Monday, April 2, 2012

रोटी से रोमांस तक लापता है महंगाई

छप्पर के नीचे छम्मक छल्लो‘
रोटियों की छाती और पीठ पर पड़े काले-भूरे फफोले देखकर मुंह बिचकाने वाली जमात मुर्दा और जिंदा गोश्त देखकर लार टपकाती यहां-वहां होने वाले महंगाई के फैशन शो मंे शामिल होकर इंकलाबी गर्व से भरी है। और यही कौम एक हाथ में मिनरल वाॅटर की बोतल दूसरे में जलती मोमबत्ती थामें महंगाई को और महंगा कर रही है। क्या सच में महंगाई जीना हराम किये है? या फिर महंगाई भी महाजनों और महाराजाओं से ज्यादा आदमी की बांदी है? पढि़ये
महंगाई डायन खाये जात है.... गाना ऊँचे से ऊँचे स्वर में गाये जाने की पूरे देश में होड़ मची है। इसके प्रतिस्पर्धी पेट और पेट के नीचे की प्रयोगशाला में बाकायदा परीक्षण करके रोटी से रोमांस, पानी से पेट्रोल, मिट्टी से मक्खन, दवाई से पढ़ाई, बिजली से वाहन, सड़क से संचार, सब्जी से सौंदर्य प्रसाधन, दूध से दारू, कपड़ों से करों (टैक्स), जमीन से जंगल, धर्म-आस्था से सोना-चांदी और पर्यटन, परिवहन से पगार तक के मंहगे आंकड़ों पर अपना ज्ञान बांट रहे हैं। वह भी तब जब पांच राज्यों में हुए चुनावों के बाद हाल ही में देश का बजट आया है। बजट में आम आदमी को कुछ नहीं मिला की तोतारटन्त के साथ रेल का किराया बढ़ाये जाने को लेकर जहां सियासत के मोहल्ले में घमासान हुआ, वहीं सोने पर बढ़े कर को लेकर सड़कों पर हंगामा बरपा है। इसी के बीच कृषि मंत्रालय की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि किसान 20 रूपए प्रतिदिन भी नहीं कमा पा रहे हैं। योजना आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 29 रूपए रोज कमाने वाला गरीब नहीं है।
    महंगाई और गरीबी का कारोबार बड़े ही सुनियोजित तरीके से सरकार, सरदार और समाज (आम आदमी) की साझेदारी में चल रहा है। गौर करने लायक है कि महंगाई का हल्ला, गरीबी का हल्ला वे ही मचाये हैं जो खाये-पीये, अघाये हैं। उन्हीं के पास आंकड़ों की बाजीगरी है। यह सब इसलिए भी कि इसी हल्ले के जरिये विदेशी सहायता व कर्ज भी हासिल होता है। साथ ही सत्ता पर चढ़ने की सीढि़यों के दो मजबूत डंडे भी यही हैं।
    सच की सड़क पर लगे आदमी की शाहखर्ची के ‘होर्डिंग्स’ कुछ अलग ही बयान करते दिखाई देते हैं। हाल ही में होली का रंगीन पर्व भारतवासियों ने मनाया है, जिसमें 12 हजार करोड़ से अधिक का रंग-गुलाल उड़ा दिया। किराना, कपड़ा, दूध-मावा पर 60 हजार करोड़ के खर्च के आंकड़े आये हैं। शराब अकेले उप्र की राजधानी लखनऊ में 30 करोड़ से अधिक की पी गई। देशभर का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों की कच्ची शराब के प्रमाणित आंकड़े भले ही उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन उसके भी जनपद में 25 करोड़ के कारोबार की सूचना है। गुझिया 36 हजार रूपए किलो से लेकर 360 रू0 किलो तक बिकी। दस करोड़ एसएमएस महज एक दिन में लखनऊवासियों के मोबाइल फोनों से किये गये। संचार का नेटवर्क तक कई जगह बैठ गया।
