Monday, April 2, 2012

कहानी : बर्फ की सिल

मेरे बगल मंे लेटी हुई औरत के बदन पर तार भी नहीं था उसके जिस्म की गर्माहट में झुलसते हुए तमाम वक्त मेरे हाथों से फिसल चुका था, आज उसका वही बदन किसी बर्फ की सिल की तरह ठंडा लग रहा था। एहसास हो रहा था, मेरे बगल में लेटी हुई ताजा हाड़-मांस की औरत नहीं बल्कि फ्रिज में जमी बर्फ पसरी पड़ी हो। मैंने कई बार प्रयत्न किया, छू कर भी देखा मगर मुझे हर बार ठंडक का आभास मिला। शरीर में कंपकपी छाने लगी।
    यह मेरे लिए असहनीय था, मैं जब कभी ऐसे रास्ते से गुजरता तो लगता कि मैंने ईश्वर के विधान में दखल दे डाला है। शायद! सरल को यह एहसास मुझसे पहले से ही था। सरल का स्वभाव बेहद सरल था। सरल में दुनियां भर की खूबियों के बावजूद, ठंडेपन की एक चादर उसके बदन पर लिपटी रहती। मुझमें इतनी ताकत कभी पैदा न हो सकी कि उस ठंड़ी चादर के नीचे की गर्माहट का एहसास कर सकूं। मुझे यह कहने में कतई हिंचक नहीं कि शायद उतने समय के लिए मुझमंे नपुंसकता समा जाती रही है।
    सरल को लेकर जीवन की तमाम मुश्किलों का सफर आसानी से तय किया था। उसकी प्रेरणां से मोहब्बत और इंसनियत की जागीर का अकेला मालिक होने का दावा कर सका। सरल ने ही तो जीने के नये रास्ते की खोज में मेरा साथ दिया। सरल ने ही तो भूखे पेट को सिर्फ दो आंसुओं से भर लेने में मदद की। सरल ने ही तो निराशा को अपने बदन की गर्माहट से जलाकर भस्म कर दिया। फिर....... फिर आज उसके बदन की गर्माहट-मौन क्यों हैं?
    क्या हुआ है मुझे कि मैं उसके बगल मंे लेटा हुआ भी उसे बर्फ की गोद से नहीं निकाल पा रहा हूं? क्यों ऐसा होता है? क्या मैं उसके अहम् को कहीं कुचल तो नहीं रहा हूं? मेरे सामने सिर्फ सवालों की कतार है, जवाब का एक जुम्ला भी नहीं।
    इन सवालों की कतार से परे मुझे अपने जीवन के पिछले क्षणों के दृश्य दिखते है। मैं और सरल, सरल और मैं! कहीं कोई ठंडापन नहीं, कोई रीतापन नहीं। जोश और उमंग के समुद्र में तैरते हुए सरल और मैं। अचानक मेरा हाथ सरल के बदन से टकरा जाता है और विचारों की दुनिया से निकलकर यथार्थ की चिकनी और सपाट सड़क पर आ खड़ा होता हूं।
    ‘सरल...सरल.....। कोई उत्तर नहीं, सिर्फ ठंडी सांसे। अभी कल की ही तो बात है, गांव से पिता जी और भइया आये थे। सरल ने उन्हें आभास तक नहीं होने दिया कि वे अपने घर में नहीं हैं। सरल ने ही सारी मेहमाननवाजी पर कब्जा कर लिया था। पिता जी और भाइया बड़े ही खुश थे। जाने से पहले भइया ने मुझसे कहा था, ‘राम मैंने तुम्हें खत भी लिखा था कि खेतों ने इस बार हमारा साथ नहीं दिया हैं, हमें दस हजार रूपयों की जरूरत हैं, मगर तुमने कोई जवाब ही नहीं दिया।’
    ‘भइया मुझे तो तुम्हारा कोई खत नहीं मिला। बहरहाल मैं अभी देता हूँ।’
    वादा करके अंदर कमरे में गया,  अल्मारी खोल कर पैसे निकाले, और जैसे ही बाहर जाने के लिया घूमा, सरल सामने खड़ी थी। उसने एक नजर उन नीले नोटों पर डाली और दूसरी मुझ पर, फिर घूमकर चली गयी। उसकी खामोश निगाह ने क्या कहा? मैं न जान सका। मैंने बाहर आकर अपने बड़े भाई को रूपये दिये। उनको विदा करने की गरज से कोठी के गेट तक आया और उनके जाने के बाद भी लान में ही बैठा रह गया। दिल्ली की खुशनुमा शाम, माहौल में गर्माहट जरूर पैदा कर रही थी, मगर नागवार नहीं गुजर रहा था। शाम को और हसीन बनाने के इरादे से सरल को आवाज दी, मगर कोई उत्तर नहीं।
