Tuesday, July 10, 2012

जल का जलजला चरणामृत भी फिल्टर्ड ही पीएं


पेयजल के प्रदूषण से एक बहुत बड़ी आबादी प्रभावित होती रहती है, इसलिए पेयजल को लेकर आम लोगों में चेतना भरने की भारी जरूरत है। प्रदूषित पानी के पीने से केवल डायरिया, डिसेंट्री, टायफायड, हैजा, पीलिया ही नहीं हो रहे हैं, इससे बाल भी झड़ रहे हैं, दांत भी खराब हो रहे हैं। 2010 में हुए सर्वे में देश के सभी मेट्रोपोलिटन सिटी के पानी को रोग फैलाने वाला पाया गया। इसलिए सुपरबग पर माथा पच्ची करने के साथ-साथ पानी को शुद्ध करने के आसान तरीकों पर ध्यान दें तो बेहतर होगा। सुपरबग उस बैक्टीरिया को कहते हैं जिस पर सभी एंटीबायोटिक निष्प्रभावी हो जाते हैं।
पूजा -अर्चना में जल - आचमन सभी प्रकार के कर्माें अर्थात सद्कर्म एवं निष्काम कर्म का अति महत्वपूर्ण अंग है। धार्मिक और अरोग्यशास्त्र की दृष्टि से आचमन का असाधारण महत्व है। एक साथ लोटा या गिलास से गटागट पानी पीने की अपेक्षा चम्मच से थोड़ा-थोड़ा पानी पीते रहने से वह व्याधिनाशक तथा लाभदायक होता है। ‘मनुस्मृति’ में भी कहा गया है, सोकर उठने पर, भूख लगने पर, भोजन के बाद, छींक आने पर, झूठ बोलने पर व अध्ययन करने के बाद आचमन अवश्य करें। यह आचमन यदि अशुद्ध पानी से किया गया तो पाचनतंत्र को बिगाड़ देगा। इसलिए पूजा-अर्चना में भी उबले हुए या फिल्टर्ड पानी का ही इस्तेमाल करें।
    सबसे पहले शुरूआत चरणामृत से करें। मंदिरों में मुक्त हस्त से दिया जाने वाला यह ‘आध्यात्मिक’ पानी फिल्टर से छना हुआ है या नहीं, यह भी पता करें। अगर नहीं है तो श्रद्धा अपनी जगह है। संक्रमित चरणामृत भी पेट में गया तो पूजा के पहले फल के रूप में ये बीमारियां भी मिलेंगी। हनुमान चालीसा के हर छंद में सेहत के छिपे राज का दर्शन करनेवाले, पूजा और अध्यात्म को दवा से कम नहीं समझने वाले हार्ट केयर फाउंडेशन आॅफ इंडिया के अध्यक्ष पद्मश्री डाॅ. के.के. अग्रवाल अगर यह बात कह रहे हों तो फिर स्थिति की गंभीरता समझनी चाहिए। निश्चित रूप से उनकी इस बात को धर्मविरूद्ध नहीं कह सकते। लाखों भक्तों को चरणामृत बांटने वाले मंदिर प्रबंधन भी अगर इस बात की गंभीरता को समझें तो फिर क्या कहने। सेहत के लिए ही नहीं, शास्त्रों के अनुसार पूजा में भी शुद्धता का उतना ही महत्व बताया गया हैं। पूजा में अशुद्धि हो जाए तो देवता भी कुपित हो जाते हैं। पूजा में शुद्धता की पूरी अवधारणा सेहत की ही अवधारणा है। घर में तो पानी को उबाल कर पी सकते हैं। लेकिन कोई चरणामृत उबाल कर पीने की सलाह दे तो हास्यास्पद ही लगेगा। पानी को फिल्टर करके या उबाल कर ही पीएं।
    गोलगप्पा (उसे फोकचा या पानी पूरी भी कहते हैं) का पानी भी खतरे से खाली नहीं हैं। खासकर महिलाएं तो फोकचा पानी ऐसे ही पीती हैं जैसे वह अमृत ही हो। सच पूछिए तो पानी पूरी मुंह से पानी गिराने वाली वह ‘बला’ है जिससे मुंह मोड़ लेना अच्छे-अच्छों के बूते की बात नहीं होती। लजीज पानी में फोकचे वाले का बार-बार डूबता हुआ हांथ वहां कौन से और कितने बैक्टीरिया छोड़ रहा है, इस पर किसी की नजर कहां पड़ती है। प्रदूषित पानी के पेट में जाने का यह एक और खतरनाक स्रोत है। वह है गर्मी में रोज लाखों लोगों के गले को तर करने के काम में आने वाले बर्फ की बड़ी-बड़ी सिल्ली। पता नहीं किस तरह के पानी से बनाई जाती हैं ये सिल्लियां। बर्फ की इन सिल्लियों पर तो तत्काल रोक लगनी चाहिए।
सुरक्षित है फिल्टर्ड वाॅटर पीना किंतु....!
शुरू-शुरू में जो केंडल वाला फिल्टर होता था वह पानी को सिर्फ छान सकता था। एकदम शुद्ध नहीं बना पाता था लेकिन अब जो अत्याधुनिक फिल्टर हैं उसे ‘प्यूरीफायर’ कहते हैं यानी उससे होकर जो पानी निकलता है वह पूरी तरह से शुद्ध होता हैं। यानी पानी तमाम बैक्टीरिया, वायरस और अन्य अशुद्धियों से मुक्त। ‘आरओ’ वाले फिल्टर भी बेहद प्रभावी माने जा रहे हैं। जल जनित बीमारियों के सभी विशेषज्ञों ने भी कहा है कि स्टैंडर्ड प्यूरीफायर हो तो उसका पानी एकदम सुरक्षित है। लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि बाजार में दोयम दर्जे के फिल्टर भी मिल रहे हैं, उसके पानी के सुरक्षित होने की गारंटी नहीं है।
कैसे अशुद्ध होते हैं पेयजल:
पहले पानी जब अधिक हो जाता है तो वह पेयजल को प्रदूषित करने का कारण बनता है। जैसे बाढ़ आ गई, खूब बारिश हो गई। शहर के नाले भर गए। ऐेसे में स्वच्छ पानी के पाइप में लीकेज के जरिए प्रदूषित पानी आ जाता है। सीवेज का पानी भी पेयजल में मिल जाता हैं। ये प्रदूषित पानी कुंए में जाकर मिल जाता है। यदि पीने के पानी में चूहें ने पेशाब कर दिया तो लेप्टोसपायरिसिस बीमारी फैलने का खतरा है।
पानी को उबालना जरूरी:
सवाल है जिनके पास कीमती फिल्टर खरीदने के पैसे न हों, वे क्या करें? उन्हें भी निराश होने की जरूरत नहीं। एक आग है जो सबके पास है। वह पानी के अंदर के रोगों के सभी कीटाणुओं का यूं नाश कर देगा बशर्तें आप पीने वाले पानी को अच्छी तरह उबाल लें सिर्फ गर्म कर देने से काम नहीं चलेगा। डाॅक्टरों का तो यहां तक कहना है कि कचरे के पानी को भी अच्छी तरह उबाल कर फिर ठंडा कर पीएं तो कोई नुकसान नहीं होगा। सीधा फंडा है फिल्टर वाटर नहीं है तो उसे उबालों तभी पीयों। उबालने का साधन उपलब्ध न हो तो पानी नहीं पीना बेहतर है। पानी से भीगी सब्जी को कभी कच्ची नहीं खाएं, उसे उबालकर, पकाकर ही खाएं। चाय-काफी भी गर्म ही पीनी चाहिए। बाजार में मिलने वाले गन्ने के रस या कटे फल में भी पानी है, उनसे भी परहेज करें।
क्या हैं जल जनित बीमारियां:
डायरिया, हैजा (काॅलरा), पेचिस (डिसेंट्री) पीलिया (हेपेटाइटिस ए एवं ई), टायफाइड, त्वचा रोग, बाल झड़ने का रोग, दांत खराब होने का रोग, पेट में पनपेंगे अमीबा एवं गियार्डिया जैसे कीटाणु, रोगों से लड़ने की क्षमता घटेगी।
    (प्रियंका ब्लाग स्पाट से)





