Thursday, September 30, 2010

पत्रकारों की ललकार

अखबार कोई नहीं पढ़ना चाहता खासकर चार पन्नो वाले छोटे अख़बार या चालीस पेज वाली पत्रिकाएं .न मुख्यमंत्री न पानवाला. न जिलाधिकारी, न शिछ्क. न सिपाही, न अभिनेता .न ब्यापारी,न प्रकाशक पत्रकार .ये सब लोग सियासी तितली के गर्भ से पैदा होने वाले आतंकवाद के विस्फोट की आशंका से डरे सहमे रहते हैं .इन्हें उसके रंगीन पंखों में झिलमिलाती रंगीनियों में शमिल होने के दावतनामे का इंतजार रहता है और ये भयभीत केचुवे अपने ही खोल में सिकुरे-सिमटे  आहिस्ता-आहिस्ता बगैर निमंत्रण पाए सारे संस्कार-शिष्टाचार को धता बताकर सत्ता के लाल कालीन पर पसर जाते हैं और हमें मजबूर करते हैं "स्टिंग आपरेशन" के लिए.बगैर किसी ताकत के, बगैर पैसों के यहाँ तक सुरछा ,संरछा से बेपरवाह सिर्फ अपने चट्टानी इरादों के बूते कोठी-कमालपुर गाँव की दलित संगीता के लापता पति को तलाशने में लापरवाह पुलिश की बदतमीजी की असलियत जान्ने पहुँच जाता है उसकी झोपरी के दरवाजे पर छोटा पत्रकार, कस्बाई पत्रकार. और छप जाता है चार पन्नों के छोटे अखबार के पहले पेज पर"लापता दलित की पत्नी संगीता पर बरपा कोठी पुलिश का कहर .बस यहीं से शुरू  हो जाता है उत्पीरून . तो क्या ध्रतराष्ट्र की रखैल के बेटों के वारिस सच की जुबान काट लेने में समर्थ हो गए हैं ?जी नहीं!अखबार और  पत्रकार की दुनियां में आई सूचना क्रांति के इस दौर में हम हिंदी वालों को और ताकतवर बनाया है.तभी तो ओबामा या मायावती बन्ने/ बनाने में छोटे अखबारों काबहुत अधिक योगदान रहा है और आगे भी रहेगा .

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