देश में 95 करोड़ मोबाइल हैं। गांव-गांव बरफ के गोले और टिकुल-बिंदी बेचने वाले फेरी दुकानदार उनके रिचार्ज कूपन बेच रहे हैं। ऐसे ही छोटे परचूनिए (जनरलमर्चेन्ट्स) बैटरी, इन्वर्टर, जेनरेटर से मोबाइल रिचार्ज करने का बड़ा व्यापार खड़ा कर चुके हैं। इन गंवई दुकानों में सेनेटरी नेपकीन से लेकर परफ्यूम कैन तक आसानी से उपलब्ध हैं। इन्हीं गांवों में शौचालय नहीं है। गांव की औरतें खुले में शौच जाते हुए यौन हिंसा का शिकार हो रही हैं। इससे भी आगे देश की आर्थिक राजधानी मुंबई की साठ फीसदी महिलाएं शौचालय के बगैर काम चला रही हैं। उप्र की राजधानी लखनऊ में महिलाओं की तो छोडि़ये पुरूषों के लिए अपेक्षा के अनुरूप शौचालय नहीं है। अमौसी हवाई अड्डे से लेकर निशातगंज (नेशनल हाइवे नं0 25) के बीच लगभग 22 किलोमीटर की दूरी पर महज चार-पांच सार्वजनिक शौचालय हैं। वे भी रेलवे-बस स्टेशन, मिलाकर।
केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने पिछले दिनों घमरा में पर्यावरण हितैषी शौचालय जनता को सौंपते हुए कहा था, कितने शर्म की बात है कि हम अग्नि मिसाइल दाग सकते हैं, लेकिन साफ-सफाई की समस्या दूर नहीं कर पाते। आज भी देश की एक बड़ी आबादी को हम शौचालय नहीं दे पाएं हैं। देश की साठ फीसदी औरतों के लिए शौचालय की व्यवस्था नहीं हो पाई है। उन्होंने पर्यावरण मित्र शौचालय का नाम ‘बापू’ रखने का सुझाव दिया। क्योंकि यह महात्मा गांधी के स्वच्छता अभियान का ही हिस्सा है। शौचालय सुलभ कराने में पहला नाम बिंदेश्वरी पाठक का लिया जाता है। उनके नक्शेकदम पर कई स्वयंसेवी संगठन इस ओर सक्रिय हुए हैं। जिनके सक्रिय सहयोग से मोबाइल शौचालय भी उपलब्ध कराये जा रहे हैं। इसी मुहिम में शामिल नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ डिजाइन (एनडीआई) के स्नातकों राजेश ठाकरे व ट्राॅय बसंत सी ने ‘गुड मार्निंग मुंबई’ नाम से एक एनीमेटेड (रेखाचित्र) फिल्म बनाई है। फिल्म में मुंबई की झोपड़पट्टियों में शौचालय की आवश्यकता पर बल देते हुए उसके नुकसान से सावधान किया गया है। इसके साथ ही उन क्षेत्रों में शौचालय कैसे उपलब्ध कराये जा सकते हैं, भी दिखाया गया है। हालांकि इस ओर पहले से ही 35 संगठन सक्रिय हैं, जो खासतौर से झोपड़पट्टियों में सार्वजनिक शौचालय व मोबाइल शौचालय उपलब्ध कराने में कामयाब भी हुए हैं। इन्होंने ही मुंबई में 109 शौचालयों के बंद/खराब होने की रिपोर्ट भी दी थी, जिसके कारण इसी 6 जून को 500 शौचालयों के 37 करोड़ रूपयों में बनाये जाने की अनुमति मिली।
सामाजिक कार्यकर्ता प्रोमिता बोहरा ने सार्वजनिक शौचालय की समस्या पर मुंबई में काम करते हुए देखा कि औरतों को सार्वजनिक शौचालय के इस्तेमाल का विरोध उनके ही मर्द करने में आगे हैं। उनके लिए बने अलग शौचालयों का लगातार इस्तेमाल भी मर्द ही करते हैं। रात में इन शौचालयों में ताले लगा दिये जाते थे। पेशाबघरों की तो और दुर्दशा हैं, पैसा देने के बाद भी उन्हें इसके इस्तेमाल की इजाजत नहीं होती। पानी तक बंद कर दिया जाता था। इसी समस्या पर उन्होंने भी एक वृत्त चित्र बनाया है। मानवाधिकार और राइट टू पी (शौचालय का अधिकार) के लिए सक्रिय स्वयं सेवी संगठन सरकार की पेयजल और शौचालय की दोहरी नीतियों के मुखालिफ मुंबई में जोर-शोर से सक्रिय है। ये संगठन झोपड़पट्टियों में सफाई, पानी व शौचालय के लिए बाकायदा अभियान चलाकर लोगों को इससे जोड़ रहे हैं। गौरतलब है महाराष्ट्र सरकार ने कानून बनाया हुआ है कि 2000 के बाद मुंबई में झोपड़पट्टी में घर बनाने वालों को कोई सुविधा सरकार द्वारा नहीं दी जाएगी। इस तारीख के बाद से मुंबई की झोपड़पट्टियों में आये लगभग 12 लाख लोग रह रहे हैं। हालांकि पिछले महीने सरकार की 12वीं पंचवर्षीय योजना में 36 हजार करोड़ का प्रावद्दान ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालयों के निर्माण के लिए किया गया है।