पर्यावरणीय हिंसा है खुले में शौच

देश में 95 करोड़ मोबाइल हैं। गांव-गांव बरफ के गोले और टिकुल-बिंदी बेचने वाले फेरी दुकानदार उनके रिचार्ज कूपन बेच रहे हैं। ऐसे ही छोटे परचूनिए (जनरलमर्चेन्ट्स) बैटरी, इन्वर्टर, जेनरेटर से मोबाइल रिचार्ज करने का बड़ा व्यापार खड़ा कर चुके हैं। इन गंवई दुकानों में सेनेटरी नेपकीन से लेकर परफ्यूम कैन तक आसानी से उपलब्ध हैं। इन्हीं गांवों में शौचालय नहीं है। गांव की औरतें खुले में शौच जाते हुए यौन हिंसा का शिकार हो रही हैं। इससे भी आगे देश की आर्थिक राजधानी मुंबई की साठ फीसदी महिलाएं शौचालय के बगैर काम चला रही हैं। उप्र की राजधानी लखनऊ में महिलाओं की तो छोडि़ये पुरूषों के लिए अपेक्षा के अनुरूप शौचालय नहीं है। अमौसी हवाई अड्डे से लेकर निशातगंज (नेशनल हाइवे नं0 25) के बीच लगभग 22 किलोमीटर की दूरी पर महज चार-पांच सार्वजनिक शौचालय हैं। वे भी रेलवे-बस स्टेशन, मिलाकर।
    केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने पिछले दिनों घमरा में पर्यावरण हितैषी शौचालय जनता को सौंपते हुए कहा था, कितने शर्म की बात है कि हम अग्नि मिसाइल दाग सकते हैं, लेकिन साफ-सफाई की समस्या दूर नहीं कर पाते। आज भी देश की एक बड़ी आबादी को हम शौचालय नहीं दे पाएं हैं। देश की साठ फीसदी औरतों के लिए शौचालय की व्यवस्था नहीं हो पाई है। उन्होंने पर्यावरण मित्र शौचालय का नाम ‘बापू’ रखने का सुझाव दिया। क्योंकि यह महात्मा गांधी के स्वच्छता अभियान का ही हिस्सा है। शौचालय सुलभ कराने में पहला नाम बिंदेश्वरी पाठक का लिया जाता है। उनके नक्शेकदम पर कई स्वयंसेवी संगठन इस ओर सक्रिय हुए हैं। जिनके सक्रिय सहयोग से मोबाइल शौचालय भी उपलब्ध कराये जा रहे हैं। इसी मुहिम में शामिल नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ डिजाइन (एनडीआई) के स्नातकों राजेश ठाकरे व ट्राॅय बसंत सी ने ‘गुड मार्निंग मुंबई’ नाम से एक एनीमेटेड (रेखाचित्र) फिल्म बनाई है। फिल्म में मुंबई की झोपड़पट्टियों में शौचालय की आवश्यकता पर बल देते हुए उसके नुकसान से सावधान किया गया है। इसके साथ ही उन क्षेत्रों में शौचालय कैसे उपलब्ध कराये जा सकते हैं, भी दिखाया गया है। हालांकि इस ओर पहले से ही 35 संगठन सक्रिय हैं, जो खासतौर से झोपड़पट्टियों में सार्वजनिक शौचालय व मोबाइल शौचालय उपलब्ध कराने में कामयाब भी हुए हैं। इन्होंने ही मुंबई में 109 शौचालयों के बंद/खराब होने की रिपोर्ट भी दी थी, जिसके कारण इसी 6 जून को 500 शौचालयों के 37 करोड़ रूपयों में बनाये जाने की अनुमति मिली।
    सामाजिक कार्यकर्ता प्रोमिता बोहरा ने सार्वजनिक शौचालय की समस्या पर मुंबई में काम करते हुए देखा कि औरतों को सार्वजनिक शौचालय के इस्तेमाल का विरोध उनके ही मर्द करने में आगे हैं। उनके लिए बने अलग शौचालयों का लगातार इस्तेमाल भी मर्द ही करते हैं। रात में इन शौचालयों में ताले लगा दिये जाते थे। पेशाबघरों की तो और दुर्दशा हैं, पैसा देने के बाद भी उन्हें इसके इस्तेमाल की इजाजत नहीं होती। पानी तक बंद कर दिया जाता था। इसी समस्या पर उन्होंने भी एक वृत्त चित्र बनाया है। मानवाधिकार और राइट टू पी (शौचालय का अधिकार) के लिए सक्रिय स्वयं सेवी संगठन सरकार की पेयजल और शौचालय की दोहरी नीतियों के मुखालिफ मुंबई में जोर-शोर से सक्रिय है। ये संगठन झोपड़पट्टियों में सफाई, पानी व शौचालय के लिए बाकायदा अभियान चलाकर लोगों को इससे जोड़ रहे हैं। गौरतलब है महाराष्ट्र सरकार ने कानून बनाया हुआ है कि 2000 के बाद मुंबई में झोपड़पट्टी में घर बनाने वालों को कोई सुविधा सरकार द्वारा नहीं दी जाएगी। इस तारीख के बाद से मुंबई की झोपड़पट्टियों में आये लगभग 12 लाख लोग रह रहे हैं। हालांकि पिछले महीने सरकार की 12वीं पंचवर्षीय योजना में 36 हजार करोड़ का प्रावद्दान ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालयों के निर्माण के लिए किया गया है।
    लखनऊ महानगर समेत समूचे सूबे में भी इस अहम् आवश्यकता पर न कोई सोंच है, न कोई नीति। आदमी की नैसर्गिंक आवश्यकता के लिए कोई स्वयंसेवी संगठन राजनैतिक दल भी आगे नहीं आता, जबकि रेलवे लाइन के किनारे, शहर के रिहाइशी इलाकों के नालें-नालियों के किनारे, पार्कों व खुले मैदानों में ‘गुड मार्निंग ओपेन टायलेट’ देखने को रोज मिलते हैं। इसे पर्यावरणीय हिंसा कहा जा सकता है। क्या भ्रष्टाचार, कालाधन के खिलाफ हल्ला मचाने वालों में कोई इस ‘कार्बनडाइआक्साइड उत्सर्जन’ से होने वाली बीमारियों के मुखालिफ मुहिम छेड़ने के लिए आगे आयेगा? ( प्रियंका ब्लाग स्पाट डाॅट काॅम में राम वरमा)

