Sunday, January 13, 2013

खबरों के पटाखे दगाने को बेताब


खबरों की अदालत में खड़े पत्रकार को व्यवस्था के पैरोकारों की मातृभाषा में ही हर बयान दर्ज कराने को मजबूर होना पड़ता है। क्योंकि उसकी क़लम का अपहरण पहले ही कर लिया जाता है। यह अपराध बाजारीकरण की नाजायज कोख से भले ही पैदा हुआ हो लेकिन इसकी परवरिश में हमारे अपने सगे गांजाखोर भाई बिरादरीवाले शामिल हैं। इसकी गवाही में सैकड़ों किस्से गिनाये जा सकते हैं। हाल ही में जीटीवी के दो पत्रकार बन्धु देश के एक बड़े महाजन, बड़े नेता और कर्णधारों के चहेते से विज्ञापन की शक्ल में करोड़ों की रिश्वत मांगने के जुर्म में गिरफ्तार हो गये। जेल में कई रातें काटनी पड़ीं। जी टीवी के मालिकों से महज पूछताछ हुई? सवाल और भी हैं। क्या सौ करोड़ का विज्ञापन जी टीवी के लिए नहीं मांगा जा रहा था? दरअसल ऐसे सवाल व्यवस्था के पैरोकारों के आगे बौने हैं।
    राजधानी दिल्ली में गैंगरेप से चैतन्य समूचा मीडिया एक स्वर से गैंगरेप... इंसाफ चीखने लगा। सारे देश से छांट-छांट कर गैंगरेप/बलात्कार की खबरें सुर्खियों में छापी/दिखाई/सुनाई जाने लगीं। टेलीविजन के पर्दे पर जलती मोमबत्तियों के जुलूस, पुलिस का बेरहम चेहरा, सरकार की नाकामी, नेताओं की बेशर्मी, युवाओं का गुस्सा और भौंडी जुबानदराजी का भरपूर कब्जा पन्द्रह दिनों तक बरकरार रहा। इसी आपाधापी में दिल्ली पुलिस का एक सिपाही कानून-व्यवस्था दुरूस्त रखने का हुकुम बजाने में अपनी जान गंवा बैठा। उसकी मौत पर संवेदना कम राजनीति अधिक हुई। किसी ने भी उसके परिवार की आनेवाली तकलीफों के बारे में ईमानदारी से नहीं सोंचा? हां, अभिनेता अमिताभ बच्चन ने उस सिपाही के परिवार को ढाई लाख रूपए की आर्थिक मदद भेजी। राजनीति तो उस बलात्कार पीडि़ता की लाश से भी खूब हुई और हो रही है। कोई उसके परिवार को 20 लाख की मदद देने का एलान कर रहा है, तो कोई उसके परिवार के किसी एक को नौकरी देने की पेशकश, तो कोई उसके नाम से कानून बनाने की सिफारिश? मोमबत्ती लेकर राजपथ पर परेड करने वाली और गुस्से से तमतमाते हवा में मुट्ठी लहराती भीड़ में से किसी एक ने भी उस रोते बिलखते परिवार को एक रूपये की आर्थिक मदद देने कोशिश नहीं की?
    ऐसे ही और कई सवाल हैं? जिन पर बहस की जरूरत है। खासकर आज के दौर में तो और भी, जब हम पत्रकारिता के क..ख..ग.. से नाता तोड़ रहे हैं। जी हां! मुझे प्रशिक्षण के दौरान सिखाया गया था कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। दोनों को देखकर उसे भुनाया जाना चाहिए। आज ‘बलात्कार’ शब्द के साथ जिस बेगैरती से बलात्कार हो रहा है उसे देखकर लगता है कि बाजार ने सारी मान्यताएं, सारे संस्कार, सारे सिद्धान्त और समूची मानवता पूंजी माफिया के पास बंधक कर दिये हैं।
    यहीं जरायम के जोड़ीदार और मानवता की अलख जगाने वालों के बीच की रेखा को काटकर स्वास्तिक का चिन्ह बना लेने वालों की दरकार होती है। वे सच का मेला लगाने के साथ फिर न कहिएगा कि खबर न हुई का एलान करने में भी पीछे नहीं रहते हैं। इन्हीं की वजह से ‘तहलका’ मचता है, ‘सत्यमेव जयते’ की अलख भी जगती है। और ‘मिथिलेश’ भी उछलकर सामने आ जाते हैं। शब्द मिथिलेश के कई मायने हैं। मिथिला के राजा, माता सीता का दूसरा नाम और सीतापति राम... प्रभु श्रीराम। इन पर्यावाचियों के सद्गुणों से प्रेरणां लेकर भाई मिथिलेश द्विवेदी पत्रकारिता की पुरानी पीढ़ी के पुरोधा और नई पीढ़ी के प्रशिक्षक हैं। उनकी कलम ने दसियों घोटालों को ‘प्रियंका’ में उजागर किया, जिसकी गूंज से बहरा प्रशासन भी अपने कान साफ करने को मजबूर हुआ।
    65 साल की पहली सीढ़ी पर अपना पांव धरते हुए अपने सैकड़ों साथियों के नेह की गठरी लादे अखबार से पाठक तक खोजपरक खबरों के पटाखे दगाने को बेताब दिखाई पड़ते हैं। यह जोश उन्हें इस उम्र में भी जवान बनाए है। इसी जवानी की करामात है उनकी संगठनात्मक छवि। उसी के चलते हमारी प्रगाढ़ता भी बढ़ी। वे कई पत्रकार संगठनों से जुड़े हैं। मैं़ तीस साल पहले इससे पीछा छुड़ाकर अखबार में रम गया था। द्विवेदी जी मुझे बार-बार पत्रकारों, खासकर छोटे-मंझोले पत्रकारों की तकलीफों को सुनाकर उनके संगठनों से जुड़ने को उकसाते रहे। मैं नहीं माना, उन्होंने प्रयास नहीं छोड़ा। अपने मित्र डाॅ0 भगवान प्रसाद उपाध्याय को मेरे पीछे लगा दिया। वे सफल हुए मुझे संगठन का चेहरा बनाने में, मेरी शर्तों पर। कई पत्रकार अधिवेशनों में मैंने उन्हें सुना है। जो पीड़ा आदमी की आपदा के लिए उनके मन में है, वही वेदना पत्रकारों की तकलीफों को लेकर भी है। जिस ईमानदारी से खबर को खास बनाने की कला उनके पास है, उसी निष्ठा से पत्रकारों के कष्ट को उजागर करने में भी है। कई बैठकें पत्रकारों की समस्याओं को लेकर मेरे कार्यालय पर भी हुईं हैं। उस समय मैंने उन्हें पत्रकार बिरादरी के मुखिया के रूप में देखा है। उनका जन्मदिन सोनभद्र जिले के पत्रकार बड़े ही साहित्यिक वातावरण में मनाते हैं। कई परिचर्चाएं होती हैं, काब्य पाठ होता है, पत्रकारों की समस्याओं पर खुलकर बात होती है, फिर बधाई भी।
    बधाई... और बधाई के ढोल-नगाड़े हस्ताक्षर-2013 के हर पन्ने पर बज रहे हैं। श्री द्विवेदी जी की लम्बी उम्र की कामना के साथ प्रणाम।

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