Tuesday, December 2, 2014

नये दौर का नया आन्दोलन ‘अखबार मेला’

छोटे-मंझोले अखबारों/पत्रिकाओं के सामने आज के लक-दक बाजार की रंगीनियों में हर पल कुछ नये की तलाश में भटकते पाठकों के बीच अपने वजूद को बनाए रखने की सबसे बड़ी चुनौती है। 70-80 करोड़ हिंदी पढ़ने-समझने वाले हिन्दुस्तानी छोटे-मंझोले पत्र/पत्रिकाओं से कैसे जुड़ें? कैस दिली नातेदारी कायम कर सकें? इस पर बातें तो बहुत होती हैं। इनके तमाम संगठन भी सक्रिय हैं। लघु पत्रिका दिवस तक मनाया जाता है, मगर उसमें केवल साहित्यिक पत्रिकाओं की ही भागीदारी होती है। साप्ताहिक/पाक्षिक अखबारों और राजनैतिक, सामाजिक पत्रिकाओं का ऐसा कोई मंच नहीं है, जहां से वे अपना परिचय पाठकों के एक बड़े समुदाय से करा सकें। उन्हें अपनी सचबयानी और आदमी की पीड़ा से कराहते समाचारों-विचारों को पढ़वा सके। न ही कोई अखबार बेचनेवाले या वितरकों को कोई दिलचस्पी है और न ही बचे-खुचे पुस्तकालयों को। ऐसे में इन अखबारों/पत्रिकाओं को अपना दायरा बढ़ाने के लिए गम्भीरता से सोंचना होगा। बाजारीकरण, सरकारी उपेक्षात्मक नीतियों, विज्ञापनदाताओं की बेरूखी और अपनी ही बिरादरी के बेगैरतों के थोथे आरोपों की शाक्तियों को दर किनार कर पाठकों तक छोटे-मंझोले अखबारों/पत्रिकाओं की पहुंच कैसे आसान बनाई जा सकती है? खासकर तब जब बड़े अखबार 16-24 रंगीन पन्नों में पूरी दुनिया की नंगई और नेताओं की दबंगई, थियेटर, माॅल और बड़े वितरकों के जरिए बेचने पर बजिद हों। आज हर बड़े अखबार ने तहसील/ब्लाक स्तर पर अपने भव्य कार्यालय बना लिए हैं और उनके जरिए विज्ञापनों, पाठकों पर पूरी तरह काबिज होने का षड़यंत्र जारी है। इसमें उनका भरपूर सहयोग बड़ा कहा जाने वाला महाजनी समाज और सरकारी तंत्र पूरे मनोयोग से कर रहा है। जाने-अन्जाने मध्यम वर्ग व पेट की आग में झुलस रहा गरीब तबका भी शामिल है, व्यावसायिकता का तकाजा भी शायद यही है। छोटे-मंझोले अखबारों को ऐसे हालातों में विज्ञापन जुटाने, पाठक बनाने में बड़े परिश्रम के बाद भी कुछ खास हासिल नहीं होता। नतीजा यह होता है कि अखबार/पत्रिका अनियमित छपते हैं या असमय बंद हो जाते हैं। इसके जिम्मेदार सरकारी तंत्र, विज्ञापनदाताओं और पाठकों से अधिक पत्र/पत्रिकाओं के सम्पादक/प्रकाशक होते हैं। वे विज्ञापनों को हासिल करने के लिए हर जतन करते हैं। सरकारी कारिन्दों की परिक्रमा से लेकर राजनेताओं के यहाँ माथा टेकने व राजनैतिक दल विशेष, सत्तादल के गुणगान तक के पराक्रम में अपनी भरपूर ऊर्जा लगाते हैं। यहां तक जबरन उगाही तक के मामलों में फंसा दिये जाते हैं या फंस जाते हैं। विज्ञापन हासिल करने का यह चक्रव्यूह इतना गजब का है कि इसके भीतर धंसते जाने का लोभ न अभिमन्यु रहने देता है और न ही जयद्रथ। फिर होता वही है जो महाभारत के दोनों योद्धाओं का