    दीवाली भी इससे कम में नहीं मनाई गई थी। धनतेरस के दिन 360 किलो सोना (1 अरब रूपए से ऊपर कीमत का) बिका, 1000 किलो चांदी (6 करोड़ रूपए), 50 लाख का हीरे का एक हार, 48 करोड़ के 4000 दो पहिया, 32 करोड़ के 700 चार पहिया वाहन, 40 करोड़ की मिठाई, 35 करोड़ के इलेक्ट्रानिक्स आयटम, 3 करोड़ के बर्तन बिके। 20 करोड़ की आतिशबाजी, 10 करोड़ संचार पर (12 करोड़ एसएमएस सहित) खर्च, 15 करोड़ की पतंगे उड़ीं, कमल का फूल 101 रूपए तक बिकने के बाद भी लाखांे लोेग उसे खरीदने से वंचित रह गये। खाद्य-पूजन वस्तुएं 35 फसीदी तक महंगे बिक रहे थे फिर भी खरीदने वालों की कमी नहीं थी। दो-चार पहिया वाहनों के खरीददार थैलोें में नकद पैसा लिए बाजार में घूमते ही रह गये, क्योंकि गाडि़यां बिक चुकी थीं। शेयर बाजार में महज पौने दो घंटे के शुभमुहूर्त में 60 करोड़ से अधिक का कारोबार हुआ। इससे आगे देश में फरवरी 12 में 11 लाख 44 हजार 5 सौ दो पहिया और 2 लाख 11 हजार चार सौ दो चार पहिया वाहनों की बिक्री हुई और मार्च में बजट से पहले सात लाख पैंसठ हजार नौ सौ अड़सठ चार पहिया वाहनों की मांग वेटिंग पर थी। उनमें डीजल गाडि़यां अधिक हैं। पर्व-त्यौहार से अलग हटकर रोजमर्रा खर्चों के आंकड़े भी कम चैकाने वाले नहीं हैं। लखनऊ सर्राफा कारोबारी हड़ताल पर है, 30-32 अरब का व्यवसाय प्रभावित हुआ बताया जाता है। महिलाएं जेवर नहीं खरीद पा रहीं हैं, तो रिश्तेदारांें से मांग कर काम चला रही है। शादियों में भी यही हाल है। झूठी शान के चलते मामूली शादियों में पांच-दस लाख खर्च हो रहा है। आम आदमी एक लाख से दस हजार रूपए प्रतिमाह कमाई करने के साथ नंबर दो में भी इतना ही कमा रहा है। सफाईकर्मी तक मोबाइल, टी.वी., दो पहिया वाहन, दारू से लेकर ब्यूटी पार्लर पर धड़ल्ले से खर्च कर रहा है। रेस्ट्रां, स्ट्रीट रेस्ट्रां में बैठने को जगह नहीं मिलती। विशाल मेगा मार्ट, बिग बाजार से मुहल्ला किराना मर्चेन्ट तक चेक/क्रेडिट कार्ड से भुगतान ले रहे हैं। पान मसाला से लेकर मामूली पूड़ी भंडारों में लगने वाली भीड़ के अलावा ब्रांडेड खाद्य सामग्रियों व कास्मेटिक्स की बिक्री आदमी की जेब का गुणगाान करती है। महंगे स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने का हाल यह है कि रोज नये स्कूल खुलते हैं, फिर भी प्रतिस्पर्धा खत्म नहीं होती। अकेले सिटी मान्टेसरी स्कूल (सीएमएस) की लखनऊ शहर में 32 शाखाएं हैं। पेट्रोल, गैस, पानी, बिजली व मोबाइल फोन के दुरूपयोग व इनके चोरी से इस्तेमाल करने की शाहखर्ची महंगाई ही नहीं भ्रष्टाचार भी बढ़ाते है। एनएसएसओ के अनुसार शहर का एक आदमी 1500 से 2900 तक औसत खर्च करता है। जबकि सच्चाई इससे अलग बयान करती है। शहरी आदमी केवल पान मसाला, सिगरेट, शराब, बाल-दाढ़ी कटाने, धुलाई-सफाई, कास्मेटिक्स मनोरंजन पर ही दो हजार से अधिक प्रतिमाह खर्च कर देता है। सुनकर हैरत हो सकती है, मामूली रिक्शा चालक, कार ड्राईवर, फेरीवाला नाई केवल पान मसाले पर हजार रूपए प्रतिमाह खर्च करते हैं। यही शहरी ‘पत्थर वाली’ अफवाह को हवा देने के लिए केवल दो घंटे में चार लाख मोबाइल काॅल करके रेकार्ड बना डालते हैं। देश में करोड़पति तो महज दो लाख दस हजार ही हैं, मगर हैप्पी बर्थडे का पांच सौ वाला केक तो आम आदमी की पार्टी मंे ही शान बढ़ाता है।
