Thursday, March 10, 2016

शामियाने तले जनाना बंदोबस्त...!

‘तो मुलाहिजा हो... ‘सीन-सीनरी पुराने डिरामे की। लाइट फोकस सही। हुक्का-तमाखू चालू। जो पके लपूस हैं सो लिहाफ-दुलाई ओढ़े बैठे हैं। जवान-बांके की बात अलग। छापे का तहमद लगाये, बीड़ा दबाये, सुरमा जमाये, मूंछ की नोक पे गोंद लगाये घड़ी के दस बजा रहे हैं, खामखाही में बेफजूल खिलखिला रहे हैं। शामियाने तले जनाना बंदोबस्त अलग है। दूर-दूर से निगाहों का कनक्सन चल रहा है। इधर से होली की मुबारिक गयी, उधर से डेढ़ आँख भर जवाब आया।’ पहचाना अक्षरों के इस हुरियार को...? अजी जनाब ये हैं अपने मिर्जा के लंगोटिये के.पी. सक्सेना, ‘खेल पोरस और सिकंन्दर का’ के शब्दबेधी मंच पर।
    ‘अब जरा इन्हें भी पहचानिये, बरगद का वह पेड़, पक्षियों में बड़ा लोकप्रिय है। बेरोजगार कौवे, अखाड़े तथा बहाने की तलाश में निकले लड़ाकू तीतर, स्कूल जाती चिडि़यों को घूरने के इरादों वाले आवारा चिड़े, किसी खाये-पिये सेक्रेटरी से तृप्त तोते, गोल-गोल आँखें मटकाती-फुदकती मैनाएं सभी शाम होते इस बरगद पर बैठ जाते हैं।...... आना सार्थक हो जाता है, दो-चार डालों पर घूमघाम करके पूरे शहर के समाचार पेड़ बैठे प्राप्त हो जाते हैं।.....कबूतर बेचैन हो उठा। उसने एक उदास उड़ान भरी.... पोर्च पर से गुजरते हुए उसने देखा चपरासी बांस पर झाडू बांध रह थे। एक झटके में घोसला उछल गया है और अंडे टूट गये हैं।’ नहीं... पहचाना.....‘राजनीति और कबूतर के अंडे’ एक सांस में पढ़ते हुए पीड़ा भरे व्यंग्य के साथ हास्य के रंग-बिरंगी शब्दों की चादर तले भाई ज्ञान चतुर्वेदी ने कोई पैंतीस बरस पहले ‘धर्मयुग’ (होली-विशेषांक) के पन्ना नंबर सोलह पर हिन्दी के पाठकों के साथ मन भर होली खेली है।
    उस वक्त टाइम्स आॅफ इंडिया की पत्रिका ‘धर्मयुग’ के संपादक होते थे बड़े भाई धर्मवीर भारती जी और उनके सहायकों में गणेश मंत्री व मनमोहन सरल। यह वह दौर था जब ‘करंट’ हिन्दी साप्ताहिक के आखिरी पेज पर हरिशंकर परिसाई जी के तीखे तंज धमाल मचाकर अखबार बन्द होने के साथ छपना लगभग बंद हो चुके थे और ‘धर्मयुग’ को छपते हुए बत्तीस बरस बीत गये थे। ‘धर्मयुग’ देशभर की हिन्दी पट्टी की सबसे प्रिय पत्रिका थी। विदेशों में भी इसके पाठक पत्रिका की सिलाई खोलकर उसके पन्ने आपस में बांटकर पढ़ते थे।
    इसी होली विशेषांक में होली; मंगलाचरण पर ‘ब्लफ़ाय नमः ब्लफ़ मास्टराय नमः’ जपते गोपाल प्रसाद व्यास की लंतरानी, तो भंग भवानी की किरपा प्राप्त विनोद शर्मा ‘खर्चा खुराक जानवरान’ की आर्थिक नवलकथा बांच रहे हैं। राजनीति से ऊब गये देशपांडे, ‘कहां तक बखान करें अपनी इस ऊब का?’ औ ‘गुलमुहर तेल ‘रवीन्द्रनाथ त्यागी के साथ सुरेशकांत ‘गांधी जी के बंदरों पर फिल्म’ की होलियाना शूटिंग में गांधी बाबा से लौ लगाये हैं। बीच मंे ‘मेरी कारः मेरा हाहाकार ‘मचाये सुरेन्द्र शर्मा की चार लाइना भी हंै। ऐसे में काव्य संध्या का आयोजन न हो तो भला हारियारों को भौजाई-लुगाई का फरक भूलने का मौका कैसे मिलेगा। शैल चतुर्वेदी की ‘शादी भी हुई तो कवि से, भगवान जाने किस्मत में क्या बदा है, भागवान के लिए बैठ जाइए। बैठने के पांच सौ रूपये दिलवाइए का नारा बुलंद करते पूरी एक सौ पचहत्तर गलियों में गुम होने की धमकी देते हुल्लड़ मुरादाबादी के ऐन बगल में ‘रिटायर्ड कवियों के गोरखधंधे बनाम होली के फंदे’ का भूगोल सुधारने माणिक वर्मा, मधुप पाण्डेय के ठीक नीचे कपड़ों पर पचास प्रतिशत छूट पढ़ती सरोजनी प्रीतम मौजूद हैं। गजब हो गया... ओम प्रकाश आदित्य एकदम ऊपर आश्वासन का जर्दा, भाषण की सुपाडि़यां चभुलाते’ नेता का नख शिख वर्णन’ करते दिख रहे हैं। सुरेन्द्र तिवारी ‘इक पीली-सी चिडि़या की फागुनी भविष्यवाणी’ सुना रहे हैं। होली के हंसगुल्ले भी हैं। हरीश नवल के ‘मिलना डिग्री का चमन लाल को’ के साथ शंकर पुंणतांबेकर का ‘परीक्षा प्रसाद’ भी रवींद्र भ्रमर की ‘इसी होली में’ मौजूद है।
    ‘रूप फागुनी-धूप फागुनी’ हो और ‘होली हाथी पर सवार’ दिखे तो ‘कुछ रंगीन यादें’ औ... ‘काशी की होरी के रंग खूब छनी भंग’ तो ‘आजु रंगीली होरी’.... ‘होली दारागंज की’ ‘फागैं बुंदेली रंग बोरीं, खेलैं रस की होरी’ के बीच ‘हलके रंग, गहरे रंग, के साथ महादेवी जी भी महिलाओं की दशा-दुर्दशा पर चिंतित दिखाई देती है। बिना शिवानी जी के बेटे की बारात के संस्मरण और अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘खजन नयन’ के अंश एवं दब्बू जी के कार्टून कोने के जिक्र के ‘धर्मयुग’ का यह होली-विशेषांक पूरा नहीं होता। महिलाओं ने भी ‘होली पर थोड़ी लिबर्टी’ ली हैं। गो कि होली की भरपूर मस्ती छनी है, बुजरूग से लगाये जिनका तन नहीं अटता चोली में उन्होंने  भी बड़े गहरे घोले है रंग, इस होली की ठिठोली में ‘धर्मयुग’ के रंगीन-संगीन पन्नों पर।

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