सच की जुबान काट लेने से सत्य गूंगा नहीं हो जाता। ईष्या की तलवारों से भी सच्चाई की हत्या नहीं की जा सकती। हां, लहूलुहान जरूर किया जा सकता है। बेशक यही किया गया। मैं एक बार फिर ‘प्रियंका’ के संरक्षक पं0 हरिशंकर तिवारी के 75 वर्ष की उम्र पूरी करने पर हकीकी अक्षरों का तोहफा भेंट करने की हिमाकत कर रहा हूँ। दरअसल पंडित जी ने सामाजिक, राजनैतिक संघर्षाें के अलावा हजारों बेरोजगारों को किसी न किसी रोजगार से जोड़ा है, जिससे उनके परिवार अमन चैन की जिंदगी बिता रहे हैं। भले ही आज वे उन्हें सम्मान देने से भी कतरा जाते हों। कईयों का तो मैं स्वयं पैरोकार रहा हूँ। कई दस-बीस साला ताजा करोड़पतियों की भी हकीकत से वाकिफ हूँ जो पंडित जी की पालकी ढोया करते थे। उन्होंने कई शिक्षा संस्थाएं खड़ी की है। जो समाज के लिए वरदान साबित हो रही हैं। भाग्य की विडंबना देखिए जिनके लिए संघर्ष किया, अपना भविष्य तक दांव पर लगाया वे ही बेगानों के नातेदार हो गये। उन्होंने स्वाभिमान, सम्मान की लड़ाई में, दीन-दुखी, पीडि़तों को इंसाफ दिलाने की लड़ाई में अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। चुनाव हारना या हरवाना बड़ी बात नहीं, उन्हें इसकी परवाह भी नहीं, लेकिन मानवीय संवेदना को वोटों की गिनती के आंकड़ों में दफना देना क्या न्यायसंगत है? जो लोग उनके विरोध में हवा में अपनी मुट्ठी लहराते हैं, उनमें कई मेरे दफ्तर की सीढि़यां चढ़कर मुझसे फायदा लेने आये और लेकर गये। यहां लिखी जा रही लाइनों का आशय केवल इतना है कि लाभ भी लेंगे और फंुुफकारेंगे भी! इसी को और सहज, सरल भाषा में कहूँ तो कुछ भी बनाना (निर्माण करना) बेहद कठिन है और ध्वंस आसान।
वे आठ साल उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री रहे। भीड़ ने उनके आवास से दफ्तर तक जाम लगा रक्खा था। जिन रिश्तों से कोई पहचान तक नहीं थी वे भी पंडित जी की चैखट चूमने लगे। इस बीच एक बार उनके पार्क रोड, लखनऊ के आवास पर उनके बुलावे पर गया था। उनके विशेष कक्ष में कई लोग बैठे थे उनमें पत्रकार भी थे, एक सजी-संवरी महिला भी थीं। धीरे-धीरे लोग चले गये। मैं और वह महिला रह गये। पंडित जी ने उस महिला की ओर सवालिया निगाहों से देखा। उसने अपने पूरे परिवार का परिचय देने के बाद अपने को पंडित जी की सलहज साबित किया। रिश्ता बेहद करीबी बताने के बाद अलग बात करने का आग्रह किया। पंडित जी बोले, ‘वर्मा जी, जरा आप बाहर बैठिये, अब सलहज हैं तो इनसे बात करनी ही होगी।’ दस मिनट बाद जब वो महिला चलीं गईं तो बोले, ‘बड़ा विशाल संसार है सबकी सुननी होगी।’ सच में वे सबकी सुनते हैं। मैं उनके साथ कभी भी, कहीं भी गया, ऐसा कोई स्थान नहीं मिला, जहां तिवारी जी न रूके हों और लोगों ने उन्हें घेर न लिया हो। वे सभी के आत्मीय हैं। जोर से बोलते शायद ही किसी ने सुना हो।
साधारण धोती-कुत्र्ता पहनने वाले बेहद शिष्ट आदमी से मेरा परिचय तीस-पैंतीस बरसों का है। इस बीच पूर्वांचल की माटी को सरमाथे लगाते आदमी के दर्द से परिचय प्राप्त करते लाखों-लाख बार देखा। जमीन पर पालथी मार कर साधारण पंगत में भोजन करते भी देखा। मंत्री होकर सरकारी अमले के रूआब में भी शालीन ‘हरिशंकर’ देखा। हालांकि जब तक वे मंत्री रहे, मैं उनसे दूरी बनाए रहा। मैंने कभी भी निजी या किसी के स्वार्थ से प्रेरित होकर उन पर दबाव डालने की कोशिश नहीं की, क्यांेंकि मैं जानता था लाभ और स्वार्थ का व्याकरण अत्यंत कठिन होता है। हालांकि उस दौर में मेरे कई अपने मुझसे नाराज हो गये, लेकिन मैं अक्षरों के गांव में, अखबार की छांव में मुफलिसी की चैपाल पर आदमी के रोजनामचे में उलक्षा रहा। मुझे अच्छी तरह याद है 2007 में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले 1 मार्च के ‘प्रियंका’ के मुख्यपृष्ठ पर ‘मुलायम की छुट्टी’ ओर ‘सन्यासी सरगना’ रपटें छापी थीं। उसमें लिखा गया अक्षरशः सच हुआ था। उस सच ने पंडित जी के विश्वास को ठेस पहुंचाई थी फिर भी चुनाव बाद सबसे पहले उन्होंने मुझे याद किया था और उस पर चर्चा भी की थी।
और अन्त में इतना ही कहुंगा पूर्वांचल के इस परशुराम के मन में बहुत कुछ करने की इच्छा है, लेकिन उनके अपने ही उनकी राह में रोड़ा है। यही वजह है कि पूर्वांचल विशेषतः गोरखपुर, बस्ती से पलायन, पराधीनता और पानी (बाढ़) का शाप नहीं हट पा रहा। मेरी बात कटु हो सकती है। लेकिन
जो बात धारदार है, वो रू-ब-रू कहो।
वरना बिखेर देंगे ये जालिम दुभाषिये।।
इन्हीं लाइनों के साथ श्रद्धेय पं0 हरिशंकर तिवारी जी को उनके 76वें जन्मदिवस व 75वीं वर्षगांठ पर प्रणाम!
