Friday, July 28, 2017

सावन....! मां , मामा और नीम का पेड़


सावन....! मां , मामा और नीम का पेड़

आँख से दो आंसू टपक गये। सावन आ गया। बच्चे ने मां की गोद गीली कर दी। सावन आ गया। बादलों के कपड़े हवा ने फाड़ दिए, वो रो दिया। सावन आ गया। धरती गीली हो गयी। पेड़ांे पर भरपूर हरियाली छा गयी। उन पर पड़ने वाले झूलों पर कहकहे नाच उठे। सावन आ गया। बिटिया की डोली डरवाजे उतरी। सावन आ गया। ऐसे हजारों सावन आने के किस्सों से भारतीय मन उत्सव मनाने का बहाना तलाष लेता है। और तो और मेंढकी का रोमांस भी सावन में ही टर्राएगा। गौरईया भी मजे ले लेकर गीत गाते हुए स्नान करेगी। भोले बाबा को भी सावन में ही नहाने की जिद है। नदियां भी समंदर से मिलने को मचल उठती हैं, सावन में। बिजली, पानी, हवा और धुएं की खिलखिलाहट मेघ बन जाती है। वर्षा आदमी को जीवन मृत्यु का वरदान देने के लिए धरती पर नाच-नाच कर अठखेलियां करती है, तांडव करती है। गो कि सावन आदमी के मन और तन में रसरंग भर देता है, शायद। यही सावन कई बार मेरी आत्मा तक को भी भिगो गया। खासकर तब जब पड़ोस के आंगन में बेटियों के ठहाके गूंजते। रूनझुन-रूनझुन पायलें नाच-नाच कर मोहल्ले भर को सर पे उठा लेतीं। मेरी पत्नी अपने दोनों कानों को अपनी हथेलियों से दबाकर उस अल्हड़ षोर को अपने धारा-प्रवाह बहतें आंसुओं में बहा देने का असफल प्रयास करती। उसे अपनी बेटी के पास न होने का दुःख इस कदर होता कि पर्व पथरा जाता। घर की देहरी पर बनायी गयी नाग पंचमी के अवसर पर नाग की आकृति के फन हमलावर होते दिखाई देने लगते। मेरा पत्रकार मन आहत कम, बेचैनी भरे क्रोध का षिकार अधिक हो जाता। सावन में सभी देवों के साथ अग्निदेव भी विश्राम करते हैं।फिर मैं नराधम उन्हें जगाने की धृृष्टता क्यों करता हूँ। षायद अग्निदेव ने मुझे सबक सिखाने की ठानी है। बात थोड़ी पुरानी है। मेरी बिटिया षादी के तीन सालों बाद अचानक रक्षा बंधन मनाने आ रही थी, उसकी चिट्ठी ने घर की देहरी पर हिंडोला बैठा दिया। आंगन में ममता की गगरी छलक-छलक जाती । भाईयों की उछलकूद गांव वाले घर में खंूटे से छूटे बैलों की मस्ती याद करा रही थी। बिटिया के साथ नाती भी पहली बार आ रहा था। मैंने उसे पैदा होने के बाद देखा नही था। बेटी का बेटा! वह तो खुद ही बच्ची है। उसका बच्चा। मेरा मन कभी रोने को होता। कभी ठहाके लगाने का। अजब बेचैनी, न पढ़ने में, न लिखने में मन रमता। जब-तब सारे घर में मसक्ककली जैसी फुदकती अपनी पत्नी को देख मन ही मन भीगता रहता। मेरे बचपन में कोई सावन आया था, ऐसा याद नही पड़ता। मेरी कोई बहन थी नहीं । मंा का मुखड़ा कैसा होता है, याद नहीं । शायद भवानी माता जैसा ही रहा होगा। बड़े मामा खूब गोरे चिट्टे थे। उन्हें भी अपनी जवानी के पहले