Tuesday, November 17, 2015

‘लिसिन’... हिंदी बोलनी ही पड़ेगी

हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान का सनातन नारा बुलंद करने वाले अचानक पिछले दो सालों से अंग्रेजी, अमीरी और अमेरिका का जयकारा लगाने लगे हैं। नतीजे में सारा देश मिलनसार माध्यम (सोशल मीडिया) के लिए उतावला है। सूबे के बच्चों को बैदिक गणित पढ़ाने की वकालत करने वाले उप्र के एक पूर्व शिक्षा मंत्री साक्षरता से अधिक स्वच्छता और सुरक्षा के लिए चिंतित है। मौजूदा केन्द्रीय/प्रान्तीय सरकारें गरीब बच्चों को भी अमीरों के बच्चों के साथ एक ही स्कूल मंे एक ही बेंच पर बिठाकर वन...टू...थ्री... यस मैम... सिखाने के लिए प्रयासरत हैं। सरकारी स्कूलों का हाल तो सूबे के मुख्यमंत्री से लेकर आलाहाकिम तक बयान कर चुके हैं।     उनको सुधारने की कवायद में उच्च्तम न्यायालय तक को फैसला सुनाना पड़ा कि अफसरों/मंत्रियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे लेकिन अभी तक कहीं किसी के कानों पर जूं नहीं रेंगी? सूबे में शिक्षा के दफ्तर का जिम्मा संभाले एक हाकिम ने पिछले दिनों एलान किया है, ‘सितंबर हिंदी, तो अक्टूबर गणित के नाम से रहेगा, बढ़ाएंगे सरकारी स्कूलों का स्तर। राज्य सरकार अभियान चलायेगी,’ हालांकि अभी तक कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं नवंबर भी जा रही हैं। मजेदार बात है कि इसी प्रदेश के बच्चों को न तो हिन्दी की गिनती, पहाड़े का ज्ञान है और न ही हिन्दी का वर्णमाला का, लेकिन उसे अ से अर्दब, आ से आतंक की जानकारी के साथ ए फाॅर अॅन्टी000 जेड फाॅर जिम... लंगोटी (डाईपर) बदले जाने के दौरान ही दे दी जा रही है। हालात समूचे देश के लगभग ऐसे ही हैं। वह भी तब, जब सरकारी खजाने से साक्षरता, हिन्दी अपनाओ और हिन्दी के मेले-ठेलों पर करोड़ों-करोड़ रूपये हर बरस लुटाये जाते हैं। विद्यालयों, हिन्दी विद्यापीठों/संस्थानों के लिए कुछ कहना बेमानी होगा।
सरकार की भली कही, ढाई साल पहले लखनऊ की उर्वशी शर्मा को सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी पर भारत सरकार के गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग ने सूचित किया था कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार हिन्दी भारत की ‘राजभाषा’ यानी आफीशियल भाषा मात्र है। संविधान में राष्ट्रभाषा का कोई उल्लेख नहीं है। थोड़ा और पीछे चले चलते हैं, 1981 में उप्र के मुख्यमंत्री ने इसी राजभाषा को 28 जुलाई जी0ओ0 58761 सीएम के तहत राजकाज से यह कहकर बाहर कर दिया था कि अब केन्द्रीय सरकार से पत्र-व्यवहार में राज्य सरकार अंग्रेजी का प्रयोग करें। अनुवाद की सुविधा होने और आगे भी केन्द्र सरकार की भाषा नीति जारी रखने के बाद भी? इससे चंद दिनों पहले वाराणसी में एक हिन्दी भाषी समारोह में हिन्दी के मूर्धन्य विद्वानों ने अंग्रेजी में भाषण देकर हिंदी के प्रति अपने मोह को जाहिर किया था। आज तो ऐसा प्रेम संसद से सड़क तक रोज देखने को मिल जाता है। अभी हाल ही में 10 करोड़ रूपये खर्च करके भोपाल में 10वां विश्व हिंदी साहित्य सम्मेलन गुजरा है, जहां ‘गैंग्स आॅफ हिन्दीगंज’ के देवताओं के दर्शन, हिन्दी की ‘कैटवाॅक’ और हिन्दी की हें... हें... देखने को मिली। हालांकि इसमें कुछ नया नहीं है, अटल जी के जमाने में एक मंत्री जी हिन्दी को ‘आइटम गर्ल’ के खिताब से नवाज चुके हैं। इसी सम्मेलन में पुणे के