Tuesday, December 2, 2014

आधी बीबी से बलात्कार!

डाॅक्टर ने शादी का झांसा देकर छात्रा से रेप किया.... युवक ने तीन साल तक यौन शोषण किया या शादी का वायदे के साथ दो साल साथ रहने के दौरान यौन शोषण। उसके बाद बलात्कार का मुकदमा लिखाया। ऐसी तमाम खबरे रोज अखबार की सुर्खियां बन रही हैं। इन खबरों के पीछे की हकीकत क्या है? इसकी तहकीकात कौन करेगा? उससे भी बड़ा सवाल है कि एक ही पक्ष अपराधी कैसे हो सकता है? जबकि दोनों पक्ष लगातार उसी अपराध में लिप्त रहते हैं और आपस में विवाद होने पर एक पक्ष धोखा और बलात्कार का आरोप जड़कर दूसरे पक्ष को अपराधी बना देता है। मजे की बात कानून की अपनी धाराएं हैं उनमें मुकदमें दर्ज हो जाते हैं। लेकिन सामाजिक मान्यताओं और मूल्यों को धता बताने वाले दोनों पक्षों को जिम्मेदार क्यों नहीं माना जाता? ताजी एक खबर के अनुसार बरेली की रहने वाली 28 साला युवती का मोबाइल पर प्यार हुआ, रेस्त्रां में परवान चढ़ा और हास्टल के कमरे में आठ-दस महीने पहले यौन
संबंध बने, फिर लगातार यौन संबंध जारी रहे। इस बीच शादी के लिए मामला वायदों के बीच लटका रहा। लड़की यहां मडि़यांव में किराए के मकान में अपने परिवार से दूर अकेली रहती है।
आरोपी पेशे से डाॅक्टर है। उस पर लड़की व उसके परिवार ने आरोप लगाया है कि शादी के लिए करोड़ों का दहेज मांगा उससे पहले लगातार उससे दुराचार करता रहा। लड़की कानून की स्नातक है, प्रतियोगी परीक्षा की तैयार कर रही है। सीधी सी बात है लड़की कानून जानती है। ऐसे में क्या इन संबंधों में भावनात्मकता और विवाद का उलझाव नहीं है? यदि है तो दुराचार का अरोप क्यों? रहा दहेज या अश्लील फोटो/मैसेज भेजने का आरोप तो वह अदालत में सुबूत दिये ही जायेंगे लेकिन यह मामला सीधे-सीधे प्रेम-प्यार फिर इन्कार का नहीं है? देश में ऐसे सैकड़ों बल्कि करोड़ों बलात्कार के मुकदमें अदालतों में लंबित हैं, जिनमें लड़कियां सालों लिव-इन-रिलेशन में रहीं, बाद में विवाद होने पर बलात्कार का मुकदमा दर्ज करा चुकी हैं। ऐसे ही एक मामले पर शिवसेना अध्यक्ष उद्वव ठाकरे की टिप्पणी आई थी, ‘बलात्कार के आरोप लगाना फैशन हो गया है।’ सवाल फैशन से कहीं बड़ा है।
पढ़ी-लिखी या पढ़-लिख रहीं लड़कियों के लिए ‘ब्वाय फ्रंेड’ प्रतिष्ठा (स्टेटस सिंबल) बन गया है।
राजधानी के किसी भी कोचिंग या कालेज जिसमें लड़के/लड़कियां साथ पढ़ते हों के आस-पास का माहौल देख लीजिए। वहां साइबर कैफे, रेस्त्रां, चाऊमीन-कबाब के ठेले, मोबाइल/सीडीशाप खासी तादाद में दिख जाएंगे। इसी के आस-पास खुली सड़क पर लड़कियों/लड़कों की बेहूदा हरकतों का प्रदर्शन आम राहगीर रोज देखते हैं। कई बार उनके पड़ोसी की लड़की उनमें शामिल होती है, लेकिन वे उसे या उन लड़कियों/लड़कों को टोक नहीं सकते। इसे बदलाव नहीं कहा जा सकता। न ही यह आधुनिकता के खाते में डाला जा सकता है। और न ही इसे पितृसत्तात्मक समाज से बगावत की झंडाबरदारी कहा जा सकता है। यह बाजार का षड़यंत्र है जिसे राजनीतिक और सामाजिक साझेदारी हासिल है।
सवाल यह है कि सालों तक यौन शोषण बिना सहमति, बिना अपेक्षा, बिना लोभ या बगैर आनंद के कैसे संभव है? उससे भी बड़ा सवाल ऐसे बलात्कार के मुकदमें पुलिस/ अदालतों का समय व पैसा नही ंखराब करतीं? जबकि उच्चतम न्यायालय ने भी सहमति से दो वयस्कों द्वारा बनाए गये शारीरिक संबंधों को बलात्कार नहीं माना है। क्या इस तरह के बढ़ते मामलों को सामजशास्त्रियों को नजर अंदाज करना चाहिए? यहां एक बात गौर करने लायक है कि जब सालों तक यौन शोषण या यौनाचार कर्म में लड़की/लड़का लिप्त रहे, तो लड़की ‘आधी पत्नी’ का दर्जा हासिल नहीं किये रही? फिर ‘आधी पत्नी’ से बलात्कार का मुकदमा? कानून में तो पत्नी से भी बलात्कार अपराध है लेकिन उनके कितने मुकदमें आते हैं? समस्या गंभीर है। समाज को ही इसका हल खोजना होगा।

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