चैराहे पर देखा था। उनका गांव, उनका घर, उनका कुआं और घर के सामने बड़ा सा मैदान और एक नीम का पेड़। यह सब मेेरी मां के अपने थे। मैंने इन्हें बड़ी हसरत से तब देखा था। वहां मां तो नही दिखी, लेकिन उसके दसियो सखा- सहेलियों की धमाचैकड़ी का हाल-हवाल मामा के मुंह से सुनने को मिला था। माँ इसी नीम के पेड़ पर झूला झूलती थी। एक बार झूले से गिरी तो मामा के हाथ पैर फूल गये। अपनी बहना का इलाज कराने से अधिक छुप-छुप कर रोने के लिए इसी नीम के खोड़र का सहारा लेते थे। मां, मामा ओ नीम का पेड़ मेरे लिए किसी काबा से कमतर नहीं रहें। 
आज फिर आसुओं का गोला कंठ में आ-आकर अटक जाता। मान लो बिटिया न आई तो?सवाल तो सवाल, जून की लू से अधिक तपिष देते हैं। आखिर सावन आ ही गया। गाड़ी प्लेटफार्म पर लगी। वो डिब्बे से बाहर आई। साथ में नन्हा-मुन्ना बालक भी था। मां-बेटी का मिलना किसी नदी का समंदर से मिलने जैसा था। आस-पास की भीड़ से अंजान दोंनो एक दूसरे को आंसुओं से भिगाने में भिष्तियों (धुलाई कर्मी) को भी मात दे रही थीं। मेरे मन में बैठा पिता बरसाती नाले सा उफना रहा था। उसके हाहाकार का षोर लगातार बढ़ता रहा। घर-आंगन और उसकी हर ईंट झूले पर सवार हो गई। उसका जीने के ऊपर-नीचे उतरना-चढ़ना मानो ढोलक बज उठी। खुषी इत्ती कि रिमझिम-रिमझिम बुंदियों का ऐसा नृत्य जैसे हलवाई के सधे हाथ घी भरी कढ़ाई में इमरती तल रहे हों। अब आया सावन । जब नन्हें हाथों ने मेरी मूछों को बड़ी हैरत से सहला दिया। तब नाचा सावन। जब नन्हा नंगा होकर खुले आंगन में नहाया। अब जाना सावन का मन । जब बेटी ने भाइयों के माथे पर तिलक लगाकर दाहिने हाथ की कलाई पर राखी बांधी।अब बरसा सावन। जब गुड़िया के गुड्डे ने मेरे गुदगुदे बिस्तर को गीला कर दिया। तो अब समझ आया ‘बदरिया धिरि-धिरि आई के बाद का सावन!
सावन की बिदाई और भादों का आना यानी कृष्ण अपनी रूक्मिणि को द्वारका ले गये। पिता मन भले कहे ‘जय श्री कृष्ण’, लेकिन उदासी पितरों का दरवाजा खटखटाने को मजबूर कर देती है। मेरे पास कोई नीम का पेड़ भी नही हैं। सावन भले चला गया हो, लेकिन आंखों में गीलापन बरकरार हैं। अब जाना मौसम और ममता का अनुराग।सावन का महीना हर बरस आता है, मगर हम दोनों के लिए बरखा सिर्फ तांडव करती है। सच मानिए महंगाई, कानून-व्यवस्था, पानी, बिजली, दवाई, राजनीतिक फरेब-घोटाले, हत्या , बलात्कार, शोहदई और न जाने ऐसे ही कितने मुद्दों पर लिख-लिख कर हलकान कलम भी सावन के हिंडोले पर सवार हो गई।
दरअसल हमारा भारतीय मन योजना बनाकर कुछ नहीं करता। सब अपने आप हो जाता है। संकट की घड़ी में भी उम्मीद होती है, कुछ हो जायेगा। ‘समथिंग  विल टर्न अप।’
सो सावन में भर मन प्रणाम।

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