Wednesday, July 5, 2017

7जुलाई जन्मदिवस पर प्रणाम
सभ्यों की जुबान में हो गया लफंगा
सांस लेता हूं तो जख्मों को हवा लगती है / जिन्दगी तू ही बता, तू मेरी क्या लगती है ? / ये सवाल जिन्दगी की ६९वीं सीढ़ी पर कदम रखते हुए भी जस का तस है | ऐसा नहीं है कि गुजरे ६८ बरसों में निराशा की गलियों में भटकता रहा , न कतई नहीं | दोस्तों का काफ़िला , अक्षरों का मेला और राम की लीला मिलजुल कर झंझावतों में तर्क के साथ सुविधा का यज्ञ कैसे किया जाए सिखाता रहा | सवाल यूं ही नहीं है बल्कि ७ जुलाई जब भी आती है , मेरी आत्मा बेचैन हो जाती है | ये तारीख बरसते-गरजते अषाढ़ में पड़ती है | आसमान जार-जार रोने लगता है , नदियाँ बौरा जाती हैं ,ताल-तलैया पूरी तरह जवान हो जाती हैं , नाले-नालियां तक हदें तोड़ कर हौलदिली पैदा करने लगते हैं | घनघोर गरज-तड़क के बीच मेघ और माटी के मिलन का संगीत चारो तरफ गूंज रहा होता है , ऐसे में मै अम्मा की गोद में आया | न कोई गोला दगा , न किसी ने शंख फूंका | बस धुंवाती कोठरी से आंगन और आंगन से रसोई तक भीजती दादी , नाउन बुआ | अम्मा शायद आषाढ़ के तेवर से घबरा कर मुझे रोता-धोता छोड़ कर बैकुंठ सिधार गईं | दादी ने अपने स्तनों से लगा गाय का दूध पिला कर घुटनों के बल चलना सिखाया ही था कि विमाता को भाई-बंदी की रंजिश ने जिन्दा जला दिया | तिसपर गजब ये की पिता भी बीच सड़क पर मारे गये | गोया दादी के पल्लू में बंधा अधन्ना (दो पैसा ) जिन्दगी की रफ्तार बन गया | चुनांचे बचपन एक गाली बन गया | चाचा-चाची के लिए लिए पिल्ला तो नाते-पडोस के लिए अनाथ | ‘ अपना तो मर गये हमये खातिर इ पिल्ले छोड़ गए |’ या ‘ हाय लड्डू अस लरिका अनाथ हुइगे |’ हरामी कोई नहीं कहता लेकिन कमीना , कमबख्त , साले , दाढ़ीजार जैसी तमाम इज्जतदार गालियों के बीच उम्र और कद दोनों बढ़ता गया | उसी के साथ ‘चोर’ संज्ञा भी जुड़ गई | बड़ी उम्र के युवाओं की ललचाई नजरों में यौन खुराक दिखने लगा | जैसे तैसे स्कूल से ऑक्सफोर्ड ( केकेसी ) जा पहुंचा | यहीं से सभ्यों की जुबान में लफंगा हो गया | मेरी मानिये तो संघर्षों के कुरुक्षेत्र में ‘राम’ हो गया और अभावों के बीहड़ों ने एक जिद , एक जूनून की लाठी थमा दी | कुछ यूँ कह सकते हैं ‘ टूटी हुई मुंडेर पर छोटा सा एक चिराग / मौसम से कह रहा है , आंधी चला के देख |’   
बस ऐसी ही जिद ने गुरु विश्वामित्र ( गुरुवर आचार्य पं. दुलारेलाल भार्गव ) से मिला दिया फिर तो हिन्दी साहित्य के ऋषियों , मनीषियों की चरणरज मिलती गई और रोटी के रूठने का आतंकवाद अक्षरों के जिहाद से हार गया | माता भवानी ने कर्ण से , अर्जुन से और परशुराम से भी आशीर्वाद दिलाया | जिन्दगी लम्बे-लम्बे डग भरती गई माँ सरस्वती दुलराती गईं लेकिन अम्मा को दीवार पर तस्वीर में टंगा देख सारा वजूद सुन्न हो जाता है | सच कहूं तो पीड़ा के कौमार्य को सहेजना आसान नहीं होता |
जन्मदिन पर बधाई देना औपचारिक हो सकता है , लेकिन अपने जन्मदिन पर अपनी ही पीठ ठोंकना , अपनी तमाम नाकामियों और लाचारियों पर हंसकर अपने को ताकतवर बनाना है | कुछ ऐसा ही यजुर्वेद में भी पढ़ा है ,’ हे मानव , स्वयं अपने शरीर को समर्थ कर , स्वयं सफल कर , स्वयं यज्ञ कर , तेरा महत्व किसी दूसरे से नहीं प्राप्त किया जा सकता |’ नहीं जानता ६९ की उम्र में मेरी अज्ञानता , मेरी सुन्नता मेरी तस्वीर वाली माता से ऊर्जा की अभिलाषी है या आशीर्वाद की लेकिन इतना अवश्य जानता हूं कि माँ सिर्फ माँ होती है , माँ प्रणाम | और आप सब तो मेरे गुरू हैं , मेरे ईश्वर हैं आपको प्रणाम |  


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