लखनऊ महानगर समेत समूचे सूबे में भी इस अहम् आवश्यकता पर न कोई सोंच है, न कोई नीति। आदमी की नैसर्गिंक आवश्यकता के लिए कोई स्वयंसेवी संगठन राजनैतिक दल भी आगे नहीं आता, जबकि रेलवे लाइन के किनारे, शहर के रिहाइशी इलाकों के नालें-नालियों के किनारे, पार्कों व खुले मैदानों में ‘गुड मार्निंग ओपेन टायलेट’ देखने को रोज मिलते हैं। इसे पर्यावरणीय हिंसा कहा जा सकता है। क्या भ्रष्टाचार, कालाधन के खिलाफ हल्ला मचाने वालों में कोई इस ‘कार्बनडाइआक्साइड उत्सर्जन’ से होने वाली बीमारियों के मुखालिफ मुहिम छेड़ने के लिए आगे आयेगा? ( प्रियंका ब्लाग स्पाट डाॅट काॅम में राम वरमा)
केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने पिछले दिनों घमरा में पर्यावरण हितैषी शौचालय जनता को सौंपते हुए कहा था, कितने शर्म की बात है कि हम अग्नि मिसाइल दाग सकते हैं, लेकिन साफ-सफाई की समस्या दूर नहीं कर पाते। आज भी देश की एक बड़ी आबादी को हम शौचालय नहीं दे पाएं हैं। देश की साठ फीसदी औरतों के लिए शौचालय की व्यवस्था नहीं हो पाई है। उन्होंने पर्यावरण मित्र शौचालय का नाम ‘बापू’ रखने का सुझाव दिया। क्योंकि यह महात्मा गांधी के स्वच्छता अभियान का ही हिस्सा है। शौचालय सुलभ कराने में पहला नाम बिंदेश्वरी पाठक का लिया जाता है। उनके नक्शेकदम पर कई स्वयंसेवी संगठन इस ओर सक्रिय हुए हैं। जिनके सक्रिय सहयोग से मोबाइल शौचालय भी उपलब्ध कराये जा रहे हैं। इसी मुहिम में शामिल नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ डिजाइन (एनडीआई) के स्नातकों राजेश ठाकरे व ट्राॅय बसंत सी ने ‘गुड मार्निंग मुंबई’ नाम से एक एनीमेटेड (रेखाचित्र) फिल्म बनाई है। फिल्म में मुंबई की झोपड़पट्टियों में शौचालय की आवश्यकता पर बल देते हुए उसके नुकसान से सावधान किया गया है। इसके साथ ही उन क्षेत्रों में शौचालय कैसे उपलब्ध कराये जा सकते हैं, भी दिखाया गया है। हालांकि इस ओर पहले से ही 35 संगठन सक्रिय हैं, जो खासतौर से झोपड़पट्टियों में सार्वजनिक शौचालय व मोबाइल शौचालय उपलब्ध कराने में कामयाब भी हुए हैं। इन्होंने ही मुंबई में 109 शौचालयों के बंद/खराब होने की रिपोर्ट भी दी थी, जिसके कारण इसी 6 जून को 500 शौचालयों के 37 करोड़ रूपयों में बनाये जाने की अनुमति मिली।
सामाजिक कार्यकर्ता प्रोमिता बोहरा ने सार्वजनिक शौचालय की समस्या पर मुंबई में काम करते हुए देखा कि औरतों को सार्वजनिक शौचालय के इस्तेमाल का विरोध उनके ही मर्द करने में आगे हैं। उनके लिए बने अलग शौचालयों का लगातार इस्तेमाल भी मर्द ही करते हैं। रात में इन शौचालयों में ताले लगा दिये जाते थे। पेशाबघरों की तो और दुर्दशा हैं, पैसा देने के बाद भी उन्हें इसके इस्तेमाल की इजाजत नहीं होती। पानी तक बंद कर दिया जाता था। इसी समस्या पर उन्होंने भी एक वृत्त चित्र बनाया है। मानवाधिकार और राइट टू पी (शौचालय का अधिकार) के लिए सक्रिय स्वयं सेवी संगठन सरकार की पेयजल और शौचालय की दोहरी नीतियों के मुखालिफ मुंबई में जोर-शोर से सक्रिय है। ये संगठन झोपड़पट्टियों में सफाई, पानी व शौचालय के लिए बाकायदा अभियान चलाकर लोगों को इससे जोड़ रहे हैं। गौरतलब है महाराष्ट्र सरकार ने कानून बनाया हुआ है कि 2000 के बाद मुंबई में झोपड़पट्टी में घर बनाने वालों को कोई सुविधा सरकार द्वारा नहीं दी जाएगी। इस तारीख के बाद से मुंबई की झोपड़पट्टियों में आये लगभग 12 लाख लोग रह रहे हैं। हालांकि पिछले महीने सरकार की 12वीं पंचवर्षीय योजना में 36 हजार करोड़ का प्रावद्दान ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालयों के निर्माण के लिए किया गया है।
लखनऊ महानगर समेत समूचे सूबे में भी इस अहम् आवश्यकता पर न कोई सोंच है, न कोई नीति। आदमी की नैसर्गिंक आवश्यकता के लिए कोई स्वयंसेवी संगठन राजनैतिक दल भी आगे नहीं आता, जबकि रेलवे लाइन के किनारे, शहर के रिहाइशी इलाकों के नालें-नालियों के किनारे, पार्कों व खुले मैदानों में ‘गुड मार्निंग ओपेन टायलेट’ देखने को रोज मिलते हैं। इसे पर्यावरणीय हिंसा कहा जा सकता है। क्या भ्रष्टाचार, कालाधन के खिलाफ हल्ला मचाने वालों में कोई इस ‘कार्बनडाइआक्साइड उत्सर्जन’ से होने वाली बीमारियों के मुखालिफ मुहिम छेड़ने के लिए आगे आयेगा? ( प्रियंका ब्लाग स्पाट डाॅट काॅम में राम वरमा)
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