साफ-साफ लिखा करो डाॅक्टर साहब

लखनऊ। डाक्टरों की लापरवाही और उनके पैसा कमाऊ होने का हल्ला ‘सत्यमेव जयते’ से लेकर अखबारों व वेबपोर्टलों पर जारी है। जाहिर है, डाॅक्टर साहबान नाराज भी हैं। बाकायदा धमकियां भी दे रहे हैं। गुस्ताखी माफ हो! डाॅक्टर साहब आपकी लिखावट (राइटिंग) भी कम खतरनाक नहीं है।
    आपके लिखे पर्चों को कई बार फार्मेसिस्ट भी नहीं पढ़ पाते, फिर उन्हें पढ़ने के लिए मरीज को मेडिकल कालेज में दाखिला लेना पड़ेगा? यह लंतरानी या महज आरोप नहीं है। कुछ समय पहले नोएडा के स्प्रिंग मेडोज हास्पिटल में डाॅक्टर साहब के लिखे दवाई के पर्चे के फार्मेसिस्टांे द्वारा पढ़े न जा सकने के कारण एक तीन साल के बच्चे की जान चली गई थी। उस बच्चे के परिवारीजनों ने राष्ट्रीय उपभोक्ता फोरम में वाद दायर किया था जिससे बतौर इंसाफ परिवारीजनों को 17.5 लाख रूपये का मुआवजा मिला था।
    भारत में हर दिन डाॅक्टरों द्वारा लगभग 40 लाख से अधिक रोगियों को दवा के ऐसे पर्चे लिखे जाते हैं जिन्हें फार्मेसिस्टों द्वारा पढ़े जाने में दिक्कते आती हैं। हालांकि इससे मरीजों को कोई नुकसान पहुंचा या कोई मृत्यु हुई की खबर की सही जानकारी नहीं है। अमेरिका में डाॅक्टरों की खराब लिखावट से लगभग सात हजार लोग हर साल मरते हैं और 1.5 मिलियन लोग गलत दवाएं खाकर रिएक्शन का शिकार होते हैं। मुंबई में डेढ़ महीना पहले क्वालिटी कौंसिल आॅफ इंडिया और फोरम फाॅर इनहैशमेंट आॅफ क्वालिटी इन हेल्थ केयर के संयुक्त प्रयास से हुई एक बैठक में डाक्टरों की खराब लिखावट पर चिंता व्यक्त की गई। इस बैठक में मेडिकल रिप्रसेन्टेटिव, मेडिकल एसोसिएशन व कई स्वयं सेवी संस्थाओं (एनजीओ) ने भाग लिया।
    इसमें आम राय हुई कि एक अभियान चलाकर अस्पतालों व डाॅक्टरों से कहा जाय कि डाॅक्टर रोगियों को दवाई के पर्चे अंग्रेजी के ‘कैपिटल लेटर्स’ में लिखें। यह लिखावट साफ होगी और हर कोई आसानी से पढ़ सकेगा।
    इसी तरह दवा की कम्पनियाँ अपनी दवाईयों की पैकिंग में उपयोग संबंधी निर्देश (इंस्ट्रक्शन्स फाॅर यूज) के पर्चे रखते हैं। वे इतने छोटी लिखावट (स्माल फाॅन्ट) में छपे होते हैं कि उन्हें आतिशी शीशे (मैग्नीफाइंग ग्लास) से भी नहीं पढ़ा जा सकता। बुजुर्गों के लिए तो वह पर्चा पढ़ना नामुमकिन है।
    ऐसे हालात में नागरिकों को भी अस्पतालों में व प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले चिकित्सकों से अपील करनी होगी कि वे रोगियों को जो ‘नुस्खा’ लिखें वह ‘कैपिटल लेटर्स’ में लिखें तो डाॅक्टर साहबान क्या इस खबर को पढ़कर भी नाराज होंगे? या साफ-साफ लिखना शुरू कर देंगे।


मेरे परिवारीजन हंै लखनऊवासी

कांग्रेस में शामिल डी.के. शर्मा ने कहा-
लखनऊ। जनसेवी और लोकप्रिय श्री दिनेश शर्मा सेवानिवृत महाप्रबंधक लखनऊ जल संस्थान अपने तमाम साथियों के साथ कांग्रेस मुख्यालय माल एवेन्यू के ठसाठस भरे मैदान में उ.प्र. कांग्रेस कमेटी की प्रदेश अध्यक्ष डाॅ0 रीताबहुगुणां जोशी के समक्ष पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए। श्री शर्मा को कांग्रेस पार्टी में शामिल कराने वाले प्रदेश कांग्रेस के ज्वाइनिंग प्रभारी श्री सुरेश चन्द्र वर्मा ने उनकी सराहना करते हुए उन्हें कांग्रेस के लिए बेहद उपयोगी बताया।
    इस अवसर पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं और श्री शर्मा के समर्थकों को सम्बोधित करते हुए प्रदेश अध्यक्ष डाॅ0 रीता बहुगुणां ने कहा कि कांग्रेस परिवार में शामिल हो रहे श्री डी.के. शर्मा लखनऊ के लिए अन्जान चेहरा नहीं हैं, वे जनकल्याण से सम्बन्धित महत्वपूर्ण विभाग जल संस्थान में महाप्रबंधक रहे हैं। इस पद पर रहते हुए वे लखनऊ की जनता से सीधे जुड़े रहे हैं। जल ही जीवन है के नारे को सार्थक करते हुए लखनऊ नगरवासियों को जहां निर्बाध जलापूर्ति देते रहे, वहीं संकरी गलियों तक अपनी पहुंच बनाए रहे, जिससे जनसामान्य को पेयजल सम्बन्द्दी कोई परेशानी न होने पाये। साथ ही अपने अधीनस्थ अधिकारियों व कर्मचारियों से महज मुखिया नहीं वरन दोस्ताना संबंधों ने श्री शर्मा को जल संस्थान में बेहद लोकप्रिय बना रखा था।
    लोकप्रियता के मामले में धनी श्री शर्मा की सराहना करते हुए डाॅ0 बहुगुणां ने कहा कि उन्होंने लगभग 6 साल तक लखनऊवासियों के बीच सेवाभाव से गुजारे हैं। वे आज यहां कांग्रेस पार्टी की नीतियों से प्रभावित और देश के भविष्य युवा नेता श्री राहुल गांधी जी से प्रेरित होकर कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर रहे हैं। उनकी भावना है जनसेवा। हमें उम्मीद है कि वे और उनके समर्थक आजीवन जनता के हितों के लिए संघर्ष करते रहेंगे, पार्टी में उनका, उनके साथियों का हार्दिक स्वागत है।
    श्री डी.के. शर्मा के कांग्रेस पार्टी में शामिल होने के समर्थन में जहां कांग्रेस मुख्यालय तालियों की गड़गड़ाहट और जिन्दाबाद के नारों से गूंज उठा, वहीं उनकी लोकप्रियता का उपहार नगर निगम चुनाव प्रत्याशियों को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने खुले दिल से यह कहकर सौंपा कि लखनऊ में महापौर पद पर चुनाव लड़ रहे डाॅ0 नीरज वोरा सहित सभी कांग्रेस के पार्षद प्रत्याशियों के लिए श्री शर्मा भारी लाभकारी साबित होंगे।
    श्री डी.के. शर्मा पार्टी में शामिल होने के तुरंत बाद शहर में चुनाव प्रचार करते देखे गये। वे महज डाॅ0 वोरा के लिए नहीं वरन् पार्षदों के लिए भी सड़कों पर वोट मांगते देखे गये। पांच दिनों तक चुनाव प्रचार में लगे श्री शर्मा के चेहरे की मुस्कान और सौम्यता तपता सूरज भी नहीं छीन सका। डाॅ0 नीरज वोरा के समर्थन में विधानसभा मार्ग पर वोट मांगते हुए ‘प्रियंका’ संवाददाता से उन्होंने कहा कि, ‘यह मेरी काम करने की क्षमता, अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने और कांग्रेस पार्टी से लखनऊवासियों का सीद्दा संवाद बनाए रखने का पहला कदम भर है। लखनऊवासी तो हमारा परिवार हैं और परिवार के दुःख-सुख, आपदा और प्रसन्नता के हर क्षण में मैं उनके बीच बना रहना चाहता हूँ। आप जानते हैं कि इस परिवार से हमेशा मुझे स्नेह मिला है, मैं उस प्यार को नहीं भुला सकता।’
    श्री डी0के0 शर्मा ने परशुराम ब्राह्मण जनकल्याण समिति के प्रदेश अध्यक्ष, अखिल भारतीय लोकाधिकार संगठन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, दैनिक समाचार-पत्र ‘जनकदम’ के सलाहकार सम्पादक के साथ ही मदन मोहन मालवीय इंजीनियरिंग कालेज गोरखपुर के पूर्व अध्यक्ष, उ0प्र0 जल सम्पूर्ति अभियंता संघ के प्रदेश अध्यक्ष, वाराणसी जल संस्थान में महाप्रबंद्दक, लखनऊ जल संस्थान में सचिव तथा महाप्रबंधक आदि विभिन्न पदों तथा विभिन्न समाजसेवी संगठनों के विभिन्न पदों पर रहकर जनता की सेवा की है।
    इस मौके पर श्री शर्मा के साथ कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण करने वालों में मुख्य रूप से श्री गंगा प्रसाद तिवारी, श्री योगेन्द्र तिवारी, श्री संदीप मिश्र, श्री कौशलेन्द्र प्रताप सिंह, श्री सुभाष श्रीवास्तव, श्री अजीत कुमार बसवाल, श्री कुशमेश मिश्र, श्री विवेक मिश्र, श्री सौरभ तिवारी, श्री मुरलीधर त्रिपाठी, श्री कीर्ति शुक्ल, श्री मनीष गुप्ता, श्री छवि किशोर त्रिपाठी, श्री आलोक मिश्र, श्री मनीष अवस्थी, श्री विनय शंकर चतुर्वेदी, श्री शैलेन्द्र कुमार शुक्ला, श्री ब्रजेन्द्र त्रिपाठी, श्री ब्रजेन्द्र भट्ट, श्री नरवीर सिंह, श्री मनीष रस्तोगी, श्री हीरा लाल, श्री राहुल सचान, श्री आनन्द कुमार, सुन्दर लता भाटिया सहित सैकड़ों लोग शामिल रहे। वहीं विधायक डाॅ0 मुस्लिम, प्रदेश कांग्रेस के कोषाध्यक्ष श्री एस.सी. माहेश्वरी, प्रदेश मंत्री श्री राज बहादुर, पूर्व एमएलसी श्री सिराज मेंहदी, पूर्व विधायक श्री श्यामकिशोर शुक्ल, वरिष्ठ नता श्री सुबोद्द श्रीवास्तव, शहर कांग्रेस कमेटी लखनऊ के कार्य0 अध्यक्ष श्री बोधलाल शुक्ल, श्री एस.जे.एस. मक्कड़, श्री राजेन्द्र बहादुर सिंह, श्री अरशी रजा, श्री के.के. शुक्ला, सै0 हसन अब्बास, श्री मेंहदी हसन आदि वरिष्ठ नेतागण मौजूद रहे।