किसी अनुराग ने ‘ट्विटर की तर्ज पर ‘सोशल नेटवर्किंग साइट’ के लिए हिन्दी में ‘मूषक’ को पेश किया था। हंसी भी आ रही है और अच्छा भी लग रहा है कि हिन्दी को लाख ‘स्कर्ट’ पहनाओ या युवतियां भले ही गणेश का ‘टैटू’ अपनी जवान गोरी-गोरी नंगी पीठ पर बनवा लें और ‘लिसिन मी से या... या... याह.... तक के नखरे करें,’ मगर उसे हिन्दी में बोलना ही पड़ता है। देश में ही नहीं विदेशों में भी, नहीं तो बताईये भला लंदन में ‘जलेबी स्ट्रीट’ की क्या तुक है? इमरती, बालूशाही, पानी के बताशे, लाठी, लिट्टी-चोखा या खाखरा, ढोकला को अंग्रेजी में क्या कहेंगे? हिन्दी में ही ‘जयमाला’ या ‘वरमाला’ कहा जाता है, अंग्रेजी में क्यों नहीं? ऐसे तर्क-कुतर्क बहुत हैं। लिट्रेरी कार्निवाल का आगाज भले ही सिनेतारिका माधुरी दीक्षित से करा लें, लेकिन बिना अमृतलाल नागर, प्रेमचन्द के वहां क्या होगा? हिन्दी में बेहूदा विज्ञापनों को सास-बहू षड़यंत्रों के बीच लाख दिखा लीजिये। संसद में रोमन में लिखी हिंदी बोलिये, लेकिन भारत समेत दुनिया भर में फैले लगभग तीन करोड़ भारतीयों को हिंदी बोलनी ही पड़ेगी। आंकड़े भले ही कहते हैं कि हिंदी 41 फीसदी भारतीयों की मातृभाषा है या विदेशों में हिंदी बोलने में शर्म करते हैं भारतीय। अब तो भोजपुरी भाषा का खासा विस्तार हो रहा है। हिन्दी अखबारों की संख्या, प्रसार संख्या बढ़ रही है। रोजी-रोटी का माध्यम बन रही हिन्दी के साथ अंग्रेजी की ‘मैराथन’ बंद करानी होगी। इसके लिए बाकायदा समाज के जिम्मेदारों को आन्दोलन खड़ा करना होगा?
    यह सच है कि हिन्दी के देवताओं का कमाओ-खाओ कुनबा सरकारी दूध-मलाई पर मुटा, अघा रहा है। उन्हें भी अपने पूर्वजों से कोई लेना-देना नहीं। बस जो बिक सकता है वो उनका सगेवाला। लखनऊ मंे ही के.पी. सक्सेना को गुजरे अभी अधिक समय नहीं बीता उन्हें याद करने की फुर्सत किसे हैं? ‘हंस’ छप रहा है, किसने याद किया राजेन्द्र यादव को? फिर भला अमृतलाल नागर, यशपाल को कौन याद करे? भाषा को आमजन की दुलारी बनाना और उसे पढ़ने, बोलने, लिखने के लिए किसी पत्र-पत्रिका के जरिये मजबूत कर देने जैसा करिश्मा नवाबियत पर अंग्रेजी का मुलम्मा चढ़ने के दौरान पं0 दुलारेलाल भार्गव ने लखनवी भाषा को ईजाद करके किया था। यह नब्बे साल पहले की ‘माधुरी’, ‘सुधा’ और गंगा-पुस्तक माला के जरिये किया गया था। उसी दौरान साहित्य कुटीर, इंडियन बुक डिपो जैसे संस्थान भी आगे आये। मुंुशी नवल किशोर प्रेस तो पहले से ही था, जहां ‘मिश्रबंधु’, रूपनारायण पांडे, प्रेमचंद जैसे दिग्गज दुलारेलाल जी भार्गव और उनके चाचा विष्णु नारायण भार्गव के साथ थे। इसी परम्परा को आगे बढ़ाया नागर, भगवती, यशपाल त्रयी ने, तो उसे मिठास मिली गौरा पंत ‘शिवानी’ की कथा में, तो दैनिक अखबार ‘नवजीवन’ के योगदान को और ज्ञान चन्द जैन को भुलाया नहीं जा सकता।
    बातें, कहावतें और आक्रोश जल्दी खत्म नहीं होते लेकिन यदि भाषा, भूषा और भोजन उधार लेकर जियंेंगे तो, सूदखोर बाजार हमारा अस्तित्व ही मिटा देगा। इससे पहले कि देर हो जाये गली, गांव किनारे उग आये परचूनियों जैसे ‘माॅन्टेसरी’ या ‘एकेडमी’ को गुरूकुल में बदलने का परिश्रम करना होगा। मां के लिए आॅंसू बहाकर हमदर्दी बटोरने की जगह मां से सच मायनों में मां कहना सीखना होगा और नई मां को भी जिम्मेदार होना होगा, तभी आगे कुछ सीखा पायेंगे।

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