ईश्वर से या चैरासी करोड़ देवी-देवताओं से मेरी मुलाकात कभी नहीं हुई। मिले तो हमेशा आप लोग। आप ही सहोदर हो, देव हो और बिरादर भी। सुख में, दुख में और अक्षरों के गांव-गलियारे में आपने ही हाथ थामा। आज ‘अखबार मेला’ के मण्डप में आप सभी के चरण पखारते हुए धन्य हुआ। आप सभी का स्वागत करते हुए मैं राम प्रकाश वरमा अपने सहयोगियों सहित प्रणाम करता हूँ। आपका आशीर्वाद पाने के बाद यहां पर बैठे हुए माननीय अग्रज का इस्तकबाल आप सबकी ओर से करता हूँ और चाहुँगा कि इन राजर्षियों, ऋषियों के सम्मान में, खैरमकदम में आप सब इतनी जोरदार तालियां बजायें कि मेला मण्डप और उसके ऊपर का आसमान भी खिलखिला कर हंसते हुए अदब से आदाब करें।..... लखनऊ की तबियत और तरबियत बिलाशक नवाबी है, सो रूआब, शवाब और कबाब को सुर्खियां हासिल हैं, मगर मेले-ठेलों के शायराना ठहाके मजाज की ‘आवारा’ यादें ताजा करते हैं, तो नागर जी की ‘कोठे वालियों’ से भी आपकी मुलाकात कराते हैं। ‘अखबार मेला’ लखनऊ की सरजमीं पर लगाने का हौसला ओर प्रेरणां अपने गुरूवर आचार्य दुलारे लाल भार्गव के ‘कवि-कोविद-क्लब’ की पावन स्मृतियों से मिला। खासकर छोटे और मंझोले अखबारों/पत्रिकओं के प्रति आम सोंच से अलग उनकी असलियत से आमना-सामना कराने के लिए यह मेला आयोजित किया गया है। इसलिए भी कि गांधी, गणेश (शंकर विद्यार्थी) और गंगाधर की विरासत अभी चुकी नहीं है। दो-चार पन्नों के अखबार गली-मुहल्लों की खबरों के अलावा सचबयानी का हलफनामा होते हैं। पत्रिकाएं प्रेमचन्द की ‘ईदगाह’ से लेकर के.पी. सक्ेसना के लखनउवा आंगन तक की हकीकत बयां करती हैं। और भी बेलाग कहूं तो दो पन्नों में लोकतंत्र के झूठे दर्प का रोजनामचा छपा होता है। दरोगा से लेकर दागदारों की हकीकत से जलते हुए अक्षर इंसाफ के जयकारे लगाते हुए खबर की शक्ल में पढ़ने को मिलते हैं। कटरों-कस्बों की गंधाती जिंदगी और उनसे पैदा होने वाले कीमती कचरे का नरक से सामना करातीं खबरों की पूरी जमात का दर्द पढ़ा जा सकता है।
गो कि इन अखबारों/पत्रिकाओं में पसीना बेचकर अक्षरों को आलू, नमक और आटे की मंडी के ताजा भाव में बदलने के करतब करने पड़ते हैं। चुनाचे छोटे-मंझोले अखबारों/पत्रिकाओं के बेरंग या बेनूर होेने से उसकी गरिमा या पठनीयता कम नहीं होती। और आम पढ़े-लिखे अभिजातों के दिलो-दिमाग में बैठा यह भरम कि छोटे अखबार सरकारी विज्ञापन पाने की गरज से सौ-पचास (फाइल काॅपी) की संख्या में छापे जाते हैं, यह कोरी कल्पना है। सरकारें (केन्द्र/प्रदेश) छोटे पत्र/पत्रिकाओं को विज्ञापन देने के नाम पर तमाम ऐसे नियमों को लादे है जिसे पूरा करने में छोट प्रकाशक/संपादक हलकान रहते हैं। सूचीबद्धता के नाम पर भ्रष्टाचार का, शोषण का पूरा कुनबा जनसम्पर्क विभाग में खा पीकर अघा रहा है। सूचीबद्ध छोटे अखबारों (साप्ताहिक/पाक्षिक मासिक) को भी साल भर में महज तीन विज्ञापन जारी किये जाते हैं, जिनकी अधिकतम दर 6 हजार है। डीएवीपी की दरों पर जारी किए जाने वाले विज्ञापनों की अपनी अलग दास्तां है। ऐसे हालातों में अभावों से प्रतिस्पर्धा करनेवाले भला पीडि़त और शोषितों की आवाज कैसे बनेंगे?
इससे भी खतरनाक हालात पत्रकार मान्यता के हैं। जहां मान्यता समिति का बरसों से कोई अता-पता नहीं, वहीं (लघु-मध्यम पत्रों के) सम्पादकों को पहचान-पत्र तक नहीं जारी किये जाते। मान्यता प्राप्त धमाकाधुनी पत्रकारों की एक लम्बी जमात (अखबारों/इं.चैनलों में छोड़कर) बरसों से स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सरकारी सुविधाओं के साथ अर्थ हिंसा के धंधे में अपना ठीहा जमाए है? प्रेस क्लब और दो जंग खाएं 19वीं शताब्दी के संगठन और उनके सरगना इसकी गवाही हैं। वहीं छोटे अखबार वालों को खबरें इकट्ठी करने तक के हक नहीं दिये जाते? यहां एक बात प्रदेश की समाजवादी सरकार, उसके मुखिया और तमाम जनप्रतिनिधियों से कहनी तर्कसंगत होगी कि आये दिन बड़े अखबारों के झूठे और अनर्गल प्रचार से उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ता है, तो क्यों नहीं छोटे-मंझोले अखबारों को बढ़ावा देने की पहल की जाती? यदि ऐसा किया जाये तो सरकारी विकास का सच झोपडि़यों से जंगल तक अपनी पहुंच बना सकेगा। और अन्त में बेटियों की बात, जो कल की मां हैं। नई पीढ़ी का भविष्य हैं। उनकी सुरक्षा के साथ सम्मान और शिक्षा पर बाकायदा जन जागरण अभियान चलाना होगा। दरअसल मानवीय संवेदना की सरस्वती लुप्त हो गई है, उसे तलाशना होगा और उसे पूर्वजों की गंगा, परम्पराओं की यमुना से मिलाना होगा। उस पर सामुहिक सरोकारों के सेतु का निर्माण करना होगा।
इन्हीं संकल्पों के साथ आभार। प्रणाम।
गो कि इन अखबारों/पत्रिकाओं में पसीना बेचकर अक्षरों को आलू, नमक और आटे की मंडी के ताजा भाव में बदलने के करतब करने पड़ते हैं। चुनाचे छोटे-मंझोले अखबारों/पत्रिकाओं के बेरंग या बेनूर होेने से उसकी गरिमा या पठनीयता कम नहीं होती। और आम पढ़े-लिखे अभिजातों के दिलो-दिमाग में बैठा यह भरम कि छोटे अखबार सरकारी विज्ञापन पाने की गरज से सौ-पचास (फाइल काॅपी) की संख्या में छापे जाते हैं, यह कोरी कल्पना है। सरकारें (केन्द्र/प्रदेश) छोटे पत्र/पत्रिकाओं को विज्ञापन देने के नाम पर तमाम ऐसे नियमों को लादे है जिसे पूरा करने में छोट प्रकाशक/संपादक हलकान रहते हैं। सूचीबद्धता के नाम पर भ्रष्टाचार का, शोषण का पूरा कुनबा जनसम्पर्क विभाग में खा पीकर अघा रहा है। सूचीबद्ध छोटे अखबारों (साप्ताहिक/पाक्षिक मासिक) को भी साल भर में महज तीन विज्ञापन जारी किये जाते हैं, जिनकी अधिकतम दर 6 हजार है। डीएवीपी की दरों पर जारी किए जाने वाले विज्ञापनों की अपनी अलग दास्तां है। ऐसे हालातों में अभावों से प्रतिस्पर्धा करनेवाले भला पीडि़त और शोषितों की आवाज कैसे बनेंगे?
इससे भी खतरनाक हालात पत्रकार मान्यता के हैं। जहां मान्यता समिति का बरसों से कोई अता-पता नहीं, वहीं (लघु-मध्यम पत्रों के) सम्पादकों को पहचान-पत्र तक नहीं जारी किये जाते। मान्यता प्राप्त धमाकाधुनी पत्रकारों की एक लम्बी जमात (अखबारों/इं.चैनलों में छोड़कर) बरसों से स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सरकारी सुविधाओं के साथ अर्थ हिंसा के धंधे में अपना ठीहा जमाए है? प्रेस क्लब और दो जंग खाएं 19वीं शताब्दी के संगठन और उनके सरगना इसकी गवाही हैं। वहीं छोटे अखबार वालों को खबरें इकट्ठी करने तक के हक नहीं दिये जाते? यहां एक बात प्रदेश की समाजवादी सरकार, उसके मुखिया और तमाम जनप्रतिनिधियों से कहनी तर्कसंगत होगी कि आये दिन बड़े अखबारों के झूठे और अनर्गल प्रचार से उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ता है, तो क्यों नहीं छोटे-मंझोले अखबारों को बढ़ावा देने की पहल की जाती? यदि ऐसा किया जाये तो सरकारी विकास का सच झोपडि़यों से जंगल तक अपनी पहुंच बना सकेगा। और अन्त में बेटियों की बात, जो कल की मां हैं। नई पीढ़ी का भविष्य हैं। उनकी सुरक्षा के साथ सम्मान और शिक्षा पर बाकायदा जन जागरण अभियान चलाना होगा। दरअसल मानवीय संवेदना की सरस्वती लुप्त हो गई है, उसे तलाशना होगा और उसे पूर्वजों की गंगा, परम्पराओं की यमुना से मिलाना होगा। उस पर सामुहिक सरोकारों के सेतु का निर्माण करना होगा।
इन्हीं संकल्पों के साथ आभार। प्रणाम।
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