नकली पानी, नकली खाना

जागो भइया... जागो भइया... जागो...
लखनऊ। सूबे की बड़ी पंचायत (विद्दानसभा) में नकली देशी घी का मामला गूंजने के बाद भी मिलावटखोरों और नकली सामान बनाने-बेचने वालों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा हैं, न ही सरकारी अमले पर। गरमी अपने चरम पर है और खाने-पीने के सामानों में मिलावट अपने चरम पर है। दूध, दही, मट्ठा, घी, पनीर, खोया, तेल, चाय पत्ती के अलावा शैम्पू, फेसक्रीम व नमकीन सहित अन्य खाद्य सामग्रियों में मिलावट का धंधा जारी है।
    मजे की बात है कि गली-गली घूमकर फेरीवाले कुल्फी, आइसक्रीम, नमकीन बेचते पूरे प्रदेश में दिख जाते हैं। दूध, दही, पनीर, खोया, खुलेआम बिकता है। हर एक किलोमीटर पर गोश्त, मुर्गे काटकर बेचे जा रहे हैं। मछली सड़क किनारे बेची जा रही हैं। इनमें से कोई भी खाद्य सुरक्षा मानकों को नहीं मानता। बड़ी-बड़ी मिठाई की दुकानों में फ्रीजर में रखी मिठाइंया, लस्सी आदि दो-तीन दिन पुराना होना आम बात है। नकली कोल्डड्रिंक बेचे जाने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। याद दिलाते चलें पिछले अप्रैल महीने में शहर के सीतापुर रोड पर हल्दीराम के प्रमुख वितरक एस0आर0 सेल्स कारपोरेशन के गोदाम पर एफडीए की टास्कफोर्स और पुलिस ने छापा मारकर गोदाम में मौजूद 5,33, 570 रूपए कीमत के माल को सीलकर दिया था। इस नमकीन में ट्रांस्फैट नामक तत्व के अधिक मात्रा में उपयोग किये जाने की शिकायत थी। ट्रांस्फैट से हृदयघात का खतरा बढ़ता है।
    शहर के हर मोड़ पर पूड़ी-खस्ता, छोला-भटूरा भंडारों व दूध-दही, लस्सी बेचनेवालों को बोलबाला है। इन सभी में खाने वाले सोडे को बेखटके मिलाया जाता है। कहीं-कहीं तो कपड़ा धोने वाले सोडे का इस्तेमाल होता है। सोडे का इस्तेमाल छोला जल्दी पकने व पूड़ी-खस्ता-भटूरा फूलने के लिए किया जाता है। भीषण गरमी में दूघ को फटने से बचाने के लिए दूध में सोडा मिलाया जाता है। दूध में पानी और आरारोट मिलाना तो आम बात है। ऐसे ही अन्य खाद्य सामग्रियों में भी धड़ल्ले से मिलावट जारी है। पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस भी मिलावट से अछूते नहीं है।
    जिला प्रशासन और खाद्य सुरक्षा विभाग के अधिकारी व नगर स्वास्थ्य अद्दिकारी होली, दिवाली तेल, घी, दूध खोया आदि की दुकानों पर छापा मारकर कर्मकांड करके अपनी दक्षिणा का इंतजाम कर वापस अपने ठंडे-गरम दफ्तरों में समा जाते हैं। सरकार ने मिलावटखोरों की बढ़ती सक्रियता को देखते हुए इस पर रोक लगाने के लिए वर्ष 2006 में खाद्य सुरक्षा मानकीकरण अधिनियम पास किया। इसमें खाद्य पदार्थों में मिलावट रोकने  के लिए ढेरों नियम बनाए गए हैं, इन नियमों को मिलावटखोर और अद्दिकारी दोनों ही ठेंगा दिखा रहे हैं। सरकार को अकेले नकली देशी घी नहीं वरन् सभी खाद्य सामग्रियों की निगरानी के साथ पीने के पानी की शुद्धता की जांच के कड़े कदम उठाने चाहिए, नहीं तो आगामी महीनों में अस्पतालों की ओपीड़ी से लेकर बिस्तरों तक में बीमारों की गिनती करना मुश्किल होगा।

लखनऊ में धंधा है मंदा

लखनऊ। राजधानी के व्यापार जगत में लगातार आ रही गिरावट से मायूसी छाई है। पिछले दो महीनों में समूचे व्यवसाय में पिछले साल की अवद्दि की तुलना में लगभग तीस से चालीस फीसदी की कमी दर्ज की है। हालांकि व्यापार मण्डल के कुछ नेताओं का मानना है कि यह महीने गैर व्यवसाय वाले होते हैं। वहीं होटल एण्ड रेस्टोरेन्ट व्यवसाई पूरी तरह मायूस हैं। उनके मुताबिक होटलों/डारमेटरी में आक्यूपेंसी रेट (होटलों में ग्राहकों के ठहरने की दर) में 50 फीसदी की गिरावट दर्ज की जा रही है। आॅटो/टैक्सी कारोबार में भी 20 फीसदी की कमी आई है। इसके पीछे नगर निगम चुनावों की वजह से लगी आचार संहित भी एक बड़ी वजह है।
    आमतौर पर जब भी विधानसभा के सत्र चलते हैं तो लखनऊ आने वालों की संख्या में बड़ा इजाफा होता है। इल आनेवालों में तमाम विभागों के अधिकारी, कर्मचारी व अपनी मांगों के लिए आवाज उठानेवाले संगठनों के कार्यकर्ता, राजनैतिक दलों के नेता, कार्यकर्ता और व्यापारी होते हैं। यह सभी नगर निकाय चुनावों के चलते कोई भी सरकारी कार्य न हो पाने की वजह से लखनऊ आने से कतरा गये।
    इससे भी बड़ी दो वजहें और बताई जा रही हैं। एक तो भीषण गरमी जिसका नजारा दोपहर 12 बजे से शाम 4 बजे तक सड़कों पर पसरा सन्नाटा और साप्ताहिक बाजारों में दुकानदारों के मायूस चेहरों पर देखा गया। अमीनाबाद जहां के बाजार में आम दिनों में पैदल चलना दूभर रहता है, वहां पिछले महीनों में सन्नाटा देखने को मिला दूसरे शादी-विवाहों के साथ आर्थिक मंदी व रूपये में आई गिरावट को भी कारोबार में सुस्ती का जिम्मेदार माना जा रहा है। मजे की बात है कि छोटे ठेेले खोमचे व पूड़ी-खस्ता बेचने वालों के यहां भी भीड़ नहीं देखने को मिल रही हैं, जहां लाइन में लगने के बाद या टोकन लेकर ग्राहकों को खस्ता-पूड़ी खरीदनी पड़ती थी वहां भीड़ न होने से इन दिनों आसानी से ग्राहकों को पूड़ी-खस्ता या छोला-भटूरा मिल जा रहा है। यही हाल मांसाहारी रेस्टोरेन्ट तक में देखा गया। इनके साथ शाकाहारी भोजनालयों में भी गिरावट दर्ज की गई।
    व्यापार मण्डल के एक नेता बताते हैं कि कारोबारी सुस्ती की एक बड़ी वजह है बिजली की किल्लत। बिजली ने राजधानी में कभी भी इतना परेशान नहीं किया। सारा कारोबार इन्वर्टर/जेनरेटर पर टिका है, जिस पर सरकार से लेकर बिजली विभाग के हाकिमों के नित नये फरमान लखनऊ को एक छोटे कस्बे में बदलने के लिए पर्याप्त हैं। उद्योगों में लगभग तालाबंदी जैसे हालात हैं। ऐसा नहीं कि यह हालात अकेले लखनऊ में है बल्कि पूरे प्रदेश में उद्योग धंधे व व्यापार में भारी गिरावट की खबरें लगातार आ रही है।
    ऐसे हालातों में वित्तवर्ष की शुरूआत में बनाई जाने वाली व्यापारिक योजनाएं भी खटाई में पड़ गई हैं। हाँ स्कूल/काॅलेज खुल गये हैं तो स्टेशनरी, किताबों/ड्रेस के साथ शिक्षा के कारखानों में चहल-पहल बढ़ी है। सुनकर आश्चर्य होता है कि पूरे सूबे से बल्कि कई और प्रान्तों तक से आये दिन नौकरियों के लिए इम्तहान देने लाखों अभ्यर्थी आते हैं फिर भी कारोबार की बढ़ोत्तरी में कोई फर्क नहीं?