    मैं समझ गया कि खामोशी अब रंग लायेगी। मैं खुद ही अंदर गया। सरल रसोई में नौकर को कुछ समझा रही थी, मेरी मौजूदगी का एहसास होते ही, खामोशी ने उसका दामन थाम लिया। मैं तो यही कहुंगा। क्योंकि सरल खमोशी का दामन नहीं थाम सकती, इतना मैं अच्छी तरह जानता हूं। उसमें चंचलता कूट-कूट कर भरी है। जब चंचल हो जाती है तो किसी शरीर बच्ची की तरह और जब चंचलता ठहर जाती है तो उसका नयारूप एक खामोश बुत की तरह होता है। वो खामोश बुत मुझे बेचैन कर देता है। मुझे अच्छी तरह याद है, जब पहली बार यह खामोश बुत हम दोनों के बीच आया था। उस समय मैं दिल्ली की सड़कों पर अपनी मंजिल की तलाश में भटक रहा था। भटकाव में मेरे अपनों ने और भी भटका दिया। निराशा और भूख ने सरल के बदन से जेवरों को उतार लिया। जेवर जो औरत को पति के बाद सबसे प्यारे होते हैं। वही जेवर सरल से जुदा हो गये, मगर सरल ने उफ तक न की। फिर वक्त कब सरक गया, पता ही नहीं चला।
    दिल्ली जैसे शहर की भीड़ में अपनी पहचान बनाना बड़ा मुश्किल था, फिर भी सरल के साथ ने मुझे दिल्ली शहर का भारी-भरकम ‘साईन बोर्ड’ बना दिया। ठीक उसी तरह जैसे रेलवे स्टेशन पर ‘पीला बोर्ड’ उस स्टेशन और शहर की पहचान कराता है। दिल्ली शहर की ऊंची सोसाइटी में ‘राम’ का नाम लेने और याद रखने वालों की संख्या काफी लम्बी हो गई। तब आया एक नया मोड़, जो पिछले छूटे हुए मोड़ों के पास निकलता था। वहां मेरे परिवार के लोग हाथ फैलाये खड़े थे। मेरे अपने खून के रिश्ते भीख मांगते हुए सड़क पर खड़े हों, यह मुझे बर्दाश्त नहीं हुआ और मैंने बिना सरल की राय के उन फैले हाथों को बन्द मुट्ठी में बदल डाला। बस उसी दिन से मेरे और सरल के बीच वह खामोश बुत आ गया। सरल ने कभी शिकायत नहीं की। कभी कुछ मांगा नहीं। मांगा तो सिर्फ अपने खाये हुए, बिगड़े हुए जेवर। जो मैं दे न सका। ऐसा नहीं कि मैं दे नहीं सकता, मगर व्यापारी होने के नाते बैंक के लाकर का खर्च और पूंजी की हत्या बर्दाश्त नहीं होती। जी कड़ा करके जैसे-तैसे एक बार पूंजी की हत्या भी कर डाली मगर ईश्वर शायद मेरी सरल को जेवरों से जगमगाता नहीं  देखना चाहता था या फिर सरल का जेवरों के प्रति अटूट मोह उसे उससे दूर ले जाना चाहता था। जो भी हो, व्यापार में घाटा उठाना पड़ा और कर्जदारों ने कोठी के गेट पर खड़े हो लाल-पीली आंखे दिखानी शुरू की, तब एक बार पुनः सरल के जेवरों के बाक्स ने ‘शाख’ बचाई। वहीं जेवरों का बाक्स मैं न भर सका, लोगों की झोलियां भरने की आदत भी न छुडा सका। नतीजा वो खामोश बुत साये की तरह मेरे साथ लग गया। सरल मंे ठंडापन बढ़ता गया और मैं अपने दंभ में ठंडेपन को रौंदता गया और आगे बढ़ता गया।
    आज भइया को गांव गये दूसरा दिन है, मगर सरल ने मुंह नहीं खोला। रात बिस्तर पर निर्जीव सी पड़ी रही। बर्फ भी गर्मी पा कर पिघलने लगती है, मगर सरल शायद बर्फ से भी अधिक ठंडी हो जाती है, इन क्षणों में.... उफ! क्यों ऐसा होता है?



1 comment:

  1. एक और अच्छी प्रस्तुति |
    ध्यान दिलाती पोस्ट |
    सुन्दर प्रस्तुति...बधाई
    दिनेश पारीक
    मेरी एक नई मेरा बचपन
    http://vangaydinesh.blogspot.in/
    http://dineshpareek19.blogspot.in/

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