    नेशनल सैम्पल सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि देश के 28 राज्य और 7 केन्द्र शासित राज्यों में दिल्लीवासी शहरी लोग सर्वाधिक (2905 रूपए प्रति व्यक्ति प्रतिमाह) अपने खाने-पीने पर खर्च करते हैं। दूसरे नंबर पर हिमांचल प्रदेश के शहरी हैं। इनकी प्रति व्यक्ति आय समूचे देश के प्रति व्यक्ति 53,331 के मुकाबले 58,493 रूपए हैं। यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथाॅरिटी आॅफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश के लोगों की जेबों में अमेरिकी नागरिकों की जेबों से भी अद्दिक नकद रकम रहती है। शहरियों की शाह खर्ची बढ़ी है, तो गांवों की आबादी लगातार बढ़ रही है। 83.31 करोड़ लोग गांवों रहते हैं, जिनके रहन-सहन खाने-पीने, मनोरंजन में बड़ा बदलाव आया है। गांव के छप्परों के नीचे अब ढोलक की थाप पर फाग, चैता की गूंज के बजाय छम्मक छल्लो...., चिकनी चमेली से लेकर कोलावेरी...  ऊँची आवाज में देर रात तक सुने जा सकते हैं। धुर देहात या अति पिछड़े इलाकों की लड़कियां तक गाजियाबाद से लेकर मुंबई तक के महंगे शिक्षण संस्थानों मंे पढ़ती और महंगे अपार्टमेंटों में पेइंग गेस्ट/ लिव-इन-रिलेशन में दिख जाएंगी। गांव का भोला-भाला युवा पहले ‘रेडियों’ पर गाने सुनकर खुश होता था। अब एफएम पर सीधे एंकर से बात करता हैं। गांवों में बनियों की दुकानों पर अनाज के बदले बीड़ी, साबुन खरीदने वाले ग्रामीणों ने भले ही प्रचलित अर्थव्यवस्था को आज भी बड़ी तादाद में न बदला हो, लेकिन उनकी खरीद में भी शैंपू, साबुन, टायलेट क्लीनर, स्वास्थ्य व पर्सनल केयर वस्तुएं, डब्बा बंद खाद्य वस्तुओं को खासी अच्छी जगह मिली है। कारपोरेट जगत की बड़ी हस्ती हिन्दुस्तान थाॅमसन एसोसिएट के शोध विभाग की रिपोर्ट बताती है कि दूद्द से बने उत्पादों की ग्रामीण क्षेत्रों में बिक्री 41 फीसदी तक बढ़ी है। आईएमआरबी की रिपोर्ट के अनुसार शैम्पू में 81 फीसदी, टाॅयलेट-बाथरूम क्लीनर में 25 फीसदी की बढ़त दर्ज की गई है। इसी तरह पीयर्स, डव, डेटाल साबुनों में 47 फीसदी की भारी बढ़त दर्ज की गई है। खाद्य पदार्थों की बिक्री 53.6 फीसदी है। टूथपेस्ट तक 47 फीसदी की बढ़त पर हैं। यह हालात तब हैं जब सरकारी आंकड़ों के हिसाब से गांवों में हर तीसरा आदमी गरीब है। इस हिसाब से लगभग 28 करोड़ ग्रामीण नोन-भात या नमक -रोटी खाकर, अशुद्ध पानी पीकर जीने को मजबूर हैं। उन्हें महंगाई का मतलब कैसे समझ में आयेगा?
    गांवों मंे बसने वाली गरीब आबादी और शहरी गरीबों के हालातों पर अगले किसी अंक में फिर बात करेंगे। हकीकत में आई लव यू... हैप्पी बर्थ डे.. पुराना फैशन हो गये हैं। आज हाॅफ जींस और शार्ट खुलेआम महंगाई का मजाक उड़ाते हुए कहीं भी ‘विल यू लिव विद मी’ या ‘विल यू सेक्स विद मी’ कहते दिख जाएंगे।

2 comments:

  1. एक और अच्छी प्रस्तुति |
    ध्यान दिलाती पोस्ट |
    सुन्दर प्रस्तुति...बधाई
    दिनेश पारीक
    मेरी एक नई मेरा बचपन
    http://vangaydinesh.blogspot.in/
    http://dineshpareek19.blogspot.in/

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