बिजली फरार, असली चोर पकड़ो

लखनऊ। राजधानी अंधेरे में है। गली-कूचे नाबीना हैं। समूचा सूबा पांच जिलों को छोड़कर अघोषित ‘ब्लैक आउट’ का शिकार है। अस्पतालों में मरीज बेदम हैं, तो शहर दर शहर उद्योग-व्यापार बेहाल। बिजली चोरी, लाइनलाॅस और दूसरों के सिर पर अपनी बेईमानी दे मारने का तमाशा दिखाकर बिजलीकर्मी, सरकारी तंत्र अपने घरों, दफ्तरों को रौशन किये हैं। विधानसभा तक में ‘बिजलीगुल’ की गूंज के बाद भी विधानसभा मार्ग अंद्देरे-उजाले की लगातार जंग से जूझ रहा है। आदमी गरमी, अंधेरे की दोहरी मार से चीखता-चिल्लाता सड़कों पर पुलिसया लाठी की मार खाकर घायल है। उस पर तुर्रा यह कि कानून-व्यवस्था बिगाड़ने के नाम पर गरीबों पर मुकदमें लिखाये जा रहे हैं और बिजली की दरों को बढ़ाने की पेशबंदी जारी है।
    शहरी हो या ग्रामीण आबादी ‘लो-वोल्टेज’ की बदइंतजामी के चलते रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाले बिजली के उपकरणों को असमय खराब होते देखने को मजबूर है। सजावटी बिजली पर पाबंदी, बाजारों की समय पूर्व बंदी और लोड बढ़वाने के आदेश पर बेइज्जत होने के बाद भी ऊर्जा विभाग की बिजली चोरी की तोतारटंत जारी है। सौ-पचास कटिया उतारकर हल्ला मचाने वाले बिजली हाकिमों की मेहरबानी से राजधानी से लेकर सूबे भर में बिजली चोरी कराई जाती है। सूबे के सीमान्त शहरों से दूसरे प्रान्त के सीमान्त शहरों के उद्योगों/उपभोक्ताओं को बिजली चोरी करायी जा रही है। वह भी तब जब अपने सूबे का 63 फीसदी भाग पहले ही अंधेरे में डूबा है।
    इससे भी खतरनाक चोरी पूरी सीनाजोरी से या यूं कहिए कानून को अपने माफिक बनाकर की जा रही है। आम घरेलू उपभोक्ता को 3 रूपये प्रति यूनिट व अन्य चार्ज सहित 4 रू0 व वाणिज्यिक संस्थानों को 4.95 रू0 प्रति यूनिट व अन्य चार्ज सहित 6.00 रू0 में दी जाती हैं। वहीं बिजली विभाग के कर्मचारियों और पेंशनरों को बगैर मीटर 65 रू0 से 340 रू0 प्रतिमाह में बेहिसाब बिजली जलाने की छूट हैं। एसी लगाने के लिए एसई/सीई ही अधिकृत हैं और उनसे 450 रू0 प्रति एसी वसूला जाता है। हकीकत में बिजली विभाग के अदना से अदना कर्मचारी के घरों में बिजली के हीटर, ए.सी. व अन्य बिजली के उपकरण धड़ल्ले से उपयोग किये जाते हैं। इन कर्मचारियों के लिए लोड कोई समस्या नहीं है, न ही कोई मानक तय है। इन्हीं कर्मचारियों में हजारों ऐसे हैं, जिनके घरों में बाकायदा ब्यूटी पार्लर, जनरल स्टोर, इलेक्ट्रिक वक्र्स से लेकर छोटे-मोटे उद्योग चल रहे हैं। इनकी जांच के लिए आज तक कोई भी हिम्मत नहीं जुटा सका? यदि एक बार इन बिजलीवालों के यहां अचानक छापे पड़ जायें तो करोड़ों रूपए की बिजली चोरी का खुलासा हो सकता है। यहां एक और सवाल उठता है कि बिजली कर्मचारियों/पेंशनरों को लगभग मुफ्त में बिजली क्यों दी जाती है? किस कानून के तहत उन्हें बगैर मीटर बिजली जलाने की छूट है? अगर कोई कानून या नियमावली है, तो उसे बदलना चाहिए। क्योंकि भारतीय संविधान में भारत के सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं। उससे भी बड़ा सवाल पाॅवर कारपोरेशन के कर्मठ अध्यक्ष से है कि क्या वे बिजली कर्मचारियों/पेंशनरों के घरों पर छापा मारकर बिजली चोरी रोकने का साहसिक कदम उठायेंगे?
    दो महीने बिजलीकर्मी और उपभोक्ता लड़ते-भिड़ते रहे, नतीजा सिफर रहा। मीडिया के लोगों ने संवाद कायम करने की कोशिश की जहां झूठ और उपदेश के सहारे हर कोई दूसरे के सिर पर चपत मारता दिखता रहा। वहीं सरकार हर साल बजट बढ़ा कर इसका हल तलाशती है। करोड़ों के वारे-न्यारे होते हैं फिर भी गरमी आते हर साल बिजली शहर/गांव छोड़कर फरार हो जाती है? कहीं ऐसा तो नहीं यह एक सोंची समझी साजिश है, ईन्वर्टर व जेनरेटर उद्योग को बढ़ावा देने के लिए। जो भी हो क्या कोई ईमानदार कोशिश होगी? उपभोक्ता-अफसर अकड़ फूं की जगह नागरिक जिम्मेदारी उठाने की पहल होगी? या उच्च न्यायालय इसी खबर को जनहित में मानकर कोई हस्तक्षेप करेगा?

महंगा हुआ दूध, थोड़ी-थोड़ी पिया करो...शराब...!

