भारतीय मीडिया के आलीशान दफ्तरों की जगमगाती दीवारांे पर शुभ-लाभ लिखकर उसके सामने कीमती लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां सजाकर उन्हें प्रणाम करने का चलन आम है। माता सरस्वती, गांधी, पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसों के चित्र खास-खास मौकों के लिए ‘मोर्ग’ (अख़बार के स्टोर) में बंद कर रखे जाते हैं। हिंदी पत्रकारिता के मंगल नक्षत्र आचार्य दुलारे लाल भार्गव व आर0के0 करंजिया का नाम भी बाजारवाद की कोख से जन्मा नवमीडिया नहीं ही जानता होगा। इसी मीडिया उद्योग की काॅलोनी में सम्पादक/महाप्रबन्धक की नाम पट्टिका कमाऊपूत के नाम से कुख्यात है। इन्हीं कुख्यातों की साजिश ने भारतीय राजनीति, आस्था, आध्यात्म, सामाजी ताने-बाने, रिश्तों के मूल्य, आदमी की पीड़ा के सरोकार को झूठ के चैराहे पर खड़ा कर दिया है। इसी चैराहे पर अपराध के आतंक, महिलाओं की नाप जोख, महाजनों की लूट-खसोट, खून और खुराक के रोने पीटने के साथ नव खबरचियों का बेसुरा हल्ला-गुल्ला बेढंगा जाम लगाए है।
वक्त आ गया है कि हर छोटा-मंझोला अख़बार/पत्रिका खुल्लमखुल्ला आदमी की पीड़ा उजागर करना और अपने आस-पास टहलते झूठ का खुलासा करना शुरू कर दे। हर पत्रकार गांधी, गणेश के सच का प्रचार करने पर लग जाये, क्योंकि अब हमारे सामने सिर्फ दो ही रास्ते हैं। सामने फैला जगमगाता बाजार या निश्चल मौत। दोनों में से एक को चुनना ही होगा। उससे पहले दोनों को समझना भी होगा। विज्ञापनों पर, पाठकों के दिलो-दिमाग पर रंग-बिरंगे अखबारों वाले बड़े घरानों के अलावा नए उग आए कुबेरों का कब्जा बेहद मजबूत है। इनके साथ सरकारी तंत्र भी अपना दोजख भरने की जल्दी में है। दोनों कुनबों के किस्से मुलाहिजा हों।
‘अख़बार मेला’ के मौके पर आपके अख़बार ‘प्रियंका’ का विशेषांक छापा जा रहा था। पांच-सात हजार करोड़ का व्यापार करनेवाले बिल्डर्स से एक रंगीन विज्ञापन की मांग की गई। सीधे फोन पर जवाब मिला, ‘हम पर बेहद दबाव होता है सभी के लिए कुछ न कुछ करना पड़ता है। हमने आपको हर साल एक विज्ञापन देने का अपना वायदा हमेशा निभाया है। अब मजबूर न करें।’ इसी कंपनी के रंगीन विज्ञापन बड़े अखबारों में आये दिन छपते रहते हैं। करोड़ों रूपया फिजूलखर्ची में भी उड़ता है, लेकिन आपके अखबार को टरका दिया गया। इसी तरह एक करोड़ से लेकर चार-पांच सौ करोड़ के व्यापार करनेवालों ने हमारा फोन उठाना बंद कर दिया या हजार-पांच सौ का विज्ञापन देने की पेशकश की। सरकारी तंत्र का हाल पहले से ही बेहाल है। एक सरकारी विभाग में तैनात एक उच्च अधिकारी ने हमारा फोन लगातार काटा तो मैं खुद जा धमका उनके दफ्तर, वे अपना दफ्तर छोड़कर पीछे से निकल गये शायद सीसी टीवी कैमरे में उन्होंने मुझे देख लिया था। ऐसे ही सूचना निदेशक से मुलाकात में उन्होंने आश्वासन दिया और विज्ञापन मांग-पत्र पर अपने नीचे वालों को लिखा, लेकिन वहां किसी नये शासनादेश का रोना, फिर सीए प्रसार, व आरएनआई प्रमाण-पत्र की मांग उसके बाद फाइल चलने लगी अभी तक चल रही है। कब तक चलेगी? विभागीय बेईमान जाने। यह आरोप नहीं सच्चाई है और गहरी जांच का विषय है। और यह विज्ञापन न मिलने पर खिसियाहट मिटाते हुए अक्षरों का गुस्सा भी नहीं है, बल्कि बाजार और सरकार की हकीकत है। हमें इसे बड़ी गम्भीरता से ईमानदारी से समझना होगा। दरअसल हमारी पहचान पाठकों से सीमित संख्या में है या सीमित क्षेत्र में है। वह भी सीरिया, अमेरिका, पाकिस्तान या मोदी सरकार की चिंता से ग्रस्त छपे पन्नों से है। हम अपने आस-पास से बेखबर रहते हैं। हमारे अख़बार हरहू-निरहू-घुरहू के लगातार शराब खाने जाकर बर्बाद होने को नजर-अंदाज कर जाते हैं। शराबखाने की बदगुमानियों को खबर नहीं बनाते। मोहल्ले में, गली में शोहदे अच्छी खासी भली लड़की को इलाके की कीमती औरत बना डालते हंै। हम अपने अख़बार में उस घटना को सुर्खियों में नहीं ला पाते। दरोगा, सफाईकर्मी, दूधवाले, छुट्टा जानवर, गंदगी, पानी, बनिया कोई भी हमारे अख़बार में जगह नहीं पाता। हम सिर्फ विज्ञापनों के पीछे भागते हैं। हमारी शोहरत विज्ञापन मांगने वाले भिखारियों मंे शुमार है।
‘अख़बार मेला’ आयोजन के दौरान मेरी मुलाकातें हर तबके के लोगों से हुईं। अधिकतर लोगों ने ‘प्रियंका’ देखे बगैर ही कह दिया अच्छा वो छोटे पन्नोंवाला या फाइल काॅपी छापने वाला या फिर वो तो सरकारी विज्ञापनों के लिए छपते हैं। शर्मिन्दगी भी हुई और अपनी असलियत से सामना भी हुआ। सच कहूं तो हमारे बीच भी कलम से महरूम, खबर के व्याकरण से अपरिचित, अक्षरों के जोड़-घटाने से अंजान और आसुरी शक्तियों की घुसपैठ हो गई है। इन्हें आदमियत की,मानवीयता की पीड़ाओं से और बाजार में युद्धरत कौरवों से परिचित कराना होगा। इसी परिचय के परचम का नाम है, ‘अख़बार मेला’। यह कोई संगठन नहीं है वरन् पाठकों के बीच अपनी पहुंच बनाने का साधन है। हमारा मानना है, इसे हर जिले में, हर मण्डल में सक्षम अख़बार आयोजित करे तो झूठ का संहार किया जा सकता है। फिर पत्रकार तो भरोसे की सीटी बजाने वाला चैकीदार है। हमें पूरी ईमानदारी से चैकीदारी करते हुए पाठकों के बीच भरोसा कायम करना होगा। पहचान बनानी होगी। भिखारियों के मोहल्ले से बाहर आना होगा। वरना... मौत... निश्चित है।
वक्त आ गया है कि हर छोटा-मंझोला अख़बार/पत्रिका खुल्लमखुल्ला आदमी की पीड़ा उजागर करना और अपने आस-पास टहलते झूठ का खुलासा करना शुरू कर दे। हर पत्रकार गांधी, गणेश के सच का प्रचार करने पर लग जाये, क्योंकि अब हमारे सामने सिर्फ दो ही रास्ते हैं। सामने फैला जगमगाता बाजार या निश्चल मौत। दोनों में से एक को चुनना ही होगा। उससे पहले दोनों को समझना भी होगा। विज्ञापनों पर, पाठकों के दिलो-दिमाग पर रंग-बिरंगे अखबारों वाले बड़े घरानों के अलावा नए उग आए कुबेरों का कब्जा बेहद मजबूत है। इनके साथ सरकारी तंत्र भी अपना दोजख भरने की जल्दी में है। दोनों कुनबों के किस्से मुलाहिजा हों।
‘अख़बार मेला’ के मौके पर आपके अख़बार ‘प्रियंका’ का विशेषांक छापा जा रहा था। पांच-सात हजार करोड़ का व्यापार करनेवाले बिल्डर्स से एक रंगीन विज्ञापन की मांग की गई। सीधे फोन पर जवाब मिला, ‘हम पर बेहद दबाव होता है सभी के लिए कुछ न कुछ करना पड़ता है। हमने आपको हर साल एक विज्ञापन देने का अपना वायदा हमेशा निभाया है। अब मजबूर न करें।’ इसी कंपनी के रंगीन विज्ञापन बड़े अखबारों में आये दिन छपते रहते हैं। करोड़ों रूपया फिजूलखर्ची में भी उड़ता है, लेकिन आपके अखबार को टरका दिया गया। इसी तरह एक करोड़ से लेकर चार-पांच सौ करोड़ के व्यापार करनेवालों ने हमारा फोन उठाना बंद कर दिया या हजार-पांच सौ का विज्ञापन देने की पेशकश की। सरकारी तंत्र का हाल पहले से ही बेहाल है। एक सरकारी विभाग में तैनात एक उच्च अधिकारी ने हमारा फोन लगातार काटा तो मैं खुद जा धमका उनके दफ्तर, वे अपना दफ्तर छोड़कर पीछे से निकल गये शायद सीसी टीवी कैमरे में उन्होंने मुझे देख लिया था। ऐसे ही सूचना निदेशक से मुलाकात में उन्होंने आश्वासन दिया और विज्ञापन मांग-पत्र पर अपने नीचे वालों को लिखा, लेकिन वहां किसी नये शासनादेश का रोना, फिर सीए प्रसार, व आरएनआई प्रमाण-पत्र की मांग उसके बाद फाइल चलने लगी अभी तक चल रही है। कब तक चलेगी? विभागीय बेईमान जाने। यह आरोप नहीं सच्चाई है और गहरी जांच का विषय है। और यह विज्ञापन न मिलने पर खिसियाहट मिटाते हुए अक्षरों का गुस्सा भी नहीं है, बल्कि बाजार और सरकार की हकीकत है। हमें इसे बड़ी गम्भीरता से ईमानदारी से समझना होगा। दरअसल हमारी पहचान पाठकों से सीमित संख्या में है या सीमित क्षेत्र में है। वह भी सीरिया, अमेरिका, पाकिस्तान या मोदी सरकार की चिंता से ग्रस्त छपे पन्नों से है। हम अपने आस-पास से बेखबर रहते हैं। हमारे अख़बार हरहू-निरहू-घुरहू के लगातार शराब खाने जाकर बर्बाद होने को नजर-अंदाज कर जाते हैं। शराबखाने की बदगुमानियों को खबर नहीं बनाते। मोहल्ले में, गली में शोहदे अच्छी खासी भली लड़की को इलाके की कीमती औरत बना डालते हंै। हम अपने अख़बार में उस घटना को सुर्खियों में नहीं ला पाते। दरोगा, सफाईकर्मी, दूधवाले, छुट्टा जानवर, गंदगी, पानी, बनिया कोई भी हमारे अख़बार में जगह नहीं पाता। हम सिर्फ विज्ञापनों के पीछे भागते हैं। हमारी शोहरत विज्ञापन मांगने वाले भिखारियों मंे शुमार है।
‘अख़बार मेला’ आयोजन के दौरान मेरी मुलाकातें हर तबके के लोगों से हुईं। अधिकतर लोगों ने ‘प्रियंका’ देखे बगैर ही कह दिया अच्छा वो छोटे पन्नोंवाला या फाइल काॅपी छापने वाला या फिर वो तो सरकारी विज्ञापनों के लिए छपते हैं। शर्मिन्दगी भी हुई और अपनी असलियत से सामना भी हुआ। सच कहूं तो हमारे बीच भी कलम से महरूम, खबर के व्याकरण से अपरिचित, अक्षरों के जोड़-घटाने से अंजान और आसुरी शक्तियों की घुसपैठ हो गई है। इन्हें आदमियत की,मानवीयता की पीड़ाओं से और बाजार में युद्धरत कौरवों से परिचित कराना होगा। इसी परिचय के परचम का नाम है, ‘अख़बार मेला’। यह कोई संगठन नहीं है वरन् पाठकों के बीच अपनी पहुंच बनाने का साधन है। हमारा मानना है, इसे हर जिले में, हर मण्डल में सक्षम अख़बार आयोजित करे तो झूठ का संहार किया जा सकता है। फिर पत्रकार तो भरोसे की सीटी बजाने वाला चैकीदार है। हमें पूरी ईमानदारी से चैकीदारी करते हुए पाठकों के बीच भरोसा कायम करना होगा। पहचान बनानी होगी। भिखारियों के मोहल्ले से बाहर आना होगा। वरना... मौत... निश्चित है।
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