लखनऊ। डाक्टरों की लापरवाही और उनके पैसा कमाऊ होने का हल्ला ‘सत्यमेव जयते’ से लेकर अखबारों व वेबपोर्टलों पर जारी है। जाहिर है, डाॅक्टर साहबान नाराज भी हैं। बाकायदा धमकियां भी दे रहे हैं। गुस्ताखी माफ हो! डाॅक्टर साहब आपकी लिखावट (राइटिंग) भी कम खतरनाक नहीं है।
आपके लिखे पर्चों को कई बार फार्मेसिस्ट भी नहीं पढ़ पाते, फिर उन्हें पढ़ने के लिए मरीज को मेडिकल कालेज में दाखिला लेना पड़ेगा? यह लंतरानी या महज आरोप नहीं है। कुछ समय पहले नोएडा के स्प्रिंग मेडोज हास्पिटल में डाॅक्टर साहब के लिखे दवाई के पर्चे के फार्मेसिस्टांे द्वारा पढ़े न जा सकने के कारण एक तीन साल के बच्चे की जान चली गई थी। उस बच्चे के परिवारीजनों ने राष्ट्रीय उपभोक्ता फोरम में वाद दायर किया था जिससे बतौर इंसाफ परिवारीजनों को 17.5 लाख रूपये का मुआवजा मिला था।
भारत में हर दिन डाॅक्टरों द्वारा लगभग 40 लाख से अधिक रोगियों को दवा के ऐसे पर्चे लिखे जाते हैं जिन्हें फार्मेसिस्टों द्वारा पढ़े जाने में दिक्कते आती हैं। हालांकि इससे मरीजों को कोई नुकसान पहुंचा या कोई मृत्यु हुई की खबर की सही जानकारी नहीं है। अमेरिका में डाॅक्टरों की खराब लिखावट से लगभग सात हजार लोग हर साल मरते हैं और 1.5 मिलियन लोग गलत दवाएं खाकर रिएक्शन का शिकार होते हैं। मुंबई में डेढ़ महीना पहले क्वालिटी कौंसिल आॅफ इंडिया और फोरम फाॅर इनहैशमेंट आॅफ क्वालिटी इन हेल्थ केयर के संयुक्त प्रयास से हुई एक बैठक में डाक्टरों की खराब लिखावट पर चिंता व्यक्त की गई। इस बैठक में मेडिकल रिप्रसेन्टेटिव, मेडिकल एसोसिएशन व कई स्वयं सेवी संस्थाओं (एनजीओ) ने भाग लिया।
इसमें आम राय हुई कि एक अभियान चलाकर अस्पतालों व डाॅक्टरों से कहा जाय कि डाॅक्टर रोगियों को दवाई के पर्चे अंग्रेजी के ‘कैपिटल लेटर्स’ में लिखें। यह लिखावट साफ होगी और हर कोई आसानी से पढ़ सकेगा।
इसी तरह दवा की कम्पनियाँ अपनी दवाईयों की पैकिंग में उपयोग संबंधी निर्देश (इंस्ट्रक्शन्स फाॅर यूज) के पर्चे रखते हैं। वे इतने छोटी लिखावट (स्माल फाॅन्ट) में छपे होते हैं कि उन्हें आतिशी शीशे (मैग्नीफाइंग ग्लास) से भी नहीं पढ़ा जा सकता। बुजुर्गों के लिए तो वह पर्चा पढ़ना नामुमकिन है।
ऐसे हालात में नागरिकों को भी अस्पतालों में व प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले चिकित्सकों से अपील करनी होगी कि वे रोगियों को जो ‘नुस्खा’ लिखें वह ‘कैपिटल लेटर्स’ में लिखें तो डाॅक्टर साहबान क्या इस खबर को पढ़कर भी नाराज होंगे? या साफ-साफ लिखना शुरू कर देंगे।
आपके लिखे पर्चों को कई बार फार्मेसिस्ट भी नहीं पढ़ पाते, फिर उन्हें पढ़ने के लिए मरीज को मेडिकल कालेज में दाखिला लेना पड़ेगा? यह लंतरानी या महज आरोप नहीं है। कुछ समय पहले नोएडा के स्प्रिंग मेडोज हास्पिटल में डाॅक्टर साहब के लिखे दवाई के पर्चे के फार्मेसिस्टांे द्वारा पढ़े न जा सकने के कारण एक तीन साल के बच्चे की जान चली गई थी। उस बच्चे के परिवारीजनों ने राष्ट्रीय उपभोक्ता फोरम में वाद दायर किया था जिससे बतौर इंसाफ परिवारीजनों को 17.5 लाख रूपये का मुआवजा मिला था।
भारत में हर दिन डाॅक्टरों द्वारा लगभग 40 लाख से अधिक रोगियों को दवा के ऐसे पर्चे लिखे जाते हैं जिन्हें फार्मेसिस्टों द्वारा पढ़े जाने में दिक्कते आती हैं। हालांकि इससे मरीजों को कोई नुकसान पहुंचा या कोई मृत्यु हुई की खबर की सही जानकारी नहीं है। अमेरिका में डाॅक्टरों की खराब लिखावट से लगभग सात हजार लोग हर साल मरते हैं और 1.5 मिलियन लोग गलत दवाएं खाकर रिएक्शन का शिकार होते हैं। मुंबई में डेढ़ महीना पहले क्वालिटी कौंसिल आॅफ इंडिया और फोरम फाॅर इनहैशमेंट आॅफ क्वालिटी इन हेल्थ केयर के संयुक्त प्रयास से हुई एक बैठक में डाक्टरों की खराब लिखावट पर चिंता व्यक्त की गई। इस बैठक में मेडिकल रिप्रसेन्टेटिव, मेडिकल एसोसिएशन व कई स्वयं सेवी संस्थाओं (एनजीओ) ने भाग लिया।
इसमें आम राय हुई कि एक अभियान चलाकर अस्पतालों व डाॅक्टरों से कहा जाय कि डाॅक्टर रोगियों को दवाई के पर्चे अंग्रेजी के ‘कैपिटल लेटर्स’ में लिखें। यह लिखावट साफ होगी और हर कोई आसानी से पढ़ सकेगा।
इसी तरह दवा की कम्पनियाँ अपनी दवाईयों की पैकिंग में उपयोग संबंधी निर्देश (इंस्ट्रक्शन्स फाॅर यूज) के पर्चे रखते हैं। वे इतने छोटी लिखावट (स्माल फाॅन्ट) में छपे होते हैं कि उन्हें आतिशी शीशे (मैग्नीफाइंग ग्लास) से भी नहीं पढ़ा जा सकता। बुजुर्गों के लिए तो वह पर्चा पढ़ना नामुमकिन है।
ऐसे हालात में नागरिकों को भी अस्पतालों में व प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले चिकित्सकों से अपील करनी होगी कि वे रोगियों को जो ‘नुस्खा’ लिखें वह ‘कैपिटल लेटर्स’ में लिखें तो डाॅक्टर साहबान क्या इस खबर को पढ़कर भी नाराज होंगे? या साफ-साफ लिखना शुरू कर देंगे।
No comments:
Post a Comment