लखनऊ। दूध महंगा हो गया। एक लीटर दूध 50 रूपये में और बीयर का एक छोटा कैन/बोतल भी 50 रू0 में बिक रहा है। देश में कुल दूद्द का उत्पादन 11.6 करोड़ टन है। राष्ट्रीय डेयरी डेवलपमेन्ट बोर्ड के मुताबिक यह मांग महज पांच सालों में 15 करोड़ टन हो जाएगी। देश में दूद्द की प्रति व्यक्ति खपत 281 ग्राम है। आम आदमी को उसकी मांग के अनुरूप दूध उपलब्ध नहीं है। दूसरी ओर भारत सरकार ने पिछले महीने देश में दूद्द का अधिक उत्पादन होने की दुहाई देकर स्किम्ड मिल्क पाउडर के निर्यात से प्रतिबंध हटा लिया है। जबकि फरवरी 2011 में दूध की कमी की वजह से इस पर प्रतिबंध लगाया गया था।
    गौरतलब है चार महीने पहले दिल्ली के जंत-मंतर पर ग्वाला गद्दी समिति ने एक दिन का सांकेतिक धरना-प्रदर्शन किया था। उनकी मांग थी दूध 35 से 40 रू0 लीटर बिके क्योंकि डेरियां पशुपालकों से 12 से 24 रू0 लीटर दूध खरीदकर बाजार में 50 रू0 में बेच रही हैं। उनका यह भी कहना था कि देश में जितने दूद्द का उत्पादन हो रहा है उससे कहीं अद्दिक की मांग है। ऐसे में ये डेरियां मांग के अनुरूप दूध कहां से ला रही हैं? जाहिर है ये दुग्ध बिक्रेता कंपनियां देशवासियों को नकली दूध पिला रही हैं। देश में दूद्द के मुकाबले अल्कोहल (शराब) का बाजार काफी समृद्ध है। एसोचैम की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 670 करोड़ लीटर से अद्दिक अल्कोहल की खपत है यानी 50,700 करोड़ रू0 का बाजार हैं। यह बाजार महज तीन सालों में बढ़कर 1900 करोड़ लीटर जिसका मूल्य 1.4 लाख करोड़ रूपये होगा, तक पहुंचने का अनुमान है। भारत में बनी देशी शराब का बाजार 2.5 अरब डाॅलर और विदेशी शराब का बाजार 2 अरब डाॅलर का है। देश में सर्वाधिक शराब बिक्री वाले प्रान्त हैं, केरल व पंजाब। केरल में कुल शराब 16 फीसदी पंजाब में 14 फीसदी की बिक्री होती है। वहीं दूध पीने में भी 944 ग्राम प्रति व्यक्ति के हिसाब से पंजाबवासी अव्वल हैं, तो देश की राजधानी 72 ग्राम प्रति व्यक्ति खपत के हिसाब से सबसे फिसड्डी है।
    उप्र में आज की तारीख में 5.50 लाख लीटर प्रतिदिन दूध उत्पादन का आंकड़ा हैं, जबकि 2007 में 11.4 लाख लीटर प्रतिदिन था। 2007 में दूध 16-18रू0 प्रति लीटर था, तो आज 40-50 रू0 लीटर है। प्रादेशिक डेरी फेडरेशन की तमाम इकाइयां बंद हो चुकी हैं। उनके पुनः संचालन के लिए मौजूदा सरकार प्रयासरत है, लेकिन दूद्द के व्यवसाय को प्राइवेट कंपनियों को सौंपने की भी मंशा रखती है। लखनऊ शहर की आबादी है 28 लाख यहां अकेले पराग डेरी 1.20 से 1.30 लाख लीटर दूध बेचती है (पिछली शिवरात्रि पर पराग के महाप्रबंधक का बयान था), जबकि अमूल, शुद्ध, ज्ञान की हिस्सेदारी 60 हजार लीटर बताई जाती है। बाकी शहर दूधियों से दूध खरीदता है। यहां गौर करने लायक है कि लखनऊ दुग्द्द संघ के ही आंकड़े बता रहे हैं कि मार्च में 75435 लीटर, अप्रैल में 60980, मई में 57 हजार तो जून में केवल 42445 लीटर दूध का उत्पादन हुआ है। इसके बाद कितना नकली दूध खपा है, कोई आंकड़ा नहीं उपलब्ध है, मगर नकली दूद्द का बड़ा बाजार सक्रिय है। आंकड़ों के मुताबिक यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि दूध से अधिक जहर बेचा जा रहा है।

