता है। कर्ज माफी किसानों के हक मे स्थाई उपाय नही है। किसानों की ऋणमाफी को लेकर एसबीआई की चेयरमैन अरूंधती भट्टाचार्य ने आपत्ति जताई, उन्होंने कहा कि किसानों की मदद तो हो लेकिन ऋण का अनुशासन बना रहना चाहिये। उनका कहना था कि कर्ज माफी जैसी योजनाओं से बैंक और कर्जदार के बीच जो एक अनुशासन बना रहता है वो बिगड़ता है।
नोटबंदी की अवधि पूरी होने पर प्रधानमंत्री ने किसानों के लिये बड़ी घोषणाएं की। सोसायटी कोआपरेटिव कर्ज पर किसानों को छह महीने का ब्याज माफ किया। नाबार्ड को 21,000 करोड़ के अलावा सरकार 20,000 करोड़ देगी।5 करोड़ किसान कार्ड कही भी खरीद बिक्री के लिये रूपे कार्ड में बदलेंगे लेकिन अभी तक जमीन पर कही कुछ होता नही दिख रहा है। पिछले साल की तरह इस बार भी सरकार किसानों को राहत देने की बात कर रही है। आदित्यनाथ योगी ने सत्ता मे आते ही छोटे और सीमांत किसानों का कर्ज माफ करने का फैसला लिया। 1 लाख रूपये तक का फसली कर्ज माफ कर दिया गया। हालांकि यह उनके पीएम का चुनावी वादा था जिसे योगी जी ने पूरा किया लेकिन इस सबके बावजूद किसानों को कर्ज माफी से कोई ठोस लाभ मिलने के आसार नही दिखते । राज्य की ऋणग्रस्तता पिछले पांच साल में काफी बढ़ गयी है। कर्ज माफी का निर्णय राज्य पर अतिरिक्त भार बढ़ायेगा। करीब 36,000 करोड़ से अधिक कर्ज माफ करने की बात कही गई है लेकिन सिर्फ फसल के लिए लिया गया कर्ज ही कर्ज नही है बल्कि ट्रैक्टर, पम्पसेट और भी खेती से जुड़ी हुई चीजों पर लिया गया कर्ज भी तो कर्ज ही है फिर भी सराहनीय कदम है बशर्ते फलीभूत हो |
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लाख मीट्रिक टन गेहूं खरीद की बात सरकार के लिए एक चुनौती से कम नही है क्योकि बीते पांच सालों में सिर्फ एक बार ऐसा हुआ कि जब गेहूं की सरकारी खरीद लक्ष्य से ज्यादा हुई और उसका श्रेय शासन और खाद्य विभाग के अधिकारियों को गया। खुद खाद्य विभाग के अधिकारियों का मानना था कि बड़े लक्ष्य को पाने  के लिए सरकार को मजबूत कदम उठाने होंगे। गेहूँ को दूसरे प्रदेशों में जाने से रोकना होगा, भुगतान की व्यवस्था पर जोर देना होगा ताकि किसान "सरकारी खरीद केंद्र" की ओर आकर्षित हो। खरीद के बाद अनाज को रखने की व्यवस्था सुचारु होनी चाहिये। किसानों की तकलीफों को सियासी मुद्दा बनाने के बजाय उनके हितों को ध्यान मे रखा जाये तो भी वो राहत महसूस करेगा। उ.प्र. में करीब 2.5 करोड़ किसान है। 85% छोटे और सीमांत किसान है। 77 लाख किसानों ने कर्ज लिया है और इसमें से 55 लाख छोटे किसान है। 70% कृषि लोन बैंको व कोआपरेटिव क्षेत्र से लिया जाता है। कोआपरेटिव बैंक से लोन कम ही मिलता है। एक रिपोर्ट के अनुसार 72 फीसद आत्महत्या करने वाले किसान छोटे और गरीब हैं। जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन है। छोटी जमीन होने के कारण उन्हें  मंहगा बीज, कीटनाशक, मजदूरी तक का मंहगा खर्च कर्ज लेकर ही उठाना पड़ता है। अगर उसके बाद प्राकृतिक आपदा आ गई तो किसान के लिए मुसीबतो का अंबार खड़ा हो जाता है। कर्ज की मार से दबा और उसे ना चुका पाने की स्थिति में वो आत्महत्या की ओर अग्रसर होता है।


ग्रामीण भारत दिन प्रतिदिन हाशिये पर जा रहा है। आजादी के बाद के दशक में जहां कृषि, नेशनल जीडीपी में लगभग 55% की भागीदारी निभाती थी, आज किसानों की तादाद बढ़ने के बावजूद 14 से15 फीसदी तक सीमित है। वर्तमान "मूल्य निर्धारण नीति" से अब तक किसानों का भला नही हो पाया है. अब इस नीति को हटा कर "आय नीति" की जरूरत महसूस होने लगी है। फसलों की बुआई से लेकर अंतिम प्रक्रिया तक का आई लागत का ही आंकलन न होना भी इस प्रक्रिया त्रुटि है। जिसका सीधा असर  किसानों पर पड़ता है।
कृषि विभाग के आंकड़ो के मुताबिक साल 2016-17 में शासन की तरफ से जिले में सोलर  पंप लगाने का लक्ष्य दिया गया था जो अधर में है | गर्मियों के शुरू होते ही अग्निकांड की घटनाएं बढ़ने लगती हैं अधिकतर अग्निकांड की घटनाओं में विद्युत महकमें की लापरवाही सामने आ रही है। विद्युत महकमें में न तो बजट का अभाव है और न तारों का, फिर भी समय से ग्यारह हजार वोल्टेज लाइन के तार क्यों नहीं बदले गए। जिसके चलते गिरते तारों से जिले के विभिन्न स्थानों पर सैकड़ों बीघा गेहूं की फसल किसानों की जल कर राख हो रही है। इसकी शिकायत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से कर जांच कराई जायेगी। आम आदमी व पीड़ित किसान रोना रो रहे हैं कि उनके खेतों के ऊपर गए हाईटेंशन तार को दुरूस्त रखा गया होता तो शायद अग्निकांड नही होता। प्रतिवर्ष जर्जर तारों को बदलने के लिए पावर कारपोरेशन की तरफ से बजट मुहैया कराया जाता है। बावजूद इसके विभागीय अधिकारी कुंभकर्णी नींद सो रहे हैं। बदहाली और आत्महत्या की ओर जाते किसानों की परेशानी को दूर करना तो दूर..आश्वासन तक नही..। अगर समस्याओं का समाधान नहीं होगा तो किसान कहां जायेगा ? उससे भी बड़ा सवाल हम कहां जायेंगे क्या खायेंगे ?

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