हश्र हुआ था। अपवाद छोड़ दें तो अधिकांश पत्र/पत्रिकाएं केवल सांस लेते भर रह जाते हैं। ऐसे हालातों में अखबार/पत्रिका के पन्नों पर पढ़ने लायक सामग्री नहीं छप पाती। कई बार तो हालात इतने हास्यास्पद होते हैं कि विदेशों की खबरें निजी संवाददाता के हवाले से छपी दिखाई दे जाती हैं। मजे की बात है कि अखबार/पत्रिका जिस इलाके से छप रहे होते हैं वहां की खबरें उसके पन्नों पर होती ही नहीं या न के बराबर होती हैं। बड़े अखबारों की तर्ज पर या नकल पर बड़ी खबरें या बड़ों की चिंता में दुबला होने वाली खबरें छपी होती हैं, जिन्हें पहले से ही कई-कई बार टेलीविजन के पर्दे पर देखा और बड़े दैनिक पत्रों में पढ़ा जा चुका होता है। इसके अलावा छपाई, भाषा की अशुद्धियां, कागज और पढ़े जाने लायक गम्भीर सामग्री या खबरों का लगभग अभाव होता है। इसके बाद इंटरनेट या टीवी चैनलों पर आरोप लगाना कि उनके आने से छोटे-मंझोले अखबारों/ पत्रिकाओं के पाठकों को घटाया है, कहां तक तर्कसंगत हैं?
बेशक छोटे-मंझोले पत्र/ पत्रिकाओं के आंदोलन का वह दौर अंग्रेजों के साथ चला गया जब संपादकों को बतौर पारिश्रमिक दो सूखी रोटियां, एक गिलास पानी और उम्र भर के लिए काला पानी का दण्ड मिलता था, फिर भी संपादकों की कतार मौजूद रहती। आज समय बदल गया है, जगर-मगर करते मोबाइल फोन के छोटे पर्दे पर हर जरूरत पूरी करने की क्षमता है। शेयर मार्केट के उतार-चढ़ाव से लेकर
प्रधानमंत्री के हर पल की खबर तक फेसबुक, ट्विटर पर मौजूद हैं, लेकिन लौकी बेचने वाले की घटतौली, परचूनिये की हेरा-फेरी, दरोगा जी की उगाही, मोहल्ले की दादागीरी, शहर-कस्बे-गांव के मेले, पर्व और ठगी के साथ कलेक्टर, पुलिस कप्तान के कामों में आनेवाली दिक्कतें, बिजली, पानी, अस्पताल, सड़क, पुलिया, बेवा-बुढि़या, बन्दर, कुत्ता, सांड़, शोहदे, सफाई के कष्ट जैसी हजारों खबरें हमारे आस-पास हैं। इन्हंें छापने की जरूरत है और आदमी से नातेदारी बनाने की ओर कदम बढ़ाने से शादी डाॅटकाम से लेकर मेटरीमोनियल काॅलमों पर हल्ला बोलने की जरूरत है। एक बार फिर से लघु-मध्यम पत्रों के आन्दोलन को धार देकर प्रधानमंत्री के ‘मेक इन इंडिया’ से जोड़ कर शुरूआत करने जरूरत है। लालू यादव के कुम्हार को रोजी देने की तर्ज पर मोहल्ले की खबरें देने की जरूरत है। महात्मा गांधी के ‘इंडियन ओपीनियन’ या ‘हरिजन’ की तरह अपने ही जिले की पीड़ा, पर्व और प्रेम को अखबार/पत्रिका के पन्नों पर छापकर स्वस्थ और स्वच्छ शहर-कस्बा और जिला बनाने के आन्दोलन से पाठकों, विज्ञापनदाताओं और वितरकों को जोड़ा जा सकता है। इसी सोंच के साथ ‘अखबार मेला’ लखनऊ में लगाया जा रहा है। मेला महज चाय समोसे के साथ ताली बजाने के लिए नहीं वरन् नये दौर में नये आन्दोलन का शंखनाद है।

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