हमला! हमला!! हमला!!! सावधान


लखनउव्वे परेशान, सूबा हलकान
मुख्य संवाददाता
लखनऊ। बन्दर ने काटा, कुत्तों ने दौड़ाया, सांड ने भगाया, गाय ने सींगों पर उठाकर पटका, मच्छरों ने डंक मारे, चींटे-चींटियों ने नोच खाया, चूहे-बिल्ली की दौड़ ने खाना खराब किया, तो मुई बिजली ने जीना हराम किया। मरे पानी और गंधाते कूड़े ने जिंदगी नरक बना दी है। गोकि आदमी पर चैतरफा हमला हो रहा है और चारों तरफ नगर निकाय का चुनावी हल्ला जारी है। नेताओं की नई-पुरानी जमात के वायदों और लोभी नारों के बीच लस्त-पस्त आदमी अस्पतालों और झोला छाप डाॅक्टरों के दरवाजे खड़ा कराह रहा है।
    रसोई से लेकर स्नानघर (बाॅथरूम) तक तिलचट्टों (काक्रोच), छिपकलियों की मस्ती-मटरगश्ती से युवतियों/महिलाओं की चीखें गूंज रही हैं। गोकि उनको बन्दरों के साथ तिलचट्टे भी छेड़ रहे हैं। टमाटर और आटे के भावों की सरपट दौड़ अभी थमी भी नहीं, न ही नरकी चुनावी नतीजे आये तिस पर ग्रहकर बढ़ाये जाने की तलवार पर धार चढ़ाई जाने लगी है। बिजली भले न आये लेकिन बिजली की दरें बढ़ाए जाने का गुणा-भाग जारी है। आखिर कैसे बचेगा आदमी इन हमलों से, कौन बचाएगा? वह भी तब जब चुनावी आचार संहिता लगी है। उप्र सरकार के एक मंत्री ने राजधानी के एक इलाके में खुले सीवर-नालों को ढंकने, सड़कों को दुरूस्त करने, पेयजल व बिजली की आपूर्ति की समुचित बहाली के साथ इद्दर-उधर बिखरी गंदगी, बजबजाती नालियों की सफाई के लिए जिम्मेदार अद्दिकारियों को डांट पिलाने की हिम्मत दिखाई तो आचार संहिता का मखौल उड़ गया, कानून टूट गया। मंत्री के खिलाफ कार्रवाई की मांगे होने लगीं। वह भी उन चुनावी उम्मीदवारों के जरिये जो कल चुनाव जीतकर जनसेवा करने का बीड़ा उठाये हैं।
    यह कैसी जनसेवा के लम्बरदार हैं? हमलावरों की कोई दर्जन भर कौमें और उनके हिमायती भी अपने जनसेवक होने का दम भरते हैं। कुत्ते गांव-शहर भर की जूठन समेटकर और पहरेदारी करके आदमी की सेवा करते हैं, तो गाय दूद्द देकर और सांड अपना परिवार बढ़ाकर। ऐसे ही चींटी, चूहे, बिल्ली, छिपकली सहित सभी अपने जनसेवक होने का दम भरते हैं। जरा इनकी असल जनसेवा पर गौरफर्माइये। कुत्ते, बंदर के काटने पर 250 रूपए से लेकर 2500 रूपए तक का एंटी रैबीज वैक्सीन का इंजेक्शन लगता है और अगर डाॅक्टर साहब मेहरबान हो जायें तो हजारों की जांच का नुस्खा अलग से थमा दें। यहां बताते चलें कि कुत्तें/बंदरों के एक ग्राम मल में दो करोड़ से अधिक इ. कोली सेल होते हैं जो जमीन के जरिये भूगर्भीय जल को प्रदूषित करते हैं और वातावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ाते हैं। इनके काटने के सैकड़ों किस्से, खबरें अखबारों में छपते रहते हैं। मगर यह कहीं नहीं छपता कि यह जानवर खुलेआम जहां सड़कों पर अपनी प्रजाति की मादा के साथ बलात्कार करते हैं, वहीं बन्दर युवतियों/महिलाओं के साथ अश्लील हरकतें करने से बाज नहीं आते। इनके आतंक से पूरा प्रदेश हलकान है। भीषण गरमी से आतंकित ये जानवर नागरिकों के ठिकानों पर लगातार हमले कर रहे हैं। शायद ताज्जुब होगा कि चूहे भी जबर्दस्त भ्रष्टाचार व आतंकी गतिविद्दियों में शामिल हैं, तभी तो अकेले इलाहाबाद में एफसीआई के गोदाम से 3 करोड़ का अनाज चूहे खा गये। पूर्वांचल के सात जिलों की आधा दर्जन से अधिक नदियों के आस-पास बने दर्जनों बांधों में चूहे अपने बिल बनाए हैं, जो बरसात में बाढ़ के समय बेहद खतरनाक साबित होते हैं। हैरतनाक बात है कि चूहे का एक जोड़ा महज साल भर में अपनी आबादी बढ़ाकर 33 हजार तक कर सकता है। ऐसे में इन बांधों के दरकने-टूटने से गांव के गांव, लाखें आदमी-औरतों, पशुओं के साथ बह जाते हैं। मजे की बात है इतनी बड़ी दुर्घटना की आशंका को जानते हुए भी सरकार इन बांधों की मरम्मत के लिए पैसा देने से कतराती है।
    कुत्तों और चूहों से लैप्टोस्पाइसिस नामक बीमारी होती है। यह चावल के खेतों में जमा पानी में होने वाली वैक्टीरिया से अधिकांश बढ़ती है। दरअसल इन खेतों में चूहे जहां अपना भोजन तलाशते हैं, वहीं कुत्ते मलमूत्र का त्याग करते हैं। इस वैक्टीरिया से पिछले साल अकेले सूरत में 125 लोगों के मरने व 600 से अधिक लोगों के बीमार होने की खबरें आई थीं। देशभर में कितनी मौतें होती होंगी? शहरों में कुत्तों के बढ़ने के पीछे गली-गली खुलने वाले मांसाहार के ठेले, खुदरा गोश्त, मुर्गे की दुकाने एक बड़ा कारण हैं। पीपल फाॅर द एथिकल ट्रीटमेंट आॅफ एनीमल्स (पेटा) के अनुसार देशभर में लगभग ढाई करोड़ आवारा कुत्ते हैं और लखनऊ में लगभग 15 हजार हैं। पूरे सूबे में पिछले साल 20 लाख लोगों को कुत्तों ने काटा था जिन्हें एंटी रैबीज इंजेक्शन लगाने का खर्च लगभग 50 करोड़ रूपए आया था। अस्पतालों के आंकड़े बताते हैं रोज लगभग 50-60 आदमी कुत्तों के व 25-30 लोग बंदरों के काटने के शिकार केवल लखनऊ में होते हैं। सांड, गाय, मच्छरों से बेहालों के आंकड़े भले ही उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन उनकी भी खासी तादाद है। बावजूद इसके इन जानवरों को पकड़ने व रखने या नसबंदी करने के माकूल इंतजाम नहीं हैं। इसी तरह सांड, गाय, भैंस से घायलों की भी बड़ी संख्या हैं। लखनऊ में गाजियाबाद की तर्ज पर कान्हा उपवन बनाया गया, लेकिन वहां के हालात भी बदइंतजामी की कहानी बयान करते हैं। यहां बताते चलें कि एनीमल वेलफेयर बोर्ड आॅफ इंडिया नगर निगमों को आवारा जानवरों के लिए पैसे देता है, मगर हमारे अद्दिकारी उसे नजरअंदाज करके मस्त हैं।
    भगवान बजरंगबली के खानदानियों ने पिछले दो महीनों में लखनऊ के रिहाइशी इलाकों में बाकायदा गिरोहबंद होकर हमला बोल दिया है। बंदरों के आतंक का हाल यह है कि वे छतों पर पानी की टंकियों को प्रदूषित कर रहे हैं। पाइप लाइनों को क्षतिग्रस्त कर रहे हैं। फ्रिज, वाशिंग मशीन, कूलर, एसी जैसे इलेक्ट्रानिक उपकरणों से छोड़छाड़ कर उन्हें नाकारा बना रहे हैं। मजे की बात है कि इनका पूरा गिरोह एक साथ चलता है, जिसे देखकर ही लोग भाग खड़े होते हैं। वाराणसी में लड़कियों के हास्टल में घुसकर उन्हें जख्मी कर दिया, तो लखनऊ में एक घर के दरवाजा रहित बाॅथरूम में नहाती महिला को घायल कर दिया। पिछले बरस बंदरों के एक गिरोह ने राजभवन के भीतर द्दमाचैकड़ी मचाकर वहां के कर्मचारियों को खूब छकाया था। चारबाग रेलवे स्टेशन के हर प्लेटफार्म व पुल पर इनकी बेजा हरकतों को देखा जा सकता है। बहरहाल इससे निजात दिलाने के लिए कोई पहल तो होनी चाहिए। पशु प्रेमी संगठन कोरी बयानबाजी करने की जगह बाहर आकर इन जानवरों का सामना करना चाहिए। इसके अलावा जनजागरण के जरिये मानव-पशु प्रेम के तरीके सुझाने का काम करें तो शायद कोई हल निकले। नागरिकों को स्वयं भी अपने आस-पास मंडराते पशुओं को आतंकवादी बनाने की जगह अपना दोस्त बनाने की पहल करनी होगी।
2012 में हुए बड़े हादसे
ऽ    लखनऊ के इटौंजा में 1 फरवरी को अपने घर के बाहर चारपाई पर लेटे गिरजा शंकर को क्रोधित सांड ने पटक-पटक कर मार डाला।
ऽ    10 अप्रैल को नोएडा के सेक्टर-62 में दो सांड़ों की लड़ाई में सड़क पार कर रहे मीडियाकर्मी संतोष चैरसिया की मौत हो गई।
ऽ    19 मई को हाथरस के मोहल्ला लखपति में गुस्साये सांड़ ने 50 वर्षीय सुरेश चंद को मौत के घाट उतार दिया। बाद में इस सांड़ को आक्रोशित लोगों ने करंट लगाकर मार दिया।
ऽ    19 मई को नजीबाबाद के फजलपुर तबेला गांव में 70 साल के चैधरी शीशराम को कुत्तोंने दौड़ाकर मार डाला।
ऽ    15 फरवरी को लखनऊ के राजाजीपुरम में एक ही कुत्ते ने तीन दिन में 15 लोगों को काटा। गुस्साये नागरिक ने पागल कुत्ते को गोली मार दी।
ऽ    7 जून को लखनऊ के मकबूलगंज में बंदरों ने बच्चों को दौड़ाकर घायल कर दिया वहीं बाबूगंज में एक महिला को काट लिया।
दिलचस्प लेकिन सच
ऽ    देश की राजधानी दिल्ली में आवारा कुत्तों की सर्वाधिक संख्या 3 लाख और दूसरे नंबर पर बंगलुरू में 1.6 लाख है। पूरे देश में यह संख्या ढाई करोड़ है। सामाजिक संस्था पेटा ने यह आंकड़े उपलब्ध कराये हैं।
ऽ    नगर जिले की नेवासा तहसील के भौंड़ा खुर्द गांव के एक कुंए में प्यास बुझाने के चक्कर में एक तेंदुआ और एक आवार कुत्ता गिर पड़े। कुत्ते ने लगातार भौंककर तेंदुए को बेहद डरा दिया। डरे हुए तेंदुए को क्रेन के जरिए वनकर्मियों ने निकाला।
ऽ    वियतनाम में कुत्तों के गोश्त की काफी मांग है। इसी कारण नजदीकी मुल्क थाईलैंड से आवारा कुत्तों की तस्करी की जाती है।
ऽ    विदेशों में पालतू कुत्तों के शादी-ब्याह होने लगे हैं। वे बाकायदा ‘डेट’ पर जाते हैं। इसके लिए ‘डाॅग शादी डाॅट काम’ वेबसाइट भी है। यहां रजिस्ट्रेशन की फीस 500 से 3000 रु0 तक है। इन कुत्तों की शादियों पर लाखों रूपए खर्च किये जाते हैं।

Thursday, July 5, 2012

जन्म दिन पर विशेष:- अखबार और औरत सभ्य जगत की आदत में...!

