Monday, July 3, 2017

यूपी में रेप-मर्डर एटीएम...

लखनऊ। गुंडों की छाती रौंदकर आने वाली सर्वजन सरकार और उसकी दलित मुखिया की आमद के महज सौ दिनों बाद से ही सूबे के जन जीवन को हिंसा के खूनी पंजों ने लहूलुहान करना शुरू कर दिया था। आज पन्द्रह सौ दिनों बाद हालात इतने बदतर हो गये हैं कि हर आठ घंटे में एक हत्या और एक औरत की आबरू लुटने जैसी पारिश्वकता हो रही है। छोटी से छोटी बात को भी ताकत से निपटाने की खबरें दहशत पैदा कर रही हैं। कहीं दहेज के लिए कहीं मौज-मस्ती के लिए, कहीं जमीन के एक छोटे से टुकड़े के लिए, कहीं झूठे स्वाभिमान के लिए, तो कहीं सरकारी पैसों की लूट के लिए बेखौफ एक दूसरे का खून बहाया जा रहा हैं। हद तो यह है कि पुलिस की हवालात और हजारों सुरक्षाकर्मियों से घिरी जेलों में लोग मरे जाते हैं। सच तो यह है कि हिंसक वारदातों को बेखटके वक़्त-बे-वक़्त अंजाम देने के लिए दुर्दान्तों ने बाकायदा ‘क्राइम एटीएम’ लगा दिया है, तभी तो अकेले राजधानी में तीस दिन में 26 हत्याएं और दर्जन भर से अधिक औरतें बेइज्जत हो जाती हैं। दलितों, महिलाओं को सम्मान दिलाने का नारा बुलंद करने वाली सरकार को उप्र के राजसिंहासन पर बैठानेवाले मतदाताओं ने कम से कम ऐसा सपना नहीं देखा था कि आदमी की पीड़ा से चीखने वालों को पुलिस की लाठियों से पिटवाया जाएगा। विपखी दलों के संवैधानिक अधिकारों को पुलिसिया हिंसा का शिकार होना पड़ेगा। आखिर महात्मा बुद्ध और अंबेडकर को सरमाथे लगाने वालों की अगुवई में इस सूबे को हिंसा की अंधेरी सुरंग में कौन धकेल रहा हैं?
    डॉक्टरों, इंजीनियरों की हत्याओं की ‘हैट्रिक’ बनानेवाले हाथ कौन जाने कब किसका गला घोंटने को सामने आ जाएं, कोई नहीं जानता। यह कैसा विकास है, जहां हिंसा फुफकार रही है? आखिर इससे निबटने के लिए सरकार झूठे, मनगंढ़त बयानों के अलावा दरहकीकत क्या करने जा रही है? ये सवाल जितने जरूरी है, उतने ही कठिन भी। क्योंकि यह चुनावी वर्ष है और सूबे का 17 करोड़ मतदाता सरकार के जवाब के बाद ही अगली सरकार के लिए फैसलाकुन होगा।

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