वे आठ साल उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री रहे। भीड़ ने उनके आवास से दफ्तर तक जाम लगा रक्खा था। जिन रिश्तों से कोई पहचान तक नहीं थी वे भी पंडित जी की चैखट चूमने लगे। इस बीच एक बार उनके पार्क रोड, लखनऊ के आवास पर उनके बुलावे पर गया था। उनके विशेष कक्ष में कई लोग बैठे थे उनमें पत्रकार भी थे, एक सजी-संवरी महिला भी थीं। धीरे-धीरे लोग चले गये। मैं और वह महिला रह गये। पंडित जी ने उस महिला की ओर सवालिया निगाहों से देखा। उसने अपने पूरे परिवार का परिचय देने के बाद अपने को पंडित जी की सलहज साबित किया। रिश्ता बेहद करीबी बताने के बाद अलग बात करने का आग्रह किया। पंडित जी बोले, ‘वर्मा जी, जरा आप बाहर बैठिये, अब सलहज हैं तो इनसे बात करनी ही होगी।’ दस मिनट बाद जब वो महिला चलीं गईं तो बोले, ‘बड़ा विशाल संसार है सबकी सुननी होगी।’ सच में वे सबकी सुनते हैं। मैं उनके साथ कभी भी, कहीं भी गया, ऐसा कोई स्थान नहीं मिला, जहां तिवारी जी न रूके हों और लोगों ने उन्हें घेर न लिया हो। वे सभी के आत्मीय हैं। जोर से बोलते शायद ही किसी ने सुना हो।
साधारण धोती-कुत्र्ता पहनने वाले बेहद शिष्ट आदमी से मेरा परिचय तीस-पैंतीस बरसों का है। इस बीच पूर्वांचल की माटी को सरमाथे लगाते आदमी के दर्द से परिचय प्राप्त करते लाखों-लाख बार देखा। जमीन पर पालथी मार कर साधारण पंगत में भोजन करते भी देखा। मंत्री होकर सरकारी अमले के रूआब में भी शालीन ‘हरिशंकर’ देखा। हालांकि जब तक वे मंत्री रहे, मैं उनसे दूरी बनाए रहा। मैंने कभी भी निजी या किसी के स्वार्थ से प्रेरित होकर उन पर दबाव डालने की कोशिश नहीं की, क्यांेंकि मैं जानता था लाभ और स्वार्थ का व्याकरण अत्यंत कठिन होता है। हालांकि उस दौर में मेरे कई अपने मुझसे नाराज हो गये, लेकिन मैं अक्षरों के गांव में, अखबार की छांव में मुफलिसी की चैपाल पर आदमी के रोजनामचे में उलक्षा रहा। मुझे अच्छी तरह याद है 2007 में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले 1 मार्च के ‘प्रियंका’ के मुख्यपृष्ठ पर ‘मुलायम की छुट्टी’ ओर ‘सन्यासी सरगना’ रपटें छापी थीं। उसमें लिखा गया अक्षरशः सच हुआ था। उस सच ने पंडित जी के विश्वास को ठेस पहुंचाई थी फिर भी चुनाव बाद सबसे पहले उन्होंने मुझे याद किया था और उस पर चर्चा भी की थी।
और अन्त में इतना ही कहुंगा पूर्वांचल के इस परशुराम के मन में बहुत कुछ करने की इच्छा है, लेकिन उनके अपने ही उनकी राह में रोड़ा है। यही वजह है कि पूर्वांचल विशेषतः गोरखपुर, बस्ती से पलायन, पराधीनता और पानी (बाढ़) का शाप नहीं हट पा रहा। मेरी बात कटु हो सकती है। लेकिन
जो बात धारदार है, वो रू-ब-रू कहो।
वरना बिखेर देंगे ये जालिम दुभाषिये।।
इन्हीं लाइनों के साथ श्रद्धेय पं0 हरिशंकर तिवारी जी को उनके 76वें जन्मदिवस व 75वीं वर्षगांठ पर प्रणाम!
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