अखबार और लड़की में कोई खास फर्क नहीं होता। लड़की सेवक तो अखबार सेवाभावी। दोनों ही हिंसा के शिकार। ब्याह कर ससुराल पहुंचने तक लड़की की सुरक्षा के तगड़े इंतजाम, तो अखबार के छपकर पाठकों तक पहुंचाने के बीच उसे महफूज रखने को सौ जतन करने पड़ते हैं। लड़की शोहदई से लेकर बलात्कार के दंश से अपमानित, तो अखबार अलमारी में बिछाने और बच्चों का गू पोंछकर नाबदान में फेंके जाने को अभिशप्त। इतना ही नहीं ब्याह के बाद लड़की को दहेज कम लाने, ढंग से काम न कर पाने के झूठे आरोपों के साथ सास के ताने और दूल्हेराजा के बिस्तर पर सिनेमाई करतब में नाकाम रहने पर जिंदा जला दिये जाने की हैवानियत का शिकार होना पड़ता है।
    वहीं अखबार पाठकों की नापसन्द खबरों, लेखों व फोटों के लिए ‘क्या छापते हैं.... सा... ल्...ले’ जैसी दसियों गलियों के साथ अखबार में छपी सिने तारिकाओं की अधनंगी तस्वीरों में सेक्स के खास उपकरण की तलाश में हताश होने के बाद पाखण्डी प्रवचन के साथ आग जलाने, तापने की भेंट चढ़ा दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि अखबार या लड़की की भूमिका का खैरमकदम नहीं होता, स्वागत नहीं होता। होता है, बखूबी होता हैं। मां, बहन, बेटी और पत्नी जहां सृष्टि की रचनाकार हैं, वहीं पालनकर्ता भी हैं। तभी तो स्त्री के सभी स्वरूपों का पूजन, वंदन, अभिनंदन कर उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है। ठीक इसी तरह अखबार का भी इस्तकबाल होता है। सूचना, समाचार और सम्बन्धों का गणित हल करने की कुंजी है, अखबार।
    गो कि अखबार और औरत सभ्य जगत की आदत में, अदब में और अर्दब में शामिल हैं। तभी तो आदमी की हर पीड़ा पर, हर चीख पर दोनों बेचैन हो उठते हैं। इसके लाखों उदाहरण हमारे आस-पास ही मौजूद हैं। सच मानिये मेरे लिए अखबार, बिटिया से कम नहीं है। मेरी बिटिया का नाम प्रियंका। अखबार का नाम प्रियंका। मैं दोनों में आज तक कोई अंतर नहीं तलाश पाया। दोनों के प्रति एक सी भावना के साथ जीवन के 63 बरस पूरे कर लिये। चैसंठवी सीढ़ी पर इसी 7 जुलाई को अपने दोनों पांव रख दिये। अजीब इत्तफाक है, मेरी पैदाईश के नजदीकी दिनों में ही गुरू पूर्णिमा/अषाढ़ी पूर्णिमा का महात्म्य बखाना जाता है। भर अंजुरी बरसात होती है। नदी-नाले, घर-आंगन पानी ही पानी। भले ही इस बरस अषाढ़ में धूप की जिद जारी रही हो, फिर भी पानी ही जीवनदायनी। जल ही जीवन। सच, भरी बरसात में मैं जन्मा और उसी बरखा में मेरी मां भर गई। पानी के दोनों रूपों का सच राम, राम का नाम सत्य है। रामचरितमानस में तुलसी के राम ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप हैं। वेदों के प्राण हैं, निर्गुण, उपमा रहित और गुणों का भण्डार हैं। और आगे श्रीराम की भक्ति को वर्षा ऋतु कहते हैं, दोनों अक्षरों को सावन-भादों माह मानते हैं -
बरखा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास।।
कहते हैं, तुलसी ने पैदा होते ही ‘राम’ शब्द को उच्चारित किया था। उनकी माता भी उनके जन्म लेने के तुरन्त बाद स्वर्गवासी हो गई थीं। पिता ने अबोध शिशु रूपी तुलसी से कोई सम्बन्ध नहीं रखा था। मेरे पिता भी मेरी चार साल की आयु में स्वर्गवासी हो गये। माता-पिता के न रहने पर बालक अनाथ कहलाता है। तुलसी भी अनाथ थे, लोगों की भीख पर पले-बढ़े, पढ़े। मैं भी दूसरों की दया पर पला-बढ़ा, पढ़ा। यहां तक की समानता का यह मतलब कतई नहीं कि मैं तुलसी में अपनी तलाश करने बैठा हूँ। कतई नहीं। वे प्रभु राम के उपासक, मैं नाम से राम। नाम के भी अर्थ होते हैं, शायद उसे ही सार्थक करने के लिए ‘प्रियंका’ अखबार को निकाल सका। यहां फिर तुलसी के मानस का ही एक दोहा याद आता है, जो मेरी प्रेरणा भी है -
भाग छोट अभिलाषु बड़ करऊँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास।।
    यानी मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी लेकिन मुझे एक विश्वास है, इसे सुनकर सज्जन सुख पायेंगे और दुर्जन हंसी उड़ाएंगे।
    ‘प्रियंका’ कारपोरेट घरानों के अखबारों और वीआईपी पाठकों की क्षुद्र सोंच के सामने पिछले 33 सालों से कैसे टिकी है, यह बखानने की आवश्यकता नहीं हैं। यहां लिखे बगैर रहा नहीं जाता, जब-तब दयाभाव से और अपनत्व की चाशनी में लिपटे पत्थर ‘वरमा जी लिखते बढि़या हैं लेकिन उन्हें कोई बड़ा मंच/प्लेटफार्म नहीं मिला वरना..’ मेरे स्वाभिमान को आहत कर जाते हैं। दरअसल उनकी मंशा मुझे निम्न दरजे का, अछूत मानने की होती है। वे पीठ पीछे ‘प्रियंका’ को चीथड़ा और मुझको मूर्ख कहने में गुरेज नहीं करते। वह भी ‘प्रियंका’ को और मेरे लिखे को बगैर पढ़े। मजा तो इस बात का उन्हें यह भी नहीं पता होता कि मेरे हाथों में क़लम किसने थमाई और क़लम ने अब तक कैसे -कैसे विस्फोट किये और उन धमाकों से कितने घायल हुए और मेरे अपने हाथ कितने झुलसे?
    झुलस तो शायद माता के मुंह मोड़ लेने से ही गये थे। जननी का मुंह न देख सकने का संताप, माता जगदम्बा से लगाव और साक्षात दो बहुओं, बेटी, और पत्नी को देखने बाद बहुत कम हो गया है। पालने वाली दादी की धोती के पल्लू से बंधा अधन्ना खोलने और पसीने से भीगा चेहरा साफ करने में जो सुख मिला, उससे भी कहीं अधिक ठहाके लगाने जैसा आनन्द सैकड़ों मित्रों को पाकर मिला। मेरे लिए मेरे मित्र ही ईश्वर हैं।
    मैं कई बार सांेचता हूँ कि क्या तुलसी ने अपनी मां को नहीं याद किया होगा? क्या उनके रूप-रंग, उनकी मुस्कान, उनके दुलार, उनकी डांट और अपने बालहठ की कल्पना कभी नहीं की होगी? फिर रामचरितमानस में ‘‘कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुक ठुमुक प्रभु चलहिं पराई।।’’ पढ़कर समझ आता है कि तुलसी ने माता कौसल्या में अपनी मां तलाश ली थी, तभी तो- ‘बार-बार मुख चुंबति माता। नयन नेह जलु पुलकित गाता।। गोद राखि पुन हृदयँ लगाए। स्त्रवत प्रेमरस पयद सुहाए।।’ यानी माता कौसल्या का प्रेमरस उनके लिए अमृत हो गया।
    मेरी मां का नाम है क़लम और अक्षर है मेरा भाई। गुरूवर हैं पं0 दुलारेलाल भार्गव और ईश्वर हैं मित्रगण। सबको प्रणाम। ‘गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।।’ सो राम पर ‘राम’ की कृपा ऐसे ही रहेगी तो अखबार ‘प्रियंका’ सेवाभावी और आदमी की आपदा का आन्दोलन, वेदना की चीख और सचबयानी का हलफनामा बना रहेगा। फिर भले ही चीथड़ा कहकर ताली बजाने वाले हीजड़ों की हथेलियां घायल हो जाएं। प्रणाम!
राम प्रकाश वरमा