Tuesday, March 12, 2013

ऐश्वर्या

मुल्क़ प्रधानमंत्री का, घर घरवाली का, सो हुक्म हुआ दूध लेकर आइये तो चाय मिलेगी। कमबख्त सुबह-सुबह जाना ही पड़ेगा। चाय भी तो पीनी है। रहता ऐसे मोहल्ले में हूं, जहां भोर में उठकर अगली पीढ़ी के साथ लोग टहलने नहीं निकलते। टहलें भी कहां, यहां कोई पार्क नहीं है। उबड़-खाबड़ सड़कें हैं, जिन पर ‘मार्निंग वाॅक’ करते कुत्तों की टोली मय एक-दो सखियों के साथ अवश्य मिल जाती। इन्हीं के आगे-पीछे बड़ी-बड़ी सींगों वाली मरियल सी गायें और उनके पीछे भोले बाबा शिव के प्रिय नंदी वंशज सांड़ अपने वंश वृद्धि के नजरिये से दौड़ते दिखाई दे जाते।
    दूधवाले की गुमटी तक पहुंचने के लिये मोहल्ले के भौगोलिक और मानव सौंदर्य के संग-संग चलना पड़ेगा। उसकी गुमटी और और मेरे घर के बीच के रास्ते पर किसी छोटी नदी जैसी शक्ल द्दरे नाली बहती है। इस नाली में मोहल्ले भर की बिष्ठा, कचरा और महिलाओं के उत्सर्जित गंदे कपड़े डूबते-उतराते आधी से अधिक सड़क पर फैले होते। बची-खुची नंगी पड़ी सड़क पर अपने घरों का कूड़ा फेंकते, पानी के खाली भरे डिब्बों को लेकर लगभग भागते दिख जातीं तीन-तीन पीढि़यां। परचूनिये की दुकान से चाय की पत्ती, शक्कर, सूखी हुई डबर्रोटी के टुकड़े या आटा, दाल, चावल, तेल, नमक, मसाला, खरीदती अलसाई, सूखी और उदास औरतें दिखतीं। पानवाले की दुकान पर इलाकाई आवारा छोकरों के दल के अलावा अपनी तलब मिटाने के लिए बीड़ी, सिगरेट, गुटखा खरीदते ग्राहकनुमा वर्तमान खड़ा होता और सामने दूधवाले के यहां आने-जाने वाली जवान होती लड़कियों व भरपूर जवान औरतों के जिस्मानी उपकरणों को आंखों ही आंखों में नापता-जोखता व फब्तियां कसता रहता है। दूधवाले से बस थोड़ी दूरी पर बजरंगबली का बहुत पुराना मंदिर है। मंदिर के चबूतरे पर जमाने की जंगखाई एक बुढि़या मालिन टूटी सी डलिया में फूल रखकर बेचती है। मंदिर में सामने ही बजरंगबली की आदमकद मूर्ति है, नौ देवियों की छोटी-छोटी मूर्तियां हैं, शिवलिंग है, गणेश प्रतिमा समेत पूरा शिव परिवार है। एक पीपल का पेड़ भी है। मंदिर में दर्शनार्थियों की संख्या मोहल्ले की जनसंख्या का एक प्रतिशत भर है। सड़क पर आते-जाते लोग मंदिर को प्रणाम कर लेते और आगे बढ़ जाते हैं। इसी मंदिर में स्कूल जाती बच्चियां अपने जेबखर्च के पैसों में से एक सिक्का उछाल कर अबकी बार की परीक्षा में अपने फस्र्ट आने की मन्नतें मांगती हैं।
    मंदिर से दक्षिण की ओर मोहल्ले की ‘ऐश्वर्या’ का मकान है। इस मकान का मालिक खुदा जाने कौन है, लेकिन खुद ऐश्वर्या लगती मकान मालकिन जैसी ही हैं, सुबह के समय वे नियम से अपने घर के सामने सड़क की धुलाई करते या उस पर पानी की फुहार का छिड़काव करते दिखाई देतीं। ये पानी जल संस्थान का कर चुकायें बगैर ही वे बेधड़क इस्तेमाल करतीं। इस चालू सड़क का सबेरा हांफता सा धीरे-धीरे बढ़ता लेकिन उनके दरवाजे पर कई बार थम जाता था। उनकी मुस्कराहट के दीवानों के बच्चे अक्सर बगैर चाय-नाश्ते के स्कूल चले जाया करते थे। उनकी सुन्दर काया गाउननुमा कपड़े के भीतर क्या गजब ढ़ाती है जानने की जिज्ञासा से निहायत शरीफ आदमी भी एक पल को ठिठक कर उन्हें भर नजर देख जरूर लेता। आते-जाते लोगों के लिए यह नजारा केबिल टी.वी. के एक चटखारेदार विज्ञापन जैसा होता। आज भी वे पूरी तल्लीनता से सड़क द्दुलने में व्यस्त थीं। दूधवाला उनसे हंस-हंसकर बातें कर रहा था। मुझे देखकर वह आंखों में हैरत भरे मेरी ओर ताकने लगा। मैंने दूध के दो पैकेट उठा लिये, नोट उसकी ओर बढ़ा दिया। वापसी में ‘क्या प्यारी चीज है....’ जुम्ला हवा में उछलता हुआ मेरी पीठ से टकराया।
    ऐश्वर्या के ही मकान में ऊपरवाली मंजिल पर मेरे दफ्तर के एक बाबू प्रबोद्द कुमार तिवारी रहते हैं। वे जब प्रसन्न होते तो सिसकारियां लेकर बड़ी ही बेहयाई से किसी ‘एडल्ट’ फिल्म की कहानी की तरह उसके किस्से किस्तों में अपने साथियों को सुनाया करते। पूरा दफ्तर अपने थूक को बिलोकर और घोटकर शहद की तरह चाटता जाता तृप्त होता जाता। दो-एक पेशाब करने के बहाने बाथरूम तक भी होकर आ जाते और पूरी तनमयता से एक-एक शब्द सुनते जाते।
    ‘तिवारी जी... तुमने यह तो बताया नहीं कि वह नंगी हुई थी तुम्हारे सामने?’
    ‘बताया तो... खुले आंगन में धूप खौल रही थी, वो आई... इधर-उधर देखा फिर हांक लगाई ‘ओ तिवारी, मैं नहाने जा रही हूं बाहर जाना है, तो अभी चले जाओ’।
    ‘आराम से नहाओ बाद में जाऊंगा।’ और बस एक ही बार में उसने अपनी मैक्सी उतारकर फेंक दी, पूरा बदन धूप की तपिश में सुनहरा दिखाई दे रहा था।’।
    ‘तिवारी, तेरे तो मजे ही मजे हैं।’ ईष्या भरी आवाज ने सन्नाटा तोड़ा।
    ‘क्या खाक मजे हैं। वहां तो कालिया दरोगा मजे लूटता है।’
    ‘भाई.. तिवारी साफ-साफ बताओ, ये कालिया दरोगा वाला क्या किस्सा हैं?’
    ‘साला अपने को उसका भाई बताता है। रात में उसी के साथ सोता है।’
    ‘और उसका मर्द?’
    ‘वो तो अंग्रेजी पीकर बेहोश सोता है।’
    ‘यार तिवारी तुमने कोई चक्कर नहीं चलाया।’
    ‘धीरे बोलो। क्या नौकरी से बाहर करवाओगे?’
    ‘क्यों... डरते हो क्या..... ’ बीच में ही दूसरी आवाज ने रहस्य खोला.....
    ‘बड़े साहब भी वहीं आगे रहते हैं। उनकी कलफ लगी सूती कपड़े जैसी करारी आवाज सुनकर तिवारी का सारा जोश ठंडा पड़ जाता है।’
    कामांध सांसों की गंध और उसके मैल से फूटने वाले बुलबुलों ने कमरे में एक खामोश बदबू भर दी थी।
    सच तो मैं नहीं जानता लेकिन कालिया दरोगा को ऐश्वर्या के घर आते-जाते मैंने भी देखा है। वो उसकी मोटरसाइकिल पर पीछे बैठकर आती-जाती भी दिखी है। अभी पिछले ‘पल्स पोलियों अभियान’ के दौरान कालिया रोज ही उसे बिठाकर पोलियों बूथ तक छोड़ने आता था। यह तो सभी ने देखा, मैंने भी देखा है।
    दूध की थैली बीवी को थमाते हुए मन में आया कि पूंछू, ‘ऐश्वर्या-कालिया की गुटरगूं के बारे में उन्हें कुछ मालूम हैं? ‘फिर हिम्मत न जुटा सका। मन में खुराफती अनुभव का विश्वास था कि दूर छोटे शहरों, कस्बों और गांवों से राजद्दानी में आकर बसने वाले छोटे एकल परिवार, जिन पर किसी का अंकुश नहीं था, तो तरक्की की सबसे ऊपरवाली मंजिल पर पहुंचने की जल्दी में रहते हैं। इन परिवारों के मर्द छोटी-मोटी नौकरियां, मजदूरी या फुटकर व्यापार करके पेट के लिए दो रोटियों की जुगत बमुश्किल कर पाते। औरतें पेट से एक बलिस्त नीचे और एक बलिस्ता ऊपर की कीमत पर अपने सपनों को पूरा करके मस्त हैं। वे अपने को भ्रष्ट नहीं मानती चरित्रहीन तो कतई नहीं। और चालाक दिमाग शहरी उनकी देह का एक-एक इंच बेचकर एक नई ‘समाजवादी यौन क्रांति’ की उत्तेजना पैदा करने में लगा है। वे इसे ‘कामर्शियल सेक्स रिवोल्यूशन’ तक कहने से नहीं हिचकते।
    चाय बर्फ की तरह ठंडी हो गई। दफ्तर समय से पहुंचना था। आज नये ‘विशेषांक’ की बैठक थी जिलों से भी लोग आने वाले हैं। चाय भूलकर जल्दी-जल्दी तैयार होकर बस स्टैंड तक आया। सिगरेट की तलब में निगाहें इधर -उधर घुमाईं अनायास सामने पानवाले की दुकान पर नई चमचमाती मोटरसाइकिल पर तिवारी की कमर में हाथ डाले ऐश्वर्या बैठी मुस्करा रही थी। ऐश्वर्या के चेहरे पर न कोई झिझक थी न पश्चाताप। और तिवारी की गर्दन अहंकार से अकड़ी हुई, चेहरा मुस्कराता हुआ। चुटकी बजाकर सिगरेट की राख झगाड़ी। ठीक मेरे सामने से मोटरसाइकिल फर्राटा भरती आगे चली गई।

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