Thursday, March 10, 2016

गांव में ‘होरी’ तो मजूर ही है..!


दिल्ली सरकार के ताजा बजट में किसानों के भले का बड़ा हल्ला है। गरीब की जिंदगी में सुख भरने का व रसोई में सस्ती गैस पहुंचाने का ढोल बज रहा है। सच इससे परे है। किसान को कर्ज देकर क्या फायदा, जब उसके खेत में फसल ही नहीं होगी। खेती-किसानी का सच देखिये।
1- गांवों में बिजली है नहीं ।
2-सिंचाई के लिये पानी है नहीं।
3-खाद बीज ,डीजल की मारामारी है।
4-फसलों की सुरक्षा बीमा के नाम पर कम्पनी ठगी पर उतारू।
इन सबकी हकीकत पर गौर करिये, आम तौर पर बिजली आपूर्ति का कोई मानक तय नहीं, कागजो, बयानों में जो भी हो यथार्थ में दो घंटे भी नहीं मिलती बिजली। यही हाल पानी का है, नलकूपों (जहां हैं) से 110रु0 व ट्यूबवेल (डीजल) से 150रु0 प्रति घंटा की दर से मिलता है।
    चारो तरफ दाल के महंगे होने का हल्ला है उसकी उपज कम होने का रोना है, मगर सच से कोई भी रूबरू नहीं होना चाहता। किसान अरहर या कोई और दाल कैसे बोये अपने खेतों में जब खड़ी फसल नीलगाय के झुंड किसान की आंखों के सामने बर्बाद कर देते हैं। किसान उन्हें मार नहीं सकता , उनका शिकार नहीं किया जा सकता ऐसे में इनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
    यहां बताना जरूरी होगा कि नीलगाय कृषि क्षेत्र में रहती है जहां हिंसक जानवरों का आना लगभग न के बराबर होता है लिहाजा उनको कोई संकट नहीं होता। शिकारी भी परमिट लेकर नीलगाय का शिकार करने में दिलचस्पी नहीं लेते क्योंकि उन्हें कोई लाभ नहीं मिलता। वन्य संरक्षण अधिनियम के अनुसार शिकार की गई नीलगाय सरकारी संपत्ति होगी जिसे गड्ढा खोदकर दबा देना होता है। उससे भी बड़ी समस्या उसे गाय मानने की है जबकि वैज्ञानिक रूप से यह गोवंश में नहीं आती है। अब रही कर्ज की बात तो किसान का खून परधान से लेकर बैंक तक बेदर्दी से पीते हैं।
    इसके लिये किसी गवाही की जरूरत नहीं, रोज आत्महत्या करते किसान और बैंकों के खातों में दर्ज किसानों के नाम चढ़ी रकम काफी है। ऐसे में गांव,किसान,गरीब का भला कैसे होगा? मजबूरन किसान मजूर हो जा रहा है या पलायन कर शहरों में रहकर छोटे-मोटे काम करने को मजबूर है।

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