Thursday, March 10, 2016

गंगा-स्नान के नाम पर रेल में वसूली?

इलाहाबाद। माघ मेला में जाने वाले श्रद्धालुओं की जेब हर कदम पर कटती है। इसके अलावा हर यात्री जो रेल से इलाहाबाद से कहीं भी जाने की यात्रा करते हैं, उन्हें मेलाकर देना होता है। यह मेलाकर साधारण (जनरल) टिकट पर दस रुपये, स्लीपर श्रेणी पर पांच रुपया और वातानुकूलित श्रेणी पर पन्द्रह रूपया वसूल किया जाता है। यह वसूली 14 जनवरी से मेला समाप्ति (एक महिने से अधिक) तक जारी रहती है। गौरतलब है मेला क्षेत्र में हर वस्तु का पैसा श्रद्धालुओं को देना होता है। तम्बूघर में रहने, पीने के पानी, बिजली, शौचालय से लेकर नहाने तक हर जगह पैसा देना होता है। जबकि उप्र सरकार की ओर से माघ मेला का अलग से बजट होता है, जो इस वर्ष 28 करोड़ का है।
    रेलवे द्वारा मेलाकर वसूली को 14 जनवरी से टिकट के साथ जोड़ लिया जाता है। यदि आपने 14 जनवरी से 12 फरवरी (माघ पूर्णिमा) तक के लिए 12-13 जनवरी या इससे पहले किसी श्रेणी में आरक्षण करा रक्खा है, तो टीसी टिकट चेक करते समय आरक्षण चार्ट में आपके नाम के आगे मेलाकर लिखी रकम की वसूली करता है। इसकी बाकायदा रसीद दी जाती है। इसके लिए पिछले बरस तक एसएमएस तक किये जाते रहे हैं, ऐसा त्रिवेणी एक्सप्रेस के एसी कोच के टीसी ने नाम न छापने की शर्त पर प्रियंका संवाददाता को स्वयं बताया। उसने यात्रियों से अधिक अपनी परेशानी बयान की, ‘यात्रियों से पांच/पन्द्रह रूपये मांगने पर पहले तो कई तरह के सवालों का सामना करते हुए झिकझिक करनी पड़ती है। कई लोग तो झगड़ पड़ते हैं। जब पैसे देते हैं तो कोई पांच सौ रू0 का नोट देता है, तो कोई हजार का या सौ रूपये का, ऐसे में बाकी पैसे लौटाना टेढ़ी खीर साबित होता है।’
    सवाल यह है कि मेलाकर के नाम पर रेल यात्रियों से हो रही करोड़ों की वसूली का औचित्य क्या है? या गंगा स्नान करने वालों के नाम पर यह कर वसूला जा रहा है? इसे कहां और विकास के किस मद में खर्च किया जा रहा हैं? क्या यह रकम उप्र सरकार को रेल मंत्रालय अनुदान के रूप में देता है? या इससे इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर कोई सुविधाएं बढ़ाई जा रही हैं? हालांकि इनमें से एक का भी जवाब तलाशा जाये तो शायद ही कोई सकारात्मक उत्तर मिले। इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर प्लेटफार्म की कमी के कारण तमाम गाडि़यां घंटों देरी से आती-जाती हैं। रेलों के जनरल/स्लीपर कोचों में बिजली, पानी, शौचालय का अधिकतर अभाव रहता है। गंदे व टूटे शौचालय आम है। पीने के पानी का तो सवाल ही नहीं पैदा होता, हाथ धोना भी मुश्किल होता है। लंबे सफर के यात्रियों को खाने के लिए बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
    गुणवत्ता तो खराब है ही, उसकी शिकायत भी सुनने वाला कोई नहीं। जबकि लगभग 12 लाख यात्री रेलवे स्टेशनों व गाडि़यों में खाना खरीद कर खाते हैं। पंखे खराब तो एसी फेल या ब्लोअर काम नहीं कर रहा। उस पर लेट लतीफी का उबाऊ ठहराव, जो लूट के खास दावतनामे होते हैं। चलती ट्रेनों में बदमाश और पुलिस दोनों ही यात्रियों को लूटते हैं। महिला यात्रियांे के लिए तो सुरक्षा के नाम पर खुली शोहदई देखी जा सकती है। 31 दिसम्बर 2015 तक अकेले लखनऊ मण्डल में छेड़छाड़ के पांच व बलात्कार के दो मामले दर्ज किये गये हैं। सूत्रों की माने तो कई बार महिलाएं शिकायत दर्ज कराने से पीछे हट जाती हैं।
    रेल के एसी किराये में पहले ही बढ़ोत्तरी हो चुकी है। पिछले साल नवंबर से स्वच्छ भारत उपकर के नाम पर 0.5 फीसदी का उपकार भी यात्रियों पर थोप दिया गया है। इसी तरह आरक्षित टिकटों की वापसी पर दोगुना शुल्क लगाया गया है। टेªन के छूटने  के चार घंटे पहले तक ही यह सुविधा है।
    गौरतलब है रेलवे हर साल 900 करोड़ टिकट बेचता है जिनमें 25 फीसदी रदद होते हैं। ऐसे ही तत्काल टिकटों पर 33 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर दी है। आरक्षित कागज के टिकट पर 40 रू0 अधिक वसूलने की तैयारी है। इसी दौरान आधे टिकट (बच्चों के लिए) की यात्रा खत्म कर दी गयी। बावजूद इसके रेलवे दावा करता है कि रेलयात्रा 1 किलो दाल या 1 किलो सेब से सस्ती है। उसने इसका बाकायदा एक चार्ट भी पिछले दिनों जारी किया है। इसके अलावा रेलमंत्री चीन बार्डर तक रेल ले जाने, तो प्रधानमंत्री जापान से उधारी के बूते बुलेट ट्रेन मुंबई से अहमदाबाद तक चलाने पर वाजिद है। जबकि बुनियादी सुविधाओं का रेल ढांचा लगातार चरमरा रहा है।
    सरकार के पास योजनाएं। घोषणाएं बहुतेरी हैं और इन्हीं के पीछे रेलवे के तमाम हिस्सों को निजी काॅरपोरेट कंपनियों को सौंपने की तैयारी भी है। हालांकि एक भी योजना या घोषणा परवान चढ़ती नहीं दिखती। होली के हल्ले और गरमी के थपेड़ों को झेलने के लिए हर साल योजनाएं बनती हैं, घोषणांए होती हैं, इस साल भी बैठकें जारी हैं, लेकिन रेलवे सिर्फ और सिर्फ फेल होता आया है। और तो और हर रविवार लखनऊ रेलवे स्टेशन का भीड़ भरा नजारा और नर्वस रेलकर्मियांे का चेहरा देखने लायक होता है। सच यह है कि रेलवे मुफ्तखोरों का मुलायम निवाला